हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #123 ☆मनाली यात्रा … संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  मनाली यात्रा में रचित  “संतोष के दोहे …  । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 124 ☆

☆ मनाली यात्रा … संतोष  के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा ☆

पेड़ उचककर कह रहा, मुझसे कौन महान

गिरि के सीने में खड़ा, जाने सकल जहान।।

 

मुझसे ही मौसम चले, देता सर्द बयार

मैं तूफां को रोकता, मुझसे करिए प्यार।।

 

चीड़ समुन्नत नीलगिरि, शीशम  साल चिनार

पर्वत की शोभा यही, मौसम के हकदार।।

 

वृक्ष बिना सूना लगे, गिरि का विस्तृत भाल

जीवन औषधि दे यही, करता मालामाल।।

 

शैल ऊँचाई दे रहा, पर एकाकी ठाँव

पेड़ों की यह संपदा, देती शीतल छाँव।।

 

कार्बन अवशोषित करें, हमें हवा दें शुद्ध

वाहक वर्षा के यही, समझें सभी प्रबुद्ध।।

 

जीवों को देते शरण, करें खूब उपकार

पेड़ लगाकर नित नए, करें प्रकृति से प्यार।।

 

खूब मिले “संतोष” धन, चलो प्रकृति की ओर

पेड़ लगाकर ही मिले, हमें सुहानी भोर।।

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #127– रूपरेषा…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 127 – विजय साहित्य ?

☆ रूपरेषा…!  कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

(गालगागा गालगागा, गालगागा,गालगा.)

जीवनाची रूपरेषा,घेतली उमजून  मी

भावनांची वेषभूषा, पाहिली बदलून मी…! १

 

काळजाची भावबोली,‌बोलली परतायचे

यातनांची नाच गाणी, साहिली उकलून मी..! २

 

या दिलाची बाग तीही, सारखी भुलवायची

यौवनाची प्रेमवाणी, ऐकली उमलून मी..! ३

 

चाळली मी , प्रेम पाने, घेतले वाचायला

जिंदगानी आठवांची, काढली नखलून मी…! ४

 

तापलेल्या वाळवंटी, का मने हरखायची ?

पाजले पाणी कुणी ना , बावडी समजून मी..! ५

 

चाललो चालीत माझ्या, संगतीला आप्त रे

चाल माझ्या सोयऱ्यांची , नेणली परजून ‌मी..! ६

 

लेखणीने आज माझ्या, अंतरी जपला वसा

अंतरीची भाव बोली , छेडली जुळवून मी..! ७

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 102 ☆ बरसों बाद… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  “बरसों बाद…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 102 ☆

☆ बरसों बाद… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

बरस दर बरस समय तेजी से बीतता चला जा रहा है। जिसने समय के महत्व को समझा उसने सब कुछ पा लिया और जो मनोरंजन की दुनिया में खोया रहा वो आज भी उसी मोड़ पर इंतजार करता हुआ देखा जा सकता है। आज चर्चा इस बात पर नहीं कि समय का सदुपयोग कैसे करें बल्कि एक नया कथानक है कि जब दो सफल लोग मिलते हैं तो  एक दूसरे से किस प्रकार की अपेक्षा रखते हैं।

ट्रिन- ट्रिन घण्टी बज रही थी। मोबाइल उठाते हुए रीमा ने कहा हेलो…

उधर से आवाज आयी, “रीमा जी मैं संतोष बोल रहा हूँ।” आज मेरी पुस्तकों का विमोचन है आप अवश्य आइयेगा। नेहा जी आयी हुईं हैं। उन्होंने खासतौर पर आपको आमंत्रित करने के लिए कहा है। हम सभी आपका इंतजार करेंगे।

रीमा ने कहा, “सर्वप्रथम पुस्तकों के विमोचन हेतु आपको हार्दिक बधाई। नेहा से मिलने मैं जरूर आऊँगी।”

मन ही मन सोचते हुए उन्होंने कहा आज तो बच्चों को लेकर बाजार जाना था। अब क्या करूँ? कोई बात नहीं अगले रविवार को चली जाऊँगी, सोचते हुए वो तेजी से काम निपटाने लगीं।

