हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ अंतर्मुखी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ अंतर्मुखी

बाहरी दुनिया

देखते-देखते

आदमी जब

थक जाता है,

उलट लेता है

अपनी आँखें

अंतर्मुखी

कहलाता है,

लम्बे समय तक

बाहरी दुनिया को

देखने, समझने की

दृष्टि देता है,

कुछ देर का

अंतर्मुखी होना

अच्छा होता है..!

 

©  संजय भारद्वाज

3:33 बजे दोपहर, 25.8.18

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 6 – रिश्तों की हवेली ☆ – श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी  अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता रिश्तों की हवेली

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 6 – रिश्तों की हवेली ☆

 

रिश्तों की बहुत बड़ी हवेली थी हमारी,

लोग हमेशा हमारे रिश्तों की हवेली की मिसाल दिया करते थे ||

 

बहुत गर्व था हमें हमारे रिश्तों की हवेली पर,

रोशन रहती थी हमेशा हवेली, लोग बुजुर्गों को शीश नवाते थे ||

 

वक्त गुजरता गया रिश्ते धूमिल होते गए,

नजर ऐसी लगी की एक दिन टुकड़े-टुकड़े होकर रिश्तें बिखर गए ||

 

रिश्तों की हवेली जमींदोज होते ही कुछ रिश्ते दब गए,

कुछ रिश्ते छिटके तो कुछ बिखर गए, कुछ को लोग पैरों तले रौंध गए ||

 

कुछ रिश्ते मुरझा गए तो कुछ पतझड़ में पत्तों से झड़ गए,

जन्म-मरण तक सिमट गए रिश्ते, यह सब देख रिश्ते खुद रोने लगे ||

 

रिश्ते आज भी जीवित है मगर बिखरे-बिखरे से,

महक रिश्तों की उड़ गयी, लोग मंद-मंद मुस्करा तमाशा देखते रहे ||

 

जिंदगी गुजरती गयी रिश्ते फिसलते गए, काश !

कोई तो संभाले, देखा है सब को चुपके-चुपके एक दूसरे के लिए रोते हुए ||

 

कोई तो रिश्तों को छू भर ले, बहुत मुलायम है ये रिश्ते,

कोई एक हाथ बढ़ाएगा यकीनन सब बाँहों में सिमट जायेंगे तड़पते हुए ||

 

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 35 ☆ कृष्णा के दोहे ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है शब्द आधारित कृष्णा के दोहे। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 35 ☆

☆ कृष्णा के दोहे ☆

 

साधना

सत्य प्रेम की  साधना, ईश्वर को स्वीकार

प्रभु चरणों में ध्यान धर, हो जाए उद्धार

 

उत्थान

सच्चाई पर जो चले, पाए जग में मान

सत्य बिना होता नहीं, जीवन का उत्थान

 

राष्ट्रप्रेम

राष्ट्रप्रेम की भावना, हो मन में भरपूर

जियो देश हित के लिए, बनकर सच्चा शूर

 

बलिदान

वीर सपूतों ने दिया, प्राणों का बलिदान

सीमा पर लड़ते रहे, जब तक तन में जान

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 43 ☆ मैं जुगनू बन गई हूँ  ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “मैं जुगनू बन गई हूँ ”।  यह कविता आपकी पुस्तक एक शमां हरदम जलती है  से उद्धृत है। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 43 ☆

☆ मैं जुगनू बन गई हूँ  ☆

 

अपने चारों ओर रौशनी के लिए

एक दिया मैंने जलाया,

उसमें कई रात जागते हुए

तेल डाला,

हवाओं से वो बुझ न जाए

यह सोच अपने हाथों से हवाओं को रोका-

पर फिर भी

नहीं बचा पायी उसे

तेज आंधी से

और वो बुझ गया…

 

सूरज से रौशनी उधार मांगी,

पर कहाँ टिकती है उधारी की चीज़?

चाँद से कहा

वो मुझे जगमगाए

पर मुझपर अमावस छा गयी

और सितारों की रौशनी में

वो दम न था

कि मुझे रौशन कर सके…

 

जब हर तरफ से हार गयी

तो मैंने अपनी रूह को

जुगनू बना दिया

और अब मुझे कभी

रौशनी की ज़रूरत नहीं होती…

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ चिरंजीव ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ चिरंजीव

 

अदल-बदल कर

समय ने किए

कई प्रयोग, पर

निष्कर्ष वही रहा,

धन, रूप, शक्ति,

जुगाड़ सब खेत हुए,

हर काल में किंतु

ज्ञान चिरंजीव रहा!

