मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 52 – आमचं कुटुंब ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  एक  अत्यंत भावप्रवण  एवं समसामयिक कविता  “आमचं कुटुंब। आज कमोबेश सामान्य मध्यम एवं उच्च वर्ग के परिवारों की यही स्थिति है और सभी अनिश्चय के दौर से गुजर रहे हैं ।  इस वैश्विक महामारी काल में भविष्य के प्रति सभी चिंतित हैं और यह स्वाभाविक भी है। सुश्री प्रभा जी ने कुटुंब पर रचित कविता के माध्यम से प्रत्येक परिवार की पीड़ा साझा कर दी है।  कभी कभी मुझे लगता है संयुक्त परिवारों की परिभाषा बदल गयी है। आज संयुक्त परिवार वास्तव में वर्च्युअल संयुक्त परिवार हो गए हैं । वे संयुक्त भी हैं और स्वतंत्र भी। सुश्री प्रभा जी की एक माँ  के रूप में रचित संवेदनशील रचना के लिए उनकी लेखनी को सादर नमन ।  

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 52 ☆

☆ आमचं कुटुंब ☆ 

 

आले दिवस असे की

जाता जाईना आळस

त्यात कोरोना विषाणू

त्याने केलाय कळस

 

पुत्र आहे दूरदेशी

त्याचे विस्तारे क्षितीज

स्नुषा, नातू आले घरा

केली सारी तजवीज

 

आहे  कुटुंबात माझ्या

प्रत्येकालाच स्वातंत्र्य

स्पेस दिली ज्याला त्याला

नको कोणा पारतंत्र्य

 

आम्ही  पेठांमधे आणि

“आयटी” च्या ते गावात

आणिबाणीच्या या क्षणी

आलो एकाच घरात

 

सून सुगरण माझी,

नातू अमृताची  खाण

रोज सोनियाचा दिनु

नसे कशाचीच वाण !

 

नित्य  प्रार्थिते देवाला

देई अभयाचे दान

जागतिक संकटाचे

आहे आम्हालाही भान !

 

माझ्या कुटुंबात नांदो

सदा सौख्य, शांती, प्रेम

सर्व जगातील जन

असो जिथे तिथे क्षेम !

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 50 ☆ बेघर होती मुले ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक अत्यंत मार्मिक, ह्रदयस्पर्शी एवं भावप्रवण कविता  “बेघर होती मुले।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 50 ☆

☆ बेघर होती मुले☆

 

आकाशाची चादर त्यावर नक्षत्रांची फुले

पांघरलेली ज्यांनी ती तर बेघर होती मुले

 

सूर्याच्या या किरणांचे तर पडले होते सडे

अनवाणी हे पाय करपले गेले त्यांना तडे

 

कचऱ्यामधल्या अन्नासाठी तेही आले पुढे

त्यांच्या आधी त्या अन्नाला झोंबत होते किडे

 

बिकट जरी ही दैना माझी विकतो आहे फुगे

रस्त्यावरती भाऊबंद नि फुटपाथांवर सगे

 

वस्त्रांच्या या चिंध्यालाही भाग्य लाभले नवे

फॕशन म्हणूनच असले कपडे घालुन  फिरती थवे

 

अनाथ बेघर मरून पडता पाहुन जाती पुढे

महापालिका गाडीतुन मग नेते अमुचे  मढे

 

परके करती राज्य तुम्हावर तुम्ही ठोकळे बघे

निर्भर भारत होण्यासाठी बहु लागतील युगे

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ उत्सव कवितेचा # 5 – राजवर्खी पाखरा ☆ श्रीमति उज्ज्वला केळकर

श्रीमति उज्ज्वला केळकर

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके कई साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आपने कुछ हिंदी साहित्य का मराठी अनुवाद भी किया है। आप कई पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं एवं 6 उपन्यास, 6 लघुकथा संग्रह 14 कथा संग्रह एवं 6 तत्वज्ञान पर प्रकाशित हो चुकी हैं।  हम श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी के हृदय से आभारी हैं कि उन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा के माध्यम से अपनी रचनाएँ साझा करने की सहमति प्रदान की है। आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता  ‘राजवर्खी पाखरा।आप प्रत्येक मंगलवार को श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।)

साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा – # 5 ☆ 

☆ राजवर्खी पाखरा 

झाडाझाडांचा झडला

सारा पानोरा पानोरा

फांदी फांदी प्रतिक्षेत

कधी फुलेला फुलोरा

 

पाने परदेशी झाली

झाड भकास उदास

कसे सांतवावे त्याला

धुके निराश निराश

 

पाने परदेशी झाली

परी पाखरू उडेना

निळ्या नभी निरखते

निळ्या स्वप्नांचा खजिना

 

पाखराच्या डोळाभर

स्वप्नं निळे साकारले

दूर कुणा पारध्याचे

डोळे कसे लकाकले.

