☆ आलेख ☆ ऋतुचक्र – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ भावानुवाद – श्रीमती माया सुरेश महाजन ☆
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रसोईघर से सटकर होनेवाली गैलरी में पेड़-पौधों को निहारते हुए, चाय की चुस्कियों का मजा लेते हुए खड़ी रहना – मेरे बड़ी पुरानी आदत है । सुबह की ठंडी हवा, सामने फैली हुई पेड़-पौधों की नेत्रसुखद हरियाली, जरा सी ही सही लेकिन साफ हवा की लहरें – इस सब माहौल से तन-मन प्रसन्न हो जाता है।
श्रीमती माया सुरेश महाजन
कुछ समय पहले मैं आठ-दस दिन के लिए शहर से बाहर गई थी । उस समय पतझड़ का मौसम था । उजड़ी हुई पेड़ों की शाखों पर आने जानेवाले पंछी साफ नजर आते थे।
जब शहर वापस आई, आदतन दूसरे दिन चाय की प्याली लेकर गैलरी में जा खड़ी हुई। उसी समय ‘चिर्र ssss’ आवाज करता हुआ एक पंछी आया और पेड़ की हरी पत्तियों से बने छाते में घुसकर गायब हो गया। मैंने पेड़ में नजरे गड़ाकर ऊपर-नीचे, दाएँ-बाएँ चारों ओर देखा, परंतु वह कहीं नहीं दिखाई दिया । मन में विचार उठा – जब मैं बाहर गाँव गई थी तब यह पेड़ उजड़ा हुआ था, अब देखो कैसे नाजुक, कोमल, फीके हरी पत्तियों से भर गया है । हवा के झोंके के साथ ये नई अंकुरित पत्तियाँ कैसे मस्त डोल रही थी ।
नीचे झुकी हुई एक शाखा पर एक छोटी सी कोमल पत्ती के पास में ही एक पुराना, सूखा पत्ता, विदीर्ण पत्ता अभी भी मौजूद था । उसका ऊबड़-खाबड़ डंठल पेड़ की टहनी को जिद से पकड़े हुए था । लेकिन उसकी यह पकड़ अब किसी भी पल छूटनेवाली थी । उसके पास ही उगी हुई वह छोटी, नाजूक, कोमल दूसरी पत्ती लड़ में आकर कभी उसे स्पर्श करती तो कभी पल भर के लिए उसकी गोदी में समा जाती । यह दृश्य देखते हुए लगा कि मानो दादाजी की गोदी में पोता खेल रहा हो; उनसे बातें कर रहा हो । मन में विचार आया – ‘क्या बातें हो रही होंगी उनकी आपस में !’
उस पुरानी पत्ती को तो अब थोड़े ही समय में टहनी से अलग होना था । छोटी कोमल पत्ती के माथे पर हाथ फेरते हुए मानो वह विदा लेने की तैयारी कर रही हो तो रुआंसी होकर वह कोमल पत्ती कह रही होगी, “दादाजी, आप मत जाइए, आप के जाने से मुझे बहुत बुरा लगेगा।”
वह दादाजी पत्ता मानो समझाने लगेगा, “मुझे जाना ही पड़ेगा ! हम पुरानी पत्तियां नहीं जाएंगे तो नए फूल -पत्ते कैसे उगेंगे ?” “कहाँ जाएँगे आप ?” छोटा पत्ता पूछता है।
“मैं यहाँ से पेड़ की तराई में जाऊंगा, मिट्टी में समाऊंगा, घुलमिल जाऊंगा । धीरे-धीरे धरती के अंदर जाऊंगा …. बिलकुल गहराई में ! नीचे जड़ों में पहुँचकर मेरा खाद बनेगा । जड़ें मेरा सत्व चूस लेंगी । तने से होते हुए मुझे टहनियों तक पहुंचा देंगी । वहाँ से मैं फूल-पत्तों तक पहुंचूंगा । इस तरह मैं फिर से तुम्हारे पास आकर तुम में समा जाऊंगा । अब तुम नहीं ना उदास होगे ? नहीं ना रोओगे ? ”
“दादाजी जल्दी आना, मैं इंतजार करूंगा !” कोमल पत्ते ने कहा शायद ! “हाँ हाँ” कहते हुए उस सूखे पत्ते के डंठल ने टहनी का अपना घर छोड़ दिया । छोटे पत्ते से विदा लेकर वह पेड़ की तराई में मिट्टी पर गिर गया। वहाँ पर पड़े सूखे-पीले पत्तों में खो गया।
यह सब देखकर मेरे मन में कुछ पंक्तियाँ उभर आईं –
‘पर्णराशि सुनहरी तरुतराई में उतर आई,
ऊंचाई पर खिलखिलाते फूल रत्नप्रभा से दमक उनकी ;
आज हंस रहें हैं फूल, कल माटी चूमेंगे वे भी’
लेकिन फलों के रस-रूप में चमकेगी शाश्वत हंसी उनकी ।
फिर से झड़ेंगे पत्ते, फूल माटी में खो जाएंगे,
रस से बनेगा बीज, बीज से वृक्ष बन जाएंगे।”
तो इस तरह से यह कविता बनी, सामनेवाले पेड़ के बदलते रूप को देखकर सहजता से उमड़ पड़ी येँ पंक्तियाँ!!
( प्रतिष्ठित कहानीकार श्री हरिप्रकाश राठी जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है।)
☆ नववर्ष नव विहान पर चिंतन ☆
समय का रथ एक और नए मुकाम पर जाने की तैयारी में है। मनुष्यता के मार्ग में अब तक न जाने कितने अवरोध, कितनी मुश्किलें आई पर मनुष्य के जीवट एवं अदम्य इच्छाशक्ति के आगे सारे अवरोध दम तौड़ गए। वर्ष 2020 भी एक ऐसा ही चुनौती भरा वर्ष था जब समूची मनुष्यता कोरोना के ख़ौफ़ से दहल गई। ऐसा समय तो पहले कभी नहीं आया। न भूतो न भविष्यतो । दैहिक, दैविक, भौंतिक कोप तो कई देखे पर किसी को छूना मात्र मौत बन जाएगा यह पहली बार ही देखा।
मनुष्य के हौंसले के आगे कोई समस्या क़ब तक टिकी है। विश्वभर के वैज्ञानिकों ने अथक श्रम कर कोरोनो का टीका तैयार किया एवं अब मनुष्य ने इस प्राणान्तक बीमारी को भी ठेंगा दिखाने के लिए कमर कस ली है। मनुष्य के मार्ग में भला कौनसा विघ्न ठहर सकता है। मनुष्य के प्रयासों के आगे पर्वत हिलते हैं, पत्थर पिघलते हैं।
हे वर्ष 2020 ! तुमने हमें परेशान तो बहुत किया पर अब हमनें तुम्हें नेस्तनाबूद करने की तैयारी कर ली है। तूँ कितने ही रूप बदल लें हम तुम्हें मिटा के रहेंगे। न हम सर झुका कर जिएंगे न मुंह छुपा कर घरों में बैठेंगे क्योंकि जीवन नाम है गिर-गिर कर पुनः उठने का, जीवन नाम है अनवरत संघर्ष का एवं इसी भाव के साथ हम निश्चय ही हर समस्या का मुकाबला कर लेंगे।कल समय ने हमें झुकाया, निराश किया आज हम समय को मुट्ठी में कैद करने की आशा से भरे हैं।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। – हेमन्त बावनकर, ब्लॉग संपादक )
☆ नव वर्ष की मंगलकामनाएं ☆
नये वर्ष का सूरज उग चुका है, पर शाश्वत सच तो यह है कि सूरज तो हर दिन उसी ऊर्जा के साथ उगता है, दरअसल यह हम होते हैं जो किसी तारीख को अपने व्यवहार और कामो से स्वर्ण अक्षरो में अंकित कर देते हैं, या फिर उस पर कालिख पोत डालते हैं. ये स्वर्णाक्षरों में अंकित दिन या कालिमा लिये हुये तारीखें इतिहास के दस्तावेजी पृष्ठ बन कर रह जाते हैं.
