English Literature – Poetry ☆ Chakravyuh ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi Poetry  “चक्रव्यूह ”We extend our heartiest thanks to the learned author  Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit,  English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

Rainbow hues of sprightly ‘Fishermen’ at job…

Painting: Captain Pravin Raghuwanshi 

 

☆ चक्रव्यूह ☆

 

मेरे इर्द-गिर्द

कुटिलता का चक्रव्यूह

आजीवन खड़ा रहा,

सच और हौसले

की तलवार लिए

मैं द्वार बेधता रहा,

कितने द्वार बाकी

कितने खोल चुका

क्या पता….,

जीतूँगा या

खेत रहूँगा

क्या पता….,

पर इतना

निश्चित है-

जब तक

मेरा श्वास रहेगा

अभिमन्यु मेरे भीतर

वास करेगा..!

 

☆ Chakravyuh☆

 

Life long,

Had the Chakravyuh

–the trap of improbity

around me,

With the sword of truth and guts

I kept chopping it off,

Knoweth not,

How many have I severed

How many more remaining

Who knows

Will I win or

lay the life

But this much is for sure

Till I am breathing,

the Abhimanyu

Will continue to dwell inside me!

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 13 – खुली किताब ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता खुली किताब ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 13 – खुली किताब

 

जब खुली किताब थी मेरी जिंदगी,

तब किसी ने पढ़ी नही, सब जिंदगी के अनचाहे पन्ने ही पढ़ते रहे ||

 

दुनिया मुझे गुनाहगार ठहराती रही,

मेरे लफ्ज़ मेरी बेगुनाही की कहानी चीख़-चीख़ कर कहते रहे ||

 

किसी ने मेरी आवाज सुनी नहीं,

सब मेरी जिंदगी की किताब को रद्दी समझ इधर-उधर पटकते रहे ||

 

आज जब जिंदगी की किताब पूरी हो गयी,

सब लोग आज मेरी जिंदगी के सुनहरे पन्नों के कसीदे पड़ने लगे ||

 

कल तक जो मुझे देखना पसन्द नहीं करते थे,

वे आज मेरी जिंदगी की किताब के पन्ने पलट-पलट कर रोने लगे ||

 

कल तक जो मुझ पर थूकना पसन्द नही करते थे,

वे ही आज मेरी लाश पर सर पटक-पटक कर बेतहाशा रोने लगे ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 43 ☆ स्वार्थ कितना गिराता है ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर  रचना  स्वार्थ कितना गिराता है । श्रीमती कृष्णा जी की लेखनी को  इस अतिसुन्दर रचना के लिए  नमन । 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 42 ☆

☆ स्वार्थ कितना गिराता है ☆

 

मन में जो बस गये

दिल में जो उतर गये

 

इक झलक क्या देखी

अपने ही होश कतर गये

 

है हरजाई वह  बेदर्दी

क्षणिक प्यार को तरस  गये

 

दूरियां कम होंगी सोचा था

पर खाईयों के पल बढ़ गये

 

स्वार्थ कितना गिराता है

सच को मसल आगे बढ़ गये

 

दिल रोया तड़प उठा था

बदल जाने किस बात पर  गये

 

सच खूब कहा है किसी ने

हैं कुछ और  कुछ और दिखा गये

 

मैं गलत थी सच सामने था

प्यार मे  हैं   कुछ और दिखा गये

 

प्यार उनका रहे सलामत

उस राह हम क्यों चले गये

 

लौटते हैं आज हम अपने में

चले थे पर वहीं फिर  आ गये।

 

न भरोसा न विश्वास अब नहीं

अपना काम  साथ बस यही

 

ईश्वर की करामात रही

उसने ही हकीकत दिखाई।

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 50 ☆ पूनम के चाँद  ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “पूनम के चाँद  ”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 50 ☆

पूनम के चाँद  ☆

 

बेपरवाह सी रात

और बेपरवाह सी मैं!

