डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख ग़ुमशुदा रिश्ते, यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 76 ☆

☆ ग़ुमशुदा रिश्ते ☆

‘हक़ीक़त में गुमनाम सपने ढूंढ रही हूं/ अपनों की भीड़ में/ आजकल ग़ुमशुदा ढूंढ रही हूं।’ ग़ुमशुदा… ग़ुमशुदा…ग़़ुमशुदा। जी हां! यह है आज की ज़िंदगी की हक़ीक़त…हर इंसान को तलाश है सुक़ून की, जो अपनों के सान्निध्य व संसर्ग से प्राप्त होता है और सबसे कठिन है … अपनों की भीड़ में से, अपनों को तलाश करना। वे तथाकथित अपने, जो अपने होने का स्वांग रचते हैं और स्वार्थ-साधने के हित आपके आसपास मंडराते रहते हैं। ऐसे लोग तब तक आपके अपने बनकर रहते हैं, जब तक आप किसी पद पर काबिज़ हैं और पद-प्रतिष्ठा के न रहने पर वे आपको पहचानते भी नहीं। यदि आपको उनकी ज़रूरत होती है, तो वे पास से कन्नी काट जाते हैं। यही कटु यथार्थ है ज़िंदगी का; यहां सब रिश्ते-नाते स्वार्थ से जुड़े हैं। रिश्तों की अहमियत रही नहीं… अपने ही अपने बन, अपनों को छलते हैं। चारों ओर अविश्वास का वातावरण व्याप्त है; संदेह, शक़ व आशंका मानव के हृदय में इस प्रकार रचे-बसे हैं कि पति-पत्नी के रिश्ते भी दरक़ रहे हैं। पहले सात फेरों के बंधन को सात जन्मों का पावन बंधन स्वीकार उसका निबाह हर कीमत पर किया जाता था; परंतु अब स्थिति पूर्णत: विपरीत है। एक छत के नीचे रहते हुए, एक-दूसरे के सुख-दु:ख से बेखबर, पति-पत्नी अपना जीवन अजनबी-सम ढोते हैं। उनमें स्नेह, संबंध व सरोकार समाप्त हो चुके हैं। सब अपने-अपने अहम् में डूबे एक-दूसरे को नीचा दिखाने हेतु भावनाओं पर कुठाराघात कर सुक़ून पाते हैं और बच्चे एकांत की त्रासदी झेलते हुए ग़लत राहों पर अग्रसर हो जाते हैं; जहां से लौट पाना मात्र स्वप्न बन कर रह जाता है।

हर इंसान गुमनाम सपनों के पीछे बेतहाशा दौड़ता चला जा रहा है। कम से कम समय में अधिकाधिक धन कमाने की दौड़, जिसके निमित्त वह झोंक देता है अपना जीवन… होम कर देता है अपने स्वप्न… जिसका उदाहरण कॉरपोरेट जगत् के रूप में हम सब के समक्ष है। इस क्षेत्र में काम करने वाले युवा आजकल विवाह के बंधन को अस्वीकारने लगे हैं। यदि वे इस बंधन को पावन समझ स्वीकार भी लेते हैं; तो उनमें चंद दिनों बाद अलगाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, क्योंकि उनकी नज़रों में घर- परिवार की अहमियत होती ही नहीं। उनके बीच पारस्परिक संवाद भी नहीं होता, क्योंकि उनके पास न एक-दूसरे के लिए समय होता है, न ही होती है– एक-दूसरे की दरक़ार। वे दोषारोपण करने का एक भी अवसर नहीं चूकते और एक दिन ज़िंदगी उन्हें उस मुक़ाम पर लाकर खड़ा कर देती है, जहां वे एक-दूसरे की भावनाओं को नकार, स्वतंत्रता से जीवन जीना चाहते हैं… जिसका सबसे अधिक खामियाज़ा मासूम बच्चों को भुगतना पड़ता है… उन अभागोंं को माता-पिता दोनों का स्नेह व संरक्षण मिल ही नहीं पाता। सो! इन विषम परिस्थितियों में उनका सर्वांगीण विकास कैसे संभव हो सकता है?