नववर्ष का अर्थ होता है कैलेंडर में साल का बदलाव. समय को हम सेकेण्डों, मिनटों, घंटों, दिनों, सप्ताहों, महीनों और सालों में गिनते हैं. वर्ष जिसकी तारीखो के साथ हमारी जिंदगी चलती है. जिसके हिसाब से हम त्यौहार मनाते हैं, कैलेण्डर उन तिथियो का हिसाब रखता है. प्रकृति और मौसम में बदलाव के साथ हमारा खान पान, पहनावा,रहन सहन बदलता रहता है,प्रकृति सदा से बिना किसी कैलेण्डर के नियमित और व्यवस्थित परिवर्तन की अनुगामी रही है, वास्तविकता तो यह है कि प्रकृति स्वयं ही एक सुनिश्चित नैसर्गिक कैलेण्डर है.
प्रकृति और मौसम के इस बदलाव को कैलेंडर महीनो और तारीखो में गिनता है. बैंको में वित्तीय वर्ष अप्रैल से शुरू होता है, तो भारतीय पंचांग की अपनी तिथियां होती हैं. विश्व के अलग अलग हिस्सो में अलग अलग सभ्यताओ के अपने अपने कैलेंण्डर हैं पर ग्रेगेरियन कैलेण्डर को आज वैश्विक मान्यता मिल चुकी है, और इसीलिये रात बारह बजते ही जैसे ही घड़ी की सुइयां नये साल की ओर आगे बढ़ती हैं दुनिया हर्ष और उल्लास से सराबोर हो जाती है, लोग खा पी कर, नाच गा कर अपनी खुशी को व्यक्त करते हैं . परस्पर शुभकामनाओ तथा उपहारो का आदान प्रदान करके अपने मनोभावो को अभिव्यक्त करते हैं . हर कोई अपने जानने वालों को बधाई देता है और आने वाले समय में उसके भले और सफलता की कामना करता है, मैं भी आप सबके साथ पूरे विश्व के प्रत्येक प्राणी की भलाई की कामना में शामिल हूँ. ईश्वर करे कि हम सबकी शुभकामना पूरी हो और यह जो प्रकृति जिसे हम परमात्मा की छाया कहते हैं उसका स्वरूप और सुंदर बन पाए. सब प्राणी एक-दूसरे का भला मांगते हुए, भला करते हुए प्रगति पथ पर अग्रसर हों, यही प्रार्थना है.
लेकिन इस सबके साथ ही नये साल का मौका वह वक्त भी होता है जब हमें अपने आप से एक साक्षात्कार करना चाहिये. अपने पिछले सालो के कामो का हिसाब खुद अपने आप से मांगना चाहिये.अपने जीवन के उद्देश्य तय करने चाहिये. क्या हम केवल खाने पीने के लिये जी रहे हैं या जीने के लिये खा पी रहे हैं ? हमें अपने लिये नये लक्ष्य निर्धारित करना चाहिये और उन पर अमल करने के लिये निश्चित कार्यक्रम बनाना चाहिये. स्व के साथ साथ समाज के लिये सोचने और कुछ करने के संकल्प लेने चाहिये. अपना, और अपने बच्चो का हित चिंतन तो जानवर भी कर लेते हैं, यदि हम जानवरो से भिन्न सोचने समझने वाले सामाजिक प्राणी हैं तो हमें अपने परिवेश के हित चिंतन के लिये भी कुछ करना ही चाहिये, अपने सुखद वर्तमान के लिये हम अपने पूर्वजो के अन्वेषणो और आविष्कारो के लिये समाज के ॠणी हैं, अतः समाज के प्रति हमारी भी जबाबदारी बनती है और नये साल पर जब हम आत्म चिंतन करें तो हमें सोचना चाहिये कि अपने क्रिया कलापों से किस तरह हम समाज के इस ॠण से मुक्त हो सकते हैं. हमें समझना चाहिये कि पाने के सुख से देने का सुख कहीं अधिक महत्वपूर्ण और दीर्घजीवी होता है.
आइये नये साल के इस पहले दिन हम ढ़ृड़ संकल्प करें कि हम आगामी समय में अपने बुरे व्यसन छोड़ेंगे. महिलाओ का सम्मान करेंगे. अपने कार्य व्यवहार से देश भक्ति का परिचय देंगे. अपने परिवेश में सवच्छता रखेंगे और आत्म उन्नति के साथ साथ अपने परिवेश की प्रगति में मददगार बनेंगे. भ्रष्टाचार मुक्त समाज बनाने में स्वयं का हर संभव योगदान देंगे. निहित स्वार्थों के लिये नियमो से समझौते नही करेंगे. मेरा विश्वास है कि यदि हम इन बिंदुओ पर मनन चिंतन कर इन्हें कार्य रूप में परिणित करेंगे तो अगले बरस जब हम नया साल मना रहे होंगे तब हमें अपनी आंखों में आँखें डालकर स्वयं से बातें करने में गर्व ही होगा. पुनः पुनः इन संकल्पों के सक्षम क्रियांवयन के लिये अशेष मंगलकामनाये।
विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर
सम्पादक ई- अभिव्यक्ति (हिंदी)
ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८
मो ७०००३७५७९८
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख ग़ुमशुदा रिश्ते,यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 76 ☆
☆ ग़ुमशुदा रिश्ते ☆
‘हक़ीक़त में गुमनाम सपने ढूंढ रही हूं/ अपनों की भीड़ में/ आजकल ग़ुमशुदा ढूंढ रही हूं।’ ग़ुमशुदा… ग़ुमशुदा…ग़़ुमशुदा। जी हां! यह है आज की ज़िंदगी की हक़ीक़त…हर इंसान को तलाश है सुक़ून की, जो अपनों के सान्निध्य व संसर्ग से प्राप्त होता है और सबसे कठिन है … अपनों की भीड़ में से, अपनों को तलाश करना। वे तथाकथित अपने, जो अपने होने का स्वांग रचते हैं और स्वार्थ-साधने के हित आपके आसपास मंडराते रहते हैं। ऐसे लोग तब तक आपके अपने बनकर रहते हैं, जब तक आप किसी पद पर काबिज़ हैं और पद-प्रतिष्ठा के न रहने पर वे आपको पहचानते भी नहीं। यदि आपको उनकी ज़रूरत होती है, तो वे पास से कन्नी काट जाते हैं। यही कटु यथार्थ है ज़िंदगी का; यहां सब रिश्ते-नाते स्वार्थ से जुड़े हैं। रिश्तों की अहमियत रही नहीं… अपने ही अपने बन, अपनों को छलते हैं। चारों ओर अविश्वास का वातावरण व्याप्त है; संदेह, शक़ व आशंका मानव के हृदय में इस प्रकार रचे-बसे हैं कि पति-पत्नी के रिश्ते भी दरक़ रहे हैं। पहले सात फेरों के बंधन को सात जन्मों का पावन बंधन स्वीकार उसका निबाह हर कीमत पर किया जाता था; परंतु अब स्थिति पूर्णत: विपरीत है। एक छत के नीचे रहते हुए, एक-दूसरे के सुख-दु:ख से बेखबर, पति-पत्नी अपना जीवन अजनबी-सम ढोते हैं। उनमें स्नेह, संबंध व सरोकार समाप्त हो चुके हैं। सब अपने-अपने अहम् में डूबे एक-दूसरे को नीचा दिखाने हेतु भावनाओं पर कुठाराघात कर सुक़ून पाते हैं और बच्चे एकांत की त्रासदी झेलते हुए ग़लत राहों पर अग्रसर हो जाते हैं; जहां से लौट पाना मात्र स्वप्न बन कर रह जाता है।
हर इंसान गुमनाम सपनों के पीछे बेतहाशा दौड़ता चला जा रहा है। कम से कम समय में अधिकाधिक धन कमाने की दौड़, जिसके निमित्त वह झोंक देता है अपना जीवन… होम कर देता है अपने स्वप्न… जिसका उदाहरण कॉरपोरेट जगत् के रूप में हम सब के समक्ष है। इस क्षेत्र में काम करने वाले युवा आजकल विवाह के बंधन को अस्वीकारने लगे हैं। यदि वे इस बंधन को पावन समझ स्वीकार भी लेते हैं; तो उनमें चंद दिनों बाद अलगाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, क्योंकि उनकी नज़रों में घर- परिवार की अहमियत होती ही नहीं। उनके बीच पारस्परिक संवाद भी नहीं होता, क्योंकि उनके पास न एक-दूसरे के लिए समय होता है, न ही होती है– एक-दूसरे की दरक़ार। वे दोषारोपण करने का एक भी अवसर नहीं चूकते और एक दिन ज़िंदगी उन्हें उस मुक़ाम पर लाकर खड़ा कर देती है, जहां वे एक-दूसरे की भावनाओं को नकार, स्वतंत्रता से जीवन जीना चाहते हैं… जिसका सबसे अधिक खामियाज़ा मासूम बच्चों को भुगतना पड़ता है… उन अभागोंं को माता-पिता दोनों का स्नेह व संरक्षण मिल ही नहीं पाता। सो! इन विषम परिस्थितियों में उनका सर्वांगीण विकास कैसे संभव हो सकता है?
