हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-१८ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-१८ ☆ श्री सुरेश पटवा ?

अगली तीन आदतें परस्पर निर्भरता यानी, दूसरों के साथ काम करने के साथ उनसे अंतरसंबंधों से संबंधित हैं।

आदत 4: “परस्पर लाभप्रद समाधान के बारे में सोचें” (Think win-win)

अपने रिश्तों में पारस्परिक रूप से लाभप्रद समाधान या समझौते की तलाश करें। सभी के लिए “लाभ” की तलाश करके लोगों को महत्व देना और उनका सम्मान करना अंततः एक बेहतर दीर्घकालिक समाधान है। पारस्परिक लाभप्रदता, मानवीय संपर्क और सहयोग के लिए एक भावनात्मक मज़बूती देती है। इससे टीम का निर्माण होता है। हनुमान इसी विधि से सेना को तैयार करते हैं।

आदत 5: “पहले समझने की कोशिश करो, फिर समझाने की” (First seek to understand then to be understood)

अधिकांश लोग अपनी बातें दूसरों कों समझाते रहते हैं। जबकि टीम बनाने के लिए दूसरों को भी समझने की ज़रूरत होती है। जिसके बग़ैर समूह की सक्रियता नहीं बन सकती। किसी व्यक्ति को वास्तव में समझने के लिए सहानुभूतिपूर्वक सुनने का उपयोग करें। यह उन्हें प्रतिक्रिया देने और प्रभावित होने के लिए खुले दिमाग से काम करने के लिए मजबूर करता है। लंका उड़ान पूर्व हनुमान प्रतिक्रिया दिए बग़ैर साथियों को सुनते हैं।  इससे परस्पर सौहार्द, देखभाल और सकारात्मक समस्या-समाधान का वातावरण बनता है।

आदत 6: तालमेल बिठाना (Synergy)

समूह में तालमेल बिठाने के तीन आयाम हैं। भावनात्मक बैंक खाता की देखभाल, अन्य व्यक्तियों के साथ भावनात्मक रिश्तों का भरोसा और तार्किक आधार देना। बैंक खाते की तरह रिश्तों में भी भावनात्मक जमा-नामे प्रविष्टियाँ होती हैं। किसी की सराहना जमा और आलोचना नामे प्रिविष्टि होती है। आपसी बातचीत में इनका ध्यान रखा जाना चाहिए ताकि भावनात्मक खातों में अधिविकर्ष ना होने पाये। लेखक का आह्वान है कि सकारात्मक टीम वर्क के माध्यम से लोगों की शक्तियों को संयोजित करें, ताकि उन लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके जिन्हें कोई भी अकेले प्राप्त नहीं कर सकता। हनुमान इसी टेक्नीक का प्रयोग करके वानर सेना को एक टीम के रूप में तैयार करते हैं।

आदत 7: “निरंतर साधना का व्रत” (Sharpen the saw)

एक स्थायी, दीर्घकालिक, प्रभावी जीवनशैली बनाने के लिए किसी को अपने संसाधनों, ऊर्जा और स्वास्थ्य को संतुलित और नवीनीकृत करते रहना चाहिए। वह मुख्य रूप से शारीरिक नवीनीकरण के लिए व्यायाम, प्रार्थना और मानसिक नवीनीकरण के लिए नियमित अध्ययन से प्राप्त किया जाता रह सकता है। आध्यात्मिक नवीनीकरण के लिए समाज की सेवा का भी उल्लेख किया है।

जीवन संग्राम में हमारा स्वास्थ्य एक अस्त्र की तरह प्रयोग में आता है। स्वास्थ्य के चार आयाम हैं- शारीरिक, बौद्धिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक। नियमित व्यायाम से शरीर, अध्ययन से बुद्धि, भावनात्मक बैंक खाता रखरखाव और आध्यात्मिक भक्ति से स्वास्थ्य अस्त्र को हमेशा पैना रखा जा सकता है। तभी आप जीवन संग्राम में खरे उतर सकते हैं। हनुमान जी के संपूर्ण जीवन से यही शिक्षा मिलती है कि उन्होंने कभी भी स्वास्थ्य के नियमों में ढिलाई नहीं बरती।