 

राजवर्खी पाखरा तू

जाई जाई बा उडून

तुझे तूच जप आता

लाख मोलाचे रे प्राण

 

© श्रीमति उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री ‘ प्लॉट नं12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ , सांगली 416416 मो.-  9403310170

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 48 – हरीरुपे – दशअवतार ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आज  प्रस्तुत है  आपका  एक अत्यंत भावप्रवण कविता  ” हरीरुपे – दशअवतार”।  आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। )

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 48 ☆

☆ हरीरुपे – दशअवतार ☆

 

दश अवतारी। हरीरुपे स्मरू। जीवनाचा वारू। स्थिरावेल।

मत्स्य कूर्म आणि। वराह  वामन। सृष्टी नियमन। करीतसे।

हिराण्य मातला। वधुनी तयासी।तारी प्रल्हादासी। नरसिंहा।

ब्राह्मण्य रक्षणा।  परशुराम सिद्ध। असे कटिबद्ध। धर्मयोद्धा।

मर्यादा पुरुष ।  राम आवतारी । कर्तव्य निर्धारी। सर्वकाळ।

सोळा कलायुक्त । पूर्ण अवतार। निर्गुणाचे सार। पार्था सांगे।

क्षमा शील शांती। बोध जगतास । बुद्ध महात्म्यास । दंडवत।

कल्की अवतार। कलीयुगी घेई। अधःपात नेई। लयालागी

दांवा परिसर। मानव चतुर ।  साधण्या अतुर। स्वार्थ हिता।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 1 ☆ वेदनेच्या कविता… ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

(कवी राज शास्त्री जी (महंत कवी मुकुंदराज शास्त्री जी) का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप मराठी साहित्य की आलेख/निबंध एवं कविता विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। मराठी साहित्य, संस्कृत शास्त्री एवं वास्तुशास्त्र में विधिवत शिक्षण प्राप्त करने के उपरांत आप महानुभाव पंथ से विधिवत सन्यास ग्रहण कर आध्यात्मिक एवं समाज सेवा में समर्पित हैं। विगत दिनों आपका मराठी काव्य संग्रह “हे शब्द अंतरीचे” प्रकाशित हुआ है। ई-अभिव्यक्ति इसी शीर्षक से आपकी रचनाओं का साप्ताहिक स्तम्भ आज से प्रारम्भ कर रहा है। आज प्रस्तुत है उनकी भावप्रवण कविता “वेदनेच्या कविता…”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 1 ☆ 

☆ वेदनेच्या कविता… ☆

वेदनेच्या ह्या कविता सांगू कशा

मूक झाली भावना ही महादशा..धृ

 

अश्रू डोळ्यांतील संपून गेले पहा

स्पंदने हृदयाची थांबून गेली पहा

आक्रोश मी कसा करावा, कळेना हा.. १

 

नाते-गोते आप्त सारे विखुरले

रक्ताचे ते पाणी झाले आटले

मंद मंद मृत शांत भावना.. २

 

ऐसे कैसे दिस आले, सांगा इथे

कीव ना इतुकी कुणाला काहो इथे

आंधळे हे विश्व अवघे भासे इथे.. ३

 

सांगणे इतुकेच माझे आता गडे

अंध ह्या चालीरीतीला पाडा तडे

राज कवीचे शब्द आता तोकडे.. ४

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन,

वर्धा रोड नागपूर,(440005)

~9405403117

~8390345500

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या # 12 ☆ स्वप्नपरी ☆ श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

