हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 191 ☆ आलेख – वैश्विक वितरण का ई कामर्स ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय   आलेख – वैश्विक वितरण का ई कामर्स।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 191 ☆  

? आलेख  – वैश्विक वितरण का ई कामर्स ?

भारतीय तथा एशियन डायसपोरा सारी दुनिया में फैला हुआ है । पिछले लंबे समय से मैं अमेरिका में हूं , मैने पाया है की यहां अनेक लोग भारत में मिलने वाली वस्तुएं लेना चाहते हैं पर वे चीजें अमेजन यू एस में उपलब्ध नहीं हैं । अमेजन द्वारा या अन्य किसी के द्वारा वैश्विक वितरण का ई कामर्स शुरू हो सकता है , लोग फ्राइट चार्ज सहज ही दे सकते हैं । इस तरह की सेवा शुरू हो तो लोगों की जिंदगी आसान हो सकेगी । अभी भी ये वस्तुएं अमेरिका में मिल तो जाती हैं पर उसके लिए किसी इंडियन या पाकिस्तानी , बांग्लादेशी स्टोर्स में जाना होता है । अमेजन का अमेरिका सहित प्रायः विभिन्न देशों में बड़ा वितरण , तथा वेयर हाउस नेटवर्क है ही , केवल उन्हे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर डिलीवरी प्रारंभ करनी है ।

मुझे स्मरण है की पिछले कोरोना काल में मैने अपने बच्चों को बड़े बड़े पार्सल सामान्य घरेलू खाने पीने के सामानों की भेजी थी , जिसमे मकर संक्रांति पर तिल के लड्डू भी थे । सात दिन में पार्सल हांगकांग , अमेरिका , लंदन , दुबई पहुंच गए थे ।

नए स्टार्ट अप हेतु भी मेरा यह सुझाव एक बड़ा अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय बन सकता है , जो अच्छा खासा निर्यात कर सकता है ।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

न्यूजर्सी , यू एस ए

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग – 18 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 18 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

परदेश: बेतार के तार

विगत दिन यहां विदेश में एक समुद्र तट पर जाना हुआ जिसका नाम “मारकोनी” हैं। मानस पटल पर पच्चास वर्ष पुरानी यादें ताज़ा हो गई।

बात सन अस्सी से पूर्व की है, भोपाल सर्कल में एक प्रोबेशनरी अधिकारी श्री विजय मोहन तिवारी जी ने बैंक की नौकरी से त्यागपत्र देकर कोचिंग कक्षा केंद्र आरंभ किया था।

प्रथम दिन उन्होंने बताया की किसी पुरानी बात को याद रखने के लिए उसको किसी अन्य वस्तु / स्थान आदि से जोड़ कर याद रखा जा सकता हैं। उद्धरण देते हुए उनका प्रश्न था कि “रेडियो” का अविष्कार किसने किया था? हमने  उत्तर में “मारकोनी” बताने पर उनका अगला प्रश्न था, कि इसको कैसे लिंक करेंगें? जवाब में हमने बताया की घर में रेडियो अधिकतर “कोने” में रखे जाते है, जोकि मारकोनी से मिलता हुआ सा हैं।

बोस्टन शहर से करीब एक सौ मील की दूरी पर मारकोनी बीच (चौपाटी) के नामकरण के लिए भी एक महत्वपूर्ण कारण था। इसी स्थान से अटलांटिक महासागर पार यूरोप में पहला “बेतार का तार” भेजा गया था। जिसका अविष्कार मारकोनी द्वारा ही किया गया था। विश्व प्रसिद्ध टाइटैनिक समुद्री जहाज़ ने भी इसी प्रणाली का प्रयोग कर बहुत सारे यात्रियों की जान बचाई थी।

संचार क्रांति के पश्चात “तार” (टेलीग्राम) का युग अब अवश्य समाप्त हो गया हैं, परंतु मारकोनी के रेडियो का उपयोग अभी भी जारी हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 149 – विशाल भंडारा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है  जीवन में आनंद एवं सुमधुर आयोजन के महत्व को दर्शाती एक भावप्रवण लघुकथा विशाल भंडारा ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 149 ☆

🌺 लघुकथा 🌺 विशाल भंडारा 🌺

भंडारा कहते ही सभी का मन भोजन की ओर सोचने लगता है।

सभी प्रकार से सुरक्षित, साधन संपन्न, शहर के एक बहुत बड़े हाई स्कूल जहाँ पर छात्र-छात्राएं एक साथ (कोएड) पढ़ते थे।

