हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 99 – लघुकथा – ओरिजनल फोटो ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा  “ओरिजनल फोटो। इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 99 ☆

? लघुकथा – ओरिजनल फोटो ?

शहर की भीड़भाड़ ईलाके के पास एक फोटो कापी की दुकान। विज्ञापन निकाला गया कि काम करने वाले लड़के – लड़कियों की आवश्यकता है, आकर संपर्क करें।

दुकान पर कई दिनों से भीड़ लगी थीं। बच्चे आते और चले जाते। आज दोपहर 2:00 बजे एक लड़की अपना मुंह चारों तरफ से बांध और ऐसे ही आजकल मास्क लगा हुआ। जल्दी से कोई पहचान नहीं पाता। दुकान पर आकर खड़ी हुई।

मालिक ने कहा कहां से आई हो, उसने कहा… पास ही है घर मैं समय पर आ कर सब काम कर जाऊंगी। मेरे पास छोटी स्कूटी है। दुकानदार ने कहा ..जितना मैं पेमेंट  दूंगा तुम्हारे पेट्रोल पर ही खत्म हो जाएगा। तुम्हारे लिए अच्छा नहीं होगा।

लड़की ने बिना किसी झिझक के कहा… सर आप मुझे नौकरी पर रखेंगे तो मेहरबानी होगी और एक गरीब परिवार को मरने से बचा लेंगे।

जानी पहचानी सी आवाज सुन दुकान वाले ने जांच पड़ताल करना चाहा। और कहा… अपने सभी कागजात दिखाओ और अपने चेहरे से दुपट्टा हटाओं, परंतु लड़की ने जैसे ही अपना चेहरा दुपट्टे से हटाया!!! अरे यह तो उसकी अपनी रेवा है जिसे वह साल भर पहले एक काम से बाहर जाने पर मिली थी।बातचीत में शादी का वादा कर उसे छोड़ आया था। उसने कहा ..जी हां मैं ही हूं…. आपके बच्चे की मां बन चुकी हूं। अपाहिज मां के साथ मै जिंदगी खतम करने चली थी, परंतु बच्चे का ख्याल आते ही अपना ईरादा बदल मैंने काम करना चाहा।

आज अचानक आपका पता और दुकान नंबर मिला। मैं नौकरी के लिए आई।मैं आपको शादी के लिए जोर नहीं दे रही। वह मेरी गलती थी, परंतु आपके सामने आपके बच्चे के लिए मैं काम करना चाहती हूं।

फोटो कापी के दुकान पर अचानक सभी तस्वीरें साफ हो गई । अपने विज्ञापन को वह क्या समझे??? कभी रेवा के कागज तो कभी उसके बंधे हुए बेबस चेहरे को देखता रहा।

उस का दिमाग घूम रहा था। जाने कितने फोटो कापी मशीन चलाता रहा और जब ओरिजिनल सामने आया तब सामना करना मुश्किल है????

तभी आवाज आई कितना पेमेंट देगें मुझे आप?????

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ मैं ‘असहमत’ हूँ …..! ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(ई-अभिव्यक्ति में श्री अरुण श्रीवास्तव जी का हार्दिक स्वागत है। आप भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है।  आइये हम अपने प्रबुद्ध पाठकों से उनके पात्र ‘असहमत’ से परिचय करवाते हैं। हम साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से आपको असहमत से सहमत करवाने का प्रयास करेंगे। कृपया प्रतिक्रिया एवं प्रतिसादअवश्य दें।)     

☆ मैं ‘असहमत’ हूँ …! ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

बाजार में वो दिखा तो लगा वही है पर जैसे जैसे पास आता गया तो लगने लगा कि नहीं है पर कुछ कुछ मिलता सा लगा. हमने नाम पूछा तो उसी हाव भाव में जबलपुरिया स्टाईल में बोला “असहमत ”  समझ में नहीं आया कि नाम बतला रहा है या इसका मतलब ये है कि “जाओ नहीं बताना, क्या कर लोगे”. फिर भी हमने रिस्क ली और कहा असहमत क्यों सहमत क्यों नहीं, वो तो ज्यादा अच्छा नाम है.

