हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 16 – गुरुदत्त ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के कलाकार  : गुरुदत्त पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 16 ☆ 

☆ गुरुदत्त  ☆

guru dutt-साठीचा प्रतिमा निकाल

गुरुदत्त (वास्तविक नाम: वसन्त कुमार शिवशंकर पादुकोणे,

जन्म: 9 जुलाई, 1925 बैंगलौर

निधन: 10 अक्टूबर, 1964 बम्बई

हिन्दी फ़िल्मों के प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक, निर्माता, कोरियोग्राफर और अभिनेता थे। उन्होंने 1950 और 1960 दशक में कई उत्कृष्ट फ़िल्में बनाईं जैसे प्यासा, कागज़ के फूल, साहिब बीबी और ग़ुलाम और चौदहवीं का चाँद। प्यासा और काग़ज़ के फूल को टाइम पत्रिका के 100 सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों की सूची में शामिल किया गया है और साइट एन्ड साउंड आलोचकों और निर्देशकों के सर्वेक्षण द्वारा, दत्त खुद भी सबसे बड़े फ़िल्म निर्देशकों की सूचि में शामिल हैं। उन्हें कभी कभी “भारत का ऑर्सन वेल्स” (Orson Welles)  भी कहा जाता है। 2010 में, उनका नाम सीएनएन के “सर्वश्रेष्ठ 25 एशियाई अभिनेताओं” के सूची में भी शामिल किया गया। गुरुदत्त 1950 दशक के लोकप्रिय सिनेमा के प्रसंग में काव्यात्मक और कलात्मक फ़िल्मों के व्यावसायिक चलन को विकसित करने के लिए प्रसिद्ध हैं। उनकी फ़िल्मों को जर्मनी, फ्रांस और जापान में प्रदर्शन पर अब भी सराहा जाता है।

गुरु दत्त का जन्म 9 जुलाई 1925 को बंगलौर में शिवशंकर राव पादुकोणे व वसन्ती पादुकोणे के यहाँ हुआ था। उनके माता पिता कोंकण के चित्रपुर सारस्वत ब्राह्मण थे। उनके पिता शुरुआत के दिनों एक विद्यालय के हेडमास्टर थे जो बाद में एक बैंक के मुलाजिम हो गये। माँ एक गृहिणीं थीं जो बाद में एक स्कूल में अध्यापिका बन गयीं। गुरुदत्त जब पैदा हुए उनकी माँ की आयु सोलह वर्ष थी। वसन्ती माँ घर पर प्राइवेट ट्यूशन के अलावा लघुकथाएँ लिखतीं थीं और बंगाली उपन्यासों का कन्नड़ भाषा में अनुवाद भी करती थीं।

गुरु दत्त ने अपने बचपन के प्रारम्भिक दिन कलकत्ता के भवानीपुर इलाके में गुजारे जिसका उन पर बौद्धिक एवं सांस्कृतिक प्रभाव पड़ा। उनका बचपन वित्तीय कठिनाइयों और अपने माता पिता के तनावपूर्ण रिश्ते से प्रभावित था। उन पर बंगाली संस्कृति की इतनी गहरी छाप पड़ी कि उन्होंने अपने बचपन का नाम वसन्त कुमार शिवशंकर पादुकोणे से बदलकर गुरुदत्त रख लिया।

गुरुदत्त की दादी नित्य शाम को दिया जलाकर आरती करतीं और चौदह वर्षीय गुरुदत्त दिये की रौशनी में दीवार पर अपनी उँगलियों की विभिन्न मुद्राओं से तरह तरह के चित्र बनाते रहते। यहीं से उनके मन में कला के प्रति संस्कार जागृत हुए।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

 

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 20 – महान फ़िल्मकार : के.आसिफ़-2 ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी  अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  महान फ़िल्मकार : के.आसिफ़ पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 20 ☆ 

☆ महान फ़िल्मकार : के.आसिफ़ 2 ☆

मुग़ल-ए-आज़म अपने ज़माने की सबसे मंहगी और सफल फ़िल्म थी, लेकिन इसके निर्देशक के. आसिफ़ ताउम्र एक किराए के घर में रहे और टैक्सी पर चले.

यासिर अब्बासी बताते हैं, “जब शाहपुरजी बहुत तंग आ गए तो उनसे एक बार नौशाद ने पूछा कि अगर आप को आसिफ़ से इतनी शिकायत है, तो आपने उनके साथ ये फ़िल्म बनाने का फ़ैसला क्यों किया? शाहपुरजी ने एक ठंडी सांस लेकर कहा कि नौशाद साहब एक बात बताऊँ, ये आदमी ईमानदार है.”

“इसने इस फ़िल्म में डेढ़ करोड़ रुपए ख़र्च कर दिए हैं, लेकिन उसने अपनी जेब में एक फूटी कौड़ी भी नहीं डाली है. बाक़ी सभी कलाकारों ने अपना कॉन्ट्रैक्ट कई बार बदलवाया, क्योंकि वक़्त गुज़रता जा रहा था. लेकिन इस शख़्स ने पुराने कॉन्ट्रैक्ट पर काम किया और कोई धोखाधड़ी नहीं की.”

“कोई पैसे का ग़बन नहीं किया. ये आदमी आज भी चटाई पर सोता है, टैक्सी पर छह आना हर मील का किराया देकर सफ़र करता है और सिगरेट भी दूसरों से मांग कर पीता है. ये आदमी बीस घंटे खड़े हो कर लगातार काम करता है और हम लोग हैरान रह जाते हैं.”

ऐतिहासिक फिल्‍म ”मुगल-ए-आजम” बनाने वाले के. आसिफ ने सितारा देवी से शादी की थी। सितारा देवी भरतनाट्यम के लिए देश-विदेश में मशहूर थीं। वह अच्‍छी कलाकार होने के साथ बड़े दिल वाली महिला थीं। उन्‍होंने पति से निगार की सिफारिश की। पत्‍नी को खुश करने के लिए के. आसिफ ने निगार को मुगल-ए-आजम में काम दे दिया, जिन्होंने मधुबालाके विरुद्ध बहार की भूमिका निभाई थी लेकिन सितारा देवी पर यह काफी भारी पड़ा। आसिफ एक दिन निगार को सितारा देवी की सौतन बना कर घर ले आए। यह उनके दिल पर नागवार गुजरा, पर वह खून का घूंट पीकर रह गईं।

एक बार और आसिफ ने दगाबाजी की, इस बार उनकी नजर अपने दोस्‍त की बहन पर ही पड़ गई। उन्‍होंने दिलीप कुमार की बहन अख़्तर आसिफ़ को बेगम बना लिया। तब सितारा देवी के सब्र का बांध टूट गया। उन्‍होंने आसिफ को बद्दुआ देते हुए कहा- ‘तुम बेमौत मरोगे और मैं तुम्‍हारा मरा मुंह भी नहीं देखूंगी।’ हालांकि, यह अलग बात है कि सितारा देवी उतनी बेरहम दिल नहीं रह सकीं। 9 मार्च, 1971 को आसिफ की मौत की खबर जब उन्‍हें मिली तो वह खुद को रोक नहीं पाईं। वह तुरंत आसिफ के घर गईं और उनके अंतिम दर्शन किए।