हां! यदि बुज़ुर्ग माता-पिता भी उनके साथ रहते हैं, तो वे देर रात तक उनकी राह निहारते रहते हैं। दोनों थके-मांदे, काम का बोझ सिर पर लादे अलग-अलग समय पर घर लौटते हैं और दिन-भर की खीझ एक-दूसरे पर निकाल संतोष पाते हैं। अक्सर बच्चे उनकी बाट जोहते-जोहते सो जाते हैं और वे संडे मम्मी-पापा बन कर रह जाते हैं। यदि बच्चे किसी दिन मान-मनुहार करते हैं, तो उन्हें उनके कोप का भाजन बनना पड़ता है। सो! वे आया व नैनी के प्रति अपने माता- पिता से अधिक स्नेह व आत्मीयता का भाव रखते हैं। जब वे दूसरे बच्चों को अपने माता- पिता के साथ मौज-मस्ती व अठखेलियां करते देखते हैं, तो उनके हृदय का आक्रोश ज्वालामुखी पर्वत के लावे के समान सहसा फूट निकलता है और वे डरे-सहमे से अवसाद की स्थिति में पहुंच जाते हैं और दिन-रात मोबाइल व टी•वी• में खोए रहते हैं…आत्मीय संबंधों- सरोकारों से दूर, आत्म-केंद्रित होकर रह जाते हैं तथा बच्चों व युवाओं की अपराधिक प्रवृत्तियों में लिप्तता, माता-पिता द्वारा प्रदत्त एकाकीपन के उपहार के रूप में परिलक्षित होती है।
वैसे तो आजकल हर इंसान ग़ुमशुदा है। अतिव्यस्तता के कारण सबके पास समयाभाव रहता है। दोस्तो! आजकल तो इंसान की ख़ुद से भी मुलाक़ात नहीं होती। इक्कीसवीं सदी में मानव मशीन बनकर और संयुक्त परिवार, एकल परिवार के दायरे में सिमट कर रह गए हैं। पति-पत्नी व बच्चे एकल परिवार की इकाई स्वीकारे जाते हैं। हां! इस युग में कामवाली बाईयों का भाग्योदय अवश्य हुआ है। उन्हें मालकिन का दर्जा प्राप्त हुआ है और वे सुख- सुविधाओं का बखूबी आनंद ले रही हैं। उन्हें किसी का तनिक भी हस्तक्षेप स्वीकार नहीं। यह है, इस सदी की विशेष उपलब्धि…उनका जीवन-स्तर अवश्य काफी ऊंचा हो गया है, क्योंकि उनके बिना तो आजकल गुज़र-बसर की कल्पना करना भी बेमानी है। वैसे भी उनके तो भाव भी आजकल बहुत बढ़ गए हैं। उनसे सबको डर कर रहना पड़ता है। उनकी इच्छा के बिना तो घर में पत्ता भी नहीं हिलता। वे बच्चों से लेकर बड़ों तक को अपने इशारों पर नचाती हैं। इतना ही नहीं, सगे-संबंधी भी उस घर में दस्तक देते हुए क़तराने लगे हैं।
दुनिया का दस्तूर है साहब! जब तक पैसा है, तब तक सब पूछते हैं…’हाउ आर यू?’ और पैसा खत्म होते ही ‘हू आर यू?’ यह जीवन का कटु यथार्थ है कि ‘हाउ से हू?’ की यात्रा पलक झपकते कैसे सम्पन्न हो जाती है; इंसान समझ ही नहीं पाता और यह स्वार्थ का पहिया निरंतर समय के साथ ही नहीं, पद-प्रतिष्ठा के साथ घूमता रहता है। दौलत में वह चुंबकीय शक्ति है…जो ग़ैरों को भी अपना बना लेती है। सत्य ही तो है, ‘जब दौलत आती है, इंसान खुद को भूल जाता है और जब जाती है, तो ज़माना उसे भूल जाता है।’ धन-संपदा पाकर व्यक्ति अहंनिष्ठ हो जाता है तथा स्वयं को सर्वश्रेष्ठ स्वीकारने लगता है। दूसरों को अपने सम्मुख निकृष्ट समझ, उनकी भावनाओं का निरादर करने लगता है और सबको एक लाठी से हांकने लगता है। उस स्थिति में वह भूल जाता है कि लक्ष्मी चंचला है… एक स्थान पर टिक कर कभी नहीं रहती और जब वह चली जाती है, तो ज़माने के लोग भी अक्सर उससे मुख मोड़ लेते हैं… उसे लेशमात्र भी अहमियत नहीं देते। वास्तव में दोनों स्थितियों में वह एकांत की त्रासदी झेलता है। प्रथम में वह स्वेच्छा से सबसे दूरियां बनाए रखता है और दौलत के न रहने पर तो कोई भी उससे बात करना भी पसंद नहीं करता। यह है नियति उस इंसान की… जिसके लिए दोनों स्थितियां ही भयावह हैं। बिहारी का यह दोहा, ‘कनक-कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय/ इहि पाय बौराय जग, उहि पाय बौराय।’ इंसान बावरा है…धन-संपदा प्राप्त होने पर बौरा जाता है और धतूरा खाने के पश्चात् उसकी सोचने- समझने की शक्ति नष्ट हो जाती है… उसका व्यवहार सामान्य नहीं रह पाता। शायद! इसलिए कहा जाता है कि जिसे ‘मैं’ की हवा लगती है, उसे न दुआ लगती है, न दवा लगती है’ तथा अहंनिष्ठ व्यक्ति दौलत व सुरा-सुंदरी के नशे में आठों पहर धुत्त रहता है। सोने को पाकर और धतूरे को खाकर लोग बौरा जाते हैं, यह कथन सर्वथा सत्य है।
वैसे तो आजकल ‘लिव-इन’ का ज़माना है तथा उसे कोर्ट-कचहरी द्वारा मान्यता प्राप्त है। सो! घर-परिवार तेज़ी से टूट रहे हैं, जिसमें ‘मी टू’ का भी अहम् योगदान है। वर्षों पूर्व के संबंधों को उजागर करने की स्वतंत्रता के कारण हंसते- खेलते परिवार अग्नि की भेंट चढ़ रहे हैं। इतना ही नहीं, आजकल तो पर-स्त्री गमन की भी आज़ादी है, जिसके परिणाम-स्वरूप घर-परिवार में पारस्परिक संबंध व स्नेह-सौहार्द समाप्त हो रहा है। संदेह व अविश्वास के कारण रिश्ते दरक़ रहे हैं। इस विघटन के लिए दोनों दोषी हैं और उनकी समान प्रतिभागिता है। महिलाएं भी कहां कम हैं…वे भी पुरुषों की भांति जीन्स-कल्चर अपना कर, क्लबों व महफ़िलों की शोभा बनने में फ़ख्र महसूस करने लगी हैं। वे अक्सर सड़क व आफिस में शराब के नशे में धुत्त, मदमस्त हो सिगरेट के क़श लगाती व जुआ खेलती नज़र आती हैं, जिसे देखकर मस्तक शर्म से झुक जाता है। शायद! यह सदियों पुरानी दासता और अंकुश का परिणाम व जुनून है, जो सिर चढ़ कर बोल रहा है।
