श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 292 ☆ पाणी केरा बुदबुदा…
आयुः पल्लवकोणाग्रलाम्बान्बुकानभंगुरम्
उन्मत्तमिव संत्यज्य यात्यकाण्डे शरीरिणम्।
जीवन की क्षणभंगुरता ऐसा विषय है, जिसे हर व्यक्ति प्रति क्षण अनुभव करता है, तथापि प्रति क्षण भूला रहता है। जगत से जाने के सत्य को जानकर भी जानना नहीं चाहता।
योगवासिष्ठम् के वैराग्य प्रकरण के 14वें सर्ग से लिया गया उपरोक्त श्लोक इसी क्षणभंगुरता की पुष्टि करता है।
इस श्लोक का अर्थ है कि जीवन, किसी पल्लव अथवा पत्ते के कोने पर टपकी हुई जल की बूँद के समान क्षणभंगुर है। यह जीवन (प्राण) देह को बिना किसी पूर्व चेतावनी के, एक विक्षिप्त या नशे में धुत व्यक्ति की भाँति अकस्मात छोड़कर चला जाता है।
क्षणभंगुरता का यह यथार्थ निरी आँखों से दिखता है। हरेक इसे देखता है। इसका आस्तिकता या नास्तिकता से कोई सम्बंध नहीं है। कर्म या कर्मफल के सिद्धांत से भी इसका कोई लेना-देना नहीं है। ‘परलोक के लिए पुण्य संचित करो’ में विश्वास रखने वाले हों या ‘खाओ, पिओ, ऐश करो’ पर भरोसा करने वाले, मानने-न मानने वाले, सब पर, हरेक पर यह लागू होता है। यूँ भी कोई किसी भी पंथ, सम्प्रदाय का हो, मत-मतांतर का हो, पार्थिव अमरपट्टा नहीं ले सकता।
क्षणभंगुरता के सिक्के का दूसरा पहलू है शाश्वत होना। ‘क्षणं प्रतिक्षणं गच्छति’, में प्रतिध्वनित होता नश्वरता का शाश्वत सत्य, सीमित देहकाल में मनुष्यता के अपार विस्तार की संभावना भी है।
यहाँ से एक विचार यह उठता है कि भोजन, निद्रा, मैथुन तो सभी सजीवों पर समान रूप से लागू है। तथापि मनुष्य देह का वरदान मिला है तो जीवन को भोगते हुए कुछ ऐसा अवश्य किया जाना चाहिए जिससे मनुष्यता बेहतर फले-फूले। यह हमारा नैमित्तिक कर्तव्य भी है।
कहीं पढ़ा था कि आदिवासियों के एक समूह को नागरी सभ्यता और विकास दिखाने के लिए लाया गया। शहर की विशाल अट्टालिकाएँ देखकर वे आश्चर्यचकित रह गए। उनका आश्चर्य यह जानकर बढ़ गया कि इनमें से अधिकांश घर खाली पड़े हैं। कुछ आगे चलकर उन्होंने देखा कि सड़क पर बड़ी संख्या में भिखारी हैं जो मांग कर अपना गुज़ारा कर रहे हैं और उनके सिर पर किसी तरह की कोई छत नहीं है। आदिवासियों ने जानना चाहा कि वे लोग बिना छत के क्यों हैं, जबकि इतने सारे घर खाली पड़े हैं?
उन्हें बताया गया कि यहाँ एक व्यक्ति कई घर खरीदता है। आगे चलकर जब घर की कीमत बढ़ जाती है तो उसे बेच देता है। पैसा इसी तरह कमाया जाता है। आदिवासी आश्चर्यचकित रह गए। उनमें से एक बुज़ुर्ग ने कहा, “कैसे मनुष्य हैं आप? कुछ लोग सड़क पर बिना घर के जी रहे हैं और एक व्यक्ति के पास अनेक घर हैं। जीवन काटने के लिए तो एक घर ही पर्याप्त है। हम आदिवासियों में प्रथा है कि हम सब मिलकर नवयुगल के लिए अपने हाथों से घर बनाते-बाँधते हैं और उनके जीवन का शुभारंभ करते हैं। इस तरह हम, हमारी आनेवाली पीढ़ी को बसाते हैं।”
इस घटना का संदर्भ सांप्रतिक जीवन में धन या पैसे के महत्व को नकारने के लिए नहीं है। जीवन के केंद्र में इस समय पैसा है। जगत के सारे व्यवहार का कारण और आधार पैसा है। अर्थार्जन हमारे चार पुरुषार्थों में सम्मिलित है। अत: परिश्रम और बुद्धि से अर्जन तो अनिवार्य है।
यहाँ संदर्भ मनुष्य में वांछित मनुष्यता के लोप अथवा सामुदायिक चेतना के अभाव का है। इस चेतना के उन्नयन का एक श्रेष्ठ उदाहरण महाराज अग्रसेन रहे। माना जाता है कि उन्होंने ‘एक रोटी, एक ईंट’ का मंत्र अपने राज्य की जनता दिया था।
मंत्र का व्यवहार यह था कि बाहर से आकर कोई व्यक्ति यदि उनके राज्य में बसना चाहे तो अपेक्षित है कि समाज का हर समर्थ व्यक्ति उसके लिए एक रोटी और एक ईंट की व्यवस्था करे। रोटी से नवागत के परिवार का पेट भरता और एक-एक ईंट करके उसका मकान बनता। सामुदायिकता और सामासिकता का यह अनुपम उदाहरण है।
किसी सुपात्र निर्धन को एक रोटी और एक ईंट दे सकने का सामर्थ्य ईश्वर ने बड़ी संख्या में लोगों को दे रखा है। इसका क्रियान्वयन मनुष्यता को प्राणवान रखने के लिए संजीवनी सिद्ध हो सकता है।
संत कबीर ने लिखा है,
पाणी केरा बुदबुदा, इसी हमारी जाति।
एक दिनाँ छिप जाँहिगे, तारे ज्यूँ परभाति॥
स्मरण रहे कि क्षणभंगुर जीवन पानी के बुलबुले की भाँति अकस्मात फूट जाएगा। बुलबुले के फूटने से पहले सामुदायिक विकास में थोड़ा-सा हाथ लगा सकें, पंच महाभूतों के संरक्षण में सक्रिय भूमिका निभा सकें तो मनुष्य जीवन में कुछ सार्थक कर सकने का संतोष लिए प्रस्थान हो सकेगा।
© संजय भारद्वाज
अपराह्न 1:05 बजे, 14 जून 2025
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
writersanjay@gmail.com
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
हमारी अगली साधना श्री विष्णु साधना शनिवार दि. 7 जून 2025 (भागवत एकादशी) से रविवार 6 जुलाई 2025 (देवशयनी एकादशी) तक चलेगी
इस साधना का मंत्र होगा – ॐ नमो नारायणाय।
इसके साथ ही 5 या 11 बार श्री विष्णु के निम्नलिखित मंत्र का भी जाप करें। साधना के साथ ध्यान और आत्म परिष्कार तो चलेंगे ही –
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम्
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ||
संभव हो तो परिवार के अन्य सदस्यों को भी इससे जोड़ें
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