के.आसिफ़ को मुग़ले आज़म के लिए 1960 का बेस्ट फ़िल्म फिल्मफेअर अवार्ड, बेस्ट निर्देशक अवार्ड, राष्ट्रपति का सिल्वर अवार्ड मिले थे।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 19 – महान फ़िल्मकार : के.आसिफ़-1 ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी  अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  महान फ़िल्मकार : के.आसिफ़ पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 19 ☆ 

☆ महान फ़िल्मकार : के.आसिफ़ 1 3 ☆

के.आसिफ़ अर्थात आसिफ़ करीम भारतीय फ़िल्म उद्योग के नामचीन निर्देशक, निर्माता, पटकथा लेखक थे, जिन्होंने सर्वकालिक महान फ़िल्म मुग़ल-ए-आज़म बनाकर दुनिया के महान फ़िल्मकारों में स्थान पक्का कर लिया था। के.आसिफ़ का जन्म ब्रिटिश इंडिया के ज़िला इटावा में 14 जून 1922 को हुआ था, उनके पिता का नाम फ़ज़ल करीम था

वे महज आठवीं जमात तक पढ़े थे। पैदाइश से जवानी तक का वक्त गरीबी में गुजारा था। फिर उन्होंने भारतीय सिनेमा के इतिहास की सबसे बड़ी, भव्य और सफल फिल्म का निर्माण किया। यह इसलिए मुमकिन हुआ, क्योंकि उन्हें सिर्फ इतना पता था कि उनकी फिल्म के लिए क्या अच्छा और महत्वपूर्ण है।

हमेशा चुटकी से सिगरेट या सिगार की राख झाड़ने वाले करीमउद्दीन आसिफ़, अभिनेता नज़ीर के भतीजे थे। शुरू में नज़ीर ने उन्हें फ़िल्मों से जोड़ने की कोशिश की लेकिन आसिफ़ का वहाँ दिल न लगा। नज़ीर ने उनके लिए दर्ज़ी की एक दुकान खुलवा दी। थोड़े दिनों में ही वो दुकान बंद करवानी पड़ी, क्योंकि ये देखा गया कि आसिफ़ का अधिकतर समय पड़ोस के एक दर्ज़ी की लड़की से रोमांस करने में बीत रहा था। नज़ीर ने तब उन्हें ज़बरदस्ती ठेल कर फ़िल्म निर्माण की तरफ़ दोबारा भेजा। बॉलीवुड के सफल फिल्म निर्माता और निर्देशकों की श्रेणी में टॉप पर रहने वाले के. आसिफ को लोग पागल फिल्म डायरेक्टर भी कहते थे।

उनकी पहली फ़िल्म फूल थी।  यह 1945 की चौथी सबसे अधिक कमाई करने वाली भारतीय फिल्म थी। इस फिल्म का निर्देशन के आसिफ ने किया था। पटकथा कमाल अमरोही ने लिखी थी। पृथ्वीराज कपूर, वीणा कुमारी, याकूब, सुरैया, दुर्गा खोटे और सितारा देवी ने मुख्य भूमिकाएँ निभाईं थीं।

1951 में उन्होंने हलचल फ़िल्म बनाई। एसके ओझा द्वारा निर्देशित है। मोहम्मद शफी, सज्जाद हुसैन संगीत निर्देशक थे और साथ फ़िल्म के गीत खुमार बाराबंकवी ने लिखे थे। फिल्म में दिलीप कुमार, नरगिस, याकूब, जीवन और बलराज साहनी ने काम किया था।

के.आसिफ़ ज़िल्ले इलाही जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर के निज़ाम से अभिभूत थे और हों भी क्यों न, क्योंकि अकबर ने 13 साल की आयु से 49 सालों में हिन्दोस्तान को बिखरे रजवाड़ों से एक साम्राज्य में तब्दील किया था। अकबर ने राजपूत नीति से खड़ा किया अखिल भारतीय प्रशासनिक ढाँचा 1556 से 1726 याने 170 साल अगली तीन पीढ़ी तक क़ायम रहा। अकबर शासन के तात्कालिक नियमों पर अडिग रहकर उनका सख़्ती से पालन सुनिश्चित करता था। मुग़ले आज़म सलीम-अनारकली की नहीं अपितु बादशाह अकबर की फ़िल्म है।

के.आसिफ़ ने सैयद इम्तियाज़ अली ताज के उपन्यास “अनारकली” को आधार बनाकर फ़िल्म की पटकथा लिखवाई थी। अकबर के अबुल फ़ज़ल कृत ऐतिहासिक  दस्तावेज “आइने-अकबरी” में सलीम-अनारकली के प्रेम प्रसंग से सलीम के विद्रोह और अकबर-सलीम लड़ाई का कोई ज़िक्र नहीं है। लाहौर में अनारकली नाम की कनीज़ का हवाला ज़रूर मिलता है, जिसके नाम पर अभी भी अनारकली-गली लाहौर में मौजूद है। मुग़ले आज़म के पूर्व भी अनारकली नामक फ़िल्म बन चुकी थी, जिसमें प्रदीप कुमार और बीनारॉय ने काम किया था। के.आसिफ़ ने सलीम-अनारकली की भूमिका के लिए चंद्रमोहन-नरगिस को लेने की सोचा था लेकिन चंद्रमोहन की मृत्यु हो जाने से काम रुक गया।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 18 – महान फ़िल्मकार : महबूब ख़ान-3 ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी  अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  महान फ़िल्मकार : महबूब ख़ान पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 18 ☆ 

☆ महान फ़िल्मकार : महबूब ख़ान – 3 ☆

महबूब प्रोडक्शंस की स्थापना के बाद उन्होंने कई चर्चित फिल्में बनाईं। इनमें अनमोल घड़ी, अनोखी अदा, अंदाज, आन, अमर, मदर इंडिया, सन ऑफ इंडिया आदि शामिल हैं। अनमोल घड़ी में एक साथ सुरेंद्र, नूरजहाँ, सुरैया जैसे कलाकार थे वहीं अंदाज जमाने से आगे की फिल्म थी। प्रेम त्रिकोण पर आधारित यह फिल्म स्त्री-पुरुष के संबंधों को लेकर सवाल खड़ा करती है। ‘आन’ उनकी पहली रंगीन फिल्म थी, जबकि ‘अमर’ में नायक की भूमिका एंटी हीरो की थी। महबूब ने फ़िल्मी दुनिया को उन्हें पहले मौक़े देकर कई शानदार कलाकार दिए। सुरेंद्र, दिलीप कुमार, राज कपूर, राजेंद्र कुमार, सुनील दत्त, राज कुमार, नरगिस, निमि और नादिरा चालीस सालों तक रजत पट पर चमकने वाले किरदार रहे।

