हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #205 ☆ कहानी – सबक ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक सार्थक कहानी ‘सबक’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 205 ☆
☆ कहानी – सबक

 

चमनलाल को इस शहर में रहते बारह साल हो गये। बारह साल पहले इस शहर में ट्रांसफर पर आये थे। दो साल किराये के मकान में रहने के बाद इस कॉलोनी में फ्लैट खरीद लिया। देर करने पर मुश्किल हो सकती थी। दस साल यहाँ रहते रहते कॉलोनी में रस-बस गये थे। कॉलोनी के लोगों से परिचय हो गया था और आते-जाते नमस्कार होने लगा था। अवसर-काज पर वह आमंत्रित भी होने लगे थे। उनकी पत्नी कॉलोनी की महिलाओं की गोष्ठियों में शामिल होने लगीं थीं।

फिर भी इन संबंधों की एक सीमा हमेशा महसूस होती थी। लगता था कोई कच्ची दीवार है जो ज़्यादा दबाव पड़ते ही दरक जाएगी या भरभरा जाएगी। आधी रात को कोई मुसीबत खड़ी हो जाए तो पड़ोसी को आवाज़ देने में संकोच लगता था। सौभाग्य से बेटी शहर में ही थी, इसलिए जी अकुलाने पर चमनलाल उसे बुला लेते थे।

चमनलाल को बार-बार याद आता है कि बचपन में उनके गाँव में ऐसी स्थिति नहीं थी। मुसीबत पड़ने पर अजनबी को भी पुकारा जा सकता था। ज्यादा मेहमान घर में आ जाएँ तो अड़ोस पड़ोस से खटिया मंगायी जा सकती थी और रोटी ठोकने के लिए दूसरे घरों से बहुएँ- बेटियाँ भी आ जाती थीं। अब गाँव में भी टेंट हाउस खुल गये हैं और समाज से संबंध बनाये रखने की ज़रूरत ख़त्म हो गयी है।

तब गाँव में मट्ठा बेचा नहीं जाता था। घर में दही बिलोने की आवाज़ गूँजते ही हाथों में चपियाँ लिए लड़के लड़कियों की कतार दरवाजे के सामने लग जाती थी। उन्हें लौटाने की बात कोई सोचता भी नहीं था।

शहरों में टेलीफोन के बढ़ते चलन ने मिलने-जुलने की ज़रूरत को कम कर दिया है। पड़ोसी से भी टेलीफोन पर ही बात होती है। जिन लोगों की सूरत अच्छी न लगती हो उनसे टेलीफोन की मदद से बचा जा सकता है। अब अगली गली में रहने वालों से सालों मुलाकात नहीं होती। बिना काम के कोई किसी से क्यों मिले और किसलिए मिले?

इसीलिए चमनलाल का भी कहीं आना-जाना कम ही होता है। शाम को कॉलोनी के आसपास की सड़कों पर टहल लेते हैं। लेकिन उस दिन उन्हें एक कार्यक्रम के लिए तैयार होना पड़ा। उनके दफ्तर का साथी दिवाकर पीछे पड़ गया था। मानस भवन में राजस्थान के कलाकारों का संगीत कार्यक्रम था। उसी के लिए खींच रहा था। बोला, ‘तुम बिलकुल घरघुस्सू हो गये हो। राजस्थानी कलाकारों का कार्यक्रम बहुत अच्छा होता है। मज़ा आ जाएगा। साढ़े छः बजे तक मेरे घर आ जाओ। पौने सात तक हॉल में पहुँच जाएँगे।’ चमनलाल भी राजस्थानी संगीत के कायल थे, इसलिए राज़ी हो गए।

करीब सवा छः बजे चमनलाल तैयार हो गये। बाहर निकलने को ही थे कि दरवाजे़ की घंटी बजी। देखा तो सामने कॉलोनी के वर्मा जी थे। उनके साथ कोई अपरिचित सज्जन।
वर्मा जी से आते जाते नमस्कार होती थी, लेकिन घर आना जाना कम ही होता था। चमनलाल उनके इस वक्त आने से असमंजस में पड़े। झूठा उत्साह दिखा कर बोले, ‘आइए, आइए।’

