(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा – इच्छा मृत्यु … ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 168 ☆
लघुकथा – इच्छा मृत्यु …
राजा शांतनु सत्यवती से विवाह करना चाहते थे. किंतु सत्यवती के पिता ने शर्त रख दी कि राज्य का उत्तराधिकारी सत्यवती का पुत्र ही हो. अपने पिता की सत्यवती से विवाह की प्रबल इच्छा को पूरा करने के लिए गंगा पुत्र भीष्म ने अखंड ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा ले ली. पिता के प्रति प्रेम के इस अद्भुत त्याग से प्रसन्न हो, उन्होने भीष्म को इच्छा मृत्यु का वरदान दिया था.
किंतु, पितामह भीष्म को बाणों की शैया पर मृत्यु की प्रतीक्षा करनी पड़ी. भीष्म शर शैया पर दुखी थे और उनकी इस अवस्था पर भगवान कृष्ण मुस्करा रहे थे.
दूसरी ओर यह समझते हुये भी कि सीता हरण कर भागते रावण को रोक पाना उसके वश में नहीं है, जटायु ने रावण से भरसक युद्ध किया. घायल जटायु को लेने यमदूत आ पहुंचे, किंतु जटायु ने मृत्यु को ललकार कर कहा, जब तक मैं इस घटना की सूचना, प्रभु श्रीराम को नहीं दे देता, मृत्यु तुम मुझे छू भी नहीं सकती. जटायु ने स्वयं ही जैसे इच्छा मृत्यु का चयन कर लिया.
श्रीराम सीता को ढ़ूंढ़ते हुये आये, जटायु से उन्हें सीताहरण की जानकारी मिली. जटायु ने अपनी अंतिम सांसे भगवान श्रीराम की गोद में लीं. भगवान दुखी थे और जटायु स्वयं की ऐसी इच्छा मृत्यु पर प्रसन्न थे.
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगाती सशक्त लघुकथा “चुनावी कशमकश…”। )
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 128 ☆
☆ लघुकथा – चुनावी कशमकश ☆
गाँव में चुनाव का माहौल बना हुआ था। घर- घर जाकर प्रत्याशी अपनी-अपनी योजना और लाभ का विवरण दे रहे थे।
चुनाव कार्यालय से लगा हुआ छोटा सा मकान जिसमें अपने माता-पिता के साथ रूपा रहती थी। घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। चाह कर भी रूपा पढ़ाई नहीं कर सकी। लेकिन सिलाई का कोर्स पूरा कर पूरे घर का खर्च चलाती थी।
माँ बेचारी दिहाड़ी मजदूरी का काम करती थी और पिताजी पैर से लाचार होने के कारण ज्यादा कुछ नहीं कर पाते परंतु अपना स्वयं का खर्च किसी तरह काम करके निकाल लेते थे।
चुनाव के झंडे, बैनर सिलने के लिए रूपा को दिया गया। रूपा ने बहुत ही सुंदर सिलाई कर प्रत्याशी को देने के लिए कार्यालय पहुंची।
रूपा की सुंदरता और युवावस्था को देखते ही युवा प्रत्याशी की आह निकल गयी। उसे सहायता करने के लिए आश्वासन दिया।
सहज सरल रूपा विश्वास कर घर आ गई। शाम का समय बारिश का मौसम, बिजली का चमकना, और तेज गर्जन के साथ, पानी बरस रहा था। दरवाजे पर आहट हुई, रूपा ने हाथ में टार्च लिया और दरवाजे खोल कर देखने लगी।
युवा प्रत्याशी लगभग भींगा हुआ और हाथों में कुछ बैनर रूपा को देकर कहने लगा….. “इसे अभी अर्जेंट ही तैयार करना है।”
रूपा ने हाँ में सिर हिला कर दरवाजे से अंदर आने को कहा। अपने काम में लग गई।
सिगरेट का कश खींचते हुए प्रत्याशी जाने कब रूपा को मदहोश कर गया। समझ ना सकी। माता-पिता दूसरे कमरे में आराम कर रहे थें।
उन्हें लगा नेता जी बहुत अच्छे इंसान हैं, जो हमारी सहायता के लिए कपड़े लेकर आए हैं।
“अब मेरा क्या होगा?” …. रूपा ने प्रश्न किया? “चुनाव के बाद मैं तुम्हें अपना लूंगा। तुम किसी से चर्चा नहीं करना।”