महबूब ख़ान की दो शादियाँ हुईं थीं। पहली बीबी फ़ातिमा से आयुब इक़बाल और शौक़त दो लड़के थे। उन्होंने पहली बीबी से अलग होने के बाद दूसरी शादी 1942 में प्रसिद्ध फ़िल्मी कलाकार सरदार अख़्तर से की थी। सरदार अख़्तर उनकी फ़िल्म “औरत” की हीरोईन थीं जिसे उन्होंने बाद में मदर इंडिया के रूप में बनाया था।

महबूब की सर्वाधिक चर्चित फिल्म ‘मदर इंडिया’ तो कई मामलों मे विलक्षण थी। मदर इंडिया’ जैसी कालजयी फिल्म के निर्माता महबूब खान हिन्दी फिल्मों के आरंभिक दौर के उन चुनिंदा फिल्मकारों में से एक थे, जिनकी नजर हमेशा अपने समय से आगे रही और उन्होंने मनोरंजन से कोई समझौता किए बिना सामाजिक सरोकारों को इस सशक्त ढंग से पेश किया कि उनकी कई फिल्में आज भी प्रासंगिक लगती हैं।

अब तक 3 भारतीय फिल्मों ने Best Foreign Language Film (बेस्ट फॉरेन लैंग्वेज फिल्म) की कैटेगरी में ऑस्कर नामांकन हासिल किया है। उसमें से एक है मदर इंडिया। विदेशी भाषा में बनी श्रेष्ठ फिल्म श्रेणी में भारत की ओर से ‘मदर इंडिया’ भेजी गई थी। फिल्म के तकनीकी पक्ष और निर्देशक द्वारा बनाई भावना की लहर से चयनकर्ता प्रभावित थे परंतु उन्हें यह बात खटक रही थी कि पति के पलायन के बाद महाजन द्वारा दिया गया शादी का प्रस्ताव वह क्यों अस्वीकार करती है जबकि सूदखोर महाजन उसके बच्चों का भी उत्तरदायित्व उठाना चाहता है।

दरअसल, चयनकर्ता को यह किसी ने नहीं स्पष्ट किया कि भारतीय नारी अपने सिंदूर के प्रति कितनी अधिक समर्पित होती है। फिल्म भारत के सदियों पुराने आदर्श के प्रति समर्पित थी। ऑस्कर जीतने के लिए फिल्म की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को स्पष्ट करने के लिए वहां एक प्रचार विभाग नियुक्त किया जाना चाहिए था।

फिल्म के अंतिम दृश्य में एक मां अपने सबसे अधिक प्रिय पुत्र को गोली मार देती है क्योंकि वह सांस्कृतिक मूल्यों के खिलाफ अपहरण कर रहा था। बताया जाता है कि ‘मदर इंडिया’ नरगिस द्वारा सुझाया गया नाम था।

बता दें कि मदर इंडिया तीसरे पोल के बाद महज एक वोट से ऑस्कर अवॉर्ड जीतने से चूक गई थी। उस साल बेस्ट फॉरेन फिल्म का अवॉर्ड इटालियन प्रोड्यूसर डीनो डे लॉरेन्टिस की फिल्म ‘नाइट्स ऑफ केबिरिया’ को मिला था। इसके बाद जो फिल्म ऑस्कर्स में फाइनल पांच में पहुंच पाई थी उनमें 1988 में आई मीरा नायर की फिल्म सलाम बॉम्बे और आमिर खान की 2001 में आई फिल्म लगान थी।

‘सन ऑफ इंडिया’ उनकी आखिरी फिल्म साबित हुई। इसके बाद वे अगली फिल्म की तैयारी कर रहे थे कि मात्र 57 साल की उम्र में 28 मई 1964 को उनका निधन हो गया।

भारत सरकार ने 2007 में उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी किया था। उनकी मदर इण्डिया को अकडेमी अवार्ड के लिए नामित किया गया था। 1958 में ही मदर इण्डिया को बेस्ट फ़िल्म और बेस्ट निर्देशन का सम्मान मिला था। वे दूसरे अंतर्राष्ट्रीयफ़िल्म फ़ेस्टिवल 1961 के ज्यूरी मेम्बर रहे थे।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 17 – महान फ़िल्मकार : महबूब ख़ान-2 ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी  अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  महान फ़िल्मकार : महबूब ख़ान पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 17 ☆ 

☆ महान फ़िल्मकार : महबूब ख़ान – 2 ☆

हिन्दी सिनेमा की फ़िल्मों में पर्दे पर पहली बार होली फ़िल्म ‘औरत’ में खेली गई थी। यह ब्लैक एंड वाइट फ़िल्म साल 1940 में रिलीज़ हुई थी। यह फ़िल्म फ़िल्मकार महबूब ख़ान के निर्देशन में बनी थी, लेकिन पर्दे पर होली के रंग देखे नहीं जा सके। महबूब ख़ान की 1952 में आई फ़िल्म ‘आन’ में होली के असली रंग पर्दे पर देखने को मिले। इससे पहले फ़िल्मों में होली तो दिखती थी, लेकिन रंग नज़र नहीं आते थे। जाहिर है, जब रंगीन फ़िल्म आई, तो रंग भी पर्दे पर नज़र आए। यह नादिरा की डेब्यू फ़िल्म थी। नादिरा वाले किरदार के लिए महबूब ख़ान की पहली पसंद नर्गिस थीं लेकिन उनके पास अधिक फ़िल्म होने के कारण समय नहीं था। मधुबाला से सम्पर्क किया गया, उनके पास भी एक साल तक तारीख़ नहीं थीं। फ़िल्म देखने के बाद लगता है कि नर्गिस फ़िल्म की ख़ूँख़ार राजकुमारी और बाद में समर्पित प्रेमिका की भूमिका हेतु उपयुक्त होतीं।

आन भारत की पहली टेक्नीकलर फ़िल्म थी, जिसे 16 एम-एम ब्लेक-व्हाइट में बनाकर 32 एम-एम में लन्दन से रंगीन करवाया गया था। जिसमें दिलीप कुमार, निम्मी और प्रेमनाथ के अलावा इराक़ी लड़की नादिरा ने काम किया था और उसे पूरी दुनिया में लन्दन में रिलीज़ किया गया था।