दोनों लोग ड्राइंग रूम में सोफे पर बैठ गये। चमनलाल वर्मा जी के चेहरे को पढ़कर समझने की कोशिश कर रहे थे कि यह भेंट किस लिए और कितनी देर की है।

वर्मा जी जल्दी में नहीं दिखते थे। उन्होंने कॉलोनी में से बेलगाम दौड़ते वाहनों का किस्सा छेड़ दिया। फिर वे कॉलोनी में दिन दहाड़े होती चोरियों पर आ गये। इस बीच चमनलाल उनके आने के उद्देश्य को पकड़ने की कोशिश में लगे थे। घड़ी की सुई साढ़े छः के करीब पहुंच गयी।

बात करते-करते वर्मा जी ने सोफे पर आगे की तरफ फैल कर टाँग पर टाँग रख ली और सिर पीछे टिका लिया। इससे ज़ाहिर हुआ कि वे कतई जल्दी में नहीं थे। उनका साथी उँगलियाँ मरोड़ता चुप बैठा था।

चमनलाल का धैर्य चुकने लगा। वर्मा जी मतलब की बात पर नहीं आ रहे थे। घड़ी की सुई साढ़े छः से आगे खिसक गयी थी। वे अचानक खड़े होकर वर्मा जी से बोले, ‘माफ कीजिए, मैं एक फोन करके आता हूँ। दरअसल मेरे एक साथी इन्तज़ार कर रहे हैं। उनके साथ कहीं जाना था। बता दूँ कि थोड़ी देर में पहुँच जाऊँगा।’

वर्मा जी का चेहरा कुछ बिगड़ गया। खड़े होकर बोले, ‘नहीं, नहीं, आप जाइए। कोई खास काम नहीं है। दरअसल ये मेरे दोस्त हैं। इन्होंने चौराहे पर दवा की दूकान खोली है। चाहते हैं कि कॉलोनी के लोग इन्हें सेवा का मौका दें। जिन लोगों को रेगुलरली दवाएँ लगती हैं उन्हें लिस्ट देने पर घर पर दवाएँ पहुँचा सकते हैं। दस परसेंट की छूट देंगे।’

उनके दोस्त ने दाँत दिखा कर हाथ जोड़े। ज़ाहिर था कि वे कंपीटीशन के मारे हुए थे। चमनलाल बोले, ‘बड़ी अच्छी बात है। मैं दूकान पर आकर आपसे मिलूँगा।’

वर्मा जी दोस्त के साथ चले गये, लेकिन उनके माथे पर आये बल से साफ लग रहा था कि चमनलाल का इस तरह उन्हें विदा कर देना उन्हें अच्छा नहीं लगा था, खासकर उनके दोस्त की उपस्थिति में।

दूसरे दिन चमनलाल को भी महसूस हुआ कि वर्मा जी को अचानक विदा कर देना ठीक नहीं हुआ। शहर के रिश्ते बड़े नाज़ुक होते हैं, ज़रा सी चूक होते ही मुरझा जाते हैं। चमनलाल की शंका को बल भी मिला। दो एक बार वर्मा जी के मकान के सामने से गुज़रते उन्हें लगा कि वे उन्हें देखकर पीठ दे जाते हैं, या अन्दर चले जाते हैं। उन्होंने समझ लिया कि इस दरार को भरना ज़रूरी है, अन्यथा यह और भी चौड़ी हो जाएगी।

दो दिन बाद वे शाम करीब छः बजे वर्मा जी के दरवाजे़ पहुँच गये। घंटी बजायी तो वर्मा जी ने ही दरवाज़ा खोला। उस वक्त वे घर की पोशाक यानी कुर्ते पायजामे में थे। चमनलाल को देखकर पहले उनके माथे पर बल पड़े, फिर झूठी मुस्कान ओढ़ कर बोले, ‘आइए, आइए।’

चमनलाल सोफे पर बैठ गये, बोले, ‘उस दिन आप आये लेकिन ठीक से बात नहीं हो सकी। मुझे सात बजे से पहले एक कार्यक्रम में पहुँचना था। मैंने सोचा अब आपसे बैठकर बात कर ली जाए।’

