श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गर्दिश के दिन।)

?अभी अभी # 704 ⇒ गर्दिश के दिन ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

गर्दिश के दिन अक्सर तब ही याद आते हैं, जब हमारे अच्छे दिन आ जाते हैं। सुख के क्षणों में दुःख के दिनों की दास्तान कितनी अच्छी लगती है न ! दुख भरे दिन बीते रे भैया, अब सुख आयो।

जिनके सितारे हमेशा ही गर्दिश में रहते हैं उनके लिए गर्दिश स्थायी भाव हो जाता है और वे हनुमान चालीसा की जगह रोजाना मुकेश का, फिल्म रेशमी रुमाल का यह गीत गाना अधिक पसंद करते हैं ;

गर्दिश में हो तारे,

ना घबराना प्यारे

गर तू हिम्मत ना हारे

तो होंगे वारे न्यारे

विरले ही होते हैं, जिनके वारे न्यारे होते हैं, और जो प्रसिद्धि और शोहरत पाने के बाद अपने गर्दिश के दिनों को आत्म दया, आत्म प्रशंसा और आत्म विश्वास के साथ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। उनके गर्दिश के दिन धन्य हो जाते हैं, वे पुनः पुरस्कृत हो जाते हैं।।

जो इंसान गर्दिश में जीता है, वह गर्दिश का महत्व ही नहीं समझता ! अगर किस्मत से उसके अच्छे दिन आ भी गए, तो ईश्वर को धन्यवाद दे, दाल रोटी खा, प्रभु के गुण गाता रहता है। संतोषी सदा सुखी। लेकिन समझदार, सफल और व्यवहारकुशल लोग आपदा में अवसर ढूंढ लेते हैं। सर्व साधन संपन्न होने के बाद, सफलता के कदम चूमने के बाद, गर्दिश के दिनों का ऐसा तड़का लगाकर मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करते हैं कि पढ़ने वाले की आँखें भर आती हैं, वह मन में सोचता है, काश मेरे जीवन में भी ऐसा संघर्ष होता। अगर मेरे भी ऐसे ही गर्दिश के दिन होते, तो मैं भी आज एक महान व्यक्ति होता। मेरा जीवन कोरा कागज, कोरा ही रह गया।

गर्दिश के दिनों में दोस्तों और दुश्मनों दोनों को याद किया जाता है। जो पात्र आज नहीं हैं, उनके बारे में अतिशयोक्ति से भी काम चलाया जा सकता है। किसने आपका मुसीबत में साथ दिया और कौन मुंह फेरकर निकल गया, हिसाब चूकता किया जा सकता है। तीक्ष्ण बुद्धि, अच्छी याददाश्त और थोड़ी कल्पनाशीलता का पुट गर्दिश के दिनों को और अधिक आकर्षित बना सकता है।।

बेहतर तो यह हो, कि कुछ महान चिंतक, विचारकों और साहित्यकारों के गर्दिश के दिनों का अध्ययन किया जाए, उन पर चिंतन मनन किया जाए, अपनी गर्दिशों में रोचकता ढूंढी जाए, उसके बाद ही गर्दिश के दिनों पर कुछ लिखा जाए। हर महान व्यक्ति अपने गर्दिश के दिन नहीं भूलता। अगर भूल जाए, तो वह महान बन ही नहीं सकता।

लोकप्रिय कथा मासिक सारिका में कुछ वरिष्ठ साहित्यकारों के गर्दिश के दिनों की एक धारावाहिक श्रृंखला प्रकाशित हुई थी, स्वयं कमलेश्वर जी की पुस्तक “गर्दिश के दिन” तीन खंडों में प्रकाशित हुई है। परसाई जी के अनुसार गर्दिश उनकी नियति है। कुछ ऐसे ही भाव इस गीत के भी हैं ;

रहा गर्दिशों में हरदम

मेरे इश्क का सितारा।

कभी डगमगाई कश्ती

कभी खो गया किनारा।।

अगर आप एक महान व्यक्ति बन चुके हैं, अथवा बनना चाहते हैं, तो सबसे पहले अपने जीवन में गर्दिश के दिनों को तलाशें, उन्हें तराशें, धो पोंछकर साफ करें और करीने से दुनिया के सामने पेश करें। अगर आपके जीवन में गर्दिश के दिन नहीं, तो आप इंसान नहीं। ऐसा आदमी क्या खाक महान बनेगा। पड़े रहिए गर्दिश के दिनों की तलाश में। क्योंकि गर्दिश के दिनों के बाद ही इंसान के जीवन में अच्छे दिन आते हैं। गर्दिश के दिन भुला ना देना।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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