हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 25 ☆ देश का गौरव हो तुम अभिनंदन ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता देश का गौरव हो तुम अभिनंदन। ) 

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 25 ☆ देश का गौरव हो तुम अभिनंदन

देश का गौरव हो तुम अभिनंदन,

छूट कर पँजे से दुश्मन के घर को वापिस आ गए,

अभिनंदन, अभिनंदन है तुम्हारा ।।

 

चेहरे पर शिकन तक ना थी तुम्हारे ,

मातृभूमि के लिए अपनी जान पर तुम खेल गए,

अभिनंदन, अभिनंदन है तुम्हारा ।।

 

चेहरा आत्मविश्वास से भरा था तुम्हारा,

ख़ौफ़ तो पाक सैनिकों के चेहरे पर दिख रहा था,

अभिनंदन, अभिनंदन है तुम्हारा ।।

 

झुके नहीं, बिल्कुल टूटे नहीं तुम दुश्मन के सामने,

गजब का जज्बा दुनिया को तुमने दिखा दिया,

अभिनंदन, अभिनंदन है तुम्हारा ।।

 

चेहरे पर तुम्हारे लालिमा चमक रही थी,

आत्मविश्वास दिखा सबका दिल तुमने जीत लिया,

अभिनंदन, अभिनंदन है तुम्हारा ।।

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.१॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा  प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव)

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.१॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

कश्चित कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारात प्रमत्तः

शापेनास्तंगमितमहिमा वर्षभोग्येण भर्तुः

यक्षश चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु

स्निग्धच्चायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु॥१.१॥

पदच्युत , प्रिया के विरहताप से

वर्ष भर के लिये , स्वामिआज्ञाभिशापित

कोई यक्ष सीतावगाहन सलिलपूत

घन छांह वन रामगिरि में निवासित

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ आँच आये न किसी को….. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  की  सकारात्मक एवं संवेदनशील रचनाएँ  हमें इस भागदौड़ भरे जीवन में संजीवनी प्रदान करती हैं। आपकी पिछली रचना ने हमें आपकी प्रबल इच्छा शक्ति से अवगत कराया।  ई-अभिव्यक्ति परिवार आपके शीघ्र स्वास्थय लाभ की कामना करता है। हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए आपकी नवीन रचना आपके दृढ मनोबल के साथ निश्चित ही एक सकारात्मक सन्देश देती है। )

आपकी नवीन रचना और भावनाएं अक्षरशः प्रस्तुत करना चाहता हूँ – “अस्पताल से आए आज आठवां दिन है। बहुत धीमे सुधार के साथ रुग्णावस्था में बेड पर हूँ। सकारात्मक सोच के साथ इसी मनः स्थिती की एक रचना। कुछ समयोपरांत स्वस्थ तन-मन के साथ ही स्वस्थ रचनाओं के साथ हम सब साथ होंगे।” – सुरेश तन्मय 

☆  तन्मय साहित्य  #  ☆ आँच आये न किसी को.… ☆ 

चलते-चलते ऐसा कुछ, हो जाये मेरे साथ

आँच आये न किसी को,

हँसते – गाते, करते  बातें, गिरे पेड़ से पात

आँच आये न किसी को।।

 

जीवन के अद्भुत, विचित्र इस मेले में

रहे  भटकते  भीड़  भरे  इस  रैले  में

साँझ पड़े जब सुध आयी तो पछताये

शेष बचा  कुछ नहीं, समय के  थैले में,

बीते सुख से रात, ठिकाने से लग जाये

तन-मन की बारात

आँच आये न किसी को।

 

चिंतन में चिंताओं ने है, चित्र उकेरे

स्मृतियों के अब लगने लगे, निरंतर फेरे

बातें भीतर है असंख्य, बाहर हैं ताले

देने लगे तपिश, सावन के शीतल सेरे,

उमड़-घुमड़ कर, सिर पर चढ़ कर

हो जाये बरसात

आँच आये न किसी को।

 

कौन पाहुने, दूजे ग्रह से  आयेंगे

कैसे नेह निमंत्रण हम पहुंचाएंगे

आगत के  स्वागत को, आतुर बैठे हैं

मिलने पर सचमुच क्या गले लगायेंगे,

शंकित मन, कंपित तन कैसे

निभा सकेगा साथ

आँच आये न किसी को।

 

