(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆.आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – जानते हैं हम शराफत आपकी…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 93– जानते हैं हम शराफत आपकी… ☆ आचार्य भगवत दुबे
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री राजेंद्र निगम जी ने बैंक ऑफ महाराष्ट्र में प्रबंधक के रूप में सेवाएँ देकर अगस्त 2002 में स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ली। उसके बाद लेखन के अतिरिक्त गुजराती से हिंदी व अँग्रेजी से हिन्दी के अनुवाद कार्य में प्रवृत्त हैं। विभिन्न लेखकों व विषयों का आपके द्वारा अनूदित 14 पुस्तकें प्रकाशित हैं। गुजराती से हिंदी में आपके द्वारा कई कहानियाँ देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। आपके लेखों का गुजराती व उड़िया में अनुवाद हुआ है। आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री यशवंत ठक्कर जी की कथा का हिन्दी भावानुवाद “मायका“।)
☆ कथा-कहानी – मायका – गुजराती लेखक – श्री यशवंत ठक्कर ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री राजेन्द्र निगम ☆
‘मेहुल, क्या आज ऑफिस से कुछ जल्दी आ सकते हो ?’ स्वाति ने पूछा |
‘क्यों ?’
‘आज रात आठ बजे टाउन-हाल में कवि सम्मलेन है | उसमें कई अच्छे-अच्छे कवि आनेवाले हैं | तुम यदि आओ तो चलते हैं |’
हर वक्त जब भी कविता, नाटक या साहित्य का जिक्र होता, तो मेहुल को हँसी आ जाती | इस वक्त भी वह आ गई | वह हँसते-हँसते बोला ; ‘कवि साले कल्पना की दुनिया से कभी बाहर ही नहीं आते | उन्हें कुछ दूसरा भी कुछ काम-धंधा है या नहीं |’
‘मेहुल, यदि न जाना हो, तो मुझे कुछ आपत्ति नहीं है | लेकिन ऐसे किसी का अपमान करना ठीक नहीं है |’
‘लो, तुम तो नाराज हो गई | तुम तो ऐसे बात कर रही हो, मानो मैंने तुम्हारे मायकों वालों की तौहीन कर दी हो |’
हर बार की तरह स्वाति चुप हो गई | लेकिन वह मन ही मन मेहुल से सवाल किए बगैर रह नहीं सकी | ‘मेहुल, यह मेरे मायके वालों के अपमान करने जैसा नहीं है | मायका अर्थात क्या सिर्फ मेरे माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-चाची, मामा-मामी आदि ही ? जिन कवियों की कविताओं ने मुझे प्रेम करना सिखाया, सपने देखना सिखाया, अकेले-अकेले मुस्कराना सिखाया, अकेले-अकेले रोना सिखाया, वे कवि क्या मेरे मायके के नहीं हैं ? आज मैं जो भी हूँ, जैसी भी हूँ, उसमें मेरे माता-पिता व मेरे शिक्षकों के साथ इन कवियों का भी अहम योगदान है | यह मैं तुम्हें कैसे समझाऊँ ? इसे समझने के लिए जब तुम्हारे पास यदि हृदय ही नहीं हो तब !’