समाज में बढ़ रही अराजकता व विश्रंखलता का मुख्य कारण यह है कि हम परिस्थितियों को बदलने का प्रयास करते हैं; स्वयं को नहीं। इसलिए जीवन में विषम परिस्थितियां व विसंगतियां उत्पन्न होती हैं और जीवन हमें दुआ नहीं, सज़ा-सा लगता है। अहं के कारण पति- पत्नी में स्नेह-सौहार्द रहा नहीं, न ही शेष बचे हैं..आत्मीयता व सामाजिक सरोकार। संवेदनाएं मर चुकी हैं और वे दोनों अकारण एक-दूसरे को नीचा दिखाने हेतु विभिन्न हथकंडे अपनाते हैं, जिसके परिणाम-स्वरूप आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला थमने का नाम नहीं लेता। वे प्रतिपक्ष के परिजनों पर आक्षेप लगा, कटघरे में खड़ा करने में तनिक भी संकोच नहीं करते। इस गतिविधि में महिलाएं अग्रणी हैं। वे पति व उसके परिवारजनों पर दहेज व घरेलू हिंसा का आरोप लगा, किसी भी पल जेल भिजवाने से लेशमात्र भी ग़ुरेज़ नहीं करती हैं।
कैसा ज़माना आ गया है…’आजकल तो ख़ुद से ही ख़ुद की मुलाकात नहीं होती’ सर्वथा सत्य है। सो! अक्सर यह संदेश दिया जाता है कि ‘इंसान को कुछ समय अपने साथ अवश्य व्यतीत करना चाहिए।’ वास्तव में आत्मावलोकन व अपने अंतर्मन में झांकना सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम योग है, आत्म-साक्षात्कार है। एकांत में किया गया चिंतन, आत्मा को परमात्मा से मिलाता है तथा उस स्थिति में पहुंच कर सभी कामनाओं व वासनाओं का अंत हो जाता है…आत्मा का परमात्मा से तादात्म्य हो जाता है। जो व्यक्ति प्रतिदिन अपने द्वारा किए गए कर्मों का आकलन करता है… उसे ज्ञात हो जाता है कि आज तक उसने कैसे कर्म किए हैं? सो! वह सत्कर्मों की ओर प्रवृत्त होता है तथा राग-द्वेष के बंधनों से मुक्ति प्राप्त कर लेता है…अपने मन का मालिक बन जाता है। वह अलौकिक आनंद अथवा अनहद-नाद की स्थिति में रहता है। उसे किसी की संगति की अपेक्षा नहीं रहती। उस स्थिति में वह यही कामना करता है …नैना अंतर आव तू, नैन झांप तोहे लेहुं/ न हौं देखूं ओर को, न तुझ देखन देहुं।’ इस स्थिति में आत्मा का परमात्मा से साक्षात्कार हो जाता है और वह हर पल उस सृष्टि-नियंता के दर्शन पा अलौकिक आनंद की मस्ती में रहती है।
‘सो! खुली आंख से स्वप्न देखिए, ताकि वे गुमनामी के अंधकार में न खो जाएं और जब तक वे साकार न हो जाएं, आप विश्राम न करें…उनके पूर्ण होने पर ही सुख की सांस लें।’ सपनों को साकार करना भी, अपनों की भीड़ में ग़ुमशुदा अर्थात् अपनों की तलाश करने जैसा है। वास्तव में अपने वे होते हैं, जो सदैव आपकी ढाल बनकर आपके साथ खड़े रहते हैं। इतना ही नहीं आपकी अनुपस्थिति में भी वे आपके पक्षधर रहते हैं। सो! स्वार्थ व मतलब के बगैर के संबंधों के का फल मीठा होता है।’ इसलिए नि:स्वार्थ भाव से निष्काम कर्म करने का संदेश दिया गया है। दुनिया की सबसे अच्छी किताब आप स्वयं हैं। ख़ुद को समझ लीजिए, समस्याओं का स्वत: अंत हो जाएगा। सो! अपनी सोच बड़ी व सकारात्मक रखिए। छोटी सोच शंका और बड़ी सोच समाधान को जन्म देती है। इसलिए सुनना सीख लो, सहना व रहना स्वत:आ जाएगा। जिसे सहना आ गया, उसे जीना आ गया। संवाद संबंधों की जीवन-रेखा है। जब आप संवाद करना बंद कर देते हैं; अमूल्य संबंध नष्ट होने लगते हैं, क्योंकि संबंध कभी भी जीतकर नहीं निभाये जा सकते… उनके लिए झुकना व पराजय स्वीकार करना लाज़िमी होता है।
अन्ततः गुमनाम सपनों को तलाशना जितना कठिन है, उससे भी अधिक कठिन है… अपनों की भीड़ में ग़ुमशुदा अर्थात् अपनों को ढूंढना। वैसे तो आजकल हर इंसान ख़ुद से बेखबर है। वह कहां जानता है… वह कौन है, कौन से आया है और इस संसार में उसके जीवन का प्रयोजन क्या है? अज्ञानतावश वह आजीवन उलझा रहता है–माया-मोह के बंधनों में और शाश्वत् संबंधों से बेख़बर, वह लख चौरासी के बंधनों में उलझा रहता है। आइए! अपनों की भीड़ में पहले स्वयं को ढूंढ कर, ख़ुद से मुलाकात करें। उसके पश्चात् उन अपनों को ढूंढें, जो मुखौटा धारण किए रहते हैं… गिरगिट की भांति हर पल रंग बदलते हैं। सो! आजकल किसी पर भी विश्वास करना अत्यंत कठिन व दुष्कर है। ‘कौन अपना कब दग़ा दे जाए’… कोई नहीं जानता। सो! अपने ही घर में दस्तक देते हुए, भ्रमित मानव को अजनबीपन का अहसास होने लगा है…मानो वह ग़ुमशुदा है।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 79 ☆ भोर भई ☆
मैं फुटपाथ पर चल रहा हूँ। बाईं ओर फुटपाथ के साथ-साथ महाविद्यालय की दीवार चल रही है तो दाईं ओर सड़क सरपट दौड़ रही है। महाविद्यालय की सीमा में लम्बे-बड़े वृक्ष हैं। कुछ वृक्षों का एक हिस्सा दीवार फांदकर फुटपाथ के ऊपर भी आ रहा है। परहित का विचार करनेवाले यों भी सीमाओं में बंधकर कब अपना काम करते हैं!