ई-अभिव्यक्ति में श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या को प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वेस्टर्न  कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड, चंद्रपुर क्षेत्र से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। अब तक आपकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दो काव्य संग्रह एवं एक आलेख संग्रह (अनुभव कथन) प्रकाशित हो चुके हैं। एक विनोदपूर्ण एकांकी प्रकाशनाधीन हैं । कई पुरस्कारों /सम्मानों से पुरस्कृत / सम्मानित हो चुके हैं। आपके समय-समय पर आकाशवाणी से काव्य पाठ तथा वार्ताएं प्रसारित होती रहती हैं। प्रदेश में विभिन्न कवि सम्मेलनों में आपको निमंत्रित कवि के रूप में सम्मान प्राप्त है।  इसके अतिरिक्त आप विदर्भ क्षेत्र की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के विभिन्न पदों पर अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। अभी हाल ही में आपका एक काव्य संग्रह – स्वप्नपाकळ्या, संवेदना प्रकाशन, पुणे से प्रकाशित हुआ है, जिसे अपेक्षा से अधिक प्रतिसाद मिल रहा है। इस साप्ताहिक स्तम्भ का शीर्षक इस काव्य संग्रह  “स्वप्नपाकळ्या” से प्रेरित है ।आज प्रस्तुत है उनकी एक  श्रृंगारिक कविता “स्वप्नपरी“.) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – स्वप्नपाकळ्या # 12 ☆

☆ स्वप्नपरी

 

मंद मंद अती अलगद पाऊल

टाकित आली  न  लगे चाहूल

ये  सुहासिनी ,ये  गं  कामीनी !!

 

आभाळाचा  पडदा  सारुनी

नक्षत्रांच्या   परीधानातुनी

ये गं  यामीनी, ये गं कामीनी !!

 

कल्पवृक्षाच्या झोपाळ्यावर

रत्नांचा  तो  स्वर्गही  सुंदर

ये गं त्यातुनी, ये  गं कामीनी !!

 

रुणझुण रुणझुण संगीत सुमधुर

घडवी  विधाता  तुजला  सुंदर

ये श्रृंगारुनी ,  ये  गं  कामीनी !!

 

©  प्रभाकर महादेवराव धोपटे

मंगलप्रभू,समाधी वार्ड, चंद्रपूर,  पिन कोड 442402 ( महाराष्ट्र ) मो +919822721981

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मराठी साहित्य – कविता ☆ केल्याने होतं आहे रे # 35 – फुगडी कोरोनाची ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है। आज प्रस्तुत है श्रीमती उर्मिला जी की रचना  “फुगडी कोरोनाची ”। उनकी मनोभावनाएं आने वाली पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय है।  ऐसे सामाजिक / धार्मिक /पारिवारिक साहित्य की रचना करने वाली श्रीमती उर्मिला जी की लेखनी को सादर नमन। )

☆ केल्याने होतं आहे रे # 35 ☆

☆ फुगडी कोरोनाची ☆ 

(काव्यप्रकार :-मुक्तछंद)

 

फू बाई फू.. फुगडी फू..वाढ वाढ वाढतोयस कोरोना तूं रे कोरोना तूं.ऽऽ.!!धृ.!!

 

विमानातनं आलास !

हाहा म्हणता पसरलास!

तग धरुन बसलास !!१!! आता फुगडी फू….

 

कोरोना रे कोरोना !

तुझा लाडका चायना !

व्हायरस पाठवून केली की हो दैना !

कोरोनाची पीडा आता जाता जाईना !!२!! फुगडी फू…

 

अमेरिका फ्रान्स स्पेन अन् इटली !

चायनाची तर हौसच फिटली !

लाखोंची पतंग याने की हो काटली !!३!! आता फुगडी फू…

 

कोरोनाचा तर वाढतोय जोश!

त्यावर नाही अजून निघाला डोस !

गावेच्या गावे याने पाडली ओस !

जिकड तिकडं याचाच घोष !!४!! आता फुगडी फू..

 

आम्ही नाही हरणार !

शासनाचे ऐकणार!

घरातच रहाणार!

फळे आम्ही खाणार!

सात्त्विक आहार घेणार !

तुला पळवून लावणार !

जोमाने उभे रहाणार!!५!! आता फुगडी फू…

 

©️®️उर्मिला इंगळे

सातारा

दिनांक:२१-५-२०.

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु!!