हाई स्कूल का माहौल और  बच्चों का प्ले स्कूल सभी के मन को भाता था। गणतंत्र दिवस की तैयारियां चल रही थी। सभी स्कूल के टीचर स्टाफ अपने अपने कामों में व्यस्त थे।

गीत – संगीत का अलग सेक्शन था वहाँ भी बैंड और राष्ट्रीय गान को अंतिम रूप से दिया जा रहा था।

स्कूल में एक कैंटीन थी, जहाँ पर बच्चे और टीचर /स्टाफ सभी को पर्याप्त रूप से नाश्ते में खरीद कर खाने का सामान मिल जाता था।

स्कूल का वातावरण बड़ा ही रोचक और मनोरम था। किसी टीचर का जन्मदिन या शादी की सालगिरह या कोई अन्य कार्यक्रम होता।उस दिन  कैंटीन पर वह जाकर कह देते और पेमेंट कर सभी 150 से 200  टीचर / स्टाफ आकर अपना नाश्ता ले लेते और बदले में बधाईयों का ढेर लग जाता। शुभकामनाओं की बरसात होती। मौज मस्ती का माहौल बन जाता।

स्कूल में भंडारा कहने से बात हवा की तरह फैल गई। सभी खुश थे आज भंडारा खाने को मिलेगा। यही हुआ आज स्कूल स्टाफ के संगीत टीचर विशाल का जन्मदिन था।

विशाल शांत, सौम्य और संकोची स्वभाव का था। अपने काम के प्रति निष्ठा स्कूल के आयोजन को पूर्णता प्रदान करने में अग्रणी योगदान देता था।

विशाल का युवा मन कहीं कोई कुछ कह न  दे या किसी को मेरे कारण किसी बात से ठेस न पहुँचे, इस भावना से वह चुपचाप जाकर कैंटीन पर धीरे से वहां की आंटी को बोला…. “ज्यादा बताने की जरूरत नहीं है, आज मेरा जन्मदिन है। सभी स्टाफ को मेरी तरफ से नाश्ता देना है।”

शांत, मधुर मुस्कान लिए विशाल ने जब यह बात कही। कैंटीन वाली आंटी ने पहले सोचा इसे सरप्राइज देना चाहिए। विशाल के वहाँ से निकलने के बाद वह सभी से कहने लगी भंडारा भंडारा भंडारा विशाल भंडारा सभी बड़े खुश हो गए।

किसी का ध्यान विशाल के जन्मदिन की ओर नहीं गया। बस यह था कि स्कूल से भरपूर भंडारा खाने का मजा आएगा। जो सुन रहा था वह खुशी से एक दूसरे को बता रहे थे।

पर कारण किसी को पता नहीं था। अपने कामों में व्यस्त विशाल के पास उसका अपना दोस्त दौड़ते आया और कहने लगा… “सुना तुमने आज विशाल भंडारा होने वाला है।” जैसे ही विशाल ने सुना पियानो पर हाथ रखे उंगलियां एक साथ बज उठी और तुरंत वहाँ से उठकर चल पड़ा। ‘चल चल चल’ दूसरी मंजिल से जल्दी-जल्दी सीढ़ियां उतरते विशाल ने देखा आंटी सभी को खुश होकर नाश्ता बांट रही थी, और कह रही थी विशाल का भंडारा है जन्मदिन की बधाइयाँ। सभी के हाथों पर नाश्ते की प्लेट और चेहरे पर मुस्कान थी।

अपने जन्मदिन का इतना सुंदर तोहफा, आयोजन पर विशाल गदगद हो गया। तभी बैंड धुन बजाने लगे हैप्पी बर्थडे टू यू। सारे स्टाफ के बीच विशाल अपना जन्मदिन मनाते सचमुच विशाल प्रतीत हो रहे थे। विशाल भंडारा सोच कर वह मुस्कुरा उठा। जन्मदिन की खुशियां दुगुनी हो उठी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #172 ☆ स्वामित्व… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 172 ?

☆ स्वामित्व…  ☆

हे विश्व तुझ्या बापाचे नव्हते आणिक नाही

स्वामित्व तुला देहाचे नव्हते आणिक नाही

 

अंगावर साधी तेव्हा लंगोटीही नव्हती

काहीच तुझ्या नावाचे नव्हते आणिक नाही

 

स्वामित्व जरी मुंग्यांचे नाग डसत हे होते

वारूळ कधी सापाचे नव्हते आणिक नाही

 

हे आप्त निघाले वैरी मात मिळाली म्हणुनी

हे राज्य इथे दुबळ्यांचे नव्हते आणिक नाही

 

सत्तेसाठी नाही ते रयतेसाठी लढले

हे राज्य इथे जाचाचे नव्हते आणिक नाही

 

शृंगार करूनी बसली नजरा वाटेवरती

काहीच तशा अर्थाचे नव्हते आणिक नाही

 

देहास निघाला घेउन एकटाच यात्रेला

कोणीच तुझ्या गावाचे नव्हते आणिक नाही

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ चं म त ग ! – एक अफलातून सोमवार ! – ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? विविधा ?