 

क्यों हो गयी हूँ इतनी बेफिक्र?

क्यों नहीं बचा कोई डर,

जबकि एक समय ऐसा भी था जब

ज़हन के हर टुकड़े में

बस घबराहट समाई रहती थी?

ज़रा सी बात पर

अमावस्या होने की आहट भी से

सीना कांप उठता था,

रूह थरथरा उठती थी

और मैं छुप जाती थी

किसी किताब के पीछे?

 

अब तो

न अमावस्या से रूह कांपती है

न पूनम के चाँद को देखकर

खुशी की गंगा बहती है –

अब तो मेरे रग-रग में

यूँ ही ख़ुशी भर उठी है

और बस गए हैं मेरे जिगर में

पूनम के कई चाँद!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ त्रिशंकु ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

आप इस रचना का अंग्रेजी अनुवाद इस लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं >>>> ☆ Trishanku☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

☆ संजय दृष्टि  ☆ त्रिशंकु ☆

स्थितियाँ हैं कि

जीने नहीं देती और

जिजीविषा है कि

मरने देती,

सुनिए महर्षि विश्वामित्र!

अकेला सत्यव्रत

त्रिशंकु नहीं हुआ

इस जगत में..!

 

©  संजय भारद्वाज 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 19 ☆ तुम सा मैं बन जाऊँ ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता  “तुम सा मैं बन जाऊँ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 19 ☆ 

☆ तुम सा मैं बन जाऊँ ☆

हे भास्कर, हे रवि, तुम सा मैं बन जाऊँ,

तुम सा मैं चमक उठूं, हे सूरज तुम सा मैं बन जाऊँ।

 

अंधकार के कितने बादल आये,

नीर की कितनी बारिश हो जाये,

रात की कितनी कलिमा छा जाये,

हे भास्कर, हे रवि, सारे अंधकार सारा नीर थम जाये,

तुम सा मैं चमक उँठू, हे सूरज तुम सा मैं बन जाऊँ।

 

हर दिन चन्द्रमा तारे, काली रात को दोस्त बनाकर सबका मन लुभाते हैं,

रात की कलिमा सब प्रेमियों का दिल लुभाते हैं,

ये रात झूठी हो जाये, सूरज की किरणें छूने की आस लगाये,

तू एक उजाला, तू एक सूरज सारे जगत को रोशन करता,

तू असीम, तू अनन्त, तू आरुष का साथी ।

 

हे भास्कर, हे रवि, तुम सा मैं बन जाऊँ,

तुम सा मैं चमक उँठू, हे सूरज तुम सा मैं बन जाऊँ।

 

©  डॉ निधि जैन, पुणे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #8 ☆ परिंदे ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है।  सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग  स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। आज से हम प्रत्येक सोमवार आपका साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी प्रारम्भ कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण रचना  “परिंदे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #8 ☆ 

☆ परिंदे ☆ 

गर्मी के दिनों में

सुबह सुबह का अखबार

विज्ञापनों की भरमार

पत्नी के हाथ

चाय की चुस्कियां

खबरों की सुर्खियां

मजे ले लेकर पढ़ता हूं

जब पत्नी कहां है –

देखने आगें बढता हूं

वो गॅलरी में

चिड़ियां और उसके बच्चों को

दाने खिलाती रहती है

अलग से कटोरों मेंं

साफ पानी रख

उन्हें पिलाती रहती है

उनके घोंसलों को

साफ करती है

रूई, पैरा उसमें भरती है

अपना कार्य करती है यतन से

बड़े ही जिम्मेदारी, जतन से

मैंने एक दिन पूछा,’ भाग्यवान !

रूत बदलते ही यह उड़ जायेंगे

फिर यहां लौटकर नहीं आयेंगे ?