हां! यदि बुज़ुर्ग माता-पिता भी उनके साथ रहते हैं, तो वे देर रात तक उनकी राह निहारते रहते हैं। दोनों थके-मांदे, काम का बोझ सिर पर लादे अलग-अलग समय पर घर लौटते हैं और दिन-भर की खीझ एक-दूसरे पर निकाल संतोष पाते हैं। अक्सर बच्चे उनकी बाट जोहते-जोहते सो जाते हैं और वे संडे मम्मी-पापा बन कर रह जाते हैं। यदि बच्चे किसी दिन मान-मनुहार करते हैं, तो उन्हें उनके कोप का भाजन बनना पड़ता है। सो! वे आया व नैनी के प्रति अपने माता- पिता से अधिक स्नेह व आत्मीयता का भाव रखते हैं। जब वे दूसरे बच्चों को अपने माता- पिता के साथ मौज-मस्ती व अठखेलियां करते देखते हैं, तो उनके हृदय का आक्रोश ज्वालामुखी पर्वत के लावे के समान सहसा फूट निकलता है और वे डरे-सहमे से अवसाद की स्थिति में पहुंच जाते हैं और दिन-रात मोबाइल व टी•वी• में खोए रहते हैं…आत्मीय संबंधों- सरोकारों से दूर, आत्म-केंद्रित होकर रह जाते हैं तथा बच्चों व युवाओं की अपराधिक प्रवृत्तियों में लिप्तता, माता-पिता द्वारा प्रदत्त एकाकीपन के उपहार के रूप में परिलक्षित होती है।

वैसे तो आजकल हर इंसान ग़ुमशुदा है। अतिव्यस्तता के कारण सबके पास समयाभाव रहता है। दोस्तो! आजकल तो इंसान की ख़ुद से भी मुलाक़ात नहीं होती। इक्कीसवीं सदी में मानव मशीन बनकर और संयुक्त परिवार, एकल परिवार के दायरे में सिमट कर रह गए हैं। पति-पत्नी व बच्चे एकल परिवार की इकाई स्वीकारे जाते हैं। हां! इस युग में कामवाली बाईयों का भाग्योदय अवश्य हुआ है। उन्हें मालकिन का दर्जा प्राप्त हुआ है और वे सुख- सुविधाओं का बखूबी आनंद ले रही हैं। उन्हें किसी का तनिक भी हस्तक्षेप स्वीकार नहीं। यह है, इस सदी की विशेष उपलब्धि…उनका जीवन-स्तर अवश्य काफी ऊंचा हो गया है, क्योंकि उनके बिना तो आजकल गुज़र-बसर की कल्पना करना भी बेमानी है। वैसे भी उनके तो भाव भी आजकल बहुत बढ़ गए हैं। उनसे सबको डर कर रहना पड़ता है। उनकी इच्छा के बिना तो घर में पत्ता भी नहीं हिलता। वे बच्चों से लेकर बड़ों तक को अपने इशारों पर नचाती हैं। इतना ही नहीं, सगे-संबंधी भी उस घर में दस्तक देते हुए क़तराने लगे हैं।

दुनिया का दस्तूर है साहब! जब तक पैसा है, तब तक सब पूछते हैं…’हाउ आर यू?’ और पैसा खत्म होते ही ‘हू आर यू?’ यह जीवन का कटु यथार्थ है कि ‘हाउ से हू?’ की यात्रा पलक झपकते कैसे सम्पन्न हो जाती है; इंसान समझ ही नहीं पाता और यह स्वार्थ का पहिया निरंतर समय के साथ ही नहीं, पद-प्रतिष्ठा के साथ घूमता रहता है। दौलत में वह चुंबकीय शक्ति है…जो ग़ैरों को भी अपना बना लेती है। सत्य ही तो है, ‘जब दौलत आती है, इंसान खुद को भूल जाता है और जब जाती है, तो ज़माना उसे भूल जाता है।’ धन-संपदा पाकर व्यक्ति अहंनिष्ठ हो जाता है तथा स्वयं को सर्वश्रेष्ठ स्वीकारने लगता है। दूसरों को अपने सम्मुख निकृष्ट समझ, उनकी भावनाओं का निरादर करने लगता है और सबको एक लाठी से हांकने लगता है। उस स्थिति में वह भूल जाता है कि लक्ष्मी चंचला है… एक स्थान पर टिक कर कभी नहीं रहती और जब वह चली जाती है, तो ज़माने के लोग भी अक्सर उससे मुख मोड़ लेते हैं… उसे लेशमात्र भी अहमियत नहीं देते। वास्तव में दोनों स्थितियों में वह एकांत की त्रासदी झेलता है। प्रथम में वह स्वेच्छा से सबसे दूरियां बनाए रखता है और दौलत के न रहने पर तो कोई भी उससे बात करना भी पसंद नहीं करता। यह है नियति उस इंसान की… जिसके लिए दोनों स्थितियां ही भयावह हैं। बिहारी का यह दोहा, ‘कनक-कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय/ इहि पाय बौराय जग, उहि पाय बौराय।’ इंसान बावरा है…धन-संपदा प्राप्त होने पर बौरा जाता है और धतूरा खाने के पश्चात् उसकी सोचने- समझने की शक्ति नष्ट हो जाती है… उसका व्यवहार सामान्य नहीं रह पाता। शायद! इसलिए कहा जाता है कि जिसे ‘मैं’ की हवा लगती है, उसे न दुआ लगती है, न दवा लगती है’ तथा अहंनिष्ठ व्यक्ति दौलत व सुरा-सुंदरी के नशे में आठों पहर धुत्त रहता है। सोने को पाकर और धतूरे को खाकर लोग बौरा जाते हैं, यह कथन सर्वथा सत्य है।

