हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 116 ☆ किशोर गीत – वैकुंठ शुक्ला बलिदानी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 116 ☆

☆ किशोर गीत – वैकुंठ शुक्ला बलिदानी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

भारत माँ के बेटे की तुम

सुन लो अमर कहानी।

बैकुंठ शुक्ला नाम उनका

वीर हुए बलिदानी।।

 

त्याग नौकरी शिक्षक की वह

कूद पड़े आजादी को।

सिर पर बाँध कफन मुस्काए

हुए समर्पित खादी को।

 

वैशाली में जन्म हुआ था

देशभक्त स्वाभिमानी।।

 

सविनय अवज्ञा आंदोलन में

भाग लिया बढ़ – चढ़ करके।

चंद्रशेखर से हुए प्रभावित

संघर्ष किया था डट के।।

 

अंग्रेजों को खूब छकाया

सच्चे हिंदुस्तानी।।

 

योगेंद्र शुक्ल उनके चाचा

थे सुभाष के सहपाठी।

 हष्ट – पुष्ट थे अति फुर्तीले,

थी बलशाली कदकाठी।।

 

जीवन किया समर्पित माँ को,

झोंकी पूर्ण जवानी।।

 

धर्मपत्नी राधिका जी भी

बनीं साथ में पथगामी।

कठिन पथों से जब वह गुजरे

रहीं रात-दिन अनुगामी।।

 

चौदह मई फाँसी पर झूले

साक्ष्य ‘गया’ निशानी।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

Rakeshchakra00@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #117 – बालकथा – जबान की आत्मकथा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक ज्ञानवर्धक एवं विचारणीय बालकथा –  “जबान की आत्मकथा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 117 ☆

☆ बालकथा – जबान की आत्मकथा ☆ 

” आप मुझे जानते हो?” जबान ने कहा तो बेक्टो ने ‘नहीं’ में सिर हिला दिया. तब जबान ने कहा कि मैं एक मांसपेशी हूं.

बेक्टो चकित हुआ. बोला, ” तुम एक मांसपेशी हो. मैं तो तुम्हें जबान समझ बैठा था.” 

इस पर जबान ने कहा, ” यह नाम तो आप लोगों का दिया हुआ है. मैं तो आप के शरीर की 600 मांसपेशियों में से एक मांसपेशी हूं. यह बात और है कि मैं सब से मजबूत मांसपेशी हूं. जैसा आप जानते हो कि मैं एक सिरे पर जुड़ी होती हूं. बाकी सिरे स्वतंत्र रहते हैं.”

जबान में बताना जारी रखो- मैं कई काम करती हूं. बोलना मेरा मुख्य काम है. मेरे बिना आप बोल नहीं सकते हो. अच्छा बोलती हूं. सब को मीठा लगता है. बुरा बोलती हूं. सब को बुरा लगता है. इस वजह से लोग प्रसन्न होते हैं. कुछ लोग बुरा सुन कर नाराज हो जाते हैं.

मैं खाना खाने का मुख्य काम करती हूं. खाना दांत चबाते हैं. मगर उन्हें इधरउधर हिलानेडूलाने का काम मैं ही करती हूं. यदि मैं नहीं रहूं तो तुम ठीक से खाना चबा नहीं पाओ. मैं इधरउधर खाना हिला कर उसे पीसने में मदद करती हूं.

मेरी वजह से खाना स्वादिष्ट लगता है. मेरे अंदर कई स्वाद ग्रथियां होती है. ये खाने से स्वाद ग्रहण करती है. उन्हें मस्तिष्क तक पहुंचाती है. इस से ही आप को पता चलता है की खाने का स्वाद कैसा होता है?

जब शरीर में पानी की कमी होती है तो मेरे द्वारा आप को पता चलता है. आप को प्यास लग रही है. कई डॉक्टर मुझे देख कर कई बीमारियों का पता लगाते हैं. इसलिए जब आप बीमार होते हो तो डॉक्टर मुंह खोलने को कहते हैं. ताकि मुझे देख सकें.