जो  सब के सुख की, चिंताएं करता है

जिसकी सदा दुखों से, रही निडरता है

सूर्य-चंद्र के ग्रहण कभी पड़ जाते भारी

होती कभी स्वयं की, धूमिल प्रखरता है,

रहे निडर मन, करते विचरण

पा जाएं निज घाट

आँच आये न किसी को।

 

बूढ़ा बरगद, व्यथित स्वयं अपने पन से

पुष्प – पल्लवित शाखें हैं, हर्षित मन से

अंतर से आशिष, प्रफुल्लित भाव भरे,

मोह भंग में  स्वयं, विरक्त  हुए  तन से,

लिखते-पढ़ते, खुद से लड़ते

कटे शीघ्र यह बाट

आँच आये न किसी को।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

14 दिसंबर 2020, 10.49

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 62 ☆ आतिश ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “आतिश”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 62 ☆

☆ आतिश

जब जुस्तजू का गला

सूख सा जाए

और कहीं पानी की बूंद नज़र न आये,

जब जोश के स्क्रू ढीले पड़ जाएँ

और किसी भी

पेंचकस से टाइट न हो पायें,

जब उम्मीद की चिंगारी

बुझती सी दिखे

और कोई अलाव नज़र न आये-

तुम्हें घुटने के बल बैठकर

और अपनी ठुड्डी घुटनों पर रखकर

हार थोड़े ही माननी है!

और रोना –

आंसू तो बिलकुल नहीं बहाना है!

 

ऐसे वक़्त तुम

चुरा लो तारों से रौशनी,

हासिल कर लो चाँद से चांदनी,

चूस लो आफताब का तेज,

बस याद रखना होगा तुम्हें सिर्फ एक बात

कि तुम्हारे ज़हन के भीतर

आतिश जलती ही रहनी है!

 

उसी आतिश के सहारे

खुल जायेंगे तुम्हारे पर

और तुम उड़ने लगोगे

नीले आसमान को चूमते हुए!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ शेड्स ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ शेड्स☆

पहले आठ थे

फिर बारह हुए

सोलह, बत्तीस,

चौंसठ, एक सौ अट्ठाइस,

अब दो सौ चौंसठ होते हैं,

रंगों के इतने शेड

दुनिया में कहीं नहीं मिलते हैं,

रंगों की डिब्बी दिखाता

दुकानदार

सीना फूलाकर

बता रहा था..,

मेरी आँखों में

आदमी के प्रतिपल बदलते

अगनित रंगों का प्रतिबिम्ब

आ रहा था, जा रहा था…!

©  संजय भारद्वाज 

27.10. प्रातः 8:44 बजे।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे । )

✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

दहकन तन मन में हुई, पारो हुई पलाश ।

देवदास के भाग्य में, एक शब्द है काश।।

 

पीत वसन मनहर हंसल, कनक कसीली  देह।

पीतांबर की प्रीतिया, बरसा मनका मेह।।

 

पुखराजी विन्यास में, सिमटा हुआ शवाब ।

एक दृष्टि में लग गया, पुष्पित पीत गुलाब।।

 

मन के सुग्गे ने किया, अपने प्रिय का ध्यान।

प्रिया पहन कर आ गई, शुक पंखी परिधान।।

 

प्रीति दिवस ने दे दिया, संजीवन उपहार ।

सांसो ने सौगंध दी, कमल माल गल हार।।

 

बौहों में भर देह को, देही हुआ विदेह।

सत्य सत्य कैसे हुआ, प्रश्नाकुल संदेह।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 28 – तुम्हारा खत… ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “तुम्हारा खत … । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 28– ।। अभिनव गीत ।।

☆ तुम्हारा खत … ☆

लिये हुये

मत सम्मत

आ गया

तुम्हारा खत

 

देह की विनीता

पथरीली सी भू पर

फुदके हैं रह रह कर

दूधिया कबूतर

 

पूछती

पड़ौसी छत

भूल गये

शक सम्वत?