“मेरी सारी मेहनत बेकार हो जाएगी। मैं वचन देता हूं तुम्हें किसी प्रकार की कोई कमी नहीं होने दूंगा।”
युवा प्रत्याशी चलता बना। रूपा कभी हाथ में ढेंर सारे नोट को देखती और कभी बैनर पर लिपटी अपने आप को।
आज पाँच साल बाद माता – पिता तो नहीं रहे। रूपा बैनर झंडे फिर से बना रही थीं। साथ में उसका छोटा सा बच्चा तोतली भाषा में ‘नेताजी जिंदाबाद’ के नारे लगा रहा था।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख – “राजा और रजवाड़े”।)
☆ आलेख ☆ राजा और रजवाड़े ☆ श्री राकेश कुमार ☆
हमारे देश के राजवाड़े तो आज़ादी के बाद से ही समाप्त हो गए थे। उनको मिलने वाला गुजारा भत्ता( प्रिवीपर्स) भी बंद हुए कई दशक हो गए।
आज़ादी से पूर्व हमारे मालिक इंग्लैंड जिनके राज्य में सूर्यास्त भी नहीं हुआ करता था, अब थोड़े से में सिमट कर रह गए हैं। पुरानी बात है “राज चला गया पर शान नहीं गई”। वहां अभी भी प्रतीक के रूप में राज तंत्र विद्यमान हैं।
वहां की महारानी एलिजाबेथ की वर्ष 1952 में ताज पोशी हुई थी। उसकी सत्तरवी (डायमंड जुबली) के उपलक्ष्य में कुछ दिन पूर्व भव्य आयोजन हुए।
महारानी ने अपनी बालकनी में आकर सबका अभिवादन स्वीकार किया। उनका स्वास्थ्य नरम रहता है। इसी कारण से वो इस आयोजन में शामिल नहीं हो पाई हैं। उनके एक मात्र पुत्र भी वृद्घावस्था का जीवन व्यतीत कर रहे हैं। वो अभी भी युवराज कहलाते हैं। ऐसा कहा जाता है, इतने लंबे समय तक युवराज रहने का उनका रिकॉर्ड शायद ही कभी टूट पाएं। ईश्वर महारानी को अच्छा स्वास्थ्य देवें। उनके रहन सहन के तरीके/ नियम भी तय शुदा हैं। हमारे देश में आज भी कई लोग अंग्रेजो की तरह जीवन व्यतीत करने के प्रयास करते हैं। मज़ाक में ऐसे लोगों के लिए कहा जाता है कि- “अंग्रेज़ चले गए और औलाद छोड़ गए”।
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका एक अप्रतिम गीत – ओ शीशे की राजकुमारी…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 94 – गीत – ओ शीशे की राजकुमारी…
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा,पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “कहाँ रहेगी माँ, यह भय है…”।)
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक अविस्मरणीय एवं विचारणीय आलेख “चिंतन – मेरी-आपकी कहानी”।)
☆ आलेख # 143☆ चिंतन – मेरी-आपकी कहानी ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
वियतनाम युद्ध से वापस अमेरिका लौटे एक सैनिक के बारे में यह कहानी प्रचलित है। लौटते ही उसने सैन-फ्रांसिस्को से अपने घर फोन किया। “हाँ पापा, मैं वापस अमेरिका आ गया हूँ, थोड़े ही दिनों में घर आ जाऊंगा पर मेरी कुछ समस्या है. मेरा एक दोस्त मेरे साथ है, मैं उसे घर लाना चाहता हूँ। “
“बिलकुल ला सकते हो. अच्छा लगेगा तुम्हारे दोस्त से मिलकर “
“पर इससे पहले की आप हां कहें, आपको उसके बारे में कुछ जान लेना चाहिए, ‘वियतनाम में वह बुरी तरह ज़ख्मी हो गया था, उसका पैर एक बारूदी सुरंग पर पड़ गया और वह एक हाथ और एक पैर गवां बैठा’. अब उसका कोई ठिकाना नहीं है, समझ नही आता की वो अब कहाँ जाए। सोचता हूँ जब उसका कोई आसरा नहीं है तो क्यों ना वह हमारे साथ रहे।””बहुत बुरा लगा सुनकर, चलो कुछ दिनों में उसके रहने का बंदोबस्त भी हो जाएगा, हम लोग इंतजाम कर लेंगे।”
“नहीं, कुछ दिन नहीं, वो हमारे साथ ही रहेगा, हमेशा के लिए।”