अपने विचारों में खोया चला जा रहा हूँ। अकस्मात देखता हूँ कि आँख से लगभग दस फीट आगे, सिर पर छाया करते किसी वृक्ष का एक पत्ता झर रहा है। सड़क पर धूप है जबकि फुटपाथ पर छाया। झरता हुआ पत्ता किसी दक्ष नृत्यांगना के पदलालित्य-सा थिरकता हुआ नीचे आ रहा है। आश्चर्य! वह अकेला नहीं है। उसकी छाया भी उसके साथ निरंतर नृत्य करती उतर रही है। एक लय, एक ताल, एक यति के साथ दो की गति। जीवन में पहली बार प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों सामने हैं। गंतव्य तो निश्चित है पर पल-पल बदलता मार्ग अनिश्चितता उत्पन्न रहा है। संत कबीर ने लिखा है,
‘जैसे पात गिरे तरुवर के, मिलना बहुत दुहेला।
न जानूँ किधर गिरेगा,लग्या पवन का रेला।’
इहलोक के रेले में आत्मा और देह का सम्बंध भी प्रत्यक्ष और परोक्ष जैसा ही है। विज्ञान कहता है, जो दिख रहा है, वही घट रहा है। ज्ञान कहता है, दृष्टि सम्यक हो तो जो घटता है, वही दिखता है। देखता हूँ कि पत्ते से पहले उसकी छाया ओझल हो गई है। पत्ता अब धूल में पड़ा, धूल हो रहा है।
अगले 365 दिन यदि इहलोक में निवास बना रहा एवं देह और आत्मा के परस्पर संबंध पर मंथन हो सका तो ग्रेगोरियन कैलेंडर का आज से आरम्भ हुआ यह वर्ष शायद कुछ उपयोगी सिद्ध हो सके।
संतन का साथ बना रहे, मंथन का भाव जगा रहे। 2021 सार्थक और शुभ हो।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “विकास के महासमर में नारी – महिला सशक्तिकरण”. )
☆ किसलय की कलम से # 29 ☆
☆ विकास के महासमर में नारी – महिला सशक्तिकरण ☆
प्राचीन भारत का लिखित-अलिखित इतिहास साक्षी है कि भारतीय समाज ने कभी मातृशक्ति के महत्त्व का आकलन कम नहीं किया। न ही मैत्रेयी, गागी, विद्योतमा, लक्ष्मीबाई, दुर्गावती के भारत में इनका महत्त्व कम रहा। हमारे वेद और ग्रंथ नारी-शक्ति के योगदान से भरे पड़े हैं। इतिहास वीरांगनाओं के बलिदानों का साक्षी है। जब आदिकाल से ही मातृशक्ति को सोचने, समझने, कहने और कुछ कर गुजरने के अवसर मिलते रहे हैं तब वर्तमान में क्यों नहीं ? आज जब परिवार, समाज और राष्ट्र नारी की सहभागिता के बिना अपूर्ण है, तब हमारा दायित्व बनता है कि हम बेटियों में दूना – चौगुना उत्साह भरें। उन्हें घर, गाँव, शहर, देश और अंतरिक्ष से भी आगे सोचने का अवसर दें। उनकी योग्यता और क्षमता का उपयोग समाज और राष्ट्र के विकास में होने दें। आज भले ही हम विकास के अभिलेखों में नारी सहभागिता को उल्लेखनीय कहें परंतु अभी भी पर्याप्त नहीं कह सकते। अब समय आ गया है कि हम बेटियों के सुनहरे भविष्य के लिए गहन चिंतन करें। सरोजिनी नायडू, मदर टेरेसा, अमृता प्रीतम, डॉ. शुभलक्ष्मी, पी.टी. उषा, कल्पना चावला जैसी नारियाँ वे प्रतिभाएँ हैं जो विकास-पथ में मील की पत्थर सिद्ध हुई हैं । बावजूद इसके विकास यात्रा निरंतर आगे बढ़ती रहेगी। नई नई दिशाओं में, नए आयामों में, सुनहरे कल की ओर।
पहले नारी चहारदीवारी तक ही सीमित थी परंतु आज हम गर्वित हैं कि नारी की सीमा समाजसेवा, राजनीति, विज्ञान, चिकित्सा, खेलकूद, साहित्य और संगीत को लाँघकर दूर अंतरिक्ष तक जा पहुँची है। एक नारी ने अंतरिक्ष में जाकर अपनी उपस्थिति से समग्र नारी समाज को गौरवान्वित किया है। महिला वर्ग में शिक्षा के प्रति जागरूकता, पुरुषों की नारी के प्रति बदलती हुई सोच, नारी प्रतिभा और इनके महत्त्व का एहसास आज सभी को हो चला है। उद्योग-धंधे हों या फिर विज्ञान, चिकित्सा आदि का क्षेत्र। आज ऐसे सभी क्षेत्रों में नारियों का प्रतिनिधित्व स्वाभाविक सा लगने लगा है। अनेक क्षेत्रों में नारी पुरुषों से कहीं आगे निकल गई हैं।
तुम्हारे बिना समाज अधूरा
समाज महिला और पुरुष दो वर्गों का मिला-जुला रूप है। चहुँमुखी विकास में दोनों की सक्रियता अनिवार्य है। महिलाओं की प्रगति का अर्थ है, आधी सामाजिक चेतना और जनकल्याण। महिलाएँ घर और बाहर दोनों जगह महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर सकती हैं, बशर्ते वे शिक्षित हों, जागरूक हों। उन्हें उत्साहित किया जाए। उन्हें एहसास कराया जाए कि नारी! तुम्हारे बिना यह समाज अधूरा है। तुम्हारे बिना मानव विकास अपूर्ण है। अब स्वयं ही तुम्हें अपने बल, बुद्धि और विवेक से आगे बढ़ने का वक्त आ गया है। कब तक पुरुषों का सहारा लोगी ? बैसाखी पकड़कर चलने की आदत कभी तुम्हें स्वावलंबी नहीं बनने देगी । कर्मठता का दीप प्रज्ज्वलित करो। श्रम की सरिता बहाओ। बुद्धि का प्रकाश फैलाओ और अपनी नारी शक्ति का वैभव दिखा दो। नारी-विकास के पथ में आने वाले रोड़ों को दूर हटा दो। घर की चहारदीवारी से बाहर निकलकर कूद पड़ो विकास के महासमर में। छलाँग लगा दो विज्ञान के अंतरिक्ष में। परिस्थितियाँ और परिवेश बदले हैं। आत्मनिर्भरता बढ़ी है। बस दृढ़ आत्मविश्वास की और आवश्यकता है।
आंदोलन भर से क्या होगा?