वर्मा जी कुछ उखड़े उखड़े थे। उनकी बात का जवाब देने के बजाय वे इधर-उधर देखकर ‘हूँ’, ‘हाँ’ कर रहे थे। दो मिनट बाद वे उठकर खड़े हो गये, बोले, ‘एक मिनट में आया।’

चमनलाल उनका इन्तज़ार करते बैठे रहे। पाँच मिनट बाद वे शर्ट पैंट पहन कर और बाल सँवार कर आ गये। हाथ जोड़कर बोले, ‘अभी मुझे थोड़ा एक जगह पहुँचना है। माफ करेंगे। बाद में कभी आयें तो बात हो जाएगी।’

चमनलाल के सामने उठने के सिवा कोई चारा नहीं था। घर लौटने के बाद थोड़ी देर में वे टहलने के लिए निकले। टहलते हुए वर्मा जी के घर के सामने से निकले तो देखा वे कुर्ते पायजामे में अपने कुत्ते को सड़क पर टहला रहे थे। चमनलाल को देखकर उन्होंने मुँह फेर लिया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – बुत का दर्द ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – बुत का दर्द )

☆ लघुकथा – बुत का दर्द ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

बुत बना। बुत का कोई अंग टूटा। हिंसा हुई। ख़ूब ख़ून बहा। ख़ून देख बुत बहुत रोया, पर उसका रोना किसी ने नहीं देखा। उसका टूटा अंग जोड़ा गया। कुछ लोग आए। बुत के सामने हाथ जोड़े, बुत के चरणों में सिर झुकाया और मुस्कुराए। उनकी मक्कार मुस्कान देख बुत का ख़ून खौल उठा। उसने चाहा इन सबका सिर तोड़ दे, पर वह इन्सान नहीं बुत था; मर्यादा नहीं लाँघ सकता था।

अब वह पुलिस के जवानों की क़ैद में था।

वह चिल्लाता, “मुझे इस क़ैद से रिहा करो। मुझे यहाँ से हटाओ।” पर उसका चिल्लाना किसी ने नहीं सुना। लोग अब एक नए बुत की तैयारी में लगे थे।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ उल्टी गंगा ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “उल्टी गंगा”.)

☆ लघुकथा – उल्टी गंगा ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

अपने घर में हुई चोरी की रिपोर्ट दर्ज कराने जब एक चोर थाने पहुंचा तो हेड मुकर्रिर चौंका – ‘चोर के घर में चोरी–अजीब इत्तेफाक है यह.’

‘यह इत्तफाक नहीं है हुजूर, बकायदा घर में लगी ग्रिल काटकर, चोरी हो गई है और सारा चोरी का सामान चोरी चला गया है.’

अब हैड मुकर्रिर पशोपेश में पड़ गया – चोर के घर चोरी — ऊपर से सीना जोरी. खुद तो मरेगा मुझे भी मरवाएगा साला — हमेशा तोड़ता रहा दूसरों का ताला, यह तो बड़ा है गड़बड़झाला. अब क्या चोर की चोरी की रिपोर्ट भी मुझे दर्ज करनी पड़ेगी. 

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© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 124 ☆ लघुकथा – दुख में सुख ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘दुख में सुख’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 124 ☆

☆ लघुकथा – दुख में सुख ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

गर्मी की छुट्टियों में मायके गयी तो देखा कि माँ थोड़ी ही देर पहले कही बात भूल रही है। अलमारी की चाभी और रुपए पैसे रखकर भूलना तो आम बात हो गयी। कई बार वह खुद ही झुंझलाकर कह उठती— ‘पता नहीं क्या हो गया है ? कुछ याद ही नहीं रहता- कहाँ- क्या रख दिया ?’ झुकी पीठ के साथ वह दिन भर काम में लगी रहती। सुबह की एक चाय ही बस आराम से पीना चाहती। उसके बाद घर के कामों का जो सिलसिला शुरू होता वह रात ग्यारह बजे तक चलता रहता। रात में सोती तो बिस्तर पर लेटते ही झुकी पीठ में टीस उठती।

माँ की पीठ अब पहले से भी अधिक झुक गयी थी पर बेटियों के मायके आने पर वह सब कुछ भूलकर और तेजी से काम में जुट जाती। उसे चिंता रहती कि मायके से अच्छी यादें लेकर ही जाएं बेटियां। माहौल खुशनुमा बनाने के लिए वह हँसती-गुनगुनाती, नाती-नातिन के साथ खेलती, खिलखिलाती…?