“बेटा” पिता ने गंभीर होकर कहा, “तुम नहीं जानते की तुम क्या कह रहे हो। हमारे परिवार पर बहुत बड़ा बोझ पड़ जाएगा अगर इतना ज़्यादा विकलांग इन्सान हमारे साथ रहेगा तो। देखो, हमारा अपना जीवन भी तो है, अपनी जिंदगियाँ भी तो जीनी हैं ना हमें…नहीं, तुम्हारी इस मदद करने की सनक हमारी पूरी ज़िंदगी में बाधा खड़ी कर देगी। तुम बस घर लौटो और भूल जाओ उस लड़के के बारे में। वो अपने दम पे जीने का कोई ना कोई रास्ता खोज ही लेगा।”
लड़के ने फोन रख दिया, इसके बाद उसके माता-पिता से उसकी कोई बात नहीं हुई। बहरहाल, कुछ दिनों बाद ही, सैन-फ्रांसिस्को पुलिस से उनके पास कॉल आया। उन्हें बताया गया की उनके बेटे की एक बहुमंजिला इमारत से गिरकर मृत्यु हो गई है। पुलिस का मानना था की यह आत्महत्या का मामला है। रोते-बिलखते माता पिता ने तुरंत सैन-फ्रांसिस्को की फ्लाईट पकड़ी जहाँ उन्हें मृत शरीर की पहचान करने शवगृह ले जाया गया।
शव उन्ही के बेटे का था, पर उनकी हैरानी की सीमा नहीं रही, जब उन्होंने कुछ ऐसा देखा जिसके बारे में उनके बेटे ने उन्हें नहीं बताया था, उसके शरीर पर एक हाथ और एक पैर नहीं था।
इस बूढे दम्पत्ति की कहानी मेरी-आपकी ही कहानी है। खूबसूरत, खुशनुमा और हँसते-खिलखिलाते लोगों के बीच जीना काफी सरल होता है। पर हम उन्हें पसंद नहीं करते जो हमारे लिए असुविधा पैदा कर सकते हैं या हमें कठिनाई भरी स्थिति में डाल सकते हैं। हम उनसे दूर ही रहते हैं जो इतने सुंदर, स्वस्थ और बुद्धिमान नहीं होते, जितने की हम हैं।पर सौभाग्य से कोई है, जो हमें इस तरह नहीं छोडेगा।
साहस प्रेम प्यार कमजोरी जीवन कोई है, जिसका प्रेम किसी भी शर्त के परे है, उसके परिवार में हर परिस्थिति में हमारे लिए अत है, चाहे हमारी हालत कितनी ही बुरी क्यों ना हो।क्या हम उसी की तरह लोगों को वैसा ही स्वीकार नहीं कर सकते जैसे की वो हैं? उनकी हर कमी, हर कमजोरी के बावजूद?
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है पितृ दिवस पर आपकी एक भावप्रवण कविता “# बात ही कुछ और है #”)
‘स्वामी विवेकानंद’ यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका ‘विचार–पुष्प’.
तीर्थंभ्रमणाला निघायच्या आधी पण नरेंद्रनाथ आंटपूर, वैद्यनाथ, शिमूलतला इथे कित्येकदा आले होते. उजाडल्यानंतर सूर्य किरणे सर्व दिशांना पसरतात हे सांगायची गरज नसते. तसे स्वामीजी जिथे जिथे जातील तिथे तिथे प्रभाव पाडत असत. असाच अनुभव ते फिरलेल्या प्रत्येक प्रांतात दिसतो. बिहार प्रांत फिरत फिरत ते हिंदू भारतभूमीचं हृदय समजल्या जाणार्या काशीला आले. इथे ते संस्कृत भाषेचे पंडित आणि साहित्य व वेदांत पारंगत असलेले सद्गृहस्थ श्री प्रमदादास मित्र यांच्याकडे राहिले. स्वामीजींना त्यांच्या विद्वत्तेबद्दल आदरभाव वाटू लागला. पुढे पुढे तर ते वैदिक धर्म आणि तत्वज्ञान याबद्दल काही शंका असली की ते प्रमदादास यांना पत्र लिहून विचारात असत. आपले आजोबा दुर्गाप्रसाद हे संन्यास घेतल्यावर काशीत आले होते. श्रीरामकृष्ण पण इथे येऊन गेले होते. तिथे मद्रासी, पंजाबी, बंगाली, गुजराथी, मराठी हिंदुस्तानी अशी प्रभृती सर्वजण, आचारांची भिन्नता असूनही एकाच उद्देशाने विश्वेश्वराच्या मंदिरात एकत्र येत असत. यात नरेंद्रनाथांना या विविध लोकांमधला ऐक्याचा विशेष गुण भावला. म्हणूनच त्यांना सगळीकडे फिरून भारत जाणून घ्यावसा वाटला होता.