अकेले नारी मुक्ति आंदोलन से कुछ नहीं होगा। पहले तुम्हें स्वयं अपना ठोस आधार निर्मित करना होगा। इसके लिए शिक्षा, कर्मठता का संकल्प, भविष्य के सुनहरे सपने और आत्मविश्वास रूपी आधारशिला की आवश्यकता है। इन्हें प्राप्त कर इनको ही विकास की सीढ़ी बनाओ और पहुँचने की कोशिश करो प्रगति के सर्वोच्च शिखर पर। कोशिशें ही एक तरह से हमारे कर्म हैं। कर्म करते चलो, परिणाम की चिंता मत करो।
नारी तुम्हारा श्रम, तुम्हारी निष्ठा, तुम्हारी सहभागिता, तुम्हारे श्रम-सीकर व्यर्थ नहीं जाएँगे। कल तुम्हारा होगा। तुम्हारी तपस्या का परिणाम नि:संदेह सुखद ही होगा, जिसमें तुम्हारी, हमारी और सारे समाज भलाई निहित है।
(ई- अभिव्यक्ति में वरिष्ठ कहानीकार व लेखक श्री सूरज प्रकाश जी का हार्दिक स्वागत है।)
☆ 2021 – खुशियों भरे दिन लौटें ☆
2020 पूरी दुनिया के लिए भारी गुजरा। कल्पना से भी परे। घर छूटे, काम छूटे, करीबी गुज़र गये और दुख की घड़ी में कंधे पर हाथ रख कर सांत्वना भी न दे सके। शादियां, आयोजन, नेक काम, पढ़ाई, नौकरी, प्रोमोशन सब टलते रहे। लोग घर में बंद रहे। अस्पतालों को छोड़ कर सारे संस्थान बंद रहे। जहाज, रेलें, टैक्सियां, बसें नहीं चलीं तो उन्हें चलाने वाले, बनाने वाले, उनकी मरम्मत करने वाले भी बेरोजगार हो गये। और कई तय काम नहीं कर पाये लोग। बेशक कुछ लोग ऑनलाइन या वर्क फ्राम होम करते रहे, होम सर्विस देते रहे, नौकरी, पढ़ाई, कन्सलटेंसी या बैंकिंग बेशक ऑनलाइन करते रहे या घर बैठे करते रहे लेकिन सबकुछ ऑनलाइन नहीं हो सकता। ऐसे बेरोजगार हो गये। स्कूल में घंटी बजाने वाले चपरासी, सर्जरी करने वाले डॉक्टर या ट्रेवल एजेंट या टूरिस्ट गाइड। सूची अंतहीन है।
जुहू तट पर, पार्क में या मॉल में बैठ कर प्रेम करने वाले जोड़ों पर ये बरस बहुत भारी गुज़रा। वे भी ऑनलाइन प्रेम करने पर मजबूर हुए। बेशक लिये दिये जाने वाले उपहार भी कम हुए। उपहार बनाने और बेचने वाले भी बेरोजगार हुए। घरों में बंद बच्चे खेलने, जन्मदिन मनाने या धौल धप्पा करने को तरस गये और सारा सारा दिन सिर और पीठ झुकाए मोबाइल के नन्हें से स्क्रीन पर ऑनलाइन पढ़ाई करते रहे बेशक टीचर की डांट से बचे रहे। ज्यादातर बच्चे इस सुविधा से भी वंचित रहे। पूरी दुनिया सैकड़ों बरस पीछे चली गयी।
महिलाओं की हालत बहुत खराब रही। वे मेकअप करने या नयी साड़ियां खरीदने, पहनने और उसकी तारीफ पाने के लिए तरस गयीं। उनके पति टीशर्ट और नेकर पहन कर ऑफिस के नाम पर घर का एक कोना पकड़ कर लैपटॉप में काम करने के बहाने सोशल मीडिया में बिजी रहे, बहुत कुछ देखते रहे और थोड़ी थोड़ी देर में चाय नाश्ते की फरमाइश करते रहे। कामकाजी महिलाओं और अध्यापिकाओं की हालत और खराब रही। ऑनलाइन काम करने या ऑनलाइन क्लासेस लेने के अलावा उन्हें काम वाली बाई की अनुपस्थिति में घर के सारे काम करने पड़े। सभी, लगभग सभी निजी स्पेस के लिए तरस गये।
कवियों की और भाषणवीरों की मौज़ रही। वे सब के सब ऑनलाइन हो गये। बेशक वे मोबाइल को ही माइक समझ कर दस मिनट तक खटखटाते रहते थे कि क्या मेरी आवाज़ सब तक पहुंच रही है या भोलेपन से पूछते थे कि कोई दिखाई क्यों नहीं दे रहा है।
कुल मिला कर ये बरस भारी गुजरा। सबके लिए।
दुआ है कि आने वाले इक्कीस में पुराने, खुशियों भरे दिन लौटें।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 78 ☆ श्वेतपत्र ☆
वर्ष बीता, गणना की हुई निर्धारित तारीखें बीतीं। पुराना कैलेंडर अवसान के मुहाने पर खड़े दीये की लौ-सा फड़फड़ाने लगा, उसकी जगह लेने नया कैलेंडर इठलाने लगा।
वर्ष के अंतिम दिन उन संकल्पों को याद करो जो वर्ष के पहले दिन लिए थे। याद आते हैं..? यदि हाँ तो उन संकल्पों की पूर्ति की दिशा में कितनी यात्रा हुई? यदि नहीं तो कैलेंडर तो बदलोगे पर बदल कर हासिल क्या कर लोगे?
मनुष्य का अधिकांश जीवन संकल्प लेने और उसे विस्मृत कर देने का श्वेतपत्र है।
वस्तुतः जीवन के लक्ष्यों को छोटे-छोटे उप-लक्ष्यों में बाँटना चाहिए। प्रतिदिन सुबह बिस्तर छोड़ने से पहले उस दिन का उप-लक्ष्य याद करो, पूर्ति की प्रक्रिया निर्धारित करो। रात को बिस्तर पर जाने से पहले उप-लक्ष्य पूर्ति का उत्सव मना सको तो दिन सफल है।
पर्वतारोही इसी तरह चरणबद्ध यात्रा कर बेसकैम्प से एवरेस्ट तक पहुँचते हैं।
शायर लिखता है- ‘शाम तक सुबह की नज़रों से उतर जाते हैं, इतने समझौतों पर जीते हैं कि मर जाते हैं।’
मरने से पहले वास्तविक जीना शुरू करना चाहिए। जब ऐसा होता है तो तारीखें, महीने, साल, कुल मिलाकर कैलेंडर ही बौना लगने लगता है और व्यक्ति का व्यक्तित्व सार्वकालिक होकर कालगणना से बड़ा हो जाता है।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख नकली सुखों का त्यागयह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 75 ☆
☆ नकली सुखों का त्याग ☆
‘‘नकली सुखों के बजाय ठोस उपलब्धियों के पीछे समर्पित रहिए’कलाम जी का यह सार्थक संदेश अनुकरणीय है, अनुसरणीय है। मानव को सांसारिक सुखों के पीछे नहीं भागना चाहिए, क्योंकि वे क्षणिक होते हैं, सदैव रहने वाले नहीं। ‘ब्रह्म सत्यं,जगत् मिथ्या’ अर्थात् ईश्वर के अतिरिक्त संसार की हर वस्तु नश्वर है, क्षणिक है और माया के कारण ही वह हमें सत्य भासती है। सो! मानव शरीर भी पानी के बुलबुले की भांति पल-भर में नष्ट हो जाता है। जिस प्रकार कुंभ अर्थात् घड़े का जल बाहरी जल में विलीन हो जाता है; जिस जल में वह कुंभ रखा होता है। उसी प्रकार पंच-तत्वों द्वारा निर्मित शरीर के नष्ट हो जाने पर वह उनमें समा जाता है और आत्मा परमात्मा में समा जाती है। यही है मानव जीवन की दास्तान… जैसे प्रभात की बेला में समस्त तारागण अस्त हो जाते हैं, उसी प्रकार संसार की हर वस्तु व सुख क्षणिक है, नश्वर हैं। इसलिए हमें नकली सुखों की अपेक्षा, ठोस उपलब्धियों के पीछे भागना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है…अपनी सोच को सार्थक व ऊंचा रखने की। यदि हम बड़े सपने देखेंगे; तभी हम उन्हें साकार कर पाने की तमन्ना रखेंगे और यदि हमारी इच्छा-शक्ति प्रबल व सोच सकारात्मक होगी, तो ही हम उस मुक़ाम पर पहुंच पाएंगे; जहां तक पहुंचने की मानव कल्पना भी नहीं कर सकता। सो! ‘खुली आंखों से ऊंचे स्वप्न देखिए और उन्हें साकार करने के लिए स्वयं को जी-जान से झोंक दीजिए…एक दिन परिश्रम अवश्य रंग लायेगा। इसके निमित्त आवश्यकता है–दृढ़-संकल्प व प्रबल इच्छाशक्ति की; जो मानव को उसकी मंज़िल तक पहुंचाने का सर्वोत्तम साधन हैं।