असहमत बोला “कोई अच्छा वच्छा नहीं, सहमत होते होते उमर निकल जाती है, लोग उनको पूछते हैं जिनके आप “सहमत ” होते हैं.  हमने कहा कि सहमत नहीं उनको तो चमचा, किंकर, छर्रा कहा जाता है. सहमत ने तुरंत हमारी तरफ उपेक्षित नजरों से देखते हुये कहा “ये चालू भाषा का प्रयोग हम नहीं करते, संस्कारधानी के संस्कारी व्यक्ति हैं, नमस्कार. पर आप जो बिना पहचान के हमसे अनावश्यक वार्तालाप कर रहे हैं तो आप हैं किस कृषि क्षेत्र की मूली. ” इस बाउंसर में वही झलक थी,

हमने उसके प्रश्न को ओवररूल करते हुये दूसरा प्रश्न दाग दिया “क्या तुम उसके भाई हो. (नाम के उपयोग पर कापीराइट है) “

उत्तर आया: हां गल्ती से वो हमारा भाई है पर हमने गुरुदीक्षा नहीं ली.

 हमारा प्रश्न सामान्यरूप से था कि क्यों?

उत्तर बड़ा संक्षिप्त पर सटीक था “हमारे माता पिता हमारा नाम “सहमत” ही रखना चाहते थे, वही बिना मात्रा के चार अक्षर और उद्देश्य भी वही कि छोटा भी बड़े के पदचिन्हों ? पर चले पर हम तो शुरु से बागी by Birth थे तो कैसे सहमत होते, असहमत होना हमारा जन्मजात गुण है तो असहमत नाम रखने पर ही हामी भरी.

हमने कहा “आखिर सहमत तो हुये ही और बड़ों के पदचिन्हों पर चलना तो हमारे समाज में अच्छी बात मानी जाती है.

असहमत का जवाब असरदार था ” देखिये सर, अपना नाम तो आपने बतलाया नहीं और हमारे नाम का पोस्टमार्टम करने लगे. चलिये फिर भी कहे देते हैं कि अगर आदत असहमति की होगी तो लोग आपको नोटिस करेंगे, आपसे कारण पूछेंगे, हो सकता है आपका मजाक भी उड़ायें पर फिर भी पाइंट ऑफ अट्रेक्शन तो रहेंगे ही और दुनिया तो हर अच्छे, नये विचार और विचारक का मज़ाक बनाती है पर समय और प्रतिभा और संघर्षशील व्यक्तित्व हो तो आदमी गुमनामी की जिंदगी नहीं जीता, पहचान उसकी खुद की होती है क्योंकि रास्ते में बनने वाले पदचिन्ह उसकी प्रतिभा और सफलता की कहानी खुद बयान करते हैं. पीछे चलने वाले छत्रछाया में खुद सुरक्षित भले ही महसूस  कर लें पर इतिहास नहीं बना पाते.

“असहमत “की बात से सहमत तो होना ही था. हमने सिर्फ यही कहा कि “असहमत भाई, बात ने गंभीर मोड़ तो ले लिया है पर अब जब भी मिलेंगे तो हास्य भी होगा, व्यंग्य भी होगा ताकि हमारे दोस्तों को भी आनंद आये. बतलाइये ठीक कहा ना. अगर अच्छा लगे तो असहमत से मुलाकात करते रहेंगे.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – काश्मीर से कन्याकुमारी तक एक ☆ डॉ. हंसा दीप

डॉ. हंसा दीप

☆ लघुकथा – काश्मीर से कन्याकुमारी तक एक ☆ डॉ. हंसा दीप 

गुजराती जैन दंपत्ति बस में सफर कर रहे थे। उनके समीप ही सिख दंपत्ति बैठे थे। बातों-बातों में सिख दंपत्ति ने अपने साथ का नाश्ता-मिठाई-नमकीन वगैरह गुजराती दंपत्ति से खाने का आग्रह किया। उन्होंने विनम्रता पूर्वक इनकार कर दिया और बताया कि जैन धर्म में सूर्यास्त के बाद खाना, नाश्ता आदि करने की मनाही होती है। सिख महिला ने अपने पति से पंजाबी में कहा – “ए लोग किन्ने पिछड़े हन, रात दी रोटी दा और धरम दा कि मेल?” 