कुछ ही देर में लाल बार्डर की साड़ी पहन कर बड़ी सी बिंदी माथे पर सजाए पूरी मैचिंग के साथ वे मिलने की खुशी समेटे हुए चल दीं।

तभी नेहा का फोन उनके पास आया दीदी आप जल्दी आ जाना क्योंकि कार्यक्रम शुरू होने पर बातचीत नहीं हो पाएगी।

हाँ नेहा मैं पहुँच रही हूँ, तुम समय पर आ जाना।

हाँ दीदी मैं पहुँच जाऊँगी, मीठे स्वर से नेहा ने कहा।

15 मिनट बाद रीमा कार्यक्रम स्थल में पहुँच चुकी थी। वहाँ से उत्सुकता पूर्वक उसने फोन लगाया। बदले में नेहा ने कहा दीदी कुछ लोग आ गए हैं बस थोड़ी देर से  आती हूँ।

लगभग 2 घण्टे बीत जाने के बाद भी जब नेहा नहीं आयी तो रीमा जी सोचने लगीं देखो मैं तो अपना जरूरी कार्य एक हफ्ते के छोड़कर इससे मिलने आयीं हूँ और इसने शायद अपना रुतबा दिखाने के लिए मुझे बुलाया था।

कार्यक्रम में सभी लोग नेहा जी… करते हुए उनका गुणगान कर रहे थे और रीमा बार -बार अपने हाथों की घड़ी देखे जा रही थी। तभी नेहा ने मुस्कुराते हुए हॉल में कदम रखा, सभी लोग नेहा जी आ गयीं कहते हुए फूल माला लेकर दौड़ पड़े।

नेहा ने आगे आकर रीमा के पैर छुए और कहा सबके आने से देर हो गयी।

मुस्कुराते हुए रीमा ने कहा कोई बात नहीं। मन ही मन वो समझ चुकीं थीं कि नेहा अब नेहा जी बन चुकीं हैं उससे भूल हो गयी थी वो तो उसी बरसो पुरानी नेहा से मिलने जो आ गयी थी।

ऐसा अक्सर होता है जब दूसरों से ज्यादा अपेक्षाएँ हम अपने स्तर पर बना लेते हैं।  हमें सोचना होगा बदलाव जीवन का बड़ा सत्य है। आज को जिएँ तभी कल सफल होगा। मिलना- जुलना तो एक बहाना है क्या आपने कभी सोचा कि त्रेतायुग का दोस्ती का उदाहरण अक्सर दिया जाता है किंतु वहाँ भी सुदामा ही  द्वारिकाधीश के पास गए थे वे नहीं आए थे। सो दोस्ती बराबरी में ही निभती है या तो बढ़ते रहो या उचित समय पर राहें बदल लो।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, chhayasaxena2508@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 161 ☆ कविता – हथियार बना गर्व… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण एवं विचारणीय कविता – हथियार बना गर्व… ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 161 ☆

? कविता – हथियार बना गर्व… ?

हर तरफ

गर्व बिखरा पड़ा है

लाल नीला पीला हरा गर्व

लाउड गर्व ,

ताजा गर्व ,  

पुरखों वाला पुराना गर्व

बेदाग गर्व

धब्बेदार गर्व

असरदार गर्व

फरमे बरदार गर्व

किताबों में बंद ,

उजागर गर्व

इमारतों में कैद

झाड़ फानूसो पर लटका गर्व

फांसी के तख्ते पर झूलता गर्व,

वो याद करता

वो भूलता गर्व

हथियार बना गर्व

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #116 – विकल्प ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा-  “विकल्प।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 116 ☆

☆ लघुकथा- विकल्प ☆ 

दिसंबर की ठण्डी रात को अचानक पानी बरसने पर माँ की नींद खुल गई, “तूझे कहा था गेहूँ धो कर छत पर मत सुखा, पर, तू मानती कहाँ हैं।”

” तो क्या करती? इस में धनेरिये पड़ गए थे।” 

“अब सारे गेहूँ गीले हो रहे हैं।”

” तो मैं क्या करूँ?” बेटी खीज कर बोली, “मेरा कोई काम आप को पसंद नहीं आता। ऐसा क्यों नहीं करते- मेरा गला घोंट दो। आप को शांति मिल जाएगी।”

” तूझ से बहस करना ही बेकार है,” माँ जोर से बोली। तभी पिता की नींद खुल गई, “अरे भाग्यवान! क्या हुआ ? रात को भी….”