‘अंदाज’ फिल्म प्रेम त्रिकोण के लोकप्रिय बंबइया फार्मूले पर बनी होने के बावजूद एक ताजगी की बहार लेकर आती है। उस दौर में उन्होंने दिलीप कुमार से जो निगेटिव शेड वाले चरित्र का अभिनय करवाया है वह आज भी अभिनेताओं को प्रेरणा प्रदान करता है। अंदाज़ 1949 की भारतीय बॉलीवुड फ़िल्म है, जिसे नौशाद द्वारा संगीत के साथ महबूब खान द्वारा निर्देशित किया गया है। फिल्म में दिलीप कुमार, नरगिस और राज कपूर एक प्रेम त्रिकोण में, सहायक भूमिकाओं में कुक्कू और मुराद के साथ थे। फ़िल्म का संगीत नौशाद और मजरूह सुल्तानपुरी द्वारा गीत लिखे गए। दिलीप कुमार और राज कपूर की एक साथ ऑनस्क्रीन फीचर एकमात्र फिल्म है।

महबूब ने ‘औरत’ के बाद ‘रोटी’ फिल्म बनाई, जो वर्गभेद के साथ ही पूँजीवाद और धन की लालसा के नकारात्मक प्रभाव पर केंद्रित थी। काल्पनिक पृष्ठभूमि में बनी इस फिल्म में सामाजिक असमानता, पैसों पर आधारित सामाजिक मूल्यों को खूबसूरती से चित्रित किया गया था। फिल्म के अंत में प्यास के कारण नायक की मौत हो जाती है। हालाँकि मौत के समय उसके पास काफी मात्रा में सोना एवं धन होता है। इस फिल्म के माध्यम से महबूब खान का सामाजिक झुकाव स्पष्ट दिखता है। ‘रोटी’ के बाद महबूब खान ने महबूब प्रोडक्शंस की स्थापना की। वह किसी साम्यवादी दल के सदस्य नहीं थे, लेकिन उनकी कृतियों में साम्यवादी विचारधारा के प्रति झुकाव स्पष्ट दिखता है। उनकी फिल्मों में अत्यधिक नाटकीयता भी नहीं दिखती।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 16 – महान फ़िल्मकार : महबूब ख़ान ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी  अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  महान फ़िल्मकार : महबूब ख़ान पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 16 ☆ 

☆ महान फ़िल्मकार : महबूब ख़ान ☆

फिल्म निर्देशक महबूब खान का जन्म 9 सितंबर, 1907 को गुजरात में स्थित तत्कालीन बड़ौदा रियासत के गंदेवी तालुक़ा के नज़दीक बिलिमोड़ा बस्ती में हुआ था. महबूब पढ़े-लिखे व्यक्ति नहीं थे, लेकिन जीवन की पाठशाला में उन्होंने ऐसे नायाब सबक सीखे कि उनकी फिल्में तात्कालिक समाज का दर्पण और सदाबहार स्वस्थ मनोरंजन का पर्याय बन गईं। हमेशा कुछ नया करने की जिद ने उन्हें फिल्म निर्माण से जुड़े हर पक्ष पर मजबूत पकड़ बनाने के लिए प्रेरित किया। यही कारण है कि उनकी मदर इंडिया, अंदाज, अनमोल घड़ी, अनोखी अदा, आन, अमर जैसी फिल्मों में एक कसावट नजर आती है।

अपनी अद्भुत कला के माध्यम से उन्होंने भारतीय सिनेमा का परिचय विदेश से करवाया. मदर इंडिया फिल्म को भला कौन भूल सकता है। इस फिल्म ने ऑस्कर तक का सफर तय किया। फिल्म अवॉर्ड लेने में तो सफल नहीं रही मगर फिल्म ने भारतीय सिनेमा के लिए चुनौती पूर्ण मापदंड तय करके  निर्माताओं को नई दिशा जरूर दिखाई। निर्देशक महबूब खान ने 30 साल के करियर में कुल 24 फिल्मों का निर्देशन किया था, मदर इंडिया इनमें से सबसे ज्यादा चर्चा में रही।

बहुत कम लोग ये जानते होंगे कि महबूब खान को निर्देशक नहीं बल्कि एक एक्टर बनने का शौक था. 16 साल की उम्र में वे घर से भागकर एक्टिंग करने के लिए मुंबई आ गए थे। सिनेमा के रुपहले परदे से सम्मोहित मेह्बूब ने कम उम्र में ही बंबई की राह ले ली। अपने समय के अधिकतर फिल्मकारों की तरह महबूब ने भी विभिन्न स्टूडियो में संघर्ष कर फिल्म निर्माण की कला को समझा। मगर जब उनके पिता को इस बारे में पता चला वे महबूब को वापस घर ले आए। मेह्बूब जब 23 साल के हुए तब फ़िल्म उद्योग को घोड़े प्रदान करने का कारोबार करने वाले नूर अली मुहम्मद शिपरा, उनको घोड़े की नाल लगाने और घुड़साल की देखभाल के लिए बम्बई ले आए।

दक्षिण भारतीय फ़िल्मों के निर्देशक चंद्रशेखर एक दिन घोड़ों को लेकर फ़ाइटिंग दृश्य फ़िल्मा रहे थे तब मेह्बूब उनकी सहायता करते हुए घोड़ों को सम्भाल रहे थे। उन्होंने फ़ुरसत के क्षणों में महबूब से फ़िल्मों में काम करने के बारे में पूछा तो महबूब ने रूचि दिखाई। उन्होंने नूर अली मुहम्मद शिपरा की अनुमति से महबूब को ले गए। एक दिन चंद्रशेखर फ़िल्म का निर्देशन कर रहे थे, महबूब ने साथ काम करने की इच्छा जताई जिस पर उन्हें डायरेक्टर की रजामंदी भी मिल गई। मगर भूमिका बहुत छोटी थी। इसके बाद धीरे-धीर उन्हें सपोर्टिंग रोल्स ही मिले।

ये बात मूक फ़िल्मों के दौर की है। जब भारत में पहली बोलती फिल्म आलम आरा बन रही थी तो फिल्म के निर्देशक अर्देशिर ईरानी ने मुख्य भूमिका के लिए महबूब खान को ही लिया था मगर बात कुछ खास बनी नहीं। तमाम लोगों ने अर्देशिर को कहा कि पहली सवाक् फिल्म है, इसमें ज्यादा नए कलाकार को  लेना ठीक नहीं है. इसके बाद फिल्म में विट्ठल ने वह भूमिका निभाई। उन्होंने पहले महबूब प्रडक्शन बनाया बाद में बांद्रा में महबूब स्टूडीओ स्थापित करके अनमोल घड़ी, औरत, अन्दाज़, आन और अमर फ़िल्मे बनाईं।