मैं दांतों की साफसफाई भी करती हूं. दांत में कुछ खाना फंस जाता है तब मुझे सब से पहले मालूम पड़ता है. मैं अपने खुरदुरेपन से दांत को रगड़ती रहती हूं. इस से दांत की गंदगी साफ होती रहती है. मुंह में दांतों के बीच फंसा खाना मेरी वजह से बाहर आता है.

मेरे नीचे एक लार ग्रंथि होती है. इस से लार निकलती रहती है. यह लार खाने को लसलसा यानी पानीदार बनाने का काम करती है. इसी की वजह से दांत को खाना पीसने में मदद मिलती है. मुंह में पानी आना- यह मुहावरा इसी वजह से बना है. जब अच्छी चीज देखते हो मेरे मुंह में पानी आ जाता है.

कहते हैं जबान लपलपा रही है. या जबान चटोरी हो गई. जब अच्छी चीजें देखते हैं तो जबान होंठ पर फिरने लगती है. इसे ही जबान चटोरी होना कहते हैं. इसी से पता चलता है कि आप कुछ खाने की इच्छा रखते हैं.

यदि जबान न हो तो इनसान के स्वाभाव का पता नहीं चलता है. वह किस स्वभाव का है? इसलिए कहते हैं कि बोलने से ही इनसान की पहचान होती है. यदि वह मीठा बोलता है तो अच्छा व्यक्ति है. यदि कड़वा या बेकार बोलता है तो खराब व्यक्ति है. 

यह सब कार्य मस्तिष्क करवाता है. मगर, बदनाम मैं होती हूं. मन कुछ सोचता है. उसी के अनुसार मैं बोल देती हूं. इस कारण मैं बदनाम होती हूं. मेरा इस में कोई दोष नहीं होता है. 

जबान इतना बोल रही थी कि तभी बेक्टो जाग गया. जबान का बोलना बंद हो गया. 

‘ओह! यह सपना था.’ बेक्टो ने सोचा और आंख मल कर उठ बैठा. उसे पढ़ कर स्कूल जाना था. मगर उस ने आज बहुत अच्छा सपना देखा था. वह जबान से अपनी आत्मकथा सुन रहा था. इसलिए वह बहुत प्रसन्न था.

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

28/03/2019

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – opkshatriya@gmail.com

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #115 – शब्द…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 115 – शब्द…! ☆

मनाच्या खोल तळाशी

शब्दांची कुजबुज होते…

कागदावर अलगद तेव्हा

जन्मास कविता येते…!

 

शब्दांचे नाव तिला अन्

शब्दांचे घरकुल बनते..

त्या इवल्या कवितेसाठी

शब्दांनी अंगण फुलते…!

 

शब्दांचा श्वास ही होते

शब्दांची ऒळख बनते..

ती कविताच असते केवळ

जी शब्दांसाठी जगते…!

 

© सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ माडाचे मनोगत… ☆ श्री प्रमोद जोशी ☆

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

 ?  माडाचे मनोगत…  ?  श्री प्रमोद जोशी ☆

(देवगडचे कवी श्री प्रमोद जोशी यांच्या बागेत ५०.. ६० वर्षे वयाचा माड आहे. त्या माडावर सुतार पक्षांनी १-२ नाही, तर १७-१८ भोके पाडली आहेत. तरीही अजून माड   नारळ देतोच आहे— त्या माडाचा फोटो आणि जोशींनी त्या माडावर स्वतः केलेली “ माडाचे मनोगत “ ही कविता — (हा फोटो कृपया मोठा करून पहावा). 

कणा पोखरला तरी,

अजूनही आहे ताठ!

जगण्याची जिद्द मोठी,

जरी मरणाशी गाठ!

माझ्या कण्याकण्यामधे,

किती रहातात पक्षी!

जणू बासरी वाटावी,

अशी काढलेली नक्षी!

त्यांच्या टोचायच्या चोचा,

मला पाडताना भोक!

त्यांची पहायचा कला,

माझा आवरून शोक!

वारा येतो तेव्हा वाटे,

त्यांचे कोसळेल घर!

सरावाचा झाला आहे,

त्यांच्या टोचण्याचा स्वर!

जाता गाठाया आकाश,

नाही जमीन सोडली!

पूल करून देहाचा,

माती-आकाश जोडली!

वय जाणवते आता,

माझा नाही भरवसा!