ठीक उसी समय गुजराती महिला अपने पति से कह रही थी – “आ लोकों केटला जूना जमाना ना छे, एटलो मोटो पागड़ो बांधे, ने लांबी डाढ़ी राखे छे।”

☆☆☆☆☆

© डॉ. हंसा दीप

संपर्क – Dr. Hansa Deep, 1512-17 Anndale Drive, North York, Toronto, ON – M2N2W7 Canada

दूरभाष – 001 647 213 1817

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ दो लघुकथाएं – प्रमोशन और आज का अर्जुन ☆ डॉ. हंसा दीप

डॉ. हंसा दीप

☆ दो लघुकथाएं – प्रमोशन और आज का अर्जुन ☆ डॉ. हंसा दीप

☆ प्रमोशन ☆

विशेष जी प्रवासी साहित्यकारों से कुढ़ते थे। वे सोचते, प्रवासियों की पाँचों उँगलियाँ घी में हैं। जब प्रवासी विशेषांक निकले तो उसमें छपते हैं और सामान्य अंक निकले तो उसमें भी छप जाते हैं। भड़ास निकलती- “ये पैसा कमाने के लिए विदेश जाकर बस गए हैं। इनको प्रवासी क्यों कहा जाए, विदेशी कहा जाए।”

अगले वर्ष इकलौते बेटे का प्रमोशन हुआ। बेटे की विदेश नियुक्ति के साथ वे भी विदेश आ गए। विचार समृद्ध हुए, कहने लगे- “प्रवासी ही हैं, जो वसुधैव कुटुंबकम की भारतीय मशाल समूचे विश्व में जलाते हैं।”

☆ आज का अर्जुन ☆ 

गुरु द्रोणाचार्य अपने शिष्यों की परीक्षा ले रहे थे। उनके समीप युधिष्ठिर, दुर्योधन व अर्जुन बैठे हुए थे। सामने पेड़ पर वह लक्ष्य था जिसे उन्हें निशाना बनाना था। सबसे पहले उन्होंने युधिष्ठिर को बुलाया और पूछा– “वत्स तुम्हें सामने क्या दिखायी दे रहा है?”

“गुरुदेव मुझे सिर्फ लक्ष्य दिखाई दे रहा है।”

“और कुछ?”

“लक्ष्य के अलावा कुछ नहीं।”

अब दुर्योधन की बारी थी। उसने कहा- “गुरुदेव, आसपास का प्रदीप्त आभा मंडल दिखाई दे रहा है।” गुरु द्रोणाचार्य का मुख क्रोधाग्नि से धधकने लगा। अर्जुन को देखा– “गुरुदेव मुझे लक्ष्य, आसपास का आभा मंडल और बैठे हुए तमाम विधायक गण के चेहरे दिखाई दे रहे हैं।”

गुरुदेव ने अर्जुन को उत्तीर्ण घोषित किया। 

© डॉ. हंसा दीप

संपर्क – Dr. Hansa Deep, 1512-17 Anndale Drive, North York, Toronto, ON – M2N2W7 Canada

दूरभाष – 001 647 213 1817

[email protected]

 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथाएं – गुनाहगार, तिलस्म और सेलिब्रिटी ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कथा-कहानी ☆ लघुकथाएं – गुनाहगार, तिलस्म और सेलिब्रिटी ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(हंस प्रकाशन, दिल्ली से शीघ्र प्रकाश्य “मैं नहीं जानता” लघुकथा संग्रह में से । ये तेरे प्रतिरूप ,,,) 

गुनाहगार

रात देर से आए थे , इसलिए सुबह नींद भी देर से खुली । तभी ध्यान आया कि कामवाली नहीं आई । शुक्र है उसने अपना फोन नम्बर दे रखा है । फोन लगाया ।

उसका पति बोला कि रीटा बीमार है । काम पर आ नहीं सकती ।

पता नहीं कैसे पारा चढ़ गया- क्यों नहीं आ सकती ? सारा घर बिखरा पड़ा है । कपड़े धुलवाने हैं । हम क्या करें ?

कामवाली का पति बोला – कहा न साहब कि बीमार है । आ नहीं सकती । दवा लेकर लेटी हुई है । बात भी नहीं कर सकती ।

– हम तीन दिन बाद आए । पहले ही छुट्टियां दे दीं । अब काम वाले दिनों में भी छुट्टी करेगी तो कैसे चलेगा ?