स्वाति मेहुल के लिए टिफिन तैयार करने के काम में व्यस्त हो गई | मेहुल ऑफिस जाने की तैयारी में लग गया | लेकिन वातावरण में उदासी का रंग छा गया |
ऑफिस जाते समय मेहुल ने वातावरण को हल्का बनाने के इरादे से कहा, ‘सॉरी स्वाति, तुम तो जानती ही हो कि मैं पहले से ही कुछ प्रेक्टिकल हूँ और मुझे ऐसे कल्पना के घोड़े दौड़ाना अच्छा नहीं लगता | मुझे काम भी बहुत रहता है | जवाबदारी भी बहुत है | हमें अंश के भविष्य के बारे में भी विचार करना है | उसे किसी अच्छे होस्टल में रखना है | अच्छी पढ़ाई के बाद उसे विदेश भेजना है | ऐसे में साहित्य का राग ही अलापना नहीं है |’
स्वाति का मौन टूटा नहीं |
मेहुल ने वातावरण को हलका बनाने का प्रयास जारी रखा | ‘स्वाति, तुम्हें कविता, नाटक व कहानियाँ आदि का शौक है, लेकिन ये सब तो टीवी में आते ही हैं न ? अब तो नेट पर भी यह सब मिल जाता है |’
‘मेहुल, नेट पर तो रोटी-सब्जी भी होती है, लेकिन उससे पेट तो नहीं भरता | टीवी में हरे-भरे पेड़ भी बहुत होते हैं, लेकिन हमें उनसे छाँह तो नहीं मिलती | टीवी की बरसात हमें भिगोती नहीं है | ठीक है, कोई बात नहीं | कवि-सम्मलेन कोई बहुत बड़ी बात नहीं है | न जाएँगे, तब भी चलेगा | हमारी जवाबदारियाँ पहले हैं |’
स्वाति ने हँसने की कोशिश की, लेकिन उसकी रुआँसी आँखें मेहुल की नजरों से छिप न सकीं |
‘तुम्हें खुश रखने के लिए मैं कितनी जी तोड़ मेहनत करता हूँ, फिर भी तुम्हारी आँखों में आँसू ! तुम्हें क्या चाहिए, यह मुझे समझ नहीं आता |’ मेहुल की आवाज कुछ तेज हो गई |
‘मुझे मेरा गुम हुआ मेहुल चाहिए | जो छोटी-छोटी बातों से खुश हो जाता था |’ स्वाति किसी तरह कुछ बोल सकी |
‘छोटी-छोटी बातें !’ मेहुल हँसा और ऑफिस जाने लिए निकल गया |
अकेली रह गई स्वाति और वह जी भर कर रोती रही | वह सोचने लगी | ‘ऐसी जिंदगी, अब जी नहीं सकते, लगता है यह तो अब रोज मानो कॉपी-पेस्ट होती जा रही है | इसमें से अब नया कुछ भी बनने से रहा | जो बनना था, वह बन गया | अब तो जो रोज बनता है, वह सब एक जैसा | कविता, नाटक, संगीत, प्रवास इन सब के बगैर जिंदगी रुक नहीं जाती है, लेकिन इन सब के होने से जिंदगी को एक गति मिलती है | लेकिन इन सब को समझने के लिए मेहुल के पास वक्त नहीं है | शयद उसकी जिंदगी तेजी से भाग रही ट्रेन जैसी है और मेरी जिंदगी यार्ड में पड़े किसी डिब्बे जैसी !’
काम पूरा कर वह बिस्तर पर लेटी और बिस्तर पर पड़े-पड़े यही सोचती रही | उसकी आँखें बोझिल होने लगीं |
जब मोबाईल की रिंग बजी, तब उसकी आँखें खुलीं | फोन मेहुल का था | बात शुरू करने के पहले स्वाति ने अपनी नजर घड़ी की ओर घुमाई | चार बजने वाले थे |
‘हलो, स्वाति, क्या कर रही हो ?’