जगण्याच्या कौलातून,

मरणाचा कवडसा!

घरं सोडा सांगताना,

करकरतो मी मऊ!

पाखरानो शोधा आता,

माझा तरूणसा भाऊ!

सावळांचा भारी भार,

आता मला पेलवेना!

तरी निरोपाचा शब्द,

काही केल्या बोलवेना!

पंख फुटलेले नाही,

नाही डोळे उघडले!

अशा पिल्लासाठी माझे,

प्राण देहात अडले!

जन्म माहेरीचा सरे,

आता चाललो सासरी!

भोकं म्हणू नका देहा,

मी त्या कान्ह्याची बासरी!

© श्री प्रमोद जोशी

देवगड.

9423513604

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#138 ☆ तन्मय दोहे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण एवं विचारणीय “तन्मय दोहे… ”)

☆  तन्मय साहित्य # 138 ☆

☆ तन्मय दोहे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

लगा रहे हैं कहकहे, कर के वे दातौन।

दंतहीन बापू खड़े, सकुचाहट में मौन।।

 

मोहपाश में है घिरा , अर्जुन सा जनतंत्र।

कौरव दल के  बढ़ रहे, मायावी षडयंत्र।।

 

बदल रही हैं बोलियां, बदल रहे हैं ढंग।

बौराये से सब लगें, ज्यों  खाएँ हो भंग।।

 

ठहर गई है  जिंदगी, नहीं  पक्ष में वोट।

रुके पाँव उम्मीद के, अपनों से ही चोट।।

 

भूल  गए  सरकार जी, आना  मेरे  गाँव।

छीन ले गए साथ में, मेल-जोल की छाँव।।

 

शकुनि – से   पाँसे  चले,  ये  सरकारी  लोग।

तब-तक खुश होते नहीं, जब-तक चढ़े न भोग।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 115 ☆ तीन शिक्षिकाओं की कहानी – 8 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। आज प्रस्तुत है इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला की अगली कड़ी – “तीन शिक्षिकाओं की कहानी”)

☆ संस्मरण # 115 – तीन शिक्षिकाओं की कहानी – 8 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर मुझे माँ सारदा कन्या विद्यापीठ की तीन युवतियों की स्मृति हो आई । यह तीनों आदिवासी युवतियाँ इस विद्यापीठ की पुरानी विद्यार्थी तो नहीं है पर अपनी  शैक्षणिक योग्यता के कारण यहाँ नन्ही आदिवासी बालिकाओं को शिक्षित करने के लिए नियुक्त की गई हैं । इन तीनों में एक जज्बा है पढ़ने और पढ़ाने का और शायद इसी उद्देश्य के लिए वे अल्प वेतन पर भी विद्यापीठ में अपनी सेवाएं दे रही हैं । वे तीनों न केवल पढ़ाती हैं वरन छात्रावास और भोजनालय की व्यवस्था भी संभालती हैं और बालिकाओं को खेलकूद, चित्रकला, गायन आदि गैर शैक्षणिक गतिविधियों में व्यस्त रखती हैं ।

अनपढ़ माता पिता हीरालाल बैगा और श्रीमती बाई  की पुत्री रामेश्वरी पिछली शताब्दी के खत्म होने के कोई चार वर्ष पहले पैदा हुई । माँ-पिता के पास पारिवारिक बटवारे में मिली थोड़ी सी कृषि भूमि ग्राम जरहा में है तो उससे प्राप्त उपज और मेहनत मजदूरी से साल भर में तीस हजार के लगभग आमदनी हो जाती है और इसी से तीन भाई ओ तीन बहनों के परिवार का भरण पोषण होता है । रामेश्वरी के पिता को न जाने कैसे प्रेरणा मिली, उसने अपनी संतानों को पढ़ाने का निर्णय लिया। उसकी  छह संतानों में से तीन विज्ञान स्नातक हैं। अपने मझले भाई को जब बीएससी में पढ़ते देखा तो रामेश्वरी की इच्छा भी ऐसा कुछ करने की हो चली। अपने अनपढ़ पिता को उसने अपने सपने के साथ खड़ा पाया और मझले भाई की ही भांति उसने भी अच्छे अंकों के साथ जीवविज्ञान व रसायन शास्त्र विषय लेकर स्नातक की उपाधि अर्जित की। रामेश्वरी बीएड कर प्रशिक्षित शिक्षक बनना चाहती है और उसके इस सपने में आड़े आ रही है धन की कमी । ऐसे पेशेवर अध्ययन के लिए यह सही है कि शैक्षणिक शुल्क की प्रतिपूर्ति छात्रवृति से हो जाती है पर छात्रावास भोजन व अन्य व्यय तो होते हैं, जिसकी व्यवस्था करना  फिलहाल  रामेश्वरी और उसके अभिभावक के बस में नहीं है ।