मानव जब ‘एकला चलो रे’ सिद्धांत को जीवन में अपना कर, अपनी राह की ओर अग्रसर होता है, तो बाधाएं, आलोचनाओं के रूप में उसकी राह में उपस्थित होती हैं। इसलिए मानव को कभी भी हताश-निराश नहीं होना चाहिए, बल्कि उनसे सीख लेकर अपने पथ पर निरंतर अग्रसर होना चाहिए तथा निंदक व दोष-दर्शकों के प्रति आभार व्यक्त करना चाहिए; जिन्होंने हमें ग़लत राह को तज, सही राह पर चलने का संदेश दिया है, मार्ग सुझाया है।
यह सत्य है कि आलोचनाएं पथ-अवरोधक नहीं, पथ-प्रदर्शक व साधक होती हैं। वे मानव के आचार- विचार व व्यवहार को संवारती हैं तथा दुर्गुणों को त्याग, सत्मार्ग पर चलने को प्रेरित करती हैं। वास्तव में आलोचनाएं वे साबुन हैंँ, जिसका प्रयोग कर मानव आत्मावलोकन द्वारा आत्म-साक्षात्कार की दिशा में अग्रसर होता है। आलोचना से अंत:दृष्टि जाग्रत होती है, जिससे हमें अपने दोषों का दिग्दर्शन होता है और उन्हें त्याग कर हम सत्य की राह पर अग्रसर होते हैं। इस तथ्य में कबीरदास जी का यह दोहा सार्थक प्रतीत होता है, जिसके अंतर्गत मानव को, निंदक को अपने आंगन में तथा अपने आसपास रखने का संदेश दिया गया है। निंदक वह नि:स्वार्थ प्राणी है, जो अपने से अधिक, आपके बारे में सोचने व चिंतन करने में अपनी ऊर्जा नष्ट करता है…आपके हितों की रक्षा के प्रति चिंतित रहता है।
सो! आलोचक व निंदक के हितों की ओर दृष्टिपात करना आवश्यक है। निंदक दूसरों की निंदा करने में प्रसन्न रहता है तथा केवल उनके दोषों-अवगुणों व बुराइयों को तलाश कर, उन्हें उजागर करने में सुक़ून प्राप्त करता है। परंतु आलोचक उसके समस्त पहलुओं को समझकर, उसके गुणों व दोषों का सांगोपांग चित्रण करता है। वह नीर-क्षीर विवेकी होता है तथा ईर्ष्या-द्वेष से सदैव दूर रहता है। आलोचक साहसी व विवेकशील होता है तथा संबद्ध पक्षों पर चिंतन कर अपने विचारों की अभिव्यक्ति करता है। आलोचक इधर-उधर की नहीं हांकता, जबकि निंदक मानव के दोषों-बुराइयों को तलाश कर; उनका अतिशयोक्ति-पूर्ण वर्णन कर अपने दायित्व की इतिश्री स्वीकारता है। उसे सावन के अंधे की भांति उसकी अभिरुचि के अनुकूल, उसमें केवल दोष ही दोष नज़र आते हैं।
‘जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि’ अर्थात् जैसी हमारी सोच होती है; सृष्टि हमें वैसी ही दिखाई पड़ती है। जीवन में संतुलन बनाए रखने के लिए सकारात्मक सोच की दरक़ार रहती है। उसके रहते हमें संसार सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् भावों से आप्लावित दिखाई पड़ता है। जो सत्य होगा; वह कल्याणकारी व सुंदर अवश्य होगा। इसलिए आवश्यकता है–तुच्छ स्वार्थों को त्याग कर महानता प्राप्त करने की। यदि हम इस तथ्य का विश्लेषण करें, तो इसके पीछे हमारी मानसिकता झलकती है। यदि हमारा लक्ष्य उच्च व महत्तर होगा, तो हम संकीर्ण मानसिकता को त्याग, लक्ष्य-प्राप्ति की ओर पूर्ण मनोयोग से अग्रसर रहेंगे। हमारा ध्यान उसी की ओर केंद्रित रहेगा और हम अपनी समस्त ऊर्जा उसकी प्राप्ति में लगा देंगे। लक्ष्य के प्रति संपूर्ण समर्पण हमें उस महानतम् शिखर पर पहुंचा देगा।
एक प्रसिद्ध कहावत है कि ‘मानव से पहले उसकी प्रसिद्धि, गुणवत्ता व उसका अच्छा-बुरा आचार-व्यवहार पहुंच जाता है; जिसे अनुभव कर मानव अचम्भित रह जाता है। वैसे भी शब्द नहीं, मानव के कार्य बोलते हैं, जिसे लोग तरज़ीह देते हैं। सो! मानव को अपने अंतर्मन में दैवीय गुणों स्नेह, प्रेम, करुणा, सहानुभूति, त्याग, सहनशीलता आदि को विकसित करने का भरसक प्रयास करना चाहिए। ये हमें दिव्य मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं…क्षुद्र वासनाओं को त्याग सत्मार्ग की ओर प्रवृत्त करते हैं। यही जीवन का ध्येय है, प्रेय है, सफलता है।
इसी संदर्भ में, मैं आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूंगी…साहित्यिक जगत् व समाज के हर क्षेत्र में व्याप्त ख़ेमों की ओर… परंतु यहां हम साहित्यिक पक्ष पर ही चर्चा करेंगे। ऐसे महारथियों की आश्रयस्थली में शरण ग्रहण किए बिना अस्तित्व-बोध व यथोचित स्थिति बनाए रखने की कल्पना बेमानी है। परंतु इनकी शरण में जाकर, आप वह सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं, जिसके आप योग्य हैं ही नहीं तथा आप में उसे पाने का रत्ती भर सामर्थ्य भी नहीं है। आप रातों-रात साहित्य जगत् के देदीप्यमान सूर्य के रूप में प्रतिष्ठित हो सकते हैं। इलेक्ट्रॉनिक व प्रिंट मीडिया वाले आपका साक्षात्कार लेकर स्वयं को धन्य समझते हैं। चारों ओर आपकी तूती बोलने लग जाती है। इसके लिए आपको केवल अपने अहं व अस्तित्व को मिटाना होता है और साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करना उसकी प्रथम सीढ़ी है। सो!अन्य दायित्वों व अपेक्षाओं की कल्पना तो आप स्वयं बखूबी कर ही सकते हैं।
सो! ग़लत व अनुचित ढंग से प्राप्त की गई प्रसिद्धि कभी स्थायी व सम्मान-जनक नहीं होती है, क्योंकि जो भी आपको बिना प्रयास के सहसा मिल जाता है, क्षणिक होता है और उससे आपको स्थायी संतोष व संतुष्टि प्राप्त नहीं हो सकती। परिश्रम सफलता की कुंजी है और उससे प्राप्त परिणाम का प्रभाव चिरस्थायी होता है। आपको हर क्षेत्र में केवल संतोष व सफलता ही प्राप्त नहीं होती; हर जगह आप की सराहना व प्रशंसा भी होने लगती है…आपके नाम की तूती बोलने लगती है। परंतु इन परिस्थितियों में भी यदि आपके हृदय में अहं-भाव जाग्रत नहीं होता, तो यह आपकी अनवरत साधना व परिश्रम का सु-फल होता है।