‘बस अभी उठी हूँ |’
‘कह रहा हूँ कि तुम रिक्शा कर छह बजे शहर में आ जाना | मैं लेने आऊँगा, तो देर हो जाएगी | हम लक्ष्मी-हॉल पर इकट्ठे हो जाएँगे |’
‘लेकिन क्यों ? कुछ खरीदना है ? मेरे पास बहुत कपड़े हैं और अब…’
‘मैं इकट्ठे होने की बात कर रहा हूँ, खरीदी करने की नहीं | मैं फोन रख रहा हूँ | काम में हूँ | आने का भूलना नहीं |’
‘ठीक है |’ स्वाति ने जवाब दिया या देना पड़ा |
स्वाति सोचने लगी, ‘अब मुझे मनाने के इरादे से एकाध साड़ी या ड्रेस दिलाने की बात करेंगे | लेकिन उसका क्या अर्थ है ? छोटी-छोटी खुशियों में अब उसकी कोई दिलचस्पी नहीं | उसकी गणना अलग ही तरह की है | लेकिन आज तो इंकार ही कर देना है | मुझे कपड़े और गहने इकट्ठे नहीं करने हैं |’
वह लक्ष्मी-हॉल पहुँची और वहाँ मेहुल अपनी बाईक पार्क कर उसकी प्रतीक्षा करता हुआ खड़ा था |
‘मेहुल, कुछ खरीदी करना है ?’ स्वाति साड़ी की दुकान की ओर नजर घुमाते हुए बोली |
‘हाँ ‘
‘क्या खरीदना है ?’
‘यह’ फुटपाथ पर बैठी एक बाई सिर को सुशोभित करनेवाले बोर बेच रही थी, मेहुल ने उसकी ओर हाथ से इंगित किया |
‘ओह ! इसकी तो मुझे वास्तव में बहुत जरूरत है |’ स्वाति मानो उस ओर दौड़ गई | वह बोर पसंद करने में मशगूल हो गई |
मेहुल स्वाति को मानो समझ रहा हो, ऐसे उसकी ओर देखने लगा |
‘दस रूपए दो न |’ स्वाति मेहुल की ओर देख कर बोली |
‘क्रेडिट कार्ड नहीं चलेगा ?’ मेहुल ने मजाक में पूछा | मेहुल ने एक लंबे अरसे के बाद इस प्रकार की मजाक की थी | स्वाति को अच्छा लगा |
बोर खरीदने के बाद मेहुल ने स्वाति से कपड़े खरीदने की बात की, लेकिन स्वाति ने इंकार कर दिया |
‘तो चलो, बाजार का एक चक्कर लगाते हैं | शायद बोर जैसी ही कुछ और भी चीज मिल जाए |’ मेहुल ने मजाक की |
स्वाति याद करने की कोशिश करने लागी कि वह आखिर में इस बाजार में कब आई थी| निश्चित दिन तो याद नहीं आया, लेकिन करीब पंद्रह वर्ष पहले के दिन याद आ गए, जब मेहुल का धंधा कुछ-कुछ जमने लगा था | कमाई कम थी, इसलिए खरीदी करने के लिए इस बाजार में आना पड़ता था |
बाजार आज भी चीजों व लोगों से भरा हुआ था | गरीब व माध्यम वर्ग के लोग कपड़े, चप्पल, कटलरी, खिलौने जैसी वस्तुएँ खरीद रहे थे | व्यापारी अपनी चीजें बेचने के लिए जाजम आदि बिछा कर बैठे हुए थे | उनमें से तो कई के लिए चार-छह वर्ग फिट जगह भी कमाई के लिए पर्याप्त थी | वे ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए उनमें जो भी कौशल थी, उसका वे उपयोग कर रहे थे | ग्राहक भाव लम करने के लिए रकझक कर रहे थे | व्यापारियों की चिल्लाहट, भोंपू व सीटियों का संगीत, जोर से बज रहे गीत, ‘जगह दो… जगह दो’ व ‘गाय आई… गाय आई’ जैसी चीखें, ये सब उस बाजार के वातावरण को जीवंत बना रहे थे |
स्वाति को एक लंबे समय के बाद ऐसे जीवंत वातावरण का अनुभव हो रहा था | उसे कोई पुराना सगा-संबंधी मिल गया हो, उस तरह का आनंद मिल रहा था | वस्तुएँ खरीद रहे ग्राहकों की आँखों में दिखाई दे रही आशा, उमंग, लाचारी जैसे भाव उसे अपने स्वयं के लगे | वर्षों पहले वह इसी प्रकार के भाव के साथ इस बाजर में अक्सर आती थी |
दोनों कपड़ों के एक ठेले से कुछ दूर खड़े रह गए | उन्होंने देखा कि एक बाई उसके बेटे के लिए कपड़े खरीदने के लिए आई थी | उसने ठेलेवाले के पास से लड़के के माप के एक जोड़ी कपडे लेकर लड़के को पहनाए | लड़का भी नए कपड़े पहन कर बहुत खुश था, अब मात्र रकम का भुगतान करना ही शेष था और इसलिए वह बाई भाव के लिए व्यापारी के साथ रकझक कर रही थी |
‘मेहुल, तुम्हें याद है ? अंश का पहला जन्मदिन था और तब हम उसके कपड़े लेने के लिए इसी बाजार में आए थे |’ स्वाति ने बालक की ओर प्रेम भरी नजरों से देखते हुए पूछा |
‘हाँ, लेकिन तब हमारी मजबूरी थी | कमाई कम थी न ?’