शिवाय इंग्रजांची सत्ता, गुलामी असताना वर्तमान अवस्थेत, देशातील आध्यात्मिक संस्कृती कशी आहे, सामान्य लोक कसे जगताहेत? शिक्षणाची काय परिस्थिति आहे? सनातन धर्म सगळीकडे कसा आहे? याची सगळीकडे हिंडून माहिती करून घ्यावीशी वाटली. त्यासाठी ते इथून निघून कन्याकुमारी पर्यन्त शहरे, खेडी, विविध लोक, शेतकरी, गरीब, दीन दुबळे, राजे रजवाडे, संस्थानिक आणि जे जे आवश्यक त्यांच्या भेटी घेत अवलोकन करता करता भ्रमण करत होते.
उत्तरेत फिरून झाल्यावर ते शरयू तीरावरच्या अयोध्येला येऊन पोहोचले. काशी आणि अयोध्या ही धर्मक्षेत्र होती. त्यामुळे स्वामीजींचे आध्यात्मिक मन तिथे रमले. ‘अयोध्या’ जिच्या मातीशी सूर्यवंशी राजांच्या गौरवाची स्मृती जोडलेली आहे. शरयू नदीच्या तीरावरून आणि घाटावरील विविध मंदिरातून फिरतांना त्यांच्या डोळ्यासमोर प्रभू श्रीरामचंद्रांचे चरित्रच उभे राहिले. आदर्श राजा, आदर्श पुत्र, आदर्श पती, आदर्श भाऊ, अशा प्रभू श्रीरामचंद्राच्या अयोध्येत आल्याबरोबरच त्यांना लहानपणची रामसीतेची भक्ती, रामायण प्रेम, वीरभक्त श्री हनुमानवरची गाढ श्रद्धा आणि आईच्या तोंडून ऐकलेल्या रामाच्या कथा सारे सारे आठवले असणारच. काही दिवस इथे त्यांनी रामायत संन्याशांच्या समवेत श्रीरामनामसंकीर्तनात घालवून पुढे ते ऑगस्ट१८८८ मध्ये लखनौ- आगरा मार्गाने पायी पायी चालत वृंदावनच्या दिशेने निघाले.
लखनौला त्यांनी बागा, मशिदी, नबाबाचे प्रासाद बघितले. आग्र्याला आल्यावर तिथल्या शिल्प सौंदर्याचा जगप्रसिद्ध नमुना ‘ताजमहाल’ मोगलकालीन इमारती, किल्ले पहिले. मोगल साम्राज्याचा इतिहास त्यांच्या डोळ्यासमोर उभा राहिला. लखनौ आणि आग्रा या ऐतिहासिक स्थळं सुद्धा त्यांच्या मनात भरली. कारण ती भारताच्या इतिहासाच्या पर्वाची महत्वाची खूण होती आणि स्वामीजी त्याबद्दल पण जागरूक होते. म्हणून एक वैभवशाली साम्राज्याची स्मृती म्हणून ते पाहत होते.