– क्या उसे बीमार होने का हक भी नहीं , साहब ? बीमारी क्या छुट्टियों का हिसाब लगा करके आयेगी ?

–  हम कुछ नहीं जानते । कोई इंतजाम करो ।

– ठीक है, साहब । मेरे बच्चे काम करने आ जाते हैं ।

कुछ समय बाद स्कूल यूनिफाॅर्म में दो छोटे बच्चे आ गये । फटाफट क्रिकेट की तरह काम करने लगे । छोटी बच्ची ने बर्तन मांजे । बड़े भाई ने झाड़ू लगाया । काम खत्म कर पूछा- अब जायें , साहब ?

मैंने पूछा – पहले  भी कहीं काम करने गये हो ?

बच्चों ने सहम कर कहा- नहीं , साहब । मां  ने दर्द से कराहते कहा था- जाओ , काम कर आओ । नहीं तो ये घर छूट जायेगा ।

मैं शर्मिंदा हो गया । कितनी बार बाल श्रमिकों पर रिपोर्ट्स लिखीं । आज कितना बड़ा गुनाह कर डाला । मैंने ही अपनी आंखों के सामने बाल श्रमिकों को जन्म दिया ? इससे बड़ा गुनाह क्या हो सकता है ? अपनी आत्मा पर इसका बोझ कब तक उठाऊंगा ? गुनाह तो बहुत बड़ा है ।

तिलस्म

रात के गहरे सन्नाटे में किसी वीरान फैक्ट्री से युवती के चीरहरण की आवाज सुनी नहीं गयी पर दूसरी सुबह सभी अखबार इस आवाज़ को हर घर का दरवाजा पीट पीट कर बता रहे थे । दोपहर तक युवती मीडिया के कैमरों की फ्लैश में पुलिस स्टेशन में थी ।

किसी बड़े नेता के निकट संबंधी का नाम भी उछल कर सामने आ रहा था । युवती विदेश से आई थी और शाम किसी बड़े रेस्तरां में कॉफी की चुस्कियां ले रही थी । इतने में नेता जी के ये करीबी रेस्तरां में पहुंच गये । अचानक पुराने रजवाड़ों की तरह युवती की खूबसूरती भा गयी और फिर वहीं से उसे बातों में फंसा कर ले उड़े । बाद की कहानी वही सुनसान रात और वीरान फैक्ट्री ।

देश की छवि धूमिल होने की दुहाई और अतिथि देवो भवः  की भावना का शोर । ऊपर से विदेशी दूतावास । दबाब में नेता जी को मोह छोड़ कर अपने संबंधियों को समर्पण करवाना ही पड़ा । फिर भी लोग यह मान कर चल रहे थे कि नेता जी के संबंधियों को कुछ नहीं होगा । कभी कुछ बिगड़ा है इन शहजादों का ?  केस तो चलते रहते हैं । अरे ये ऐसा नहीं करेंगे और इस उम्र में नहीं करेंगे तो कौन करेगा ? इनका कुछ नहीं होता और लोग भी जल्दी भूल जाते हैं । क्या यही तिलस्म था या है ? ये लोग तो बाद में मज़े में राजनीति में भी प्रवेश कर जाते हैं ।

थू थू  सहनी पड़ी पर युवती विदेशी थी और उसका समय और वीजा ख़त्म हो रहा था । बेशक वह एक दो बार केस लड़ने , पैरवी करने आई लेकिन कब तक ? 

बस । यही तिलस्म था कि नेता जी के संबंधी बाइज्जत बरी हो गये ।

 

सेलिब्रिटी

संवाददाता का काम है- सेलिब्रिटी को ढूंढ निकालना । सेलिब्रिटी क्या करता है? कैसे रहता है? कहां जा रहा है ?  सब कुछ मायने रखता है ।संवाददाता की दौड़ इनके जीवन व दिनचर्या के आसपास लगी रहती है । पिछले कई वर्षों से इस क्षेत्र में हूं । सुबह उठते ही सेलिब्रिटीज का ध्यान करता घर के गेट के आगे खड़ा था । पड़ोस में बर्तन मांझते व सफाई करने वाली प्रेमा आई तो साथ में उसकी बेटी को देखकर थोड़ा हैरान होकर पूछा – कयों , आज इसके स्कूल में छुट्टी है क्या ?