‘कमाई कम थी, लेकिन जिंदगी छोटी-छोटी खुशियों से छलकती रहती थी ! मैं भी इस बाई की तरह व्यापारियों के साथ रकझक करती थी और कीमत कम करवाने के बाद बहुत खुश हो जाती थी |’
लेकिन आज उस बाई और उसके लड़के के नसीब में शायद ऐसी खुशी नहीं थी | बहुत रकझक के बाद ठेलेवाले व्यापारी ने जो भाव कहा था, उस भाव का वहन करने की सामर्थ्य बाई में नहीं थी | उसके पास बीस रूपए कम थे | बीस रूपए कम लेकर वह कपड़ा देने के लिए गिडगिडा रही थी, लेकिन व्यापारी ने भी उसकी मजबूरी दर्शाई वह बोला, ‘बहनजी, इससे अब एक रुपया भी कम नहीं होगा | मेरे घर भी, मेरा परिवार है, मुझे वह भी देखना है न ?’
अंत में उस बाई के पास एक ही उपाय शेष रहा कि वह लड़के के शरीर पर से कपड़ा उतार कर व्यापारी को लौटा दे | वह जब वैसा करने लगी, तो लड़के ने बिलख कर रोना शुरू कर दिया | देखते-देखते बालक की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी | बच्चा अपनी भाषा में दलील करने लगा कि, ‘माँ, तुम मुझे यहाँ नए कपड़े दिलाने लाई हो तो फिर क्यों नहीं दिला रही हो ?’ बाई ने उसे समझाया, ‘बेटे, मान जाओ, ये कपड़े अच्छे नहीं हैं, तुम्हारे लिए इससे भी अच्छे कपड़े लाएँगे |’ लेकिन लड़के को वह बात गले नहीं उतर रही थी | उसका झगड़ा चालू ही था | बालहठ के समक्ष बाई धर्म-संकट में आ चुकी थी | वह बालक के शरीर पर से जोर लगाकर कपड़े को उतारने की कोशिश कर रही थी और बालक के पास जितनी ताकत थी, उससे वह कपड़े को पकड़े हुए था |
अब मेहुल से नहीं रहा गया | वह तुरंत ठेलेवाले के पास पहुँचा | उसने व्यापारी से, बाई न सुन सके, उतनी धीमी आवाज में पूछा, “कितने कम पड़ रहे हैं ?’