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मराठी साहित्य – कविता/गीत ☆ विडंबन – हा ‘ टॅग ‘ गाडीला लावीतसे ☆ श्री अमोल अनंत केळकर

श्री अमोल अनंत केळकर

( युवा मराठी साहित्यकार श्री अमोल अनंत केळकर जी मराठी व्यंग्य  विधा (विडंबन)  के सशक्त हस्ताक्षर हैं। मैं समझता हूँ इस विधा में अभिरुचि केअतिरिक्त  एम बी ए  (मार्केटिंग)  शैक्षणिक योग्यता निःसंदेह पृष्ठभूमि में कार्य करती ही है। श्री अमोल अनंत केळकर जी के ही शब्दों में  उनका परिचय – “सध्या राहणार बेलापूर नवी मुंबई. ठाण्याजवळ  स्टील कंपनीत नोकरीला. प्रासंगिक लेखन/ विडंबन / चारोळ्या ललित लेखन. ‘माझे टुकार ई-चार ‘ ( www.poetrymazi.blogspot.in)  आणि ‘ देवा तुझ्या द्वारी आलो’ ( www.kelkaramol.blogspot.in) हे दोन ब्लाॅग. यावर नियमीत लेखन. जोतिष शास्त्राची आवड”।  आपका लेखन नितांत सहज  एवं धाराप्रवाह है। आज प्रस्तुत है उनकी विशिष्ट विडंबन रचना “हा ‘ टॅग ‘ गाडीला लावीतसे “जो कि मराठी गीत  “हा छंद जिवाला लावि पिसे !” पर आधारित है। )

 ☆ हा ‘ टॅग ‘ गाडीला लावीतसे ☆ 

(मुळ  गाणे : हा छंद जिवाला लावि पिसे !)

 

तिथे टोल सखे भरपूर दिसे

खिशात ‘ मनी ‘ सर ले भलते

दिनरात तुझा रे ध्यास जडे

हा ‘ टॅग ‘ गाडीला लावीतसे

 

ती रांग  तुझ्या नजरेमधली

गाडी आपली नेहमीच बळी

‘टॅगात ‘ असेल जादुखरी

गेलो ओलांडुनी  ‘फास्ट’ कसे

 

आरशाच्या मागे चिकटव वरी

हा स्कँन होतसे लईभारी

तो मार्ग मग घायाळ करी

वेगात पळाली कार दिसे

 

©  श्री अमोल अनंत केळकर

१३/०४/२०२०

नवी मुंबई, मो ९८१९८३०७७९

poetrymazi.blogspot.in

१८/१२/१९

 ☆ मुळ गाणे : हा छंद जिवाला लावि पिसे ! ☆ 

 

तुझे रूप सखे गुलजार असे

काहूर मनी उठले भलते

दिनरात तुझा ग ध्यास जडे

हा छंद जिवाला लावि पिसें!

 

ती वीज तुझ्या नजरेमधली

गालीं खुलते रंगेल खळी

ओठांत रसेली जादुगिरी

उरिं हसति गुलाबी गेंद कसे!

 

नखर्यांत तुझ्या ग मदनपरी

ही धून शराबी दर्दभरी

हा झोक तुझा घायाळ करी

कैफांत बुडाले भान असे!

 

☆ ☆ ☆ ☆ ☆ 

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विजय साहित्य – मंदिर ह्रदयीचे. . . ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव समसामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता  “मंदिर ह्रदयीचे. . . ! )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विजय साहित्य ☆

☆ मंदिर ह्रदयीचे. . . ! ☆

जखमांवरती मलम लावले, आई संज्ञेचे

अलगद  आले, भरून सारे, घाव अंतरीचे

असे हे दैवत ममतेचे, पहा ना मंदिर ह्रदयीचे.

 

आयुष्याला तोलून धरले, अज्ञात ताजव्याने

त्या शक्तीचे दर्शन घडले, आई रूपाने

असे हे दैवत ममतेचे, पहा ना मंदिर ह्रदयीचे.

 

आई म्हणजे  अमृत पान्हा, संचित जीवनाचे

वात्सल्याची आभाळमाया, जीवन घडवीते

असे हे दैवत ममतेचे, पहा ना मंदिर ह्रदयीचे.