वैसे तो आजकल ‘लिव-इन’ का ज़माना है तथा उसे कोर्ट-कचहरी द्वारा मान्यता प्राप्त है। सो! घर-परिवार तेज़ी से टूट रहे हैं, जिसमें ‘मी टू’ का भी अहम् योगदान है। वर्षों पूर्व के संबंधों को उजागर करने की स्वतंत्रता के कारण हंसते- खेलते परिवार अग्नि की भेंट चढ़ रहे हैं। इतना ही नहीं, आजकल तो पर-स्त्री गमन की भी आज़ादी है, जिसके परिणाम-स्वरूप घर-परिवार में पारस्परिक संबंध व स्नेह-सौहार्द समाप्त हो रहा है। संदेह व अविश्वास के कारण रिश्ते दरक़ रहे हैं। इस विघटन के लिए दोनों दोषी हैं और उनकी समान प्रतिभागिता है। महिलाएं भी कहां कम हैं…वे भी पुरुषों की भांति जीन्स-कल्चर अपना कर, क्लबों व महफ़िलों की शोभा बनने में फ़ख्र महसूस करने लगी हैं। वे अक्सर सड़क व आफिस में शराब के नशे में धुत्त, मदमस्त हो सिगरेट के क़श लगाती व जुआ खेलती नज़र आती हैं, जिसे देखकर मस्तक शर्म से झुक जाता है। शायद! यह सदियों पुरानी दासता और अंकुश का परिणाम व जुनून है, जो सिर चढ़ कर बोल रहा है।

समाज में बढ़ रही अराजकता व विश्रंखलता का मुख्य कारण यह है कि हम परिस्थितियों को बदलने का प्रयास करते हैं; स्वयं को नहीं। इसलिए जीवन में विषम परिस्थितियां व विसंगतियां उत्पन्न होती हैं और जीवन हमें दुआ नहीं, सज़ा-सा लगता है। अहं के कारण पति- पत्नी में स्नेह-सौहार्द रहा नहीं, न ही शेष बचे हैं..आत्मीयता व सामाजिक सरोकार। संवेदनाएं मर चुकी हैं और वे दोनों अकारण एक-दूसरे को नीचा दिखाने हेतु विभिन्न हथकंडे अपनाते हैं, जिसके परिणाम-स्वरूप आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला थमने का नाम नहीं लेता। वे प्रतिपक्ष के परिजनों पर आक्षेप लगा, कटघरे में खड़ा करने में तनिक भी संकोच नहीं करते। इस गतिविधि में महिलाएं अग्रणी हैं। वे पति व उसके परिवारजनों पर दहेज व घरेलू हिंसा का आरोप लगा, किसी भी पल जेल भिजवाने से लेशमात्र भी ग़ुरेज़ नहीं करती हैं।