गर्मी की रात, थकी-हारी माँ नाती – पोतों से घिरी छत पर लेटी है। इलाहाबाद की गर्मी, हवा का नाम नहीं। वह बच्चों से जोर-जोर से बुलवा रही है- ‘चिडिया, कौआ, तोता सब उड़ो, उड़ो, उड़ो, हवा चलो, चलो, चलो,’ बच्चे चिल्ला- चिल्लाकर बोलने लगे, उनके लिए यह अच्छा खेल था।

माँ उनींदे स्वर में बोली – ‘बेटी, जब से थोड़ा भूलने लगी हूँ, मन बड़ा शांत है। किसी की तीखी बात थोड़ी देर असर करती है फिर किसने क्या ताना मारा……. कुछ याद नहीं। हम औरतों के लिए बहुत जरूरी है यह।’ ठंडी हवा चलने लगी थी। माँ कब सो गयी पता ही नहीं चला। चाँदनी उसके चेहरे पर पसर गयी।

माँ ने दु:ख में भी सुख ढूंढ़ लिया था।

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मित्रता ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – मित्रता ??

जब मैं आर्थिक अभावों से जूझ रहा था, वह चुपचाप कुछ नोट मेरे बटुए में रख रहा था।…जब मैं रास्तों की भुलभुलैया पर किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा था, वह मेरे लिए सही राह चुनने की जुगत कर रहा था।…जब दुनियावी मसलों से मेरा माथा फटा जा रहा था, वह मेरे सिर पर ठंडा तेल लगा रहा था।…मेरे चारों ओर जब ‘स्वार्थ’ लिखा जा रहा था, हर लिखे के आगे वह ‘नि’ उपसर्ग लगा रहा था।

….और आज मैं उससे कह रहा हूँ, ‘मित्रता दिवस की औपचारिक शुभकामनाएँ!’

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 166 – प्रेम प्याली – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक सर्वधर्म समभाव का संदेश देती एक सार्थक लघुकथा प्रेम प्याली”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 166 ☆

☆ लघुकथा – प्रेम प्याली

बहुत ही प्यारा सा नाम “प्याली” । परंतु केवल नाम ही काफी नहीं होता, वह कौन है, कहां से आई, माता पिता कौन है? किस बिरादरी की है उसे कौन से भगवान की पूजा करनी चाहिए? सारे सवालों को लेकर आज वह फिर पेड़ के नीचे बैठी अपने आप को अकेला महसूस कर रही थी।

कैसे जानूँ? किससे पूछूं? यही सोच रही थी, कि सामने से पुतला दहन करने के लिए बीस पच्चीस नौजवान युवक तेज रफ्तार से सड़क से निकल कर जा रहे थे।

प्याली का घर यूँ कह लीजिए सड़क के किनारे एक पन्नी लगी टूटा फूटा कच्चा मिट्टी का ईट दिखाई देता दीवारों से घिरा एक कमरा। जिसमें प्याली में अपना बचपन देखा पालन-पोषण करने के हिसाब से उसने सिर्फ अपनी जिसे सभी वहाँ पर दादी कहते थे। उसी के साथ रहती थी।

आज प्याली बड़ी हो चुकी थी दादी से हर बार सवाल करती… “दादी अब तो बता दो मैं कौन हूं? मेरा बचपन, मेरी पहचान और मेरा धर्म क्या है?”