*

हनुमान जी एक बेहतरीन प्रबंधक भी रहे हैं। वे ना सिर्फ अपने लक्ष्यों को हासिल करना जानते हैं बल्कि मानव संसाधनों का किस तरह प्रयोग करना है, ये बात भी उन्हें अच्छी तरह मालूम है।

हनुमान जी हर काम को योजनाबद्ध (Planning) तरीके और बड़ी आसानी से कर सकते थे। हनुमान जी स्वामी श्री राम के प्रति समर्पण, अनुशासन, दृढ़ संकल्प और वफादारी के लिए जाने जाते थे। मन, कर्म और वाणी पर संतुलन यह हनुमान जी से सीखने वाले गुण हैं। ज्ञान, बुद्धि, विद्या और बल के साथ ही उनमें विनम्रता भी अपार थी। इसके साथ जिस काम को लिया उसका समय पर करना उनकी खासियत थी।

हनुमान जी ज्ञान लेने के लिए सूर्य के पास गए। वो सूर्य को अपना गुरु बनाना चाहते थे। तब सूर्य ने कहा शिक्षा के लिए मुझे रुकना पढ़ेगा जो संभव नहीं है, इससे संसार का चलन बिगड़ जायेगा तुम किसी और को गुरु बना लो। हनुमान जी ने सूर्य को कहा कि आप चलते-चलते ज्ञान दीजिये मैं आपके साथ साथ चलता जाऊंगा और ज्ञान प्राप्त करूँगा। सूर्य इस बात के लिए मान गए इस तरह हनुमान जी ने सूर्य से ज्ञान प्राप्त किया। इस घटना से आप ये बात सीख़ सकते हैं कि जब हमें किसी से कुछ भी सीखना हो या ज्ञान लेना हो तो उसके हिसाब से अपने आप में बदलाव लाएँ।

जब हनुमान जी को लंका जा रहे थे, तब रास्ते में मेनाक पर्वत जो समुद्र के कहने पर ऊपर आया और उसने हनुमान जी से कहा की आप थोड़ा विश्राम कर के चले जाइएगा, हनुमान जी ने मेनाक पर्वत को छुआ और कहा कि मैंने आपकी बात रख ली है परन्तु मुझे जो काम सौंपा गया है वो मेरे विश्राम से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है, मैं विश्राम नहीं कर सकता। इस घटना से हमें ये शिक्षा मिलती है कि  जब भी हमें काम दिया जाये तो काम की समाप्ति तक विश्राम न किया जाए। हमें काम की सामयिक महत्ता को समझना चाहिए। यही सतत सक्रियता (Proactive ness) है।

जब हनुमान जी मेनाक पर्वत से आगे गए तब उनको सुरसा नाम की राक्षसी ने रोक लिया और हनुमान जी को निगलने के लिए आगे आई। हनुमान जी ने उसे समझाया पर वो न मानी। हनुमान जी ने अपना विशाल रूप धारण कर लिया, सुरसा ने भी अपना मुँह बड़ा कर लिया। जैसे ही उसका मुँह बड़ा किया हनुमान जी ने बिना समय गवायें अपना रूप बहुत छोटा कर लिया और उसके मुँह में जाकर वापिस आ गए। हनुमान जी ने सुरसा से कहा “माँ मैंने आपकी बात को रख लिया है अब मुझे जाने दो” इस बुद्धिमानी से सुरसा प्रसन्न हुईं और हनुमान जी को जाने दिया। यहाँ हनुमान का चातुर्य और विनम्रता गुण काम आता है।

इस घटना में हमने ये सीखा कि कई बार हमें समय खराब और लक्ष्य से भटकाने वाले लोग मिलते हैं जिनको हम प्यार से या बुद्धिमानी से अपने रास्ते से हटा सकते हैं और अपना लक्ष्य पा सकते हैं। कई बार हमें लक्ष्य हासिल करने के लिए कभी-कभी झुकना भी पड़ता है