आन 1952 में बनी हिन्दी भाषा की फ़िल्म है। इस फ़िल्म में अन्य साथी कलाकारों के साथ हिन्दी सिनेमा के अभिनेता दिलीप कुमार ने प्रमुख भूमिका निभायी थी। उन दिनों भारत की पहली टेक्नीकलर फ़िल्म ‘आन’ की आउटडोर शूटिंग का ज्यादातर हिस्सा नरसिंहगढ़, मध्य प्रदेश और इसके आसपास के इलाकों में फ़िल्माया गया था। फ़िल्म सन 1949 में बननी शुरू हुई थी और सन 1952 में रिलीज़ हुई थी। इसमें नरसिंहगढ़ का क़िला, जलमंदिर, कोटरा के साथ देवगढ़, कंतोड़ा, रामगढ़ के जंगल, गऊघाटी के हिस्सों में फ़िल्म के बड़े हिस्से को शूट किया गया था। फ़िल्म को देश के पहले शोमैन महबूब ख़ान ने बनाया था। जिनकी सन 1957 में रिलीज क्लासिक फ़िल्म ‘मदर इंडिया’ विश्व सिनेमा के इतिहास का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है। फ़िल्म में दिलीप कुमार, नादिरा, निम्मी, मुकरी, शीलाबाज, प्रेमनाथ, कुक्कू, मुराद ने प्रमुख भूमिकाएं निभाई थीं।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 13 – सोहराब मोदी ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी  अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के कलाकार  : सोहराब मोदी पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 14 ☆ 

☆ सोहराब मोदी  ☆

सोहराब मोदी अपने जमाने के जाने-पहचाने इंडो-फ़ारसी नाट्यकर्मी, फ़िल्मी कलाकार, निर्देशक और निर्माता थे। उनका जन्म फ़ारसी परिवार में 02 नवम्बर 1897 को बनारस के नज़दीक रामपुर में हुआ था, उनके पिता मेरवान जी मोदी इंडीयन सिविल सर्विस में थे। उनकी परवरिश यूनाइटेड प्रोविंस (उत्तर प्रदेश) के ग्रामीण इलाक़ों में होने से उनका हिंदी और उर्दू ज़बान पर बराबर का नियंत्रण था और घर के प्रशासनिक माहौल  व घर पर अंग्रेज़ी तालीम से अंग्रेज़ी भाषा और साहित्य पर भी अच्छा ख़ासा अधिकार था। सोहराब मोदी बुलंद आवाज़ के ऊँचे-पूरे क़द और मज़बूत काठी के मुकम्मिल इंसान थे।

उन्होंने शेक्सपियर के नाटक हेलमेट पर आधारित “खून ही खून”, सिकंदर, पुकार, पृथ्वी वल्लभ, झाँसी की रानी, मिर्ज़ा-ग़ालिब, जेलर और नौशेरवान-ए-आदिल नामक बेहतरीन फ़िल्में बनाईं थीं। उनकी फ़िल्मों में हमेशा एक उद्देश्यपरक संदेश होता था। फ़िल्मों में उनके योगदान के लिए उन्हें 1980 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार प्रदान किया गया था।

वे स्कूली पढ़ाई पूरी करके अपने भाई केकी मोदी के साथ मिलकर 26 साल की उम्र में एक नाटक कम्पनी “आर्य सुबोध थिएटर कम्पनी” स्थापित करके पूरे देश में नाटक करते रहे। जिसकी कमाई से एक प्रोजेक्टर ख़रीदा और ग्वालियर के टाउन हाल में एक फ़िल्म दिखाई।

भारत में से बाबा साहब फाल्के 1913 से मूक फ़िल्म बनाना शुरू कर चुके थे, उनकी पहली फ़िल्म “हरिशचंद्र तारामती” थी लेकिन 1931 तक सवाक् फ़िल्मों का दौर शुरू होने से नाटक कम्पनी के नाटकों का क्रेज़ जाता रहा इसलिए सोहराब मोदी फ़िल्मों की तरफ़ मुड़ गए। उन्होंने शेक्सपियर के नाटक हेलमेट और किंग जॉन पर आधारित खून का खून और सैद-ए-हवस फ़िल्मे बनाईं लेकिन दोनों बॉक्स आफ़िस पर पिट गईं।

उन्होंने 1936 में मिनर्वा मूवी टोन नामक संस्था स्थापित की और 1938 में मीठा ज़हर और तलाक़ बनाईं जो ख़र्चा निकालने में सफल रहीं। 1939 में पुकार, 1941 में सिकंदर, 1943 में पृथ्वी-वल्लभ बनाईं। पुकार फ़िल्म बादशाह जहांगीर की न्याय व्यवस्था पर केंद्रित थी जिसमें चंद्र मोहन, नसीम बानो और कमाल अमरोही के डायलाग ने धूम मचा दी। सिकंदर भी एक बड़ी सफलता सिद्ध हुई जिसमें पृथ्वी राज कपूर बने थे सिकंदर और सोहराब मोदी ख़ुद राजा पोरस और के.एन. सिंग राजा आम्भी बने थे, फ़िल्म के डायलाग आज भी बेमिशाल माने जाते हैं। तीनों की आवाज़ बुलंद और हिंदुस्तानी का उच्चारण साफ़ था। फ़िल्म के संवाद पर दर्शक पर्दे पर सिक्कों की बारिश करते थे। बाद में एक और सिकंदर-ए-आज़म बनी थी जिसमें सिकंदर दारा सिंह और पृथ्वी राज कपूर राजा पोरस बने थे।

पृथ्वी वल्लभ फ़िल्म कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी के उपन्यास पर आधारित थी जिसमें सोहराब मोदी और दुर्गा खोटे के लम्बे डायलाग चलते हैं। नायिका रानी मृणालवती फ़िल्म के नायक का अनादर करते हुए उससे बहस करते-करते उससे प्रेम करने लगती है। सोहराब मोदी के फ़िल्मी सेट में पारसी थिएटर की झलक मिलती है। जेलर और भरोसा इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।

सोहराब मोदी के उनकी फ़िल्मों की नायिका नसीम से रोमांटिक सम्बंध रहे लेकिन 1950 में शीशमहल फ़िल्म बनते समय तक उनके सम्बंधों में ठंडापन आ गया था। उसके बाद उनसे 20 साल छोटी महताब नाम की एक कलाकार उनसे नौशेरवान-ए-आदिल फ़िल्म से जुड़ी, जिससे उन्होंने 48 साल की उम्र में शादी कर ली, उनका उससे एक पुत्र महल्ली सोहराब हुआ।

सोहराब मोदी की फ़िल्म शीशमहल बम्बई की मिनर्वा थिएटर में लगी तो वे ख़ुद दर्शकों की प्रतिक्रिया पता करने वहाँ मौजूद थे, उन्होंने देखा कि सामने की कुर्सी पर बैठा एक दर्शक आँख बंद करके बैठा है। उन्होंने थिएटर के मैनेजर को बुलाकर उस दर्शक की टिकट के पैसे लौटाने को कहा। मैनेजर ने थोड़ी देर बाद आकर उन्हें बताया कि वह दर्शक अंधा है, इसलिए वह सिर्फ़ सोहराब मोदी के डायलाग सुनने आया है। सोहराब मोदी ने फ़िल्म समाप्त होने पर उस दर्शक को मैनेजर के रूम में बुलाकर उसे उस फ़िल्म के डायलाग सुनाए। फ़िल्मकार का दर्शक से ऐसा रिश्ता हुआ करता था।