एक दूसरी शिक्षिका सरिता सोनवानी (गोंड) की कहानी भी अभावों में पली बढ़ी बेटी की कहानी है । उसके पाचवीं पास पिता रत्तीदास ने तीन शादियाँ की । पहली पत्नी चंपा बाई को दो संतान पैदा होने के बाद छोड़ दिया। यही चम्पा, सरिता की माँ है और उसने मेहनत मजदूरी करके अपने दोनों बच्चों को पढ़ाया । अपनी माँ की जीवटता की सरिता बड़ी प्रसंशक है। सरिता का भाई वनस्पति शास्त्र में स्नातकोत्तर है पर बेरोजगार है, बीएड  नहीं कर पा रहा क्योंकि धनाभाव है । सरिता कहती है कि यदि मातापिता साथ रहते तो वह भी बारहवीं उत्तीर्ण करने के बाद उच्च शिक्षा के लिए कालेज जाती। मैंने उससे भविष्य की योजनाओं और विवाह के बारे में जानना चाहा । वह कहती है कि परिवार की आर्थिक स्थितियाँ और बुजुर्ग माँ की देखरेख की भावना उसे भविष्य के सुनहरे सपनों से दूर ले जाती है। यदि भाई को नौकरी मिल गई तब शायद वह विवाह के बारे में सोचेगी । 

एक अन्य गोंड युवती सीता पेण्ड्राम  की कहानी भी जीवटता से भरी है । उसके पिता मोहर सिंह ने भी दो विवाह किए । माँ बाद में मायके आ गई और फिर ननिहाल में रहकर ही उसने अपनी पढ़ाई लिखाई जारी रखी। बारहवीं उत्तीर्ण करने के बाद ट्यूशन पढ़ाकर आगे की पढ़ाई जारी रखी । सरकार की छात्रवृत्ति और अपनी कमाई के दम पर उसने कला संकाय में स्नातकोत्तर की उपाधि अर्जित की और फिर बीएड भी किया । सीता का बचपन कुछ हद तक खुशियों से भरा था, यद्दपि माँ अलग रहती थी पर पिता के यहाँ आना जाना था और पिता तथा सौतेले भइयों ने उसे बराबर स्नेह दिया । ननिहाल के अन्य रिश्तेदारों ने उसे आगे पढ़ने की प्रेरणा दी। विवाह वह करना चाहती है पर आर्थिक स्वावलंबन के बाद। यह बड़ा परिवर्तन शिक्षा के कारण ग्रामीण युवतियों में आया है । धर्मांतरण को लेकर सीता कहती है कि ग्रामीण क्षेत्रों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा  और स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव का लाभ ईसाई मिशनरियाँ उठाती हैं। अक्सर चर्च के प्रतिनिधि बीमार आदिवासियों के पास पहुँच जाते हैं, उन्हे मिशन अस्पताल में भर्ती करवा उनका न केवल इलाज करवाते हैं वरन उनके लिए ईसा मसीह से प्रार्थना भी करते हैं और यहीं से धर्मांतरण की नींव रखी जाती है ।

माँ सारदा कन्या विद्यापीठ की शिक्षिकाएं, यह तीन युवतियाँ एक नए ग्रामीण भारत की तस्वीर पेश करती हैं। वे हमारी बहुत सी समस्याओं के हल करने का मार्ग सुझाती हैं। यह मार्ग निश्चय ही अच्छी शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं से होकर जाता है। सरकार बालिकाओं के विवाह की उम्र बढ़ाना चाहती है लेकिन शिक्षित युवतियों ने तो विवाह की अपेक्षा आर्थिक स्वावलंबन को महत्ता दी है, ऐसा मैंने कई ग्रामीण युवतियों से चर्चा करने के बाद जाना है।