 हनुमान जी लंका में प्रवेश हुए लेकिन लंका बहुत बड़ी थी, हनुमान जी माँ जानकी को ढूंढ़ते थोड़ा निराश हुए और बैठ गए और विचार किया की इतनी दूर मैं निराश और असफल होने के लिए नहीं आया हूँ। उन्होंने प्रभु राम का स्मरण किया और फिर से प्रयास किया और उन जगहों पर गए जहाँ उन्होंने नहीं ढूंढा था। आखिर वो अशोक वाटिका पहुंचे, जहाँ उन्हें माँ सीता मिल गईं।

 कई बार हम नई जगह जाते हैं तो वहां हमें कुछ समझ नहीं आ रहा होता है और बार बार प्रयास करने के बावजूद असफल हो रहे होते हैं, लेकिन अगर अपने आप पर पूर्ण विश्वास करके निरंतर प्रयास करते हैं तो आपको सफलता ज़रुर मिलेगी।

 जैसे-जैसे ताक़त आती है, सफलता मिलती जाती है तो घमंड अपने आप प्रवेश कर लेता है। हनुमान जी के पास अविश्वसनीय और अनंत शक्तियां थीं। हर काम को वो अपनी ताकत के ज़ोर से बड़ी आसानी से कर सकते थे, लेकिन इसके साथ साथ उनमे बुद्धिमानी और विनम्रता भी थी। जिससे वे साथियों/ अनुयायियों के ईर्षा भाजन न होकर उनके प्रिय होते थे।

आभार प्रदर्शन उपरांत महोत्सव का समापन हुआ। रात्रिभोज करके दूसरे दिन सुबह नौ बजे आंजनेय पर्वत भ्रमण हेतु बस में सवार होने के निर्देश सहित

निंद्रामग्न ही गए। खूब थके थे, खूब अच्छी गाढ़ी नींद ने खूब जल्दी दबोच लिया।

क्रमशः…

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 152 ☆ मुक्तक – ॥ बस दुआओं के चिराग दिल में जलाए रखिए॥ ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

 

☆ “श्री हंस” साहित्य # 152 ☆

☆ मुक्तक – ।। बस दुआओं के चिराग दिल में जलाए रखिए।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

=1=

बस दुआयों   के  चिराग जलाए  रखिए।

सब की  राह   में  फूल बिछाए  रखिए।।

एक ही  मिली  है  यह अनमोल जिंदगी।

बस दिलों से   दिलों को मिलाए  रखिए।।

=2=

कभी-कभी किसीकी गलती छुपाए   रखिए।

बिगड़ी बात हो फिर  भी  बनाए   रखिए।।

दिल रखो  अपना आप  एक दरिया जैसा।

जितना हो खुशियों के मोती लुटाए   राखिए।।

=3=

मुश्किलों में भी पाँव  अपने जमाए राखिए।

दुःखों मे भी हौंसला अपना बनाए   रखिए।।

सुख दुख तो जीवन केअंग होते हैं हमेशा ही।

बस हिम्मत से कदम हमेशा बढ़ाए   रखिए।।

=4=

हमेशा प्यार की  लगन को लगाए  रखिए।

रूठों को भी  हमेशा अपना बनाए  रखिए।।

मोहब्बत का लेन- देन  कारोबार हो आपका।

स्नेह प्रेम मूरत हमेशा  दिल में बसाए रखिए।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा #217 ☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – कविता – हमारा देश… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित – “कविता  – हमारा देश। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे.।) 

☆ काव्य धारा # 217

☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – हमारा देश…  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