कैसा ज़माना आ गया है…’आजकल तो ख़ुद से ही ख़ुद की मुलाकात नहीं होती’ सर्वथा सत्य है। सो! अक्सर यह संदेश दिया जाता है कि ‘इंसान को कुछ समय अपने साथ अवश्य व्यतीत करना चाहिए।’ वास्तव में आत्मावलोकन व अपने अंतर्मन में झांकना सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम योग है, आत्म-साक्षात्कार है। एकांत में किया गया चिंतन, आत्मा को परमात्मा से मिलाता है तथा उस स्थिति में पहुंच कर सभी कामनाओं व वासनाओं का अंत हो जाता है…आत्मा का परमात्मा से तादात्म्य हो जाता है। जो व्यक्ति प्रतिदिन अपने द्वारा किए गए कर्मों का आकलन करता है… उसे ज्ञात हो जाता है कि आज तक उसने कैसे कर्म किए हैं? सो! वह सत्कर्मों की ओर प्रवृत्त होता है तथा राग-द्वेष के बंधनों से मुक्ति प्राप्त कर लेता है…अपने मन का मालिक बन जाता है। वह अलौकिक आनंद अथवा अनहद-नाद की स्थिति में रहता है। उसे किसी की संगति की अपेक्षा नहीं रहती। उस स्थिति में वह यही कामना करता है …नैना अंतर आव तू, नैन झांप तोहे लेहुं/ न हौं देखूं ओर को, न तुझ देखन देहुं।’ इस स्थिति में आत्मा का परमात्मा से साक्षात्कार हो जाता है और वह हर पल उस सृष्टि-नियंता के दर्शन पा अलौकिक आनंद की मस्ती में रहती है।

‘सो! खुली आंख से स्वप्न देखिए, ताकि वे गुमनामी के अंधकार में न खो जाएं और जब तक वे साकार न हो जाएं, आप विश्राम न करें…उनके पूर्ण होने पर ही सुख की सांस लें।’ सपनों को साकार करना भी, अपनों की भीड़ में ग़ुमशुदा अर्थात् अपनों की तलाश करने जैसा है। वास्तव में अपने वे होते हैं, जो सदैव आपकी ढाल बनकर आपके साथ खड़े रहते हैं। इतना ही नहीं आपकी अनुपस्थिति में भी वे आपके पक्षधर रहते हैं। सो! स्वार्थ व मतलब के बगैर के संबंधों के का फल मीठा होता है।’ इसलिए नि:स्वार्थ भाव से निष्काम कर्म करने का संदेश दिया गया है। दुनिया की सबसे अच्छी किताब आप स्वयं हैं। ख़ुद को समझ लीजिए, समस्याओं का स्वत: अंत हो जाएगा। सो! अपनी सोच बड़ी व सकारात्मक रखिए। छोटी सोच शंका और बड़ी सोच समाधान को जन्म देती है। इसलिए सुनना सीख लो, सहना व रहना स्वत:आ जाएगा। जिसे सहना आ गया, उसे जीना आ गया। संवाद संबंधों की जीवन-रेखा है। जब आप संवाद करना बंद कर देते हैं; अमूल्य संबंध नष्ट होने लगते हैं, क्योंकि संबंध कभी भी जीतकर नहीं निभाये जा सकते… उनके लिए झुकना व पराजय स्वीकार करना लाज़िमी होता है।

अन्ततः गुमनाम सपनों को तलाशना जितना कठिन है, उससे भी अधिक कठिन है… अपनों की भीड़ में ग़ुमशुदा अर्थात् अपनों को ढूंढना। वैसे तो आजकल हर इंसान ख़ुद से बेखबर है। वह कहां जानता है… वह कौन है, कौन से आया है और इस संसार में उसके जीवन का प्रयोजन क्या है? अज्ञानतावश वह आजीवन उलझा रहता है–माया-मोह के बंधनों में और शाश्वत् संबंधों से बेख़बर, वह लख चौरासी के बंधनों में उलझा रहता है। आइए! अपनों की भीड़ में पहले स्वयं को ढूंढ कर, ख़ुद से मुलाकात करें। उसके पश्चात् उन अपनों को ढूंढें, जो मुखौटा धारण किए रहते हैं… गिरगिट की भांति हर पल रंग बदलते हैं। सो! आजकल किसी पर भी विश्वास करना अत्यंत कठिन व दुष्कर है। ‘कौन अपना कब दग़ा दे जाए’… कोई नहीं जानता। सो! अपने ही घर में दस्तक देते हुए, भ्रमित मानव को अजनबीपन का अहसास होने लगा है…मानो वह ग़ुमशुदा है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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