 😂 चं म त ग ! 😅 एक अफलातून सोमवार ! 💃☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

“अहो उठा, पाच वाजून गेले!”

“हो गं, जरा गजर तर होऊ दे “

“मी दोनदा गजर बंद केलाय म्हटलं!”

“दोनदा ?”

“मग, साडे चारचा गजर  एकदा त्याच्या वेळेला झाला तेव्हा आणि मी बंद केल्यावर snooz ला जाऊन परत पाच वाजता झाला तेंव्हा “

“अरे बापरे, म्हणजे आता वाजले तरी किती ?”

“साडेपाच वाजत आले, मला पण सगळे आटपून आठ पाच पकडायची आहे”

“जाऊ दे, आज कंटाळा आलाय ऑफिसला जायला”

“हे तुमच दर सोमवारच झालंय हल्ली”

“हल्ली म्हणजे?”

“हल्ली म्हणजे डोंबिवलीला रहायला आल्यापासून म्हणतेय मी”

“हो, पण फ्लॅटात रहायची हौस कोणाला होती?”

“म्हणजे, हौस काय मला एकटीलाच होती? उलट आपल्या गिरगांवातल्या जागेपासून, माझी आर्यन education ची शाळा हाकेच्या अंतरावर आणि तुमच BMCच ऑफिस दोन बस स्टॉपवर होतं.”

“हो नां, मग मी जे म्हणतोय ते बरोबरच आहे ना?”

“काय डोंबलाच बरोबर?

अहो, तुम्हांलाच BMC मधे प्रमोशन मिळाल्यावर गिरगांवातल्या चाळीतल्या दोन खोल्या, काडेपेटीच्या आकाराच्या वाटायला लागल्या  आणि तुम्ही तसं बोलून पण दाखवत होतात हजारदा, विसरले नाही मी अजून.”

“अग म्हणून तर मी गिरगांवातली जागा विकून ठाण्याला वन बेडची जागा घेऊया म्हटलं, तर तुझ्या आईनं खोडा घातला त्यात”

“उगाच माझ्या आईला दोष देवू नका यात”

“का, का दोष देवू नको? तिच्यामुळेच तर आपण येवून पडलो ना डोंबिवलीला?”

“हो क्का, मग मला आता एक सांगा, तुम्ही जी ठाण्याला वन बेड बघितली होती, ती कुठेशी होती हो ?”

“कुठेशी म्हणजे तुला जस काही माहितच नाही, वाघबीळला!”

“हां, म्हणजे सांगायला ठाण्याला राहतो, पण स्टेशन पासून रिक्षाने फक्त वीस मिनिटावर, काय बरोबर ना ?”

“अग पण तिथे सुद्धा हजारो लोकं राहून, नोकरी साठी रोज मुंबई गाठतातच ना ?”

“बरोबर, पण त्याच वीस मिनिटापैकी फक्त दहा मिनिट पुढे ट्रेनने प्रवास करून तुम्ही डोंबिवलीला पोचता त्याच काय ?”

“ते जरी खरं असलं तरी आपली जागा स्टेशनपासून लांब असल्यामुळे, इथे डोंबिवलीला उतरल्यावर सुद्धा रिक्षाच्या भल्या मोठया लायनीत, वीस वीस मिनिट उभ रहावं लागतच ना?”

“हो, पण या सगळ्या गोष्टीत तुम्ही एक महत्वाचं विसरताय ?”

“काय, दोन सोसायटया सोडून तुझी आई रहाते ते?”

“ते तर आहेच, पण त्या वाघबीळच्या जागेच्या बजेट मध्ये माझ्या आईने आपल्याला डोंबिवलीला दोन बेडची जागा मिळवून दिली ते!”

“अग हो, पण ठाणा म्हटलं की कसं ऐकायला जरा बरं वाटत आणि शिवाय स्टेटस वाढल्यावर त्या प्रमाणे नको का रहायला?”

“हवं ना, मी कुठे नाही म्हणत्ये ? मग त्या चांगल्या BMC च्या quarters मिळत होत्या मोठया, त्या का नाही घेतल्यात हो ? म्हणजे ही वेळ आली नसती नां?”