– नहीं तो । यह तो घरों में काम करने जा रही है ।

–   कयों ?  पढ़ाने का इरादा नहीं ?

–   मेरा तो इसे पढ़ाने का विचार है लेकिन इसने अपनी नानी के लिए पढ़ाई छोड दी । बर्तन मांझने का फैसला किया है ।

– क्यों  बेटी, ऐसा किसलिए ?

– नानी बीमार रहती है । मां के काम के पैसे से घर का गुजारा ही मुश्किल से होता है । नानी की दवाई के लिए पैसे कहां से आएं ? मैं काम करूंगी तो नानी की दवाई आ जायेगी ।

इतना कहते बेटी मां के साथ काम पर चली गई । मैंने मन ही मन इस सेलिब्रिटी के आगे सिर झुका दिया ।

 

संस्कृति

-बेटा , आजकल तेरे लिए बहुत फोन आते हैं ।

– येस मम्मा ।

-सबके सब छोरियों के होते हैं । कोई संकोच भी नहीं करतीं । साफ कहती हैं कि हम उसकी फ्रेंड्स बोल रही हैं ।

– येस मम्मा । यही तो कमाल है तेरे बेटे का ।

-क्या कमाल ? कैसा कमाल ?

– छोरियां फोन करती हैं । काॅलेज में धूम हैं धूम तेरे बेटे की ।

– किस बात की ?

– इसी बात की । तुम्हें अपने बेटे पर गर्व नहीं होता।

– बेटे । मैं तो यह सोचकर परेशान हूं कि कल कहीं तेरी बहन के नाम भी उसके फ्रेंड्स के फोन आने लगे गये तो ,,,?

– हमारी बहन ऐसी वैसी नहीं हैं । उसे कोई फोन करके तो देखे ?

– तो फिर तुम किस तरह कानों पर फोन लगाए देर तक बातें करते रहते हो छोरियों से ?

-ओ मम्मा । अब बस भी करो ,,,,

 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा- वृत्त ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा- वृत्त ?

सात-आठ साल का रहा होगा जब गृहकार्य करते हुए परकार से वृत्त खींच रहा था। बैठक में लेटे हुए दादाजी अपने किसी मिलने आये हुए से कह रहे थे कि जीवन वृत्त है। जहाँ से आरंभ वहीं पर इति, वहीं से यात्रा पुनः आरंभ। कुछ समझ नहीं पाया। जीवन वृत्त कैसे हो सकता है?

समय अपनी रफ़्तार से चलता रहा। उसे याद आया कि पड़ोस के लक्खू बाबा की मौत पर कैसा डर गया था वह! पहली बार अर्थी जाते देखी थी उसने। कई रातें दादी के आँचल में चिपक कर निकाली थीं। उसे लगा, जो बाबा उससे रोज़ बोलते-बतियाते थे, उसे फल, मेवा देते थे, वे मर कैसे सकते हैं।

जीवन आगे बढ़ा। दादा-दादी भी चले गए। माता, पिता भी चले गए। जिन शिक्षकों, अग्रजों से कुछ सीखा, पढ़ा, उन्होंने भी विदा लेना शुरू कर दिया। पिछली पीढ़ी के नाम पर शून्य शेष रहा था।

उसकी अपनी देह भी बीमार रहने लगी। कहीं आना-जाना भी छूट चला। उस दिन अख़बार में अपने पुराने साथी की मृत्यु और बैठक का समाचार पढ़ा तो मन विचलित हो उठा। अब तो विचलन भी समाप्त हो गया क्योंकि गाहे-बगाहे संगी-साथियों के बिछड़ने की ख़बरें आने लगी हैं।

आज पलंग पर लेटा था। शरीर में उठ पाने की भी शक्ति नहीं थी। लेटे-लेटे देखा छोटा पोता होमवर्क कर रहा है। सहज पूछ लिया, ‘मोनू, क्या कर रहा है?’…’दद्दू, सर्कल ड्रॉ कर रहा हूँ, आई मीन गोला, मीन्स वृत्त खींच रहा हूँ।’…’जीवन भी वृत्त है बेटा..’ कहते हुए वह फीकी हँसी हँस पड़ा।

©  संजय भारद्वाज

(कविता संग्रह ‘योंही’)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 98 – लघुकथा – मेहमानवाजी ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है पर्यटन स्थल के अनुभवों पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा  “मेहमानवाजी। इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 98 ☆

? लघुकथा – मेहमानवाजी ?