पत्नी मुझ पर कटाक्ष करते हुए बोली-

जिनको उड़ना था

वो परिंदे उड़ गए

अपने अलग-अलग

घोंसले बना

उससे जुड़ गए

ये परिंदे ही तो अब हमारे हैं

हमारे बुढ़ापे में

सुख दुःख के सहारे हैं

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़)

मो  9425592588

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – ☆राजभाषा दिवस विशेष☆ दोहे ..संदर्भ हिंदी ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  राजभाषा दिवस के अवसर पर आपके अप्रतिम दोहे ..संदर्भ हिंदी। )

  ✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे ..संदर्भ हिंदी  ✍

 

हिंदी भाषा राष्ट्र की, जन मन को स्वीकार।

राजनीति की मंथरा, उगल रही अंधियार ।।

 

जय हिंदी जय हिंद का, गुंजित हो जय नाद।

आवश्यक इसके लिए, न्यायोचित संवाद।।

 

राष्ट्र हमारा एक है, भाषा किंतु अनेक ।

बड़ी बहन हिंदी सुगढ़, सहोदरा प्रत्येक।।

 

जेष्ठा हिंदी वंचिता, देती है धिक्कार ।

आजादी के बाद भी, मिला नहीं अधिकार।।

 

अंग्रेजी का राज है, अंग्रेजी का ताज ।

दौपदि हिंदी चीखती, है धृतराष्ट्र समाज।।

 

हिंदी भाषा प्रेम की, अंतर में सद्भाव।

भाषा बोली का सभी, करती चले निभाव।।

 

हिंदी को अगर मिले, बड़े देश का मान ।

वरना थोथे शब्द है- मेरा देश महान ।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 15 – कबीर पूछ रहे …. ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “कबीर पूछ रहे …..। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 15 – ।। अभिनव गीत ।।

☆ कबीर पूछ रहे ….☆

 

वे लिये हथौड़ा

और छैनी

हम सम्हालते

रहे नसेंनी

 

प्रश्नों से बाहर

क्या आयेंगे

जीवन के सच

को तब पायेंगे

 

ठोंक तीन उँगलियाँ

हथेली पर

भैया जी मींड़

रहे खैनी

 

सपनों सा स्वाद

लिये तरकारी

पकती है रोज-

सुबह, सरकारी

 

गालें अब क्या

कबीर पूछ रहे

साखी फिर सबद

या रमैनी

 

खिड़की पर बैठ

गई फुलवारी

भीतर भड़ास

लिये है क्यारी

 

खिलना, मुरझाना

तो आदत है

फूलों     की

अपनी पुश्तैनी

 

© राघवेन्द्र तिवारी

20-06-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 19 ☆ दोहा सलिला  ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है  दोहा सलिला )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 19 ☆ 

☆ दोहा सलिला ☆ 

नियति रखे क्या; क्या पता, बनें नहीं अवरोध

जो दे देने दें उसे, रहिए आप अबोध

 

माँगे तो आते नहीं , होकर बाध्य विचार

मन को रखिए मुक्त तो, आते पा आधार

 

सोशल माध्यम में रहें, नहीं हमेशा व्यस्त

आते नहीं विचार यदि, आप रहें संत्रस्त

 

एक भूमिका ख़त्म कर, साफ़ कीजिए स्लेट

तभी दूसरी लिख सकें,समय न करता वेट

 

रूचि है लोगों में मगर, प्रोत्साहन दें नित्य

आप करें खुद तो नहीं, मिटे कला के कृत्य

 

विश्व संस्कृति के लगें, मेले हो आनंद

जीवन को हम कला से, समझें गाकर छंद

 

भ्रमर करे गुंजार मिल, करें रश्मि में स्नान

मन में खिलते सुमन शत, सलिल प्रवाहित भान

 

हैं विराट हम अनुभूति से, हुए ईश में लीन

अचल रहें सुन सकेंगे, प्रभु की चुप रह बीन

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२०-४-२०२०

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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