 

हंस निकल आये

सहमकर अँधेरों से

दूँढते रहे जिनको

कई कई सबेरों से

 

जिसकी लय

उस की गत

रागदार

स्वर सम्मत

 

ऐसे आ गूँजा है

ध्वनि की तरंगों में

और दिखा मुझे स्वतः

कई धनक रंगों में

 

खोजा किया

परबत

भूल गया

शत प्रतिशत

 

लिये हुये

मत सम्मत

आ गया

तुम्हारा खत

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

26-11-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 74 ☆ कविता – प्रेम ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर  भावप्रवण कविता  – “प्रेम“। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 74

☆ कविता – प्रेम ☆

तुम्हारा इस तरह से

पलकों पे आके बैठ जाना,

फिर पलकों में बैठकर

दिन रात आँसू बहाना,

तुम्हारा इस तरह से

पलकों में उठना बैठना,

फिर धार बन बनके

उछलते हुए बह जाना,

यादों के समंदर में

डुबकी लेकर गहराई नापना,

सुबह की धूप बनकर

मन के सोये कोने को कुरेदना,

पर ये भी याद रखना

तुम्हारा पति ही अच्छा है,

उसने तुम्हें सुरक्षा और

जीवन जीने की तरकीब दी है,

रही चाहत की बात

कि चाहत पे किसका हक है,

तुम्हारी याद आँसू बनके

मेरे आँगन में बरसती तो है,

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 27 ☆ घरौंदा ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण  कविता  “घरौंदा ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 27 ☆ 

☆ घरौंदा

मैंने एक घरोंदा बनाया था,

यादों की मिट्टी से उसे खड़ा कर पाया था।

 

सपनों के पानी से उसे सींचा था,

लम्हों की मिट्टी से उसे बनाया था,

सब की नज़रों से उसे बचाया था,

एक और आशियाना बनाया था,

उसके कमरे में मेरा एक एक सपना छुपाया था।

 

मैंने एक घरोंदा बनाया था,

यादों की मिट्टी से उसे खड़ा कर पाया था।

 

सच्चाईयों के समुद्र ने बहा दिया,

तेज धूप ने उसे जला दिया,

तेज आँधी ने उसे गिरा दिया,

लोगों की ठोकरों ने उसे गिरा दिया,

दुनिया के छल-कपट ने मुझे रुला दिया।

 

मैंने एक घरोंदा बनाया था,

यादों की मिट्टी से उसे खड़ा कर पाया था।

 

उम्र की बढ़ती राह पर घरोंदें की सच्चाई समझ में आई है,

हर कमजोर वस्तु का भविष्य समझ में आया है,

घरोंदा छोड़ मकान का स्वपन सजाया है,

ईट गारे के साथ विश्वास से ठोस बनाया है,

हर नींव के पत्थर को अपने ऊपर विश्वास के काबिल बनाया है।

 

मैंने एक घरोंदा बनाया था,

यादों की मिट्टी से उसे खड़ा कर पाया था।

©  डॉ निधि जैन,

पुणे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #21 ☆ जरा मुस्कुराइये ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर, अर्थपूर्ण, विचारणीय  एवं भावप्रवण  कविता “जरा मुस्कुराइये”। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 21 ☆ 

☆ जरा मुस्कुराइये ☆ 

फूलों की तरह खिलकें

खुशबू लुटाइये

जिंदगी खूबसूरत है

जरा मुस्कुराइये

जब सुनहरी किरणें चूमती है

शुभ्र हिमखंडो के भाल

आरक्त हो जातें हैं वे

जैसे गोरे गोरे गाल

जब पिघलती है बर्फ

बन जाता है जल

बहती है नदिया

कैसे कल-कल

इस पिघलती बर्फ सा

जरा पिघल जाईये

जिंदगी खूबसूरत है

जरा मुस्कुराइये

इन बहती हवाओं में

कैसी है उमंग

इन झरनों के जल में

कैसी है तरंग

शरद का आगमन

कितना मनोहारी है

बीत गई वर्षा

अब शरद ऋतु की

बारी है

इस सुहावने मौसम को

जरा और सुहावना बनाइयें

जिंदगी खूबसूरत है

जरा मुस्कुराइये

आकाश में जगमगा रही है

वो रंगीन कहकशां

धरती पर गुलाबी ठंड का

छाया है नशा

गुनगुनी रात कोई

बुन रही है कहानी

आगोश में चाँद के

खोई है चाँदनी

चाँद के हिंडोले पर

जरा आप झूल आइये

जिंदगी खूबसूरत है

जरा मुस्कुराइये

 

© श्याम खापर्डे 

भिलाई  05/12/20

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

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