‘साहब, बीस रूपए | मैं जितना कम कर सकता था, उतने कम किए, लेकिन अब कम नहीं कर सकता हूँ | नहीं तो मैं बालक को रोने नहीं देता |’
‘तुम उन्हें कपड़ा दे दो | वे जाए, उसके बाद मैं बीस रूपए देता हूँ | उन्हें कहना नहीं कि बाकी की रकम मैं दे रहा हूँ, नहीं तो खराब लगेगा |’ मेहुल ने यह धीमे से कहा और स्वाति के पास आ गया |
‘’रहने दो | ठीक है, पहने रहने दो |’ व्यापारी ने बाई को कहा | ‘लाओ, बीस रूपए कम हैं, तो ठीक है, चलेंगे |’
बाई ने उसके पास जो थी, वह रकम व्यापारी के हाथ पर रख दी |
‘अब खुश ?’ व्यापारी ने लड़के से प्रेम से पूछा | बालक ने निर्दोष नजर से अपनी प्रसन्नता व्यक्त की |
बाई व्यापारी को आशीर्वाद देती-देती और बच्चे के गालों पर से आँसू पोंछती-पोंछती गई |
बाई और उसका लड़का कुछ दूर पहुँचे और तब मेहुल ने उस व्यापारी को बीस रूपए का भुगतान कर दिया |
‘आज मुझे मेरा गुम हुआ मेहुल वापिस मिल गया है |’ खुश होते हुए स्वाति बोली |
‘स्वाति, आज मैंने ऑफिस में गुम हुए मेहुल को ढूँढने के सिवा और कुछ काम नहीं किया | चार बजे वह मुझे मिला और मैंने तुम्हें तुरंत फोन किया |’ मेहुल ने कहा |
स्वाति ने मेहुल का हाथ पकड़ लिया | ‘चलो, अब मुझे कुछ नहीं चाहिए, जो चाहिए था, वह मिल गया |’
‘अरे ! यहाँ तक आए हैं तो भला राजस्थानी कचोरी खाए बगैर कैसे जाएँगे ?’
राजस्थानी कचोरी खाने के बाद उन्होंने उस हॉटल में आइसक्रीम खाई, जिस हॉटल में उन्होंने अंश को पहली बार आइसक्रीम खिलाई थी |
बाजार में एक चक्कर लगाकर वे दोनों बाईक के पास फिर आए |
मेहुल ने स्वाति को बिठाया और बाईक को दौड़ाया | उसने घर की ओर का रास्ता नहीं लिया, इसलिए स्वाति ने पूछ ही लिया, ‘क्यों इस ओर ? घर नहीं चलना है ?’
‘नहीं, अभी एक ठिकाना और बाकी है |’ मेहुल ने जवाब दिया |
‘कहाँ ?’
‘नजदीक ही है ?’
उस नजदीक की जगह के बारे में स्वाति कुछ अनुमान लगाती रही | लेकिन उसके वे सब अनुमान गलत निकले, जब उस जगह पर मेहुल ने बाईक खड़ी की |
‘यहाँ जाना है |’ उसने जगह की ओर उंगली से इशारा करते हुए बताया |
काव्य-रसिकों का स्वागत करता हुआ टाउन-हॉल स्वाति को उसके मायके जैसा ही लगा |
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “फागुन के दिन आ गये…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री अशोक व्यास जी द्वारा लिखित “राजघाट से राजपाट तक” पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 172 ☆
☆ “राजघाट से राजपाट तक” – व्यंग्यकार… श्री अशोक व्यास☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
कृति … राजघाट से राजपाट तक
व्यंग्यकार … अशोक व्यास
भावना प्रकाशन, दिल्ली