सागर में पथ दिखलाने को ज्यों ध्रुव तारा है ।

जो भटके राही का केवल एक सहारा है ॥

*

 इस दुनिया के बीच चमकता देश हमारा है।

 हम इसमें जन्मे इससे यह हमको प्यारा है ॥

*

हम सब भारतवासी हैं इसकी प्यारी सन्तान

सबमें स्नेह भावना है हम सब हैं एक समान

*

दुनिया भर में इसकी सबसे शोभा न्यारी है।

पर्वत, नदी, समुद्र, खेत सुन्दर हर क्यारी है ॥

*

 यह ही है वह देश जहाँ जन्मे थे राघव राम ।

प्रेम, त्याग औ’ न्याय, धर्म हित थे जिनके सब काम ॥

*

 यह ही है वह देश जहाँ पर है वृन्दावन धाम ।

 जहाँ बजी थी मुरली औ’ थे रमे जहाँ घनश्याम ॥

*

यह ही है वह देश जहाँ जन्मे थे बुद्ध महान् ।

सारी दुनिया को प्रकाश दे सका कि जिनका ज्ञान ॥

*

 यहीं हुये गाँधी जिनने पाई हिंसा पर जीत ।

जो उनका दुश्मन था वह भी था उनको तो मीत ॥

*

 अनुपम है यह देश प्रकृति ने जिसे दिया सब दान ।

महात्माओं ने ज्ञान और ईश्वर ने भी सन्मान ॥

*

हम इसके सुयोग्य बेटे बन रखे इसकी शान ।

हमें शक्ति वरदान आज इतना दीजे भगवान ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #269 ☆ मन अच्छा हो सकता है… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख मन अच्छा हो सकता है। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 269 ☆

☆ मन अच्छा हो सकता है… ☆

“मन खराब हो, तो शब्द खराब ना बोलें, क्योंकि बाद में मन अच्छा हो सकता है, लेकिन शब्द नहीं।” गुलज़ार के यह शब्द मानव को सोच-समझकर व लफ़्ज़ों के ज़ायके को चख कर बोलने का संदेश देते हैं, क्योंकि ज़ुबान से उच्चरित शब्द कमान से निकले तीर की भांति होते हैं, जो कभी लौट नहीं सकते। शब्दों के बाण उससे भी अधिक घातक होते हैं, जो नासूर बन आजीवन रिसते रहते हैं।

मानव को परीक्षा संसार की, प्रतीक्षा परमात्मा की तथा समीक्षा व्यक्ति की करनी चाहिए। परंतु हम इसके विपरीत परीक्षा परमात्मा की, प्रतीक्षा सुख-सुविधाओं की और समीक्षा दूसरों की करते हैं, जो घातक है। ऐसे लोग अक्सर परनिंदा में रस लेते हैं अर्थात् अकारण दूसरों की आलोचना करते हैं। हम अनजाने में कदम-कदम पर प्रभु की परीक्षा लेते हैं, सुख-ऐश्वर्य की प्रतीक्षा करते हैं, जो कारग़र नहीं है। ऐसा व्यक्ति ना तो आत्मावलोकन कर सकता है, ना ही चिंतन-मनन, क्योंकि वह तो ख़ुद को सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम स्वीकारता है और दूसरे लोग उसे अवगुणों की खान भासते हैं।

आदमी साधनों से नहीं, साधना से महान् बनता है; भवनों से नहीं, भावना से महान बनता है; उच्चारण से नहीं, उच्च आचरण से महान् बनता है।  मानव धन, सुख-सुविधाओं, ऊंची-ऊंची इमारतों व बड़ी-बड़ी बातों के बखान से महान् नहीं बनता, बल्कि साधना, सद्भावना व अच्छे आचार- विचार, व्यवहार, आचरण व सत्कर्मों से महान् बनता है तथा विश्व में उसका यशोगान होता है। उसके जीवन में सदैव उजाला रहता है, कभी अंधेरा नहीं होता है।