सृष्टि की सुंदर मनमोहक और प्राकृतिक अनुपम सुंदरता लिए कश्मीर और श्रीनगर। श्रीनगर की शोभा बढ़ाती डल झील, पहलगाम, सोनमर्ग और गुलमर्ग । सभी एक से बढ़कर एक आंखों को सुकून देने वाले दृश्य और बर्फ से ढकी चोटियां। जहां तक नजर जाए मन आनंदित हो जा रहा था।

मनोरम वातावरण में घूमते घूमते मोनी और श्याम ने वहां पर एक कार घूमने के लिए लिया गया था। उस पर चले जा रहे थे। रास्ता बहुत ही खुशनुमा। कश्मीर का कार  ड्राइवर बीच-बीच में सब बताते चला जा रहा था’ सजाद’ नाम था उसका।

हालात के कारण सभी के मुंह पर मास्क लगे हुए थे अचानक गाड़ी रोक दी गई, देखा फिर से चेकिंग शुरू। हर पर्यटक को थोड़ी- थोड़ी दूर पर चेक करते थे। गाड़ियां एक के बाद एक लगी थी। करीब एक घंटे खड़े रहे। अचानक आगे से गाड़ियां सरकती दिखी। सजाद ने भी गाड़ी बढा ली।

परंतु यह क्या पूरा रास्ता जाम हो गया, अचानक बीस पच्चीस पुलिस वाले दौड़ लगाते भागने लगे। एक पुलिस वाला गाड़ी के पास आया।

डंडे से कांच को मारकर कांच नीची करवाया और जोर से बोला… “तैने दिखाई नहीं देता के? ऐसी तैसी करनी है क्या? एंबुलेंस कहां से निकलेगी?” और वह कुछ कहता इसके पहले ही सिर पर एक कस के डंडा और सजाद के गोरे- गोरे गाल पर एक तड़ाक का चांटा!!!!!

पांच ऊंगलियों के निशान लग गए, लाल होता देख मोनी और उसके पति देव ने पुलिस वालों को सॉरी कहना चाह रहे थे कि रास्ता खाली हुआ और गाड़ियां चल पड़ी।

कार में तीनों चुपचाप थे अचानक सजाद ने कहा… “आप क्यों सॉरी बोल रहे थे? आपकी कोई गलती थोड़ी ना है। आप कोई गिल्टी फील ना करें मैडम जी। हम लोग इस के आदी हो गए हैं। “

मोनी ने कहा.. “यदि कुछ हो जाता तो ..?” बीच में बात काटकर सजाद बोला… “मैडम जी हम अपने  मेहमानों को भगवान समझते हैं और भगवान को कुछ ना होने देंगे।“

खिलखिलाते हंस पड़ा मासूम सा चौबीस साल का युवा सजाद कहने लगा… “कभी-कभी एक, दो सप्ताह तक कुछ भी नहीं मिलता। कश्मीर बड़ा खुशनुमा है पर रोटी के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है।“ वह रूआँसा हो चुका था। “आप चिंता ना करें। यह सजाद आप लोगों को कुछ होने नहीं देगा। खुदा कसम हम मेहमानवाजी में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। खुदा की रहमत हैं सभी का भला होगा।“

गाड़ी अपनी रफ्तार से चली जा रही थी और सजाद की मुस्कुराहट बढ़ने लगी थीं। यह कैसी मेहमानवाजी मन में विचार करने लगे मोनी और उसके पति देव।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #60 – लाल फर्श वाला कमरा ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #60 – लाल फर्श वाला कमरा  ☆ श्री आशीष कुमार

इस बार जब घर गया तो कुछ देर के लिए अकेला जाकर लाल फर्श वाले कमरे में बिस्तर पर लेट गया।

वो कमरा जो बचपन में बहुत बड़ा लगता था अब वो बहुत छोटा लगने लगा था क्योकि मैं शायद अपने आपको बहुत बड़ा समझने लगा था।