वह पास में ही सिलाई का काम सीखती थी। स्कूल का तो सिर्फ नाम सुना था पढ़ने लिखने की बात तो कोसों दूर थी।

अचानक जोर से हल्ला-गुल्ला गुल्ला मचने लगा। चौक पर पुलिस की गाड़ी सायरन बजाती आने लगी पुतला दहन करने वाले तितर-बितर हो यहाँ वहाँ छुपने लगे।

एक बहुत ही खूबसूरत सा नौजवान युवक शायद चोट ज्यादा लगी थी। वह दौड़ कर जान बचाने प्याली की टूटी-फूटी झोपड़ी में घुस गया। थोड़ी देर बाद भीड़ शांत हो चुकी थी। पुलिस तहकीकात करती नौजवान युवकों को पकड़ – पकड़ कर ले जाने लगी। आँखों ने जाने क्या इशारा किया प्याली समझ नहीं सकी पर एक इंसानियत ममता, दया, बस वह बाहर खड़ी पुलिस वाले से बोली… “यहाँ कोई नहीं है। मैं तो दादी के साथ रहती हूं।” दादी जो अब तक देख रही थी। बाहर अपनी लकड़ी टेकते हुए निकली और बोली… “यह तो प्रेम प्याली की झोपड़ी है। साहब यहाँ जात-पात ऊंच नीच नहीं होता।”

 पुलिस वाले चले गए नौजवान जो छुपा बैठा था दर्द से कराह रहा था।

प्याली ने उसके सामने गरम-गरम चाय का कप और एक ब्रेड का टुकड़ा रख दिया। प्याली देख रही थी उसने कही… “छोड़ क्यों नहीं देते यह सारा लफड़ा, जिंदगी बहुत अनमोल है, खुश होकर जियो।”

नौजवान युवक धीरे से बोला… “यह शरीर और यह जान दोनों तुम्हारा हुआ। क्या? तुम प्रेम प्याली बनना चाहोगी?” दादी ने चश्मा आँखों पर ऊपर चढ़ाते हुए देख कर हंसने लगी.. “क्यों नहीं! “दादी ने बताया” मैं दूसरे धर्म की थी समाज की नहीं थी। इसके पैदा होते ही इसकी माँ ने सदा – सदा के लिए  मुझे छोड़ बेटे को लेकर चली गई थी। अब यह सिर्फ तुम्हारा प्रेम है।  ऊंच-नीच का भेद नहीं सिर्फ तुम दोनों बाकी सब ऊपर वाले की मर्जी पर छोड़ दो।” बरसों बाद उसका अपना बेटा नहीं पर पोता घर लौट आया था। प्याली, दादी के गले झूल गई। प्रेम उठकर दादी के पैरों गिर पड़ा।

🙏 🚩🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लघुकथा # 200 ☆ “फांस” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “फांस)

☆ लघुकथा ☆ “फांस” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

शील, मर्यादा लिए त्रिशा की सगाई हुई। फिर  खूब धूमधाम से स्वराज साथ शादी हुई।

त्रिशा विवाह के दूसरे दिन सुबह 7 बजे सोकर अपने कमरे से बाहर निकली, त्यों ही ड्राइंगरूम में बैठी सास की कड़क आवाज सुनाई दी…

“अब ये देर से सोकर उठने का तरीका नहीं चलेगा।” 

लाड़ प्यार में पली प्रतिभाशाली त्रिशा को जैसे सांप सूंघ गया। उसे लगा पेड़ों की जड़ों में चोट लगने से शाखाएं इसीलिए सूख जातीं हैं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ पति और पुत्र के बीच ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “पति और पुत्र के बीच “.)

☆ लघुकथा – पति और पुत्र के बीच ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

एक पिता अपने पुत्र को बुरी तरह डांट फटकार रहा था – बड़े गैर जवाबदार इंसान हो जी तुम। तुम्हारे कारण मेरा लाखों का धंधा चौपट हो गया। बाजार में मेरी साख धराशायी हो गई अलग से। मुझे तो मुंह दिखाने लायक भी नहीं छोड़ा है तुमने।

उधर पोता तालियां बजाकर आनंद ले रहा था। अपनी मां से बोला – मजा आ गया, दादू ने पापा की आज क्लास ले ली। मुझे भी कितना डांटते हैं पापा। मैं कितना असहाय हो जाता हूं तब। आप भी मेरी कुछ मदद नहीं कर पाती हो।