जिनका ज़मीर ज़िंदा होता है, जीवन में सिद्धांत व जीवन-मूल्य होते हैं, देश-विदेश में श्रद्धेय व पूजनीय होते हैं। वे समन्वय व सामंजस्यता के पक्षधर होते हैं , जो समरसता के कारक हैं। वे सुख-दु:ख में सम रहते हैं और राग-द्वेष व ईर्ष्या-द्वेष से उनका संबंध-सरोकार नहीं होता। वे संस्कार व संस्कृति में विश्वास रखते हैं, क्योंकि संसार में नज़र का इलाज तो है, नजरिए का नहीं और नज़र से नज़रिये का,  स्पर्श से नीयत का, भाषा से भाव का, बहस से ज्ञान का और व्यवहार से संस्कार का पता चल जाता है।

‘ब्रह्म सत्यम्, जगत् मिथ्या’ ब्रह्म अर्थात् सृष्टि-नियंता के सिवाय यह संसार मिथ्या है, मायाजाल है। इसलिए मानव को अपना समय उसके नाम-स्मरण व ध्यान में व्यतीत करना चाहिए। “ख़ुद से कभी-कभी मुलाकात भी ज़रूरी है/ ज़िंदगी उधार की है, जीना मजबूरी है” स्वरचित उक्त पंक्तियाँ आत्मावलोकन व आत्म-संवाद की ओर इंगित करती हैं। इसके साथ मानव को कुछ नेकियाँ व अच्छाइयाँ ऐसी भी करनी चाहिएं, जिनका ईश्वर के सिवा कोई ग़वाह ना हो अर्थात् ख़ुद में ख़ुद को तलाशना बहुत कारग़र है। प्रशंसा में छुपा झूठ, आलोचना में छुपा सच जो जान जाता है, उसे अच्छे-बुरे की पहचान हो जाती है। वह व्यर्थ की बातों से ऊपर उठ जाता है, क्योंकि हर इंसान को अपने हिस्से का दीपक ख़ुद जलाना पड़ता है, तभी उसका जीवन रोशन हो सकता है। दूसरों को वृथा कोसने कोई लाभ नहीं होता।

अहंकार व गलतफ़हमी मनुष्य को अपनों से अलग कर देती है। गलतफ़हमी सच सुनने नहीं देती और अहंकार सच देखने नहीं देता। इसलिए वह संकीर्ण मानसिकता से ऊपर नहीं उठ सकता और ऊलज़लूल बातों में फँसा रहता है। अभिमान की ताकत फ़रिश्तों को भी शैतान बना देती है और नम्रता साधारण व्यक्ति को भी फरिश्ता। इसलिए हमें जीवन में सदैव विवाद से बचना चाहिए और संवाद की महत्ता को स्वीकारना चाहिए। पारस्परिक संवाद व गुफ़्तगू हमारे व्यक्तित्व की पहचान हैं। जीवन में क्या करना है, हमें रामायण सिखाती है, क्या नहीं करना है महाभारत और जीवन कैसे जीना है– यह संदेश गीता देती है। सो! हमें रामायण व गीता का अनुसरण करना चाहिए और महाभारत से सीख लेनी चाहिए कि जीवन में क्या अपनाना श्रेयस्कर नहीं है अर्थात् हानिकारक है।

शब्द, विचार व भाव धनी होते हैं और  इनका प्रभाव चिरस्थाई होता है, लंबे समय तक चलता रहता है। इसके लिए आवश्यकता है सकारात्मक सोच की, क्योंकि हमारी सोच से हमारा तन-मन प्रभावित होता है। ‘जैसा अन्न, वैसा मन” से तात्पर्य हमारे खानपान से नहीं है, चिंतन-मनन व सोच से है। यदि हमारा हृदय शांत होगा, तो उसमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार ये पांच विकार नहीं होंगे और हमारी वाणी मधुर होगी। इसलिए मानव को वाणी के महत्व को स्वीकारना चाहिए तथा शब्दों के लहज़े / ज़ायके को समझ कर इसका प्रयोग करना चाहिए। मधुर वाणी दूसरों के दु:ख, पीड़ा व चिंताओं को दूर करने में समर्थ होती है और उससे बड़ी से बड़ी समस्याओं का समाधान हो जाता है।