“तुला ना काही कळत नाही”

“काय, काय कळत नाही?”

“अग, quarters घेतली की house allowance मिळत नाही आणि शिवाय तिकडे सुद्धा रोज ऑफिस मधल्या लोकांचेच चेहरे बघायचे ना?”

“मग इथे गोपाळ नगर मधल्या आपल्या आराधना सोसायटीत तुमचे शेजारी पाजारी रोज बदलतात की काय ?”

“अग तसं नाही, पण नाही म्हटलं तरी मॉनिटरी लॉस हा होतोच होतो आणि शिवाय…”

“ही तुमची पळवाट झाली”

“अग पळवाट वगैरे काही नाही. Quarters न घेण्यात दुसरा पण एक महत्वाचा मुद्दा आहेच.”

“अस्स, तो कोणता?”

“अग रिटायर झाल्यावर quarters सोडावी लागते आणि त्या जागेची आपल्याला नंतर इतकी सवय झालेली असते, की रिटायरमेंट येई पर्यंत आपण विसरूनच जातो, की आता काही महिन्यातच आपल्याला ही जागा सोडायची आहे आणि रहायची दुसरी सोय करावी लागणार आहे आता ते”

“हो ना, पण आता आपण काही quarters मधे रहात नाही त्यामुळे ती भीती नाही! तेव्हा आता उठा आणि पाणी

जायच्या आत सगळं आवरून ऑफीसला पळा”

“अग खरंच कंटाळा आलाय आज.  तू पण दांडी मारतेस का ?”

“अशक्य, आताच नवीन वर्ष सुरु झालय आणि परीक्षा…”

“मी तुला कधी सांगतो का गं दांडी मारायला ? आज जरा आग्रह करतोय तर एवढा काय भाव खातेस”

“पुरे, पुरे, तुम्ही आता जाताय अंघोळीला का मी जाऊ ?”

“असं काय ते ?आज जरा मजा करू, गोपी टॉकीजला पिच्चर टाकू आणि मॉडर्न प्राईड मध्ये मस्त हादडू”

“अरे बापरे, आज कसले डोहाळे लागलेत एका माणसाला?”

“म्हणजे नवरे मंडळीच विसरतात असं नाही तर ?”

“मी नाही समजले तुम्हाला काय म्हणायचं आहे ते, उगाच आमच्या सारखं कोड्यात बोलू नका, सरळ काय ते सांगा”

“म्हणजे तुम्ही बायका कोड्यात बोलता हे मान्य आहे तर तुला ?”

“आता बऱ्या बोलाने सांगणार आहात की जाऊ मी अंघोळीला?”

“मॅडम आज जर का तुमचा वाढदिवस असता आणि मी तो विसरलो असतो, तर अख्ख घर डोक्यावर घेतल असत आपण !”

“होच मुळी, आपल्या एकुलत्या एक बायकोचा वाढदिवस नवरा विसरतो म्हणजे काय?”

“आणि नवऱ्याचा वाढदिवस बायको विसरली तर चालतं वाटतं मॅडम ?”

“Oh my God, सॉरी सॉरी, वाढदिवसाच्या हार्दिक शुभेच्छा !”

“It’s OK, थँक्स! मग काय  आज मी सांगितलेला प्रोग्राम follow करणार की दुसरं काही विशेष तुमच्या डोक्यात आहे मॅडम ?”

“दुसरं काही विशेष नाही, पण आज एक काम मात्र मी न चुकता नक्कीच करणार आहे”

“काय सांगतेस काय, खरंच?”

“खरंच म्हणजे? तुम्हाला माहित्ये मी शाळेत मुलांना खरं बोलायला शिकवते आणि स्वतः चुकून सुद्धा खोटं बोलत नाही.”

“अग हो, पण आज एक काम नक्की करणार आहेस म्हणजे काय करणार आहेस, ते आणखी सस्पेन्स न वाढवता सांगशील का प्लिज?”

“सांगते ना, आज कुठल्याही परिस्थितीत आठ पाच चुकवायची नाही म्हणजे नाही !”

© श्री प्रमोद वामन वर्तक

२४-०१-२०२३

दोस्ती इम्पिरिया, ग्रेशिया A 702, मानपाडा, ठाणे (प.)

