श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी  अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता रिश्तों की हवेली

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 6 – रिश्तों की हवेली ☆

 

रिश्तों की बहुत बड़ी हवेली थी हमारी,

लोग हमेशा हमारे रिश्तों की हवेली की मिसाल दिया करते थे ||

 

बहुत गर्व था हमें हमारे रिश्तों की हवेली पर,

रोशन रहती थी हमेशा हवेली, लोग बुजुर्गों को शीश नवाते थे ||

 

वक्त गुजरता गया रिश्ते धूमिल होते गए,

नजर ऐसी लगी की एक दिन टुकड़े-टुकड़े होकर रिश्तें बिखर गए ||

 

रिश्तों की हवेली जमींदोज होते ही कुछ रिश्ते दब गए,

कुछ रिश्ते छिटके तो कुछ बिखर गए, कुछ को लोग पैरों तले रौंध गए ||

 

कुछ रिश्ते मुरझा गए तो कुछ पतझड़ में पत्तों से झड़ गए,

जन्म-मरण तक सिमट गए रिश्ते, यह सब देख रिश्ते खुद रोने लगे ||

 

रिश्ते आज भी जीवित है मगर बिखरे-बिखरे से,

महक रिश्तों की उड़ गयी, लोग मंद-मंद मुस्करा तमाशा देखते रहे ||

 

जिंदगी गुजरती गयी रिश्ते फिसलते गए, काश !

कोई तो संभाले, देखा है सब को चुपके-चुपके एक दूसरे के लिए रोते हुए ||

 

कोई तो रिश्तों को छू भर ले, बहुत मुलायम है ये रिश्ते,

कोई एक हाथ बढ़ाएगा यकीनन सब बाँहों में सिमट जायेंगे तड़पते हुए ||

 

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

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Shyam Khaparde

अच्छी रचना