क्रोध माचिस की भांति होता है, जो पहले हमें हानि पहुँचाता है, फिर दूसरे की शांति को भंग करता है। लोभ आकांक्षाओं व तमन्नाओं का द्योतक है, जो सुरसा के मुख की भांति निरंतर बढ़ती जाती है। मोह सभी व्याधियों का मूल है, जनक है, जो विनाश का कारण सिद्ध होता है। काम-वासना मानव को अंधा बना देती है और उसकी सोचने-समझने की शक्ति नष्ट कर देती है। अहंकार अपने अस्तित्व के सम्मुख सबको हेय समझता है, उनका तिरस्कार करता है। सो! हमें इन पाँच विकारों से दूर रहना चाहिए। हमारा मन, हमारी सोच किसी के प्रति बदल सकती है, परंतु उच्चरित कभी शब्द लौट नहीं सकते। सकारात्मक सोच के शब्द बिहारी के सतसैया के दोहों की भांति प्रभावोत्पादक होते हैं तथा जीवन में अप्रत्याशित परिवर्तन लाने का सामर्थ्य रखते हैं। इसलिए मानव को जीवन में सुई बनकर रहने की सीख दी गई है; कैंची बनने की नहीं, क्योंकि सुई जोड़ने का काम करती है और कैंची तोड़ने व अलग-थलग करने का काम करती है। मौन सर्वश्रेष्ठ है, नवनिधियों व गुणों की खान है। जो व्यक्ति मौन रहता है, उसका मान-सम्मान होता है। लोग उसके भावों व अमूल्य विचारों को सुनने को लालायित रहते हैं, क्योंकि वह सदैव सार्थक व प्रभावोत्पादक शब्दों का प्रयोग करता है, जो जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने में सक्षम होते हैं। ऐसे लोगों की संगति से मानव का सर्वांगीण विकास होता है। सो! गुलज़ार की यह सोच अत्यंत प्रेरक व अनुकरणीय है कि मानव को क्रोध व आवेश में भी सोच-समझ कर व शब्दों को तोल कर प्रयोग करना चाहिए, क्योंकि मन:स्थिति कभी एक-सी नहीं रहती; परिवर्तित होती रहती है और शब्दों के ज़ख्म नासूर बन आजीवन रिसते रहती हैं।

●●●●

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #42 – गीत – अमराइयों के गाँव… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीतअमराइयों के गाँव

? रचना संसार # 42 – गीत – अमराइयों के गाँव…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

 गीत

 प्राण से प्यारे हमें सच्चाइयों के गाँव।

गंग से पावन सुनो अच्छाइयों के गाँव।।

 

प्रेम अरु करुणा भरी सदभाव की है तान,

मील के पत्थर बने हैं देख इसकी शान।

खोट वादों में नहीं छल छंद से हैं दूर,

नित नयी सौगात मिलती प्रेम से भरपूर।।

भोर की उतरी किरण अँगनाइयों के गाँव,

 *

मीत चहके कोकिला मधुकर करे गुंजार।

खिल रहा कचनार है फागुन करे मनुहार।।

फूलती सरसों यहाँ धरती करे शृंगार।

झूमता महुआ बड़ा मादक हुआ संसार।।

अब महकते देखिए अमराइयों के गाँव।

 *

प्रीति की गागर लिए वह रूपसी गुलनार।

लाज – बंधन में बँधी भूले नहीं संस्कार।।

सभ्यता जीवित अभी होता सदा आभास।

हैं शिवाला भी यहाँ पर और है विश्वास।।

आस की गठरी लदी पुरवाइयों के गाँव।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #269 ☆ गीत – यही जज्बात दिल में हैं… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपका एक भावप्रवण गीत यही जज्बात दिल में हैं…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 269 – साहित्य निकुंज ☆

☆ गीत – यही जज्बात दिल में हैं… ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

