श्री अरुण कुमार डनायक 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। आज प्रस्तुत है इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला की अगली कड़ी – “तीन शिक्षिकाओं की कहानी”)

☆ संस्मरण # 115 – तीन शिक्षिकाओं की कहानी – 8 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर मुझे माँ सारदा कन्या विद्यापीठ की तीन युवतियों की स्मृति हो आई । यह तीनों आदिवासी युवतियाँ इस विद्यापीठ की पुरानी विद्यार्थी तो नहीं है पर अपनी  शैक्षणिक योग्यता के कारण यहाँ नन्ही आदिवासी बालिकाओं को शिक्षित करने के लिए नियुक्त की गई हैं । इन तीनों में एक जज्बा है पढ़ने और पढ़ाने का और शायद इसी उद्देश्य के लिए वे अल्प वेतन पर भी विद्यापीठ में अपनी सेवाएं दे रही हैं । वे तीनों न केवल पढ़ाती हैं वरन छात्रावास और भोजनालय की व्यवस्था भी संभालती हैं और बालिकाओं को खेलकूद, चित्रकला, गायन आदि गैर शैक्षणिक गतिविधियों में व्यस्त रखती हैं ।

अनपढ़ माता पिता हीरालाल बैगा और श्रीमती बाई  की पुत्री रामेश्वरी पिछली शताब्दी के खत्म होने के कोई चार वर्ष पहले पैदा हुई । माँ-पिता के पास पारिवारिक बटवारे में मिली थोड़ी सी कृषि भूमि ग्राम जरहा में है तो उससे प्राप्त उपज और मेहनत मजदूरी से साल भर में तीस हजार के लगभग आमदनी हो जाती है और इसी से तीन भाई ओ तीन बहनों के परिवार का भरण पोषण होता है । रामेश्वरी के पिता को न जाने कैसे प्रेरणा मिली, उसने अपनी संतानों को पढ़ाने का निर्णय लिया। उसकी  छह संतानों में से तीन विज्ञान स्नातक हैं। अपने मझले भाई को जब बीएससी में पढ़ते देखा तो रामेश्वरी की इच्छा भी ऐसा कुछ करने की हो चली। अपने अनपढ़ पिता को उसने अपने सपने के साथ खड़ा पाया और मझले भाई की ही भांति उसने भी अच्छे अंकों के साथ जीवविज्ञान व रसायन शास्त्र विषय लेकर स्नातक की उपाधि अर्जित की। रामेश्वरी बीएड कर प्रशिक्षित शिक्षक बनना चाहती है और उसके इस सपने में आड़े आ रही है धन की कमी । ऐसे पेशेवर अध्ययन के लिए यह सही है कि शैक्षणिक शुल्क की प्रतिपूर्ति छात्रवृति से हो जाती है पर छात्रावास भोजन व अन्य व्यय तो होते हैं, जिसकी व्यवस्था करना  फिलहाल  रामेश्वरी और उसके अभिभावक के बस में नहीं है ।

एक दूसरी शिक्षिका सरिता सोनवानी (गोंड) की कहानी भी अभावों में पली बढ़ी बेटी की कहानी है । उसके पाचवीं पास पिता रत्तीदास ने तीन शादियाँ की । पहली पत्नी चंपा बाई को दो संतान पैदा होने के बाद छोड़ दिया। यही चम्पा, सरिता की माँ है और उसने मेहनत मजदूरी करके अपने दोनों बच्चों को पढ़ाया । अपनी माँ की जीवटता की सरिता बड़ी प्रसंशक है। सरिता का भाई वनस्पति शास्त्र में स्नातकोत्तर है पर बेरोजगार है, बीएड  नहीं कर पा रहा क्योंकि धनाभाव है । सरिता कहती है कि यदि मातापिता साथ रहते तो वह भी बारहवीं उत्तीर्ण करने के बाद उच्च शिक्षा के लिए कालेज जाती। मैंने उससे भविष्य की योजनाओं और विवाह के बारे में जानना चाहा । वह कहती है कि परिवार की आर्थिक स्थितियाँ और बुजुर्ग माँ की देखरेख की भावना उसे भविष्य के सुनहरे सपनों से दूर ले जाती है। यदि भाई को नौकरी मिल गई तब शायद वह विवाह के बारे में सोचेगी । 

एक अन्य गोंड युवती सीता पेण्ड्राम  की कहानी भी जीवटता से भरी है । उसके पिता मोहर सिंह ने भी दो विवाह किए । माँ बाद में मायके आ गई और फिर ननिहाल में रहकर ही उसने अपनी पढ़ाई लिखाई जारी रखी। बारहवीं उत्तीर्ण करने के बाद ट्यूशन पढ़ाकर आगे की पढ़ाई जारी रखी । सरकार की छात्रवृत्ति और अपनी कमाई के दम पर उसने कला संकाय में स्नातकोत्तर की उपाधि अर्जित की और फिर बीएड भी किया । सीता का बचपन कुछ हद तक खुशियों से भरा था, यद्दपि माँ अलग रहती थी पर पिता के यहाँ आना जाना था और पिता तथा सौतेले भइयों ने उसे बराबर स्नेह दिया । ननिहाल के अन्य रिश्तेदारों ने उसे आगे पढ़ने की प्रेरणा दी। विवाह वह करना चाहती है पर आर्थिक स्वावलंबन के बाद। यह बड़ा परिवर्तन शिक्षा के कारण ग्रामीण युवतियों में आया है । धर्मांतरण को लेकर सीता कहती है कि ग्रामीण क्षेत्रों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा  और स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव का लाभ ईसाई मिशनरियाँ उठाती हैं। अक्सर चर्च के प्रतिनिधि बीमार आदिवासियों के पास पहुँच जाते हैं, उन्हे मिशन अस्पताल में भर्ती करवा उनका न केवल इलाज करवाते हैं वरन उनके लिए ईसा मसीह से प्रार्थना भी करते हैं और यहीं से धर्मांतरण की नींव रखी जाती है ।

माँ सारदा कन्या विद्यापीठ की शिक्षिकाएं, यह तीन युवतियाँ एक नए ग्रामीण भारत की तस्वीर पेश करती हैं। वे हमारी बहुत सी समस्याओं के हल करने का मार्ग सुझाती हैं। यह मार्ग निश्चय ही अच्छी शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं से होकर जाता है। सरकार बालिकाओं के विवाह की उम्र बढ़ाना चाहती है लेकिन शिक्षित युवतियों ने तो विवाह की अपेक्षा आर्थिक स्वावलंबन को महत्ता दी है, ऐसा मैंने कई ग्रामीण युवतियों से चर्चा करने के बाद जाना है।

©श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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