पृष्ठ १४४
मूल्य २५० रु पेपरबैक
राजपाट प्राप्त करना प्रत्येक छोटे बड़े नेता का अंतिम लक्ष्य होता है। इसके लिये महात्मा गांधी की समाधी राजघाट एक मजबूत सीढ़ी होती है। गांधी के आदर्शो की बातें करता नेता, दीवार पर गांधी की तस्वीर लगाकर सही या गलत तरीकों से येन केन प्रकारेण सत्ता प्राप्त करने में जुटा हुआ है। यह लोकतंत्र का यथार्थ है। गांधी की खादी के पर्दे हटाकर जनता इस यथार्थ को अच्छी तरह देख और समझ रही है। किन्तु वह बेबस है, वह वोट दे कर नेता चुन तो सकती है किन्तु फिर चुने हुये नेता पर उसका कोई नियंत्रण नहीं रह जाता। तब नेता जी को आइना दिखाने की जिम्मेदारी व्यंग्य पर आ पड़ती है। भावना प्रकाशन, दिल्ली से सद्यः प्रकाशित व्यंग्य संग्रह राजघाट से राजपाट तक पढ़कर भरोसा जागता है कि अशोक व्यास जैसे व्यंग्यकार यह जिम्मेदारी बखूबी संभाल रहे हैं।
विचारों का टैंकर अशोक व्यास जी का पहला व्यंग्य संग्रह था, जिसे साहित्य जगत ने हाथों हाथ लिया और उस कृति को अनेक संस्थाओ ने पुरस्कृत कर अशोक जी के लेखन को सम्मान दिया है। फिर “टिकाऊ चमचों की वापसी” प्रकाशित हुआ वह भी पाठको ने उसी गर्मजोशी से स्वीकार किया। उनके लेखन की खासियत है कि समाज की अव्यवस्थाओं, विसंगतियों, विकृतियों, बनावटी लोकाचार, कथनी करनी के अंतर, अनैतिक दुराचरण उनके पैने आब्जरवेशन से छिप नहीं सके हैं। वे निरंतर उन पर कटाक्ष पूर्ण लिख रहे हैं। अशोक व्यास किसी न किसी ऐसे विषय पर अपनी कलम से प्रहार करते दिखते हैं। “आत्म निवेदन के बहाने” शीर्षक से पुस्तक के प्रारंभिक पृष्ठों में उन्होने आत्मा से साक्षात्कार के जरिये बहुत रोचक शब्दों में अपनी प्रस्तावना रखी है।
राजघाट से राजपाट तक विभिन्न सामयिक विषयों पर चुनिंदा इकतालीस व्यंग्य लेखों का संग्रह है। शीर्षकों को रोचक बनाने के लिये कई रूपकों, लोकप्रिय मिथकों का अवलंबन लिया गया है, उदाहरण के लिये “मेरे दो अनमोल रतन आयेंगे”, “सुबह और शाम चाय का नाम”, ” तारीफ पे तारीफ “, ” मैं और मेरा मोबाइल अक्सर ये बातें करते है ” आदि लेखों का जिक्र किया जा सकता है।
शीर्षक व्यंग्य राजघाट से राजपाट में वे लिखते हैं ” राजघाट ही वह स्थान है जो गंगाघाट के बाद सर्वाधिक उपयोग में आता है। जैसे गंगा घाट पर स्नान करके ऐसा लगता है कि इस शरीर ने जो भी उलटे सीधे धतकरम किये हैं वह सब साफ होकर डाइक्लीन किये हुए सूट की तरह पार्टी में पहनने लायक हो जाता है उसी प्रकार राजघाट तो गंगाघाट से भी पवित्र स्थान बनता जा रहा है। इस घाट पर आकर स्वयं साफ़ झक्कास तो हो जाते हैं, लगे हाथ क्षमा माँगने का भी चलन है। इस घाट पर देशी तो