मैं कुछ ही देर लेटा था की तुरंत यादें मन का हाथ थामे ले गयी मुझे बचपन में

जब इस कमरे में बैठकर पूरा परिवार होली से पहले गुंजिया बनवाता था।

हां वो ही कमरा जिसमे दिवाली की पूजा होती थी और पूजा के दौरान मन बेचैन रहता था की जल्दी पूजा ख़त्म हो और मैं अपने भाई- बहन के साथ घर की छत पर जाकर पठाखे फोड़ सकू।

अनायास ही मेरा ध्यान उस कमरे के टांड पर चला गया जो लाधे खड़ा था मेरा हँसता हुआ बचपन अपने कंधो पर।

पता नहीं अचानक मुझे क्या हुआ मैं बिस्तर पर से उठा और उस टांड के सिरों को सहलाने लगा जो मेरी खुशियों का बोझ उठाते उठाते बूढा हो चला था।

जिस पर एक बार घरवालों से छिपाकर मैंने एक कॉमिक छुपाई थी

उस टांड के गले में हम पैरो को फंसा कर उल्टा लटककर बेताल बना करते थे।

एक बार छुपन-छुपाई में मैं उस टांड पर चढ़ कर बैठा गया था और आगे से पर्दा लगा लिया था।

तभी मेरा ध्यान कमरे में लगें कढ़ो पर गया क्योकि कमरा पुराना था इसलिए कढ़ो वाला था।

वो कढ़ा भी मेरी ओर देखकर 360 की मुसकुराहट दे रहा था जिसमे से होकर हम डैक के स्पीकरों का तार निकला करते थे।

कमरे की दीवारों की पुताई कई जगह से छूट गयी थी और कई परतों के बीच मेरे बचपन वाली पुताई की परत ऐसे झांक कर देख रही थी जैसे गुजरे ज़माने में घर की बहुएँ किसी बुजुर्ग को अपने पल्ले के परदे के पीछे से झांकती थी।

अब उस कमरे में लाल रंग का फर्श नहीं रहा

wooden flooring हो गयी है

जिस कमरे को मैं छोटा सोच रहा था उसमे तो मेरा पूरा बचपन बसा था

अब मैं आपने आप को उस कमरे मे फिर से बहुत छोटा अनुभव कर रहा था ।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 97 – लघुकथा – टुकिया का झूला ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  गरीबी से संघर्ष करते परिवार की एक संवेदनशील लघुकथा  “टुकिया का झूला। इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 97 ☆

 ? लघुकथा – टुकिया का झूला ?

साइकिल की आवाज सुन कर  वह बाहर निकली।  टुकिया रोज की तरह अपने बाबा को दौड़ कर गले लगा, उनकी बाहों में छुप जाना चाहती थी।

पांच साल की टुकिया परंतु आज बाबा ने न तो टुकिया को गोद लिया और न ही उसके लिए जलेबी की पुड़िया दी। टकटकी लगाए हुए पापा की ओर देखने लगी।

परंतु उसे क्या मालूम था कि बाबा ऐसा क्यों कर रहे हैं। पापा अंदर आने पर अपनी पत्नी से पानी का गिलास लेकर कहने लगे… अब मैं बच्ची को उसकी इच्छा के अनुसार पढ़ाई नहीं करवा पाऊंगा। उसकी यह इच्छा अधूरी रहेगी, क्योंकि आज फिर से काम से निकाल दिया गया हूँ।

तो क्या हुआ बाबा…  गले से झूलते हुए बोली… बाबा हम आपके साथ सर्कस जैसा काम करेंगे। हमारे पास खूब पैसे आ जाएंगे। बाबा को अपने पुराने दिन याद आ गए । उन्होंने बिटिया का माथा चूम लिया।

शाम ढले दो बांसों के बीच रस्सी बांध दिया गया। टुकिया चलने लगी सिर पर मटकी और मटकी पर जलता दिया।

दिए की लौ से प्रकाशित होता पूरा मैदान। टुकिया चलते जा रही थी, बाबा  का कलेजा फटा जा रहा था। बच्चीं ने रस्सी पार कर कहा… बाबा हमें जीत मिल गई अब हम रस्सी पर खूब काम करेंगे। और देखना एक दिन आपको हवाई जहाज में घुमाएंगे।

बाबा ने सोचा क्या गरीबी का बोझ हवाई जहाज उड़ा कर ले जा सकेगी? टुकिया रस्सी पर कब तक चलेगी।

सिक्के और रुपए उसकी थाली पर गिरते जा रहे थे। तालियों की गड़गड़ाहट  में उसकी सिसकियां कहाँ  सुनाई देती?