” पानी बरस रहा है। छत पर गेहूँ गीले हो रहे है। इस को कहा था- गेहूँ  धो कर मत सूखा, पर यह माने तब ना,” कहते हुए माँ ने वापस अपनी बेटी की बुराई करना शुरू कर दिया। 

मगर पिता चुपचाप उठे। बोले, “चल ‘बेटी’! उठ। छत पर चलते हैं,” कहते हुए पिता ने छाता उठा कर खोल लिया।

छाता खुलते ही माँ-बेटी की जुबानी जंग बंद हो गई।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

28/12/2021

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – opkshatriya@gmail.com

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 112 ☆ कविता – महान ग्रंथों की पहेलियाँ… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 112 ☆

☆ कविता – महान ग्रंथों की पहेलियाँ… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

1.
रामायण के कौन रचियता, बच्चो बोलो नाम।
अद्भुत रचना की है उनने, दशरथनंदन राम।।

2.
कृष्ण, अर्जुन संवाद हुआ है, वह ग्रंथ है कौन।
शिक्षा, ज्ञान, कर्म बतलाती, बिल्कुल रहकर मौन।।

3.
तुलसीदास ने ग्रंथ लिखा है, उसका नाम बताओ।
राम की जिसमें कथा निराली, सच की विजय सुनाओ।।

4.
वेद हैं कितने प्यारे बच्चो, संख्या तो बतलाओ।
सदा सत्य का ज्ञान कराएँ, अलग-अलग बतलाओ।।

5.
सबसे पहला वेद कौन है, जल्दी बोलो नाम।
जीवन का सदमार्ग बताए, आए जनहित काम।।

6.
वेदों के कुल मंत्र हैं कितने, जिसमें अदभुत ज्ञान।
अथक अर्थ हैं उसमें बच्चो, सुख पाते हैं कान।।

7.
वेदों में श्लोक हैं कितने, संख्या जल्दी बतलाओ।
वेदव्यास ने किया संपादन, कुछ तो ज्ञान कराओ।।

8.
महाभारत है ग्रंथ पुराना, उसके लेखक कौन।
शिक्षा, नीति , ज्ञान सिखाए, अब हैं बिल्कुल मौन।।

9.
सत्यार्थ प्रकाश ग्रंथ लिखा है, उनका बोलो नाम।
वेदों का सब सार बताए, किए देश हित काम।।

10.
धर्मशास्त्र इतिहास लिख गए, भारत रत्न मिला है।
नाम बताओ उनका बच्चो, देश का किया भला है।।

11.
कितने हैं पुराण लिखे गए, संख्या जल्दी बतलाओ।
देवों की सब कथा कहानी, कुछ तो आज हमें सुनाओ।।

 

उत्तर – 1.महर्षि बाल्मीकि जी, 2.श्रीमद्भागवत गीता,3. रामचरित मानस, 4.चार वेद( ऋग्वेद, अर्थववेद, यजुर्वेद, सामवेद), 5. ऋग्वेद, 6. तेईस हजार चार सौ उनासी, 7. चार लाख, 8.महर्षि वेदव्यास जी, 9.महर्षि दयानंद , 10.डॉ पी. वी. काणे जी , 11. अट्ठारह

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

Rakeshchakra00@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #111 – ती…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 111 – ती…! ☆

आजपर्यंत तिनं

बरंच काही साठवून ठेवलंय ..

ह्या… चार भिंतींच्या आत

जितकं ह्या चार भिंतींच्या आत

तितकंच मनातही…

कुणाला कळू नये म्हणून

ती घरातल्या वस्तूप्रमाणे

आवरून ठेवते…

मनातला राग..,चिडचिड,

अगदी तिच्या इच्छा सुध्दा..,

रोजच्या सारखाच

चेहऱ्यावर आनंद आणि समाधानाचा

खोटा मुखवटा लाउन

ती फिरत राहते

सा-या घरभर

कुणीतरी ह्या

आवरलेल्या घराचं

आणि आवरलेल्या मनाचं

कौतुक करावं

ह्या एकाच आशेवर…!

© सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#134 ☆ किसे पता था….… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण रचना “किसे पता था….…”)

☆  तन्मय साहित्य # 134 ☆

☆ किसे पता था….… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

कब सोचा था

ऐसा भी कुछ हो जाएगा

बँधी हुई मुट्ठी से

अनायास यूँ  सब कुछ खो जाएगा।

 

कितने जतन, सुरक्षा के पहरे थे

करते वे चौकस हो कर रखवाली

प्रतिपल को मुस्तैद

स्वाँस संकेतों पर बंदूक दोनाली,

 

किसे पता,

कब बिन आहट के

गुपचुप मोती छिन जाएगा

बँधी हुई मुट्ठी से…………..।

 

खूब सजे सँवरे घर में हम खुद पर

ही थे आत्ममुग्ध, खुद पर लट्टू थे

भ्रम में सारी उम्र गुजारी,समझ न पाए

केवल भाड़े के टट्टू थे,

 

किसे पता,

बिन पाती बिन संदेश

पँखेरू उड़ जाएगा

बँधी हुई मुट्ठी से…………………।

 

कितना था विश्वास प्रबल कि,

इस मेले में नहीं छले हम जायेंगे

मृगतृष्णाओं को पछाड़ कर,

लौट सुरक्षित,साँझ ढले वापस आएंगे,

 

किसे पता,

त्रिशंकु सा जीवन भी

ऐसे सम्मुख आएगा

बँधी हुई मुट्ठी से…………।

 

लौट-लौट आता वापस मन

कितना है अतृप्त बुझ पाती प्यास नहीं

पदचिन्हों के अवलोकन को

किन्तु राह में अब है कहीं उजास नहीं,

 

किसे पता,

तन्मय मन को, आखिर में 

ऐसे भटकाएगा

बँधी हुई मुट्ठी से अनायास यूँ

सब कुछ खो जाएगा।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 28 ☆ ग़ज़ल – प्रीत के हिंडोले में… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण हिंदी ग़ज़ल “प्रीत के हिंडोले में…”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 27 ✒️

?  ग़ज़ल – प्रीत के हिंडोले में… — डॉ. सलमा जमाल ?

प्रीत के हिंडोले में ,

झूलती जवानी है ।

फूल हैं क़दमों तले ,

निगाहें आसमानी हैं ।।

 

मुझे रोक ना सकेगी दुनियां,

रूढ़ियों की जंज़ीरों से ।

मैं बहती हुई नदिया हूं ,

भावना तूफ़ानी है ।।

 

झर – झर , झरते – झरने ,

कल-कल करतीं नदियां ।

कर्मरत रहना ही ,

सफ़ल ज़िन्दगानी है ।।

 

चांदी की हों रातें ,

सोने भरे हों दिन ।

ऐसा स्वर्ग धरती पर ,

हमने लाने की ठानी है ।।

 

सपनों के पंख पसारे ,

क्षितिज के पार हम चलें । ‌

रात भीगी – भीगी है ,

भोर धानी – धानी है ।।

 

मेरा प्यार एक इबादत है ,

मेरे प्यार में शहादत भी है ।

हर हाल में ‘ सलमा ‘ को ,

वफ़ा ही निभानी है ।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – salmakhanjbp@gmail.com

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 111 ☆ चंचल बैगा लड़की – 4 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। आज प्रस्तुत है इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला की अगली कड़ी – “चंचल बैगा लड़की”)

☆ संस्मरण # 111 – चंचल बैगा लड़की – 4 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