मुझे मजबूर करते हो

मगर तुम सुन नहीं सकते।

मेरे नैनों की भाषा को ,

कभी तुम पढ़ नहीं सकते।

*

यही जज्बात दिल में हैं,

जिसे समझा नहीं तुमने।

तुम्हारी राह तकती हूँ,

मगर तुम आ नहीं सकते।

*

मुझे अब दर्द सहना है,

जिसे तुम छू नहीं सकते।

मेरी गलियों से गुजरे हो,

मगर तुम रुक नहीं सकते।।

*

मुझे मिलना है तुमसे अब,

कभी क्या मिल नहीं सकते।

ख्वाबों में ही मिलते हो,

जिन्हे हम पा नहीं सकते।।

*

मिलन के रंग लाया हूँ ।

मगर तुम छू नहीं सकते।

तेरी बातों में जादू है

मुझे बहला नहीं सकते।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #251 ☆ एक बाल गीत – हमें गधा कहते हैं सारे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपका – एक बाल गीत – हमें गधा कहते हैं सारे आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 251 ☆

☆ एक बाल गीत – हमें गधा कहते हैं सारे ☆ श्री संतोष नेमा ☆

हमें  गधा  कहते   हैं   सारे

हम  हैं  लम्बी   मूंछों   बारे

सहज सरल स्वभाव हमारा

हम  पर  बोझा  डालें  सारे

*

गधा हमें  धोबी का  समझें

कान  हमारे  जबरन  उमठें

ढेंचू  ढेंचू कह कर  फिर भी

लाद  पीठ  पर  चलते प्यारे

हमें   गधा   कहते   हैं  सारे

*

रखता  सबसे  वो   है  यारी

पर अफसोस गधा को भारी

एक अरज करता  है  सबसे

कहिए गधा मुझे  मत  प्यारे

हमें   गधा   कहते   हैं  सारे

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 244 – गझल – आकाश भावनांचे…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 244 – विजय साहित्य ?

☆ गझल – आकाश भावनांचे…! ☆

आकाश भावनांचे गझले तुझ्याचसाठी,

हे विश्व आठवांचे मतले तुझ्याचसाठी…! 

  *         

आकाश बोलणारे जमले तुझ्याचसाठी,

हे पंख, ही भरारी, इमले तुझ्याचसाठी…!

 *   

माणूस वाचताना, टाळून पान गेलो.

काळीज आसवांचे, तरले तुझ्याचसाठी..!

*

सारे ऋतू शराबी, देऊन झींग गेले

प्याले पुन्हा नव्याने, भरले तुझ्याचसाठी..! 

*

हा नाद वंचनांचा , झाला मनी प्रवाही

वाहतो कुठे कसा मी?, रमलो तुझ्याच साठी..!       

*

जखमा नी वेदनांची,आभूषणे मिळाली

लेऊन  साज सारा, नटलो तुझ्याचसाठी..!

*

काव्यात प्राण माझा, शब्दांत अर्थ काही

प्रेमात प्रेम गात्री, वसले तुझ्याचसाठी..!

*

आयुष्य सांधताना,जाग्या  अनेक घटना

हे देह भान माझे हरले तुझ्याचसाठी…!

*

कविराज रंगवीतो, रंगातल्या क्षणांना

चित्रात भाव माझे, उरले तुझ्याचसाठी..!

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 149 ☆ लघुकथा – आस ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक हृदयस्पर्शी एवं विचारणीय लघुकथा ‘आस। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 149 ☆

☆ लघुकथा – आस ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

“सर! अनाथालय से एक बच्ची का प्रार्थना पत्र आया है।”

“अच्छा, क्या चाहती है वह?”

“पत्र में लिखा है कि वह पढ़ना चाहती है।”

यह तो बड़ी अच्छी बात है। क्या नाम है उसका?