©श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 38 – जन्मदिवस – भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है अनुभवों एवं परिकल्पना  में उपजे पात्र संतोषी जी पर आधारित श्रृंखला “जन्मदिवस“।)   

☆ कथा कहानी # 38 – जन्मदिवस – भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

शाखा में काम काज भले ही देर से शुरु हुआ था पर स्टाफ की द्रुतगति से काम निपटाने की क्षमता और कस्टमर्स के सहयोग ने समय की घड़ी को भी अंगूठा दिखा दिया था जिसमें उत्प्रेरक बनी मिठाइयों का स्वाद भी कम नहीं था. जब बैंक के सामान्य दिनों की तरह यह दिन भी अपने आखिरी ओवर की ओर बढ़ रहा था तो मुख्य प्रबंधक महोदय के निर्देशानुसार, परंपरा के विपरीत शाखा के मीटिंग हॉल में जन्मदिन मनाने की तैयारियां वहीं लोग कर रहे थे जो इंतजाम अली के नाम से जाने जाते थे हालांकि इस बार उनके वरिष्ठ याने संतोषी साहब उनके साथ नहीं थे. परंपरा और पार्टियां एक दूसरे को बड़ी आसानी से नजरअंदाज कर देती हैं, उसी तरह जैसे क्रिकेट के बैट्समैन के शतक को लोग उसके अगले पिछले रिकॉर्ड को भूलकर इंज्वॉय करते हैं.

शाम को ठीक 5:30 बजे सभी लोग मीटिंग हॉल में आना शुरु कर चुके थे और जो पहले आ गये थे वे व्यवस्था की गुणवत्ता के निरीक्षण में लग चुके थे. चूंकि व्यवस्था बहुत विशालकाय नहीं थी तो सामान्य प्रयास में ही नियंत्रण में आ चुकी थी. ठीक 6बजे मुख्य प्रबंधक महोदय और संतोषी जी ने हॉल में एक साथ प्रवेश किया जो इस छोटे से आयोजन के लिये हर हाल में तैयार हो चुका था. शाखा के 20% “सदा लेटलतीफों” का इंतज़ार छोड़कर, बर्थडे केक और उस पर लगी कैंडल्स का “जन्मदिवस संस्कार” किया गया और केक के रसास्वादन का शुभारंभ संतोषी जी के मुखारविंद से हुआ जो कि होना ही था. इस रस्म में मुख्य प्रबंधक महोदय का उत्साह और सक्रियता प्रशंसनीय रही. सभी खुश थे क्योंकि संतोषी साहब से मिलकर लोग खुश हो ही जाते हैं, आप भी तो. नकारात्मकता से उनका न तो लेना देना था न ही कोई दूर का संबंध. बहरहाल शाखा में एक अच्छी परंपरा की शुरुआत हुई जो सहकर्मियों को पास आने का एक और अवसर प्रदान कर रही थी. यह सकारात्मकता का मिलन समारोह था जो संतोषी जी के सहज व्यक्तित्व से साकार हो रहा था.

शाखा की युवावाहिनी खुश तो थी पर बहुत व्यग्र भी, कारण स्पष्ट था कि ये लोग एक दिन में ही CAIIB के तीनों पार्ट क्लियर करना चाहते थे. पर संतोषी साहब ने उनको प्रेम से समझाया कि आज के इस दिन पर जो मेरे लिये विशिष्ट भी है, मेरे परिवार का भी आपके समान ही अधिकार है. तो इन सुनहरे पलों का एक भाग मुझे उनके साथ भी गुजारने दीजिए. बरस दर बरस बीतते बीतते ऐसा वक्त भी आता है जब बच्चे दूर होकर अपनी अपनी नई दुनियां में व्यस्त हो जाते हैं. बैंक की महफिलें भी साठ के पार उठ जाती हैं और रह जाते हैं पति और पत्नी. पति पत्नी का ये साथ भी सौभाग्य की शर्तो से बंधा होता है कि कौन किसका साथ कब तक निभाता है. तो ये जो वर्तमान है, वह मैं पूरी शिद्दत से जीना चाहता हूँ ताकि मन में कोई पछतावा न रहे.