अनपढ़ आदिवासी  कार्तिक राम बैगा और फूलवती बाई की दूसरी संतान के रूप में 02.05.1991 को जन्मी प्रेमवती के पिता को जब पता चला कि समीपस्थ ग्राम लालपुर में कोई बंगाली डाक्टर बैगा बालिकाओं को निशुल्क शिक्षा दे रहे हैं तो वे पत्नी के विरोध के बावजूद उसे भर्ती कराने चले आए।  अपने बचपन के दिनों की याद करते हुए प्रेमवती बताती है कि पूरा परिवार अत्यंत गरीब था । माता-पिता दिन भर मजदूरी करते, जंगल लकड़ियाँ फाड़ने जाते और उसे बेचकर जो धन मिलता उससे खंडा अध टुकड़ा व सस्ता चावल खरीदते । इससे बना पेज पीकर पाँच लोगों का परिवार किसी तरह जीवित रहता। यह पेज भी भरपेट नहीं मिलता और कई बार तो तीन चार दिन तक भूखे रहना पड़ता । प्रेमवती और उसके दो भाई आपस में भोजन के लिए लड़ते और अक्सर एक दूसरे के हिस्से का निवाला छीन लेते। अक्सर हम बच्चे रात भर भूख से बिलबिलाते और रोते रहते।

ऐसी विपन्न स्थिति में रहने वाली यह अबोध बालिका जब बिना किसी सामान के 1996 में सेवाश्रम द्वारा संचालित स्कूल में लाई गई, तो माता-पिता से बिछुड़ने का दुख, क्रोध में बदलते देर न लगी और इस आवेश की पहली शिकार बनी बड़ी बहनजी । प्रेमवती बताती है कि उस दिन जब माँ-बाप उसे छोड़कर जाने लगे तो वह उनके पीछे दौड़ी लेकिन बड़ी बहनजी ने उसे पकड़कर अपनी बाहों में संभाल लिया और मैं इतने आवेश में थी कि उनपर अपने हाथ पैर बड़ी देर तक फटकारती रही । बाबूजी ने अतिरिक्त जोड़ी कपड़े, पुस्तकें  और बस्ता दिया। धीरे धीरे सभी बच्चों से मैं हिल-मिल गई । लेकिन घर की याद बहुत आती। जब छुट्टियों में घर जाते तो वापस आने को मन न करता । माँ को भी मेरी बहुत याद आती और एक बार वह मुझे आश्रम से बहाना बनाकर घर ले आई । पिताजी को जब इस झूठ के बारे में पता चला तो वह मुझे पुन: स्कूल छोड़ने आए।

प्रेमवती का मन धीरे धीरे पढ़ने में रमने लगा।  पढ़ाई के दिनों की याद करते हुए वह बताती है कि बाबूजी शाम को सभी लड़कियों को एकत्रित करके पहाड़े रटवाते थे, उनकी बंगाली मिश्रित टोन से हम लोगों को हंसी आती और लड़कियों को हँसता देख बाबूजी भी मुस्करा देते । जब 2001 में उसने माँ सारदा कन्या विद्यापीठ से पाँचवी की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली तो  बाबूजी ने उसका प्रवेश पोड़की स्थित माध्यमिक शाला में करवा दिया । आठवीं पास करने के बाद पिता को यह भान हुआ कि लड़की बड़ी हो गई है और इसका ब्याह कर देना चाहिए। प्रेमवती को अब तक शिक्षा का महत्व समझ में आ चुका  था । वह अड गई कि आगे और पढ़ेगी और अपने पैरों पर खड़े होने के बाद शादी करेगी । उसकी इस भावना को सहारा मिला  बाबूजी का । उन्होंने उसका प्रवेश भेजरी स्थित उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में करवा दिया तथा सेवाश्रम के छात्रावास में ही उसके रहने खाने की व्यवस्था कर दी । वर्ष 2008 में जब कला संकाय के विषय लेकर प्रेमवती ने बारहवीं की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की तो डाक्टर सरकार ने गुलाबवती बैगा के साथ उसका प्रवेश भी इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजाति विश्वविद्यालय के बी ए पाठ्यक्रम में करवा दिया । दुर्भाग्यवश अंतिम वर्ष की परीक्षा के समय वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गई और फिर ग्रेजुएट होने का सपना अधूरा ही रह गया।