 

©  संजय भारद्वाज

रात्रि 12:08, 21.10.2018

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ तसल्ली ☆ श्री रामस्वरूप दीक्षित

श्री रामस्वरूप दीक्षित

(वरिष्ठ साहित्यकार  श्री रामस्वरूप दीक्षित जी गद्य, व्यंग्य , कविताओं और लघुकथाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। धर्मयुग,सारिका, हंस ,कथादेश  नवनीत, कादंबिनी, साहित्य अमृत, वसुधा, व्यंग्ययात्रा, अट्टाहास एवं जनसत्ता ,हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, राष्ट्रीय सहारा,दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, नईदुनिया,पंजाब केसरी, राजस्थान पत्रिका,सहित देश की सभी प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित । कुछ रचनाओं का पंजाबी, बुन्देली, गुजराती और कन्नड़ में अनुवाद। मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन की टीकमगढ़ इकाई के अध्यक्ष। हम भविष्य में आपकी चुनिंदा रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास करेंगे।

☆ कविता – तसल्ली ☆

मारे केवल वे ही नहीं जाएंगे

जिन्हें वे मारना चाहते हैं

मारे वे भी जाएंगे

जिन्हें वे नहीं मारना चाहते

वे भी मारे ही जाएंगे एक न एक दिन

जो मरना नहीं चाहते

मारने वाले

बिना भेदभाव

सबको मार रहे हैं

मरने वाले भी

मरते समय नहीं देखते

कि वे किनके साथ मर रहे हैं

तरह तरह के भेदभाव

और एक दूसरे के लिए घृणा से भरे

इस मनहूस समय में

कम से कम एक काम तो है

जो पूरे सद्भाव से हो रहा है

यह क्या कम है ?

 

© रामस्वरूप दीक्षित

सिद्ध बाबा कॉलोनी, टीकमगढ़ 472001  मो. 9981411097

ईमेल –[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे – वीणापाणि स्तवन ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे  – वीणापाणि स्तवन। )

गुरु पूर्णिमा पर्व पर परम आदरणीय डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ जी को सादर चरण स्पर्श।

 ✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  – वीणापाणि स्तवन✍

 

हंसरूढा शारदे, प्रज्ञा प्रभा निकेत ।

कालिदास का कथाक्रम, तेरा ही संकेत।।

 

शब्द ब्रह्म आराधना, सुरभित सुफलित नाद।

उसका ही सामर्थ्य है, जिसको मिले प्रसाद ।।

 

वाणी की वरदायिनी, दात्री विमल विवेक।

सुमन अश्रु अक्षर करें, दिव्योपम अभिषेक।।

 

तेरी अंतः प्रेरणा, अक्षर का अभियान ।

इंगित से होता चले, अर्थों का संधान ।।

 

कवि साधक कुछ भी नहीं, याचक अबुध अजान।

तेरा दर्शन दीप्ति से,  लोग रहे पहचान ।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

9300121702

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 8 – एक सुगढ़ बस्ती थी ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “एक सुगढ़ बस्ती थी”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ #8 – ।। अभिनव गीत ।।

☆ एक सुगढ़ बस्ती थी ☆

 

सुगढ़ बस्ती थी

बहुत खुशहाल खाकों में

भर गया पानी वहाँ

निचले इलाकों में

 

कई चिन्तायें लिये दुख

में खड़े शामिल सभी

लोग हैं भयभीत देखो

बढ़ गई मुश्किल अभी

 

छूटता जाता है कुछ –

कुछ समय के संग में

बेबसी में हो रहे

इन बड़े हाँकों में

 

बहुत पहले से यहाँ पर

अन्न का दाना नही था

और चिन्ता थी मदद को

किसी को आना नहीं था

 

लोग सारे इसी बस्ती

के यहाँ पर मर रहे हैं

विपति के मारे

अनिश्चित हुये फाकों में

 

बहुत कोलाहल बढ़ा है

बढ़ गई हलचल यहाँ

एक पानी है अकेला

चल रहा पैदल जहाँ

 

ठहर कर चलती रही

कोई खबर है बस यहाँ

सभी विचलित सूचना के

इन धमाकों में

 

© राघवेन्द्र तिवारी

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

25-06-2020

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ परिक्रमा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ परिक्रमा

 

मैंने जब कभी

छलकानी चाही

वेदना की एक बूँद,

विरोध में उसने

उँड़ेल दिया

खारा सागर..,

विवश बूँद

जा गिरी सीप में

और कालातीत हो गई,

शनैः-शनै

अनगिनत मोतियों की

एक माला बन गई,

इस माला में

छिपी है

मेरे जीवन की परिक्रमा!