देशी-विदेशी संतों की भीड़ भी लगती रहती है। ” इस अंश को उधृत करने का आशय मात्र यह है कि अशोक व्यास की सहज प्रवाहमान भाषा, सरल शब्दावली और वाक्य विन्यास से पाठक रूबरू हो सकें। हिन्दी दिवस पर हि्दी की बातें में वे लिखते हैं “तुम हिन्दी वालों की एक ही खराबी है, दिमाग से ज्यादा दिल से सोचते हो ” भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के वर्षो बाद भी देश में भाषाई विवाद सुलगता रहता है। राजनेता अपनी रोटी सेंकते रहते हैं। यह विडम्बना ही है। धारदार कटाक्ष, मुहावरों लोकोक्तियों का समुचित प्रयोग, कम शब्दों में बड़ी बात समेटने की कला अशोक व्यास का अभिव्यक्ति कौशल है। वे तत्सम शब्दों के मकड़जाल में उलझाये बगैर अपने पाठक से उसके बोलचाल के लहजे में अंग्रेजी की हिन्दी में आत्मसात शब्दावली का उपयोग करते हुये सीधा संवाद करते हैं। रचनाओ का लक्षित प्रहार करने में वे सफल हुये हैं। यूं तो सभी लेख अशोक जी ने चुनकर ही किताब में संजोये है किन्तु मुझे नंबरों वाला शहर, मिशन इलेक्शन, सरकार की नाक का बाल, हर समस्या का हल आज नहीं कल, चुनावी मौसम, आदि व्यंग्य बहुत प्रभावी लगे। रवीन्द्र नाथ त्यागी ने लिखा है “हमारे संविधान में हमारी सरकार को एक प्रजातान्त्रिाक सरकार’ कह कर पुकारा गया है पर सच्चाई यह है कि चुनाव सम्पन्न होते ही ‘प्रजा’ वाला भाग जो है वह लुप्त हो जाता है और ‘तन्त्र’ वाला जो भाग होता है वही, सबसे ज्यादा शक्तिशाली हो जाता है। ” अशोक व्यास उसी सत्य को स्वीकारते और अपने व्यंग्य कर्म में बढ़ाते व्यंग्य लेखक हैं, जो अपने लेखन से मेरी आपकी तरह ही चाहते हैं कि तंत्र लोक का बने। मैने बहुत कम अंतराल में आए उनके तीनों ही व्यंग्य संकलन आद्योपांत पढ़े ही नहीं उन पर अपने पुस्तक चर्चा स्तंभ में उन पर लिखा भी है अतः मैं कह सकता हूं कि उनके व्यंग्य लेखन का कैनवास उत्तरोत्तर बढ़ा है। आप का कौतुहल उनकी लेखनी के प्रति जागा ही होगा, तो पुस्तक खरीदिये और पढ़िये। पैसा वसूल वैचारिक सामग्री मिलने की गारंटी है।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “पतझड़”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 220 ☆
🌻लघुकथा🌻 🍂पतझड़ 🍂
फागुन की रंग बिरंगी मस्ती के साथ जहाँ सभी उत्साह, उमंग, गाते बजाते, आती – जाती टोली। वहीं सड़क के किनारे फुटपाथ पर कतारों में लगे वृक्ष और थोड़ी-थोड़ी दूरी पर रखी टूटी- फूटी कुर्सियाँ।
उम्र का पड़ाव और मानसिक सोच के साथ-साथ गुलाब राय मन ही मन कुछ बात कर रहे थे। सड़क सफाई करने वाला स्वीपर झाड़ू लेकर पेड़ के गिरे पत्तों को एकत्रित कर रहा था। राम राम बाबु जी 🙏🙏कैसे हैं?