शिवाची काशी पाहिली, श्रीरामची अयोध्या पाहिली आता भगवान श्री कृष्णाच्या वृंदावनला स्वामीजी पोहोचले. राधा कृष्णाची लीलाभूमी असलेल्या वृंदावनात, मर्यादित परिसरात असलेले विविध प्रकारचे, भिन्न काळात बांधले गेलेले वास्तूकलेचे, अनेक मंदिरांचे नमुने त्यांना पाहायला मिळाले. वृंदावनला ते बलराम बसुंच्या पूर्वजांनी बांधलेल्या कुंजामध्ये राहिले. तिथे यमुनेच्या वळवंटात असो की भोवताल च्या परीसरात असो सगळीकडेच, श्रीकृष्णाच्या बासरीचा मधुर ध्वनी येतोय असे वाटावे अशा काव्यात्मक आणि भक्तिपूर्ण वातावरण त्यांनी अनुभवले. गोवर्धन पर्वताला त्यांनी प्रदक्षिणा घातली. तेंव्हाच त्यांनी मनाशी संकल्प केला की, कोणाकडेही भिक्षा मागायची नाही. कोणी आपणहून आणून दिले तरच त्या अन्नाचा स्वीकार करायचा. हे बिकट व्रत त्यांनी घेतले. एकदा तर त्यांना पाच दिवस उपाशी राहावे लागले होते. पण इथे त्यांनी दोन वेळा परमेश्वर भक्तीचा ईश्वरी अनुभव घेतला आणि श्रीकृष्णाची भक्ती आणखीनच दृढ झाली.
पुढे ते हरिद्वारला गेले. वाटेत जाता जाता ते हाथरस च्या स्थानकावर बसले असताना, त्यांना थकलेल्या अवस्थेत स्थानकाचे उपप्रमुख असलेले शरदचंद्र गुप्त यांनी पाहिले. आणि, “स्वामीजी आपल्याला भूक लागलेली दिसते आपण माझ्या घरी चलावे” अशी विनंती केली. स्वामीजींनी लगेच हो म्हटले आणि त्यांच्या घरी गेले. स्वामीजींचे व्यक्तिमत्व बघून शरदचंद्र गुप्त आकर्षित झाले होते , त्यांनी स्वामीजींना काही दिवस इथे राहावे असा आग्रह केल्याने ते खरच तिथे राहिले. सर्व बंगाली लोक संध्याकाळी एकत्र जमत. आपला धर्म आणि समाज यावरील सद्यस्थितीबद्दल स्वामीजी बोलत. आपल्या मधुर आवाजात गीतं म्हणत. येणारे सर्व बंगाली मोहित होऊन जात. त्यांच्यातील भांडणे जाऊन एकोपा निर्माण झाला.
एकदा चिंतेत असताना शरदचंद्रांनी स्वामीजींना पाहिलं आणि विचारलं, “आपण एव्हढे कसल्या विचारात आहात?” स्वामीजी म्हणाले, “मला खूप काम करायचं आहे. पण माझी शक्ती कमी. काम मोठं आहे. मातृभूमीचं पुनरुत्थान घडवून आणायच आहे. तीचं आध्यात्मिक सामर्थ्य क्षीण झालं आहे. सगळा समाज भुकेकंगाल आहे. भारत चैतन्यशाली झाला पाहिजे. अध्यात्मिकतेच्या बळावर त्यानं सारं जग जिंकलं पाहिजे”. अशा प्रकारचे संवाद होत होते. चर्चा होत होत्या. काही दिवसांनी स्वामीजी तिथून निघतो म्हटल्यावर, शरदचंद्र जाऊ नका म्हणून विनवणी करू लागले आणि ‘मला आपला शिष्य करून घ्या’ असेही म्हणू लागले. तुम्ही जिथं जाल तिथं मी तुमच्या मागोमाग येईन हा त्यांचा दृढ निश्चय ऐकून, “शेवटी तुम्ही माझ्याबरोबर येण्याचा आग्रहच धरता आहात तर घ्या हे भिक्षा पात्र आणि स्थानकातले जे हमाल आहेत त्यांच्या दरात जाऊन भिक्षा मागून आणा” असे स्वामीजी म्हटल्याबरोबर, शरदचंद्र तडक उठले आणि भिक्षा पात्र घेऊन सर्वांकडून भिक्षा मागून आणली. स्वामीजी अत्यंत खुश झाले. त्यांनी शरदचंद्रांचा शिष्य म्हणून स्वीकार केला. असे शरदचंद्र गुप्त हे स्वामीजींचे पहिले शिष्य झाले, आणि मातापित्यांचा आशीर्वाद घेऊन, नोकरीचा राजीनामा देऊन, स्वामीजीं बरोबर ते हाथरस सोडून हृषीकेशला आले. त्यांचे नाव स्वामी सदानंद असे ठेवण्यात आले. असा सुरू होता स्वामीजींचा प्रवास .