मैंने भारत भवन में सोहराब मोदी की “झाँसी की रानी” फ़िल्म देखी जिसे उन्होंने अपनी बीबी महताब को लेकर बनाई थी, जिसमें वे ख़ुद झाँसी की रानी के राजगुरु की भूमिका में थे। झाँसी और लड़ाइयों की शूटिंग के साथ कसा कथानक और धाराप्रवाह डायलाग बांधे रखे रहे। सोहराब मोदी की ‘झांसी की रानी'(1953) भारतीय सिनेमा की पहली रंगीन फिल्म थी।

उन्होंने 1954 में मिर्ज़ा-ग़ालिब बनाई जिसमें सुरैया को मिर्ज़ा-ग़ालिब की महबूबा की भूमिका में उतारकर  मिर्ज़ा-ग़ालिब की ग़ज़लें उनसे गवाईं थीं। ज़फ़र, ज़ौक़, मोमिन, तिशना और सेफता को बिठाकर इस दौर की महफ़िल का समां बांधा था, वह देखते ही बनता है। फ़िल्म को राष्ट्रपति का स्वर्ण पदक मिला था, तब फ़िल्म की स्क्रीनिंग के बाद नेहरु जी ने कहा था कि आपने ग़ालिब को ज़िंदा कर दिया। उन्हें 1980 में दादा साहब फाल्के अवार्ड मिला था। उनकी पत्नी ने कहा था कि फ़िल्म उनकी पहली और आख़िरी प्रेमिका थी। 28 जनवरी 1984 को 86 साल की पकी उम्र में उनका देहांत हो गया था। भारत सरकार ने 2013 में उनकी याद को अक्षुण बनाए रखने हेतु डाक टिकट जारी किया था।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 12 – केदार शर्मा – 2 ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी  अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के कलाकार  : केदार शर्मा – 2 पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 12 ☆ 

☆ केदार शर्मा -2 ☆

उनकी आत्मकथा, द वन एंड लोनली केदार शर्मा को मरणोपरांत 2002 में प्रकाशित किया गया था, जिसे उनके बेटे विक्रम शर्मा ने संपादित किया था।

जिसमें उन्होंने पृथीराज कपूर के साथ सम्बंधों का खुलासा किया है।

मुंबई के रंजीत स्टूडियोज के लिए 1942 में केदार शर्मा ‘विषकन्या’ बना रहे थे। इस फिल्म में पृथ्वीराज कपूर, साधना बोस और सुरेंद्र नाथ प्रमुख भूमिका में थे। केदार शर्मा और पृथ्वीराज कपूर में कलकत्ता (अब कोलकाता) के दिनों से बहुत गहरी दोस्ती थी और दोनों एक दूसरे के सुख-दुख के साथी थे। बाद में दोनों कोलकाता से मुंबई आ गए थे। ‘विषकन्या’ की शूटिंग के दौरान केदार शर्मा ने इस बात को नोटिस किया कि पृथ्वीराज कपूर जब भी शूटिंग के लिए सेट पर पहुंचते तो वो बहुत उदास रहते हैं। शूटिंग के पहले और बाद में भी गुमसुम रहते हैं और सेट पर किसी से बातचीत नहीं करते। केदार शर्मा लगातार इस बात को नोट कर रहे थे लेकिन पृथ्वीराज कपूर से पूछ नहीं पा रहे थे।

एक दिन अवसर मिल ही गया। पृथ्वीराज कपूर शॉट देने के बाद सेट के एक कोने में जाकर बैठ गए। केदार शर्मा उनके पास पहुंचे, उनका हाथ पकड़कर बोले कि अगर इसमें बहुत व्यक्तिगत कुछ न हो तो मैं आपकी उदासी का कारण जानना चाहता हूं। मुझे लगता है कि आप किसी खास वजह से बेहद परेशान हैं। आप मुझ पर भरोसा रखकर उदासी की वजह बताइए, मैं उसको दूर करने की कोशिश करूंगा। इतना सुनकर पृथ्वीराज कपूर अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख सके और जोर से केदार का हाथ पकड़कर बोले, ‘केदार! मैं अपने बेटे राजू को लेकर बहुत चिंतित हूं। किशोरावस्था की उलझनों में वो मुझे भटकता हुआ लग रहा है, मैंने उसको पढ़ने के लिए कॉलेज भेजा लेकिन वहां पढ़ाई से ज्यादा वो लड़कियों में खो गया है।’ इतना बोलकर पृथ्वीराज कपूर चुप हो गए।

केदार शर्मा ने पृथ्वीराज कपूर के कंधे पर हाथ रखकर कहा, ‘अपने बेटे को मुझे सौंप दो लेकिन एक वादा करो कि मेरे और उसके बीच दखलअंदाजी नहीं करोगे। मैं उसको रास्ते पर ले आऊंगा, ठीक उसी तरह जिस तरह से कोई गुरू अपने चेले को लेकर आता है। मैं उसको अपना असिस्टेंट डायरेक्टर बनाने के लिए तैयार हूं।’ यह सुनकर पृथ्वीराज कपूर का दुख कुछ कम हुआ।

अगले दिन वो अपने बेटे राजू को लेकर केदार शर्मा के पास पहुंचे। कपूर खानदान की परंपरा के मुताबिक राजू ने केदार शर्मा के पांव छूकर आशीर्वाद लिया। केदार शर्मा ने राजू को उनके बचपन के दिनों की याद दिलाई, जब वो कोलकाता में रहते थे और पिता के साथ स्टूडियो आते थे। एक दिन जब केदार शर्मा रील देख रहे थे तो राजू ने उनसे जानना चाहा था कि रील में कैद चित्र पर्दे पर चलने कैसे लगते हैं। तब केदार शर्मा ने राजू को कहा था कि एक दिन मैं तुम्हें इसका रहस्य बताऊंगा। अब केदार शर्मा ने राजू से कहा, ‘रील का रहस्य जानने का समय आ गया है। तुम अब मेरे साथ काम करो। आज से तुम मेरे असिस्टेंट डायरेक्टर हो।’

केदार शर्मा 1945 में भारतीय प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा जो इंग्लैंड और हॉलीवुड की यात्रा की और चार्ली चैपलिन, वॉल्ट डिज्नी और सेसिल बी डीमिल से मिले।