ध्यातव्य है कि मनचाही वस्तु व सफलता को पा लेने की बेचैनी व खो देने का डर मानव को सदैव आकुल-व्याकुल व आहत करता रहता है। वह सदैव हैरान-परेशान और तनाव-ग्रस्त रहता है। परंतु मानव को मिथ्या सुखों को नकार कर, शाश्वत सुखों की प्राप्ति की ओर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए, क्योंकि वह अलौकिक है, आनंद-प्रदाता है; शब्दातीत व कल्पनातीत है…जिसे प्राप्त कर वह राग-द्वेष व स्व-पर से ऊपर उठ जाता है तथा सदैव अनहद-नाद में आकंठ डूबा रहता है। सो! वास्तविक सुखों को प्राप्त करने का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है–भौतिक सुखों का त्याग, अहं का विसर्जन, सत्मार्ग पर चलने का दृढ़-निश्चय व आत्मावलोकन करने की प्रबल इच्छा-शक्ति….यही मुख्य उपादान हैं लख चौरासी से मुक्ति पाने के; जहां पहुंच कर मानव की क्षुद्र वासनाओं का अंत हो जाता है और उसे कैवल्य की प्राप्ति हो जाती है, जिस अलौकिक आनंद में अवग़ाहन कर वह आजीवन सुक़ून पाता है।
( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “74 वर्ष से प्रगति का यह कैसा राग?“. )
☆ किसलय की कलम से # 28 ☆
☆ 74 वर्ष से प्रगति का यह कैसा राग? ☆
स्वतंत्रता के सही मायने तो स्वातंत्र्यवीरों की कुरबानी एवं उनकी जीवनी पढ़-सुनकर ही पता लगेंगे क्योंकि शाब्दिक अर्थ उसकी सार्थकता सिद्ध करने में असमर्थ है। देश को अंग्रेजों के अत्याचारों एवं चंगुल से छुड़ाने का जज्बा तात्कालिक जनमानस में जुनून की हद पार कर रहा था। यह वो समय था जब देश की आज़ादी के समक्ष देशभक्तों को आत्मबलिदान गौण प्रतीत होने लगे थे। वे भारत माँ की मुक्ति के लिए हँसते-हँसते शहीद होने तत्पर थे। ऐसे असंख्य वीर-सपूतों के जीवनमूल्यों का महान प्रतिदान है ये हमारी स्वतन्त्रता, जिसे उन्होंने हमें ‘रामराज्य’ की कल्पना के साथ सौंपा था। माना कि नवनिर्माण एवं प्रगति एक चुनौती से कम नहीं होती? हमें समय, अर्थ, प्रतिनिधित्व आदि सब कुछ मिला लेकिन हम संकीर्णता से ऊपर नहीं उठ सके। हम स्वार्थ, आपसी कलह, क्षेत्रीयता, जातीयता, अमीरी-गरीबी के मुद्दों को अपनी-अपनी तराजू में तौलकर बंदरबाँट करते रहे। देश की सुरक्षा, विदेशनीति और राष्ट्रीय विकास के मसलों पर कभी एकमत नहीं हो पाए।
आज केन्द्र और राज्य सरकारें अपनी दलगत नीतियों के अनुरूप ही विकास का राग अलापती रहती हैं। माना कि कुछ क्षेत्रों में विकास हो रहा है, लेकिन यहाँ भी महत्त्वपूर्ण यह है कि विकास किस दिशा में होना चाहिए? क्या एकांगी विकास देश और समाज को संतुलित रख सकेगा? क्या शहरी विकास पर ज्यादा ध्यान देना गाँव की गरीबी और भूख को समाप्त कर सकेगा? क्या मात्र देश की आतंरिक मजबूती देश की चतुर्दिक सीमाओं को सुरक्षित रख पाएगी? क्या हम अपने अधिकांश युवाओं का बौद्धिक व तकनीकि उपयोग अपने देश के लिए कर पा रहे हैं? हम तकनीकि, विज्ञान, चिकित्सा, अन्तरिक्ष आदि क्षेत्रों में आगे बढ़ें। बढ़ भी रहे हैं लेकिन क्या इसी अनुपात से अन्य क्षेत्रों में भी विकास हुआ है? क्या वास्तव में गरीबी का उन्मूलन हुआ है? क्या ग्रामीण शिक्षा का स्तर समयानुसार ऊपर उठा है? क्या ग्रामीणांचलों में कृषि के अतिरिक्त अन्य पूरक उद्योग, धंधे तथा नौकरी के सुलभ अवसर मिले हैं? क्या अमीरी और गरीबी के अंतर में स्पष्ट रूप से कमी आई है? क्या जातीय और क्षेत्रीयता की भावना से हम ऊपर उठ पाए हैं? यदि हम ऐसा नहीं देख पा रहे हैं तो इसका सीधा सा आशय यही है कि हम जिस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं वह स्वतंत्रता के बलिदानियों और देश के समग्र विकास के अनुरूप नहीं है।
आज राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी सोच एवं नीतियाँ बनाना अनिवार्य हो गया है, जो शहर-गाँव, अमीर-गरीब, जाति-पाँति, क्षेत्रीयता-साम्प्रदायिकता के दायरे से परे समान रूप से अमल में लाई जा सकें। आज पुरानी बातों का उद्धरण देकर बहलाना या दिग्भ्रमित करना उचित नहीं है। अब सरकारी तंत्र एवं जनप्रतिनिधियों द्वारा असंगत पारंपरिक सोच बदलने का वक्त आ गया है। जब तक सोच नहीं बदलेगी, तब तक हम नहीं बदलेंगे और जब हम नहीं बदलेंगे तो राष्ट्र कैसे बदलेगा? आज देश को विश्व के अनुरूप बदलना नितांत आवश्यक हो गया है। देश में उन्नत कृषि हो, गाँव में छोटे-बड़े उद्योग हों, शिक्षा, चिकित्सा, सड़क-परिवहन और सुलभ संचार माध्यम ही ग्रामीण एवं शहर की खाई को पाट सकेंगे। आज भी लोग गाँवों को पिछड़ेपन का पर्याय मानते हैं। आज भी हमारे जीवन जीने का स्तर अनेक देशों की तुलना में पिछड़ा हुआ है। ऐसे अनेक देश हैं जो हमसे बाद में स्वतंत्र हुए हैं या उन्हें राष्ट्र निर्माण के लिए कम समय मिला है, फिर भी आज वे हम से कहीं बेहतर स्थिति में हैं, इसका कारण सबके सामने है कि वहाँ के जनप्रतिनिधियों द्वारा अपने देश और प्रजा के लिए निस्वार्थ भाव से योजनाबद्ध कार्य कराया गया है।
आज स्वतन्त्रता के 74 वर्षीय अंतराल में कितनी प्रगति किन क्षेत्रों में की गई यह हमारे सामने है। अब निश्चित रूप से हमें उन क्षेत्रों पर भी ध्यान देना होगा जो देश की सुरक्षा, प्रतिष्ठा और सर्वांगीण विकास हेतु अनिवार्य हैं। आज देश की जनता और जनप्रतिनिधियों की सकारात्मक सोच ही देश की एकता और अखंडता को मजबूती प्रदान कर सकती है। राष्ट्रीय सुरक्षा हेतु कोई दबाव, कोई भूल या कोताही क्षम्य नहीं होना चाहिए। आज बेरोजगारी, अशिक्षा और भ्रष्टाचार जैसी महामारियों के उपचार तथा प्रतिकार हेतु सशक्त अभियान की महती आवश्यकता है। गहन चिंतन-मनन और प्रभावी तरीके से निपटने की जरूरत है। इस तरह आजादी के इतने बड़े अंतराल के बावजूद देश की अपेक्षानुरूप कम प्रगति के साथ ही सुदृढ़ता की कमी भी हमारी चिंता को बढाता है। आईये आज हम “सारे जहां से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा” को चरितार्थ करने हेतु संकल्पित हो आगे बढ़ें।