बाबूजी के विशेष प्रयासों से उसे और उसकी सहपाठी गुलाबवती को वर्ष 2012 में मध्य प्रदेश सरकार ने सीधी नियुक्ति के जरिए प्राथमिक शाला शिक्षक के रूप में चयनित किया। इन दोनों बैगा बालिकाओं की सीधी नियुक्ति का परिणाम यह हुआ कि उसी वर्ष अनेक आदिवासी युवक युवतियाँ शिक्षक बनाए गए । लेकिन उसके बाद राज्य सरकार ने पढे लिखे बैगाओं की कोई सुधि नहीं ली और अब इस आदिम जनजाति के युवा बेरोजगारी का दंश झेल रहे हैं । 

स्नातक युवा एवं फर्रीसेमर गाँव की प्राथमिक शाला में शिक्षक सोन शाह बैगा की पत्नी प्रेमवती स्वयं प्रातमिक विद्यालय अलहवार में शिक्षक है और तीन बच्चों की माँ है । वह परिवार को नियोजित रखना चाहती है तथा अपने सजातीय आदिवासियों को कुरीतियाँ त्यागने, शिक्षित होने की प्रेरणा देती रहती है ।                                   

मैंने प्रेमवती से बैगा आदिवासियों की विपन्नता का कारण जानना चाहा । उसने उत्तर दिया की गरीबी के कारण माता-पिता बच्चों को मजदूरी के लिए विवश कर देते हैं ।  जब माता पिता जंगल में मजदूरी करने जाते हैं तो बड़े बच्चे छोटे भाई बहनों को संभालते हैं या गाय-बकरियाँ चराते हैं । बालपन से ही मजदूरी को विवश बैगाओं के पिछड़ेपन का अशिक्षा सबसे बड़ा कारण है । शराब पीना तो बैगाओं में बहुत आम चलन है । इस बुराई ने स्त्री और पुरुषों दोनों को जकड़ रखा है । अत्याधिक मदिरापान से उनकी कार्यक्षमता भी प्रभावित होती है । लेकिन इस बुराई को खत्म करना मुश्किल इसलिए भी है क्योंकि बड़े बुजुर्ग इसे बैगाओं की प्रथा मानते हैं और छोड़ने को तैयार नहीं हैं । प्रेमवती कहती है कि पुरानी परम्पराएं अब धीरे धीरे कम हो रही हैं । नई पीढ़ी की लड़कियां अब गोदना नहीं गुदवाती, शादी विवाह में पारंपरिक  गीत संगीत का स्थान अब अन्य लोगों की देखादेखी में डीजे आदि ले रहे हैं । बैगा समाज में स्त्रियों के प्रति सम्मान के भाव और उनको प्रदत्त स्वतंत्रता की प्रेमवती बड़ी प्रसंशक है । लड़की वर का चुनाव स्वयं करती है और वर पक्ष के लोग तीज त्योहार पर अक्सर कन्या को अपने घर बुलाते हैं। ऐसा तब तक होता जब तक वर वधू विवाह के बंधन में नहीं बंध जाते। वह बताती है कि विधवा को  पुनर्विवाह का अधिकार है । 

मैंने प्रेमवती के बालपन की यादों को कुरेदने का प्रयास किया । उसे आज भी नवाखवाई की याद है । वह बताती है कि जब खीरा,  कोदो, कुटकी, धान मक्का आदि की नई फसल घर आ जाती तो उसे सबसे पहले ग्राम के देवी देवताओं को अर्पित किया जाता और उसके बाद ही ने अनाज का हम लोग सेवन करते थे । इन्ही दिनों सारे बच्चे एक खेल गेंडी खेलते थे । लाठी में अंगूठे को फसाने के लिए जगह बनाकर उसपर चढ़ जाते और घर घर गाते हुए जाते थे ।  घर के लोग उन्हे नेंग में अनाज देते और फिर सभी बालक अपनी अपनी गेंडी पर चढ़े चढ़े  पास के किसी नाले के समीप जा प्रसाद चढ़ाते और गेंडियों को नदी में सिरा देते हैं ।

प्रेमवती के पास स्कूल और गाँव की यादों का पिटारा है और उससे वार्तालाप करते ऐसा नहीं लगता कि यह नवयुवती विपन्न आदिम जन जाति में जन्मी है, अच्छी शिक्षा का यही प्रभाव है ।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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