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #59 – शोरगुल किसलिये ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #59 – शोरगुल किसलिये ☆ श्री आशीष कुमार

मक्खी एक हाथी के ऊपर बैठ गयी। हाथी को पता न चला मक्खी कब बैठी। मक्खी बहुत भिनभिनाई आवाज की, और कहा, ‘भाई! तुझे कोई तकलीफ हो तो बता देना। वजन मालूम पड़े तो खबर कर देना, मैं हट जाऊंगी।’ लेकिन हाथी को कुछ सुनाई न पड़ा। फिर हाथी एक पुल पर से गुजरने लगा बड़ी पहाड़ी नदी थी, भयंकर गङ्ढ था, मक्खी ने कहा कि ‘देख, दो हैं, कहीं पुल टूट न जाए! अगर ऐसा कुछ डर लगे तो मुझे बता देना। मेरे पास पंख हैं, मैं उड़ जाऊंगी।’

हाथी के कान में थोड़ी-सी कुछ भिनभिनाहट पड़ी, पर उसने कुछ ध्यान न दिया। फिर मक्खी के विदा होने का वक्त आ गया। उसने कहा, ‘यात्रा बड़ी सुखद हुई, साथी-संगी रहे, मित्रता बनी, अब मैं जाती हूं, कोई काम हो, तो मुझे कहना, तब मक्खी की आवाज थोड़ी हाथी को सुनाई पड़ी, उसने कहा, ‘तू कौन है कुछ पता नहीं, कब तू आयी, कब तू मेरे शरीर पर बैठी, कब तू उड़ गयी, इसका मुझे कोई पता नहीं है। लेकिन मक्खी तब तक जा चुकी थी सन्त कहते हैं, ‘हमारा होना भी ऐसा ही है। इस बड़ी पृथ्वी पर हमारे होने, ना होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।

हाथी और मक्खी के अनुपात से भी कहीं छोटा, हमारा और ब्रह्मांड का अनुपात है। हमारे ना रहने से क्या फर्क पड़ता है? लेकिन हम बड़ा शोरगुल मचाते हैं। वह शोरगुल किसलिये है? वह मक्खी क्या चाहती थी?

वह चाहती थी कि हाथी स्वीकार करे, तू भी है,,,,, तेरा भी अस्तित्व है, वह पूछना चाहती थी। हमारा अहंकार अकेले नहीं जी सकता,,,,,,, दूसरे उसे मानें, तो ही जी सकता है।

इसलिए हम सब उपाय करते हैं कि किसी भांति दूसरे उसे मानें, ध्यान दें, हमारी तरफ देखें और हमारी उपेक्षा न हो।

सन्त विचार- हम वस्त्र पहनते हैं तो दूसरों को दिखाने के लिये,,,,, स्नान करते हैं सजाते-संवारते हैं ताकि दूसरे हमें सुंदर समझें,,,,,,, धन इकट्ठा करते, मकान बनाते, तो दूसरों को दिखाने के लिये,,,,,,,, दूसरे देखें और स्वीकार करें कि हम कुछ विशिष्ट हैं, ना कि साधारण।

हम मिट्टी से ही बने हैं और फिर मिट्टी में मिल जाएंगे,,,,,,,,

हम अज्ञान के कारण खुद को खास दिखाना चाहते हैं,,, वरना तो हम बस एक मिट्टी के पुतले हैं और कुछ नहीं।

अहंकार सदा इस तलाश में रहता है कि वे आंखें मिल जाएं, जो मेरी छाया को वजन दे दें।

याद रखना चाहिए आत्मा के निकलते ही यह मिट्टी का पुतला फिर मिट्टी बन जाएगा इसलिए हमे झूठा अहंकार त्याग कर,,, जब तक जीवन है सदभावना पूर्वक जीना चाहिए और सब का सम्मान करना चाहिए,,,, क्योंकि जीवों में परमात्मा का अंश आत्मा है।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares
image_print