  • बेस्ट चिल्ड्रन्स फिल्म, अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह वेनिस में 1957 में जलदीप के लिए मिला था।
  • 1956: सर्वश्रेष्ठ बाल फिल्म के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार: जलदीप
  • भारतीय फिल्म निर्देशकों का एसोसिएशन लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड
  • भारतीय सिनेमा में योगदान के लिए 1982 में प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी द्वारा स्वर्ण पुरस्कार
  • महाराष्ट्र सरकार का राज कपूर पुरस्कार (उनकी मृत्यु के बाद 1999 में सम्मानित)

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 11 – केदार शर्मा ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी  अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के कलाकार  : केदार शर्मा पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 11 ☆ 

☆ केदार शर्मा ☆

 

केदार शर्मा उर्फ़ केदार नाथ शर्मा (12 अप्रैल 1910 – 29 अप्रैल 1999), एक भारतीय फिल्म निर्देशक, निर्माता, पटकथा लेखक और हिंदी फिल्मों के गीतकार थे। उन्हें नील कमल (1947), बावरे नैन (1950) और जोगन (1950) जैसी फिल्मों के निर्देशक के रूप में बड़ी सफलता मिली, उन्हें अक्सर बॉलीवुड के महान कलाकारों गीता बाली, मधुबाला, राज कपूर, माला सिन्हा, भारत भूषण और तनुजा के अभिनय करियर की शुरुआत के लिए याद किया जाता है।

केदार शर्मा का जन्म नारोवाल पंजाब में हुआ था।  दो भाइयों, रघुनाथ और विश्वनाथ की अल्पायु मृत्यु और उनकी बहन तारो का कम उम्र में तपेदिक से निधन हो गया, एक छोटी बहन गुरू एक छोटे भाई हिम्मत राय शर्मा बचे, जो बाद में सफल उर्दू कवि के रूप में स्थापित हुए। केदार ने अमृतसर के बैज नाथ हाई स्कूल में पढ़ाई की जहाँ वे दर्शन, कविता, पेंटिंग और फोटोग्राफी में रुचि लेने लगे। हाई स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद सिनेमा में अपना करियर बनाने के लिए घर से भाग कर मुंबई पहुँचे  लेकिन रोजगार हासिल करने में असफल रहे तो अमृतसर लौट आए और हिंदू सभा कॉलेज में पढ़ाई हेतु प्रवेश लिया, जहाँ उन्होंने एक कॉलेज ड्रामेटिक सोसाइटी की स्थापना की।

एक स्थानीय सुधारवादी आंदोलन के प्रमुख ने केदार के नाटकों में से एक में हिस्सा लिया और शराब की बुराइयों को दर्शाती एक मूक फिल्म का निर्माण करने के लिए उसे काम मिला। इस परियोजना से अर्जित धन का उपयोग करते हुए, उन्होंने खालसा कॉलेज, अमृतसर में एक स्थानीय थिएटर समूह में शामिल होने से पहले अंग्रेजी में अपनी मास्टर डिग्री प्राप्त की। 1932 में उनकी शादी हुई तब उन्होंने कमाई के बारे में गम्भीरता से सोचना शुरू किया। फिल्म निर्देशक देवकी बोस की शुरुआती बोलती फिल्म पूरन भगत (1933) को देखकर वह न्यू थियेटर्स स्टूडियो में भाग्य आज़माने की उम्मीद में कलकत्ता के लिए रवाना हुए। कई महीनों की बेरोजगारी के बाद वह न्यू थियेटर्स के एक तत्कालीन अभिनेता, पृथ्वीराज कपूर (जहाँ वह पहली बार, पृथ्वीराज के आठ वर्षीय बेटे, राज कपूर से मिले) से मिलने में कामयाब रहे। पृथ्वीराज कपूर ने केदार को अपने पड़ोसी, तत्कालीन कुंदन लाल सहगल से मिलवाया, जिन्होंने एक परिचित के माध्यम से केदार को देवकी बोस से मिलने की व्यवस्था कर दी। देबकी बोस ने केदार को फिल्म सीता (1934) के लिए मूवी स्टिल्स फोटोग्राफर के काम पर रखा था, लेकिन बैकग्राउंड स्क्रीन पेंटर और फिल्म इंकलाब (1935) के लिए पोस्टर चित्रकार के रूप में केदार को फिल्म के निर्माण में काम मिला।  उन्होंने छप्पन (1935) और पुजारिन (1936) जैसी फिल्मों पर न्यू थियेटर्स के साथ काम करना जारी रखा, और  1936 में देवदास में उनके दोस्त कुंदन लाल सहगल द्वारा अभिनीत संवाद और गीत लिखने के लिए कहा गया तो एक बड़ा ब्रेक मिला। देवदास न केवल एक हिट थी, बल्कि “बलम आयी बसो मोरे मन में” और “सुख के अब दिन बीतत नाही” जैसे गाने देश भर में लोकप्रिय हो गए। केदार ने बाद में कहा, “बिमल रॉय और मुझे, देवदास में हमारा पहला बड़ा ब्रेक मिला था,  उन्हें कैमरामैन के रूप में और मुझे लेखक के रूप में।”

केदार को 1940 में जीत, औलाद और दिल ही तो है के लिए अपनी पटकथा लिखने का मौका दिया गया, कुछ सफलता मिली। इसके बाद उन्हें चित्रलेखा (1941) का निर्देशन करने के लिए कहा गया, जो एक हिट फिल्म बन गई और केदार एक निर्देशक के रूप स्थापित हो गए। उन्होंने अपनी पहली फिल्म नील कमल में राज कपूर और मधुबाला को लेकर अपनी फिल्मों का निर्माण शुरू किया। उन्होंने गीता बाली को अपनी पहली फिल्म, सोहाग रात (1948) में कास्ट किया और बाद में उन्हें राजकपूर के साथ फिल्म बावरे नैन (1950) के लिए टीम में शामिल किया। उसी वर्ष उन्होंने नर्गिस और दिलीप कुमार अभिनीत जोगन का निर्देशन किया। 1950 के दशक के उत्तरार्ध में जवाहरलाल नेहरू ने शर्मा के गीतों को सुना था, उन्हें बुलाया और उन्हें चिल्ड्रन्स फिल्म सोसाइटी का प्रमुख निदेशक बनने के लिए कहा। केदार शर्मा ने बाल फिल्म सोसाइटी के लिए कई फिल्मों पर काम किया, जिसमें फिल्म जलदीप भी शामिल है, जिसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसा प्राप्त हुई।  उन्होंने 1958 में शॉ ब्रदर्स स्टूडियो के लिए सिंगापुर में एक वर्ष फिल्मों का निर्देशन किया।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 10 – अर्देशिर ईरानी : पहली बोलती फ़िल्म आलमआरा ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी  अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के कलाकार  : अर्देशिर ईरानी : पहली बोलती फ़िल्म आलमआरा पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 10 ☆ 