 

एकच आता दैवत माना, मनी माऊलीचे

संस्काराने जिने घडविले, मंदिर सौख्याचे

असे हे दैवत ममतेचे, पहा ना मंदिर ह्रदयीचे

 

(श्री विजय यशवंत सातपुते जी के फेसबुक से साभार)

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 31 ☆ लघुकथा – स्वाभिमानी माई ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक, आत्मसम्मान -स्वाभिमान से परिपूर्ण भावुक एवं मार्मिक लघुकथा  “  स्वाभिमानी माई”। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस हृदयस्पर्शी लघुकथा को सहजता से रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 31☆

☆ लघुकथा –  स्वाभिमानी माई

कर्फ्यू के कारण बाजार में आज बहुत दिन बाद दुकानें खुली थीं , थोडी चहल – पहल दिखाई दे रही थी . उसने भी  अपनी दुकान का रुख किया . मन में  सोचा  कर्फ्यू  के बाद ग्राहक तो कितने आयेंगे पर घर से निकलने का मौका  मिलेगा  और घर के झंझटों से भी छुटकारा . दुकान खुलेगी तो ग्राहक भी धीरे- धीरे आने ही लगेंगे . दो महीने से दुकान बंद थी  . दुकान पर काम करनेवाले लडकों को बुलायेगा तो पगार देनी पडेगी,  कहाँ से देगा ? छोटी सी दुकान है वह भी अपनी नहीं ,  दुकान का मालिक किराया थोडे ही छोडेगा ?  कितना कहा मालिक से कि दो महीने से दुकान बंद है कोई कमाई नहीं है , आधा किराया ले ले ,  पर कहाँ सुनी उसने , सीधे कह दिया किराया नहीं दे सकते तो  दुकान खाली कर दो . वह  मन ही मन झुंझला रहा था , खैर छोडो उसने खुद को समझाया , इस महामारी ने पूरे विश्व को संकट में डाल दिया , मैं अकेला थोडे ही हूँ . कैसा ही समय हो कट ही जाता है . वह दुकान की सफाई में लग गया .

बेटा –  उसे किसी स्त्री की बडी कमजोर सी आवाज सुनाई दी .  उसने सिर उठाकर देखा ,  कैसी हो माई , बहुत दिन बाद दिखी ? उसने पूछा .

दो महीने से बाजार बंद था बेटा , क्या करते यहाँ आकर ? उसने बडी दयनीयता से कहा .

हाँ ये बात तो है . बूढी माई घूम – घूमकर सब दुकानों से रद्दी सामान इक्ठ्ठा किया करती  थी . दुकान के बाहर आकर चुपचाप खडी हो जाती थी  ,लोग अपने आप ही उसके बोरे में रद्दी सामान डाल दिया करते थे . अपनी जर्जर काया पर  बोरे का भारी बोझ उठाए वह मंद गति से अपना काम करती रहती थी . कुछ मांगना तो दूर , वह कभी किसी से एक कप चाय भी न लेती थी . कागज की पुडिया में अपने साथ खाने पीने का  सामान रखती , कहीं बैठकर खा लेती और काम पर चल देती . दुकानदार उसे अकडू माई  कहा करते थे पर उसके लिए वह स्वाभिमानी थी .

आज भी वह वैसी ही खडी थी, ना  कुछ मांगा, ना कुछ  कहा .थोडी देर हालचाल पूछने के बाद  वह कहने ही जा रहा था कि माई !  रद्दी तो नहीं है आज, लेकिन उसका मुर्झाया चेहरा देख शब्द मुँह में ही अटक गए .  उसके चेहरे पर  गहरी उदासी  और आँखों में बेचारगी  थी . उसने सौ का नोट बूढी माई को देना चाहा . मेहनत करने का आदी हाथ मानों आगे बढ ही नहीं रहा था . धोती के पल्ले से आँसू पोंछते हुए नोट लेकर  उसने माथे से लगाया . धीरे से बोली – बेटा ! घर में कमाने वाला कोई नहीं है रद्दी बेचकर  अपना पेट पाल लेती थी. तुम लोगों की दुकाने खुली रहती थीं तो हमें भी पेट भरने को कुछ मिल  जाता था , अब तो सब खत्म . बूढी माई का स्वाभिमान  आँसू बन बह रहा था .

उसे अपनी परेशानियां अब फीकी लग रही थीं .

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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