रेणु।

“रेणु? अरे! वही जो अभी तक स्कूल आने के लिए तैयार ही नहीं थी ? कितना समझाया था हम लोगों ने उसे लेकिन वह पढ‌ना ही नहीं चाहती, स्कूल आना तो दूर की बात है। हम सब कोशिश करके थक गए पर वह बच्ची टस से मस नहीं हुई। अब अचानक वह स्कूल आने के लिए कैसे मान गई , ऐसा क्या हो गया? — वह अचंभित थे।”

“सर! आप रेणु का यह प्रार्थना- पत्र पढ़िए” – स्कूल की शिक्षिका ने पत्र एक उनके हाथ में देते हुए कहा।

“टीचर जी! मुझे बताया गया है कि विदेश से कोई मुझे गोद लेना चाहते हैं| मुझे मम्मी पापा मिलने वाले हैं| मुझे अंग्रेजी नहीं आएगी तो मैं अपने मम्मी पापा से बात कैसे करूंगी ? कब से इंतजार कर रही थी मैं उनका, मुझे उनसे बहुत सारी बातें करनी हैं ना! मुझे स्कूल आना है, खूब पढ़ना है।”

——

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 236 ☆ हाथों में ले हाथ… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना हाथों में ले हाथ। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 236 ☆ हाथों में ले हाथ…

स्नेह शब्द में इतना जादू है कि इससे इंसान तो क्या जानवरों को भी वश में किया जा सकता है। मेरी  सहेली रमा  जब भी  मुझसे मिलती यही कहती कि कोई मुझे स्नेह  नहीं करता,  मैंने उससे कहा सबसे पहले तुम खुद से प्यार करना सीखो,  जो तुम दूसरों से चाहती हो वो तुम्हें खुद करना होगा  सबसे पहले खुद को व्यवस्थित रखो,  स्वच्छ भोजन,  अच्छे कपड़े, अच्छा साहित्य व सकारात्मक लोगों के साथ उठो- बैठो। जैसी संगति होगी वैसा ही प्रभाव  दिखाई देता है।  जीवन में एक लक्ष्य जरूर होना चाहिए जिससे उदासी हृदय में घर नहीं करती।  हृदय की शक्ति बहुत विशाल है यदि हमने दृढ़ निश्चय कर लिया तो किसी में हिम्मत नहीं कि वो हमारे  फैसले को बदल सके।

कोई भी कार्य शुरू करो तो मन में तरह- तरह के विचार उतपन्न होने लगते हैं क्या करे क्या न करे समझ में ही नहीं आता। कई लोग इस चिंता में ही डूब जाते हैं कि इसका क्या परिणाम होगा बिना कार्य शुरू किए परिणाम की कल्पना करना व भयभीत होकर कार्य की शुरुआत  न करना।

ऐसा अक्सर लोग करते हैं,  पर वहीं कुछ  ऐसे लोग भी होते हैं जो अपने लक्ष्य के प्रति सज़ग रहते हैं और सतत चिंतन करते हैं जिसके परिणामस्वरूप उनकी सकारात्मक ऊर्जा में वृद्धि होती रहती है।

द्वन्द हमेशा ही घातक होता है फिर बात  जब अन्तर्द्वन्द की हो तो विशेष ध्यान रखना चाहिए क्या आपने सोचा कि जीवन भर कितनी चिन्ता की और इससे क्या  कोई लाभ मिला?

यकीन मानिए इसका उत्तर शत- प्रतिशत लोगों का  नहीं  होगा।  अक्सर हम रिश्तों को लेकर मन ही मन उधेड़बुन में लगे रहते हैं कि सामने वाले को मेरी परवाह ही नहीं जबकि मैं तो उसके लिए जान निछावर कर रहा हूँ ऐसी स्थिति से निपटने का एक ही तरीका है आप किसी भी समस्या के दोनों पहलुओं को समझने का प्रयास करें। जैसे ही आप  हृदय व सोच को विशाल  करेंगे सारी समस्याएँ स्वतः हल होने लगेंगी।

सारी चिंता छोड़ के,  चिंतन कीजे नाथ।

सच्चे  चिंतन मनन से,  मिलता सबका साथ।।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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