☆ अर्देशिर ईरानी : पहली बोलती फ़िल्म आलमआरा ☆

खान बहादुर अर्देशिर ईरानी (5 दिसंबर 1886 – 14 अक्टूबर 1969) शुरुआती भारतीय सिनेमा के मूक और ध्वनि युग में एक लेखक, निर्देशक, निर्माता, अभिनेता, फिल्म वितरक, फिल्म शोमैन और छायाकार थे। वे हिंदी, तेलुगु, अंग्रेजी, जर्मन, इंडोनेशियाई, फारसी, उर्दू और तमिल में फिल्में बनाने के लिए प्रसिद्ध थे। सफल उद्यमी होने के नाते उनके पास फिल्म थियेटर, एक ग्रामोफोन एजेंसी और एक कार सेल्स एजेंसी थी।

अर्देशिर ईरानी का जन्म बॉम्बे प्रेसीडेंसी के पूना नगर में 5 दिसंबर 1886 को एक पारसी परिवार में हुआ था। वे 1905 में ईरानी यूनिवर्सल स्टूडियोज के भारतीय प्रतिनिधि बन गए और उन्होंने बंबई में “अलेक्जेंडर सिनेमा” को अब्दुल एस्सोल्ली के साथ चालीस साल तक चलाया। अर्देशिर ईरानी ने अलेक्जेंडर सिनेमा में फिल्म निर्माण की कला के नियमों को सीखा और फ़िल्म माध्यम पर मोहित होकर पूरे जीवन फ़िल्म व्यवसाय को समर्पित रहे।  ईरानी ने 1917 में फिल्म निर्माण के क्षेत्र में प्रवेश करके 1920 में अपनी पहली मूक फीचर फिल्म, नल-दमयंती का निर्माण किया।

उन्होंने 1922 में दादासाहेब फाल्के के “हिंदुस्तान फिल्म्स” के पूर्व प्रबंधक भोगीलाल दवे से जुड़कर “स्टार फिल्म्स” की स्थापना की। उनकी दूसरी मूक फीचर फिल्म “वीर अभिमन्यु” 1922 में रिलीज़ हुई न्यूयॉर्क स्कूल ऑफ फोटोग्राफी के स्नातक दवे ने फिल्मों की शूटिंग की, जबकि ईरानी ने उन्हें निर्देशित और निर्मित किया। ईरानी और दवे की साझेदारी में स्टार फिल्म्स ने सत्रह फिल्मों का निर्माण किया।

ईरानी ने 1924 में दो प्रतिभाशाली युवा बी.पी. मिश्रा और नवल गांधी को साथ लेकर “राजसी फ़िल्मस” की स्थापना की।  “राजसी फ़िल्मस” ने पंद्रह फिल्मों का निर्माण किया। इतनी सफलता के बावजूद राजसी फ़िल्मस बंद हो गईं।  उन्होंने “रॉयल आर्ट स्टूडियो” स्थापित किया हालांकि, वह एक निश्चित प्रकार की रोमांटिक फिल्मों के लिए प्रसिद्ध हो गया। ईरानी ने नई प्रतिभाओं का उपयोग करके फ़िल्म निर्माण तकनीक में सुधार किया।

ईरानी ने 1925 में “इम्पीरियल फिल्म्स” की स्थापना करके बासठ फिल्में बनाईं। ईरानी चालीस साल की उम्र तक भारतीय सिनेमा के एक स्थापित फिल्म निर्माता थे। अर्देशिर ईरानी 14 मार्च 1931 को अपनी सवाक् याने साउंड फीचर फिल्म “आलम आरा” की रिलीज के साथ टॉकी फिल्मों के जनक बन गए। उनके द्वारा निर्मित कई फिल्में बाद में उन्ही कलाकारों और दल के साथ टॉकी फिल्मों में बनाई गईं। उन्हें पहली भारतीय अंग्रेजी फीचर फिल्म नूरजहाँ (1931) बनाने के लिए भी जाना जाता है। उन्होंने भारत की पहली रंगीन फीचर फिल्म किसान कन्या (1937) बनाई। उनका योगदान सिर्फ़ मूक सिनेमा को आवाज़ देने और श्वेत-श्याम फ़िल्मों को रंग देने से नहीं ख़त्म होता। उन्होंने भारत में फिल्म निर्माण के लिए एक नया साहसी दृष्टिकोण अपनाया और फिल्मों में कहानियों के लिए इस तरह की एक विस्तृत श्रृंखला प्रदान की जिन पर आज तक फिल्में बनाई जा रही हैं।

ईरानी ने 1933 में पहली फारसी टॉकी, “दोख्तर-ए-लोर” का निर्माण और निर्देशन किया। पटकथा अब्दोलहोसिन सेपांता ने लिखी थी, जिन्होंने स्थानीय पारसी समुदाय के सदस्यों के साथ फिल्म में अभिनय भी किया था।

ईरानी की इंपीरियल फिल्म्स ने भारतीय सिनेमा में कई नए कलाकारों को पेश किया, जिनमें पृथ्वीराज कपूर और महबूब खान उल्लेखनीय थे। उन्होंने तेलुगु में गाने के साथ आलम आरा के सेट पर तमिल में कालिदास का निर्माण किया। इसके अलावा ईरानी ने साउंड रिकॉर्डिंग का अध्ययन करने के लिए पंद्रह दिनों के लिए लंदन, इंग्लैंड का दौरा किया और इस ज्ञान के आधार पर आलम आरा की आवाज़ को रिकॉर्ड किया। इस प्रक्रिया में उन्होंने अनजाने में एक नया चलन बनाया। उन दिनों रिफ्लेक्टर की मदद से सूरज की रोशनी में आउटडोर शूटिंग की जाती थी। जिसमें बाहरी अवांछनीय आवाज़ें उन्हें बहुत परेशान कर रही थीं। उन्होंने स्टूडियो में भारी रोशनी करके पूरे सीक्वेंस को शूट किया। इस प्रकार उन्होंने कृत्रिम प्रकाश के तहत शूटिंग की प्रवृत्ति शुरू की।

प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के बीच ईरानी ने पच्चीस वर्षों के लंबे और शानदार कैरियर में एक सौ अट्ठाईस फिल्में बनाईं। उन्होंने 1945 में अपनी आखिरी फिल्म पुजारी बनाई। ईरानी को दादासाहेब फाल्के की तरह जीविका ने मजबूर नहीं किया था इसलिए उन्होंने महसूस किया कि युद्धकाल पश्चात फिल्म व्यवसाय के लिए उपयुक्त नहीं था और इसलिए उन्होंने उस दौरान अपने फिल्म व्यवसाय को निलंबित कर दिया। 14 अक्टूबर 1969 को मुंबई, में तिरासी साल की उम्र में उनका निधन हो गया।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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