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 122 – गीत –प्रतिबंध बहुत हैं… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण गीत – प्रतिबंध बहुत हैं।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 122 – गीत – प्रतिबंध बहुत हैं…  ✍

मुझ पर तो प्रतिबंध बहुत हैं

तू तो चल फिर सकता मन।

 

जा जल्दी से निकल बाहरे

कुलियों कुलियों जाना

राजमार्ग पर आ जाये तो

तनिक नहीं घबराना

थोड़ी दूर सड़क के पीछे

दिख जायेगा भव्य भवन।

 

भव्य भवन के किसी कक्ष में

होगी प्रिया उदासी

क्या जाने क्या खाया होगा

कब से होगी प्यासी

सुधबुध खोकर बैठी होगी

अपने में ही आप मगन।

 

पास खड़े हो हौले हौले

केशराशि सहलाना

‘आयेगा’ – वो गीत महल का

धीरे धीरे गाना।

आगे कुछ भी देख न पाऊँ

नीर भरे हो रहे नयन।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ गजल # 123 – “उसकी आँखो की है तारीफ यही……” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण गजल –उसकी आँखो की है तारीफ यही…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 123 ☆।। गजल।। ☆

☆ || “उसकी आँखो की है तारीफ यही || ☆

ओढ कर मुस्कराहट की चादर

दिख रहा हरा भरा अपना घर

 

देहरी पर खडा हुआ कोई

पूछ ने क्या हो गई दुपहर ?

 

किस तरह अस्त व्यस्त दिखता है

दूरके गाँव से पुराना शहर

 

उसकी आँखो की है तारीफ यही

लगा करती थी कभी जिनको नजर

 

तुम्हारे घरकी गली में अबभी

ढूँडता हूँ वही पुराना असर

 

देख लें जिन्दा अभी होंगे वहाँ

मिलें किताब में वे फूल अगर

 ©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

27-11-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 171 ☆ “मौसम औरअंगड़ाई” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं  विचारणीय कविता  – “मौसम औरअंगड़ाई”)

☆ कविता # 171 ☆ “मौसम औरअंगड़ाई” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

 आज

जैसे चिड़िया 

उड़ी है फुर्र से,

वैसे फुर्र से

उड़ गई है ठंड,

 

आज

जैसे पाहुना 

आता है बिन बताए

वैसे ही सूरज

लेकर आया तेज धूप ,

 

आज

जैसे बच्चा 

खुश होता है

आइसक्रीम पाकर

वैसे ही नीम

के पत्ते खिलखिलाए,

 

आज

जैसे भूख पेट से

लिपट पड़ती है

वैसे ही लिपट रही है

गेहूं की बाली,

 

आज

जब दिन बढ़ने 

लगे हैं बित्ते बित्ते

 तो सियासी समर 

के दिन बचे

हैं कित्ते,

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 113 ☆ # दिल कुछ पल बहल जाए… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है दीप पर्व पर आपकी एक भावप्रवण कविता “# दिल कुछ पल बहल जाए…#”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 113 ☆

☆ # दिल कुछ पल बहल जाए… # ☆ 

चलो कहीं चला जाए

कब तक फरेब से छला जाए

जीना दुश्वार हो गया है यहां

कब तक इस आग में जला जाए

 

यहां इन्सान कहां रहते हैं

बुत बनकर सब सहते हैं

मर गई है सबकी संवेदनाएं

क्या इसी को जीना कहते हैं ?

 

आंखें रहकर भी सारे अंधे हैं

ना जाने किसके गुलाम बंदे हैं

ना सुनते है ना बोलते है वो

गले में गुलामी के फंदे हैं

 

कांटों के संग फूल खिल तो रहे हैं

अच्छे बुरे लोग मिल तो रहे हैं

उपवन में यह सन्नाटा सा क्यूं है

दहशत में लोग होंठ सिलतो रहे हैं

 

चलो खुली हवा में कहीं टहल आए

लड़खड़ाती सांस फिर से चल जाए

कहीं तो होगी सुकून वाली जगह

शायद यह दिल कुछ पल बहल जाए  /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 114 ☆ वेदनेच्या कविता… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 114 ? 

वेदनेच्या कविता

वेदनेच्या ह्या कविता सांगू कशा 

मूक झाली भावना ही महादशा..धृ

 

अश्रू डोळ्यांतील संपून गेले पहा 

स्पंदने हृदयाची थांबून गेली पहा 

आक्रोश मी कसा करावा, कळेना हा.. १

नाते-गोते आप्त सारे विखुरले 

रक्ताचे ते पाणी झाले आटले 

मंद मंद मृत शांत भावना.. २

 

ऐसे कैसे दिस आले, सांगा इथे 

कीव ना इतुकी कुणाला काहो इथे 

आंधळे हे विश्व अवघे भासे इथे.. ३

 

सांगणे इतुकेच माझे आता गडे 

अंध ह्या चालीरीतीला पाडा तडे 

राज कवीचे शब्द आता तोकडे.. ४

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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