मां बोली- यह पीढ़ियों का भुगतान है पुत्र, पिता जब चाहे पुत्र को ठोका करें ढोल की नाईं।

उसे तो बस पिता के सामने हमेशा नतमस्तक बने रहना चाहिए बस।

‘नो, नेवर मम्मी, कम से कम मैं तो ऐसा पिता कभी नहीं बनूंगा। हमारे बीच प्यार का रिश्ता होगा। अलगाव की खाई खुदने ही नहीं दी जाएगी।’

उधर मां सोच रही थी – काश ऐसा होता तो औरत को पति और पुत्र के बीच बटकर नहीं रहना पड़ता। उसे जीवन भर दोनों के बीच कठपुतली बनी रहने के लिए बाध्य नहीं होना पड़ता।

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© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – मन ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी दो एक संवेदनशील लघुकथा – मन )

☆ लघुकथा – मन ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

मनोहर को गुज़रे बारह दिन हो गए थे। हर गुज़रे दिन साढ़े तीन साल के पोते नुराज़ ने अपने दादा को याद किया था। उसे बताया गया था कि उसके दादा भगवान जी से मिलने गए हैं। आज नुराज़ ने अपने पिता से कहा, “पापा, दादा जी को भगवान के पास गए बहुत दिन हो गए हैं। वे भगवान जी से अच्छी तरह मिल चुके होंगे। अब तो उन्हें वापस बुला लो।”

“अभी भगवान जी के साथ उनका ख़ूब मन लगा हुआ है, दादा भगवान जी के साथ मस्ती कर रहे हैं, अभी और मस्ती करने दो।”

“दादा जी तो कहते थे कि मेरे बिना कहीं भी उनका मन नहीं लगता। क्या भगवान जी मुझसे भी ज़्यादा अच्छे हैं?”

अब माहौल में सन्नाटा था। एक तरफ़ बिछोह से उत्पन्न गाढ़ी उदासी के साथ दादा के लौट आने की मासूम आश्वस्ति थी, दूसरी तरफ़ बेबस ख़ामोशी में लिपटा रुदन।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 123 ☆ लघुकथा – गणेशचौथ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘गणेशचौथ’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 123 ☆

☆ लघुकथा – गणेशचौथ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

‘आज गणेश चौथ है आप भी व्रत होंगी?’  सासूजी खुद तो व्रत रखती ही थीं आस-पड़ोसवालों से भी पूछती रहतीं –‘ नहीं’ या ‘हाँ’ के उत्तर में  सामने से एक प्रश्न दग जाता – ‘और आपकी बहू?’ ‘उसके लड़का नहीं है ना? हमारे यहाँ लड़के की माँ ही गणेशचौथ का व्रत रखती है। ‘

ना चाहते हुए भी मेरे कानों में आवाज पड़ ही जाती थी। तभी मैंने सुना  आस्था दादी से उलझ रही है – ‘दादी। लड़के के लिए व्रत रखती हैं आप!  लड़की के लिए कौन-सा व्रत होता है?’

‘ऐं — लड़कियों के लिए कोई व्रत रखता है क्या?’- दादी बोलीं

‘पर क्यों नहीं रखता’ – रुआँसी होती आस्था ने पूछा।

‘अरे, हमें का पता। जाकर अपनी मम्मी से पूछो, बहुत पढ़ी-लिखी हैं वही बताएंगी।’

आस्था रोनी सूरत बनाकर मेरे सामने खड़ी थी। आस्था के गाल पर स्नेह भरी हल्की चपत मैं लगाकर बोली – ‘ये पूजा- पाठ  संतान के लिए होती है।’

‘संतान मतलब?’

‘हमारे बच्चे  और क्या।‘

आस्था के चेहरे पर भाव आँख – मिचौली खेल रहे थे। सासूजी पूजा करने बैठीं, तिल के लड्डूओं का भोग  बना था। उन्होंने अपने बेटे रजत को टीका करने के लिए आरती का थाल उठाया ही था कि रजत ने अपनी बेटियों को आगे कर दिया – ‘पहले इन्हें माँ’। तिल की सौंधी महक घर भर में पसर गयी थी।

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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