हालांकि बाद में युवावाहिनी की डिमांड भी पूरी हुई पर उसका वर्णन अभी सोचना और लिखना बाकी है. इसलिए कृपया इंतजार करें, मजबूरी है.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 138 ☆ आजचे अभंग… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 138 ?

☆ आजचे अभंग… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

किती अहंकार।असतो मनात

दर्प  स्वभावाचा । जाईचना ॥

 

अरे विठूराया। गळो हे मीपण

आलेले बालंट। भयंकर ॥

 

पितळ उघडे। कधीचे पडले

तरीही तो-यात। रहावे का ?

 

ज्याने तारीयले। चिखली बुडता

ज्ञान  त्यासी देती। पोहण्याचे ॥

 

टाळीले सर्वांना। लिहिताना लेख

सारेच कर्तृत्व । स्वतःचेच ॥

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- sonawane.prabha@gmail.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक २४ – भाग १ -वास्को-डि-गामाचे हिरवे पोर्तुगाल ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक २४ – भाग १ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ वास्को-डि-गामाचे हिरवे पोर्तुगाल  ✈️

जॉर्डेनिअन एअरवेजने अमान इथे विमान बदलून स्पेनची राजधानी माद्रिद इथे पोहोचलो. माद्रिदहून आम्ही पोर्तुगालमधील पोर्टो या शहरात आलो. युरोपमधील जवळजवळ सर्व देश एकमेकांना अत्यंत उत्तम आठ पदरी महामार्गांनी व शानदार रेल्वे मार्गाने जोडलेले आहेत.’शेंगेन व्हिसा’ असल्याने (ब्रिटन सोडून ) सहजतेने एका देशातून दुसऱ्या देशात प्रवेश करता येतो. माद्रिद ते पोर्टो  या चारशे किलोमीटरच्या प्रवासात बसच्या स्वच्छ काचेतून दुतर्फा ‘हिरवे हिरवे गार गालिचे’ दिसत होते. डोंगर पायथ्याशी भातशेतीची आणि लुसलुशीत कोवळ्या पोपटी गवताची खूप मोठी कुरणे होती. त्यात वाळलेल्या सोनेरी गवताच्या दुलया गुंडाळून ठेवल्या होत्या.जॅकारंडाचे वृक्ष हळदी व जांभळ्या रंगाच्या फुलांनी बहरले होते. ऑलिव्ह, कॉर्क, पाम, ओक, पाईन  अशा वृक्षांची दाटी होती. याशिवाय संत्री, सफरचंद, द्राक्षे यांच्या मोठ्या मोठ्या बागा होत्या. शेतांमधून कारंज्यांसारखी स्प्रिंकलर्स होती. खूप मोठ्या सोलर प्लेट लावलेल्या होत्या. डोंगरमाथ्यावर पवनचक्क्यांच्या रांगा भिरभिरत होत्या.

पोर्टो हे प्राचीन, नऊशे वर्षांपूर्वीचे सुंदर शहर डोरो नदीच्या मुखाजवळ आहे. १९९७ मध्ये युनेस्कोने या शहराचा वर्ल्ड हेरिटेज मध्ये समावेश केला आहे. एकेकाळी इथूनच पोर्तुगालचा राज्य कारभार चालत असे. नव्या जगाच्या शोधार्थ निघालेल्या धाडसी दर्यावर्दींसाठी जहाजांचे बांधकाम पोर्टो येथील गोदीमध्येच झाले. पोर्टोमधील खूप उतार असलेल्या दगडी रस्त्यांवरून ट्रॅमपासून सर्व प्रकारची वाहने धावत होती. या अरुंद रस्त्याच्या दोन्ही बाजूला एकमेकींना चिकटलेल्या सलग इमारती आहेत. छोट्या घरांच्या दर्शनी भागावर सुंदर डिझाईनच्या ग्लेझ्ड टाइल्स लावल्या आहेत. या टाइल्समुळे सर्व ऋतूंमध्ये  घराचे संरक्षण होते असे गाईडने सांगितले. या घरांना नळीची कौले  होती आणि अगदी छोट्या जागेत, खिडकीत  तर्‍हेतर्‍हेची फुलांची झाडे सौंदर्यपूर्ण रीतीने जोपासली होती. चौरस्त्याच्या मधोमध सुंदर पुतळे आहेत. इथल्या सांता क्लारा चर्चच्या अंतर्गत लाकडी नक्षीकामावर सोन्याचा मुलामा दिलेला आहे.उंच मनोऱ्यांवर मोठी घड्याळे आहेत.छोट्या बागांमधील दगडी चौथर्‍यावर, स्त्रिया, मुले, इतिहासातील पराक्रमी पुरुष, दर्यावर्दी यांचे पुतळे आहेत. प्रसिद्ध शिल्पकारांच्या शिल्पांची म्युझियम्स आहेत.