 

©  संजय भारद्वाज

( कविता संग्रह, ‘मैं नहीं लिखता कविता।’)

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 14 ☆ गुरुवर ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता  “गुरुवर”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 14 ☆ 

☆ गुरुवर ☆

 

हे मार्गदर्शक, हे पथप्रदर्शक, हे गुरुवर , आपको शत् शत् प्रणाम,

मैं अकिंचन, मैं अल्पभाषी, अभिलाषी करती हूँ तुम्हारा गुणगान।

तुम भोर की पहली किरण के समान,

तुम अंधकार में ज्योति के समान,

तुम पुष्प में सुगंध के समान,

तुम शरीर में प्राण के समान,

हे मार्गदर्शक, हे पथप्रदर्शक, हे गुरुवर, आपको शत् शत् प्रणाम्।

 

हे मार्गदर्शक, हे पथप्रदर्शक, हे गुरुवर , आपको शत् शत् प्रणाम,

मैं अकिंचन, मैं अल्पभाषी, अभिलाषी करती हूँ तुम्हारा गुणगान।

तुमने दिखाया इस भू से चाँद छूने का रास्ता,

तुम हो गगनस्पर्शी,

तुमने बताया पाताल की सुन्दर नगरी का रास्ता,

तुम त्रिकाली, तुम त्रिकालदर्शी,

हे मार्गदर्शक, हे पथप्रदर्शक, हे गुरुवर, आपको शत् शत् प्रणाम्।

 

हे मार्गदर्शक, हे पथप्रदर्शक, हे गुरुवर , आपको शत् शत् प्रणाम,

मैं अकिंचन, मैं अल्पभाषी, अभिलाषी करती हूँ तुम्हारा गुणगान।

तुम अद्वितीय,  तुम अकथनीय, तुम अजातशत्रु,

तुमने दिखाया इस लोक से उस लोक तक का रस्ता, तुम परलोकी,

तुमने दिखाया विश्व को जीतने का रास्ता,

तुमने बताया आत्म संतोष का रास्ता,

हे मार्गदर्शक, हे पथप्रदर्शक, हे गुरुवर, आपको शत् शत् प्रणाम्।

 

हे मार्गदर्शक, हे पथप्रदर्शक, हे गुरुवर , आपको शत् शत् प्रणाम,

मैं अकिंचन, मैं अल्पभाषी, अभिलाषी करती हूँ तुम्हारा गुणगान।

तुम युद्ध में हो कृष्ण,

तुम ज्ञान में हो वाल्मीकि,

तुम रात में सूरज की किरण,

तुम घोर अंधकार में दीपक की रौशनी,

हे मार्गदर्शक, हे पथप्रदर्शक, हे गुरुवर, आपको शत् शत् प्रणाम्।

 

हे मार्गदर्शक, हे पथप्रदर्शक, हे गुरुवर , आपको शत् शत् प्रणाम,

मैं अकिंचन, मैं अल्पभाषी, अभिलाषी करती हूँ तुम्हारा गुणगान।

गुरुवर आप हमें देते हैं ज्ञान का भंडार,

दूर करते हैं हमारे अवगुणों का विकार,

देते हैं हमारे ज्ञान को नया आकार,

मिटाते हैं अज्ञान का अंधकार,

हे मार्गदर्शक, हे पथप्रदर्शक, हे गुरुवर, आपको शत् शत् प्रणाम्।

 

हे मार्गदर्शक, हे पथप्रदर्शक, हे गुरुवर , आपको शत् शत् प्रणाम,

मैं अकिंचन, मैं अल्पभाषी, अभिलाषी करती हूँ तुम्हारा गुणगान।

भुला नही सकते आपका ये ज्ञान,

देते रहेंगे आपको हमेशा सम्मान,

आपसे भी स्नेह मिले यदि श्रीमान,

तो करते रहेंगे ज़िन्दगी भर आपका गुणगान,

हे मार्गदर्शक, हे पथप्रदर्शक, हे गुरुवर, आपको शत् शत् प्रणाम्।

 

©  डॉ निधि जैन, पुणे

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