देखिए न इस मौसम में हम लोगों का काम बढ़ गया। अब यह सारी सूखी पत्तियाँ किसी काम की नहीं रही। सरसराती गिरती जा रही हैं। आप सुनाएं – – – आप होली के दिन यहाँ चुपचाप क्यों बैठे हैं। घरों में आसपास पड़ोसी या परिवार के संग होली नहीं खेल रहे।
गुलाब राय जैसे नींद से जाग उठे। झुरझुरी आँखे और कपकपाते हाथों से डंडे का सहारा लेकर उठ कहने लगे – – यही तो सृष्टि का नियम है!! बेटा पतझड़ होता ही इसीलिए है कि नयी कपोले अपनी जगह बना सके।
हृदय की टीस दर्द को दबाते हुए कहना चाहते थे कि परिवार वाले ने तो उन्हें कब का पतझड़ समझ लिया है। शायद उस ढेर का इंतजार है जिसमें माचिस की तीली लगे और पतझड़ जलकर हवा में उड़ने लगे।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 123 ☆ देश-परदेश – विश्व निद्रा दिवस ☆ श्री राकेश कुमार ☆
14 मार्च शुक्रवार 2025 को प्रतिवर्षानुसार संपूर्ण विश्व निद्रा दिवस मनाने की तैयारियों में लगा हुआ हैं। कुछ व्हाट्स ऐप यूनिवर्सिटी के मेधावी शोधकर्ताओं से इस बाबत चर्चा भी हुई हैं। उन सभी ने एक मत से कहा ये तो ” कुंभकरण” जोकि रावण के अनुज थे, उनके अवतरण दिवस को मनाने के लिए सैकड़ों वर्षों से आयोजित किया जाता हैं।
कुछ शोधकर्ताओं ने तो इसकी पुष्टि करते हुए ऐतिहासिक प्रमाणों की फोटो तक भी प्रेषित कर दी हैं। हम समझ गए ये त्यौहार भी हमारी प्राचीन परंपरा और संस्कृति से भी प्राचीन है, जिसको अब पूरा विश्व भी स्वीकार कर चुका हैं।
हमारे दादाश्री ने हमें भी कुंभकरण नाम से नवाजा था। घर में कोई भी परिचित या अजनबी आता तो वो हमेशा कहते थे, कुंभकरण जाओ मेहमान के लिए जल ले कर आओ।
हमारा पूरा जीवन बिना सूर्योदय देखे हुए व्यतीत हुआ है। जब सूर्य देवता दस से बारह घंटे तक उपलब्ध रहते हैं, तो दिन में कभी भी उनके दर्शन कर सकते हैं। दिन में दस बजे के बाद उठने के कुछ समय बाद हमारा प्रिय पेय ” मीठी लस्सी” है। यदि आलू के पराठे साथ में हो तो सोने पर सुहागा हो जाता है।
मीठी लस्सी ग्रहण करने के बाद तो हम चिर निद्रा के आगोश में आकर, दिन में ही तारे (सपने) देखने लग जाते हैं। आप भी प्रयास कर सकते हैं, यदि लम्बी नींद लेनी हो तो कम से कम आधा लीटर लस्सी अवश्य ग्रहण करें।
हमारे कई मित्र तो हमेशा ही नींद में रहते हैं। दिन के समय जागते हुए भी यदि आप उनसे कोई बात पूछें तो वो एकबार तो हक़ब्का जाते हैं। चाणक्य ने भी ये ही कहा था “सोते हुए मूर्ख व्यक्ति को कभी भी नहीं उठाना चाहिए”।
हम भी इस लेख से व्हाट्स ऐप और सोशल मीडिया के उन पाठकों को जागने का निरर्थक प्रयास कर रहें है, जोकि जागते हुए भी सो रहें हैं। बुरा ना माने होली है।
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे सदैव हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते थे। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी भावप्रवण बुन्देली कविता – पूँछत हैं नाँव…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 229 – पूँछत हैं नाँव…
(बढ़त जात उजयारो – (बुन्देली काव्य संकलन) से)
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बोलत में सरम लगे पूँछत हैं नाँद
पूँछत हैं गाँव, पूँछत हैं नाँव
बोलत में सरम लगे पूँछ दे नाँव गाँव।
बेर बेर टेरत हैं देर देर हेरत हैं
जानें का बुदबुदात माला सी फेरत हैं।
चौपर सी खेलें अर सोचत हैं दाँव। पूँछत हैं नाँव ।
प्रान प्रीत जागी है फेंकी आँग आगी है
नदिया-सी उफन रई रीत नीत त्यागी है।
गोरस की गगरी खों मिलो एक ठाँव। पूछत हैं गाँव।
पूँछ पूँछ हारे हैं लगें को तुमारे हैं ?
राधा सी गोरी के कही कौन कारे हैं ?
औचक मैं खड़ी रही पकर लये पाँव। पूँछें वे नाँव गाँव।
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “आज आँगन के थके हाथों...”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 229 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆
☆ “आज आँगन के थके हाथों...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “इस होली में…”।)