पोर्टोची आणखी एक वेगळी ओळख म्हणजे डोरो नदीवर बांधलेले वैशिष्ट्यपूर्ण देखणे पूल! स्पेनमध्ये उगम पावलेली डोरो नदी पोर्तुगालमध्ये येऊन अटलांटिक महासागराला मिळते. निळसर रंगाच्या, समुद्राप्रमाणे भासणाऱ्या लांबरुंद डोरो नदीवरील पूल म्हणजे स्थापत्यशास्त्रातील कलात्मक सौंदर्याचे नमुने आहेत. मारिया पाया हा ६० मीटर लांबीचा, नदीवरून रेल्वे वाहतूक करणारा पूल हा संपूर्णपणे धातूचा (metallic structure) बांधलेला आहे. एकाच लोखंडी कमानीवर तोललेल्या या पुलाचे डिझाईन गुस्ताव आयफेल ( पॅरिसच्या सुप्रसिद्ध आयफेल टॉवरचे वास्तुशास्त्रज्ञ ) यांनी केले आहे. १८७७ मध्ये पूर्ण झालेला हा पूल अजूनही उत्तम स्थितीत असून तो वापरात आहे.आयफेल यांचे शिष्य टोफिलो सिरींग यांनी या नदीवर डी लुईस हा पूल १८८६ मध्ये बांधला. वाहनांसाठी असलेला हा दुमजली पूल आपल्या गुरुंप्रमाणे त्यांनी मेटलचा व एकाच कमानीवर तोललेला असा बांधला  आहे. यावरून सतत वाहतूक चालू असते. त्याशिवाय आणखी तीन  सिमेंट काँक्रीटचे पूल बांधण्यात आले आहेत. नदीचे विहंगम दृश्य बघण्यासाठी नदीच्या दोन्ही काठांना जोडणाऱ्या केबलकारची सोय करण्यात आली आहे. नदीतून जुन्या पद्धतीच्या, पसरट तळ व उंच टोकदार डोलकाठी असलेल्या रिबेलो नावाच्या होड्यांतूनही वाहतूक चालते.

पोर्टोची आणखी एक खासियत म्हणजे इथली जगप्रसिद्ध ‘पोर्ट वाइन ‘. पोर्टोच्या आसपासच्या परिसरातील व डोरो व्हॅलीतील द्राक्षांपासून ही गोडसर  चवीची रेड वाइन बनविली जाते. मोठ्या लाकडी पिंपांतून (बॅरल्स ) साठविली जाते व जगभर निर्यात होते.

भाग १ समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 39 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 39 – मनोज के दोहे

ताल हुए बेताल अब, नीर गया है सूख।

सूरज की गर्मी विकट, उजड़ रहे हैं रूख।।

 

नदी हुई अब बावली, पकड़ी सकरी राह।

सूना तट यह देखता, जीवन की फिर चाह।।

 

पोखर दिखते घाव से, तड़प रहे हैं जीव।

उपचारों के नाम से, खड़ी कर रहे नीव।।

 

झील हुई ओझल अभी, नाव सो रही रेत।

तरबूजे सब्जी उगीं, झील हो गई  खेत।।

 

हरियाली गुम हो रही, सूरज करता दाह।

प्यासे झरने हैं खड़े, दर्शक भूले राह।।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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