हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ एकाकी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ एकाकी 

 

नीरव अंधेरे में

दिखतेे हैं साये,

अकेलापन,

आदमी को

भूत-प्रेत कर देता है..!

 

©  संजय भारद्वाज

(13 जून 16, रात्रि 11:41)

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ मुकरी – गिरगिट चीनी पर कड़वी मुकरियां ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी” जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  की  एक  समसामयिक रचना मुकरी – गिरगिट चीनी पर कड़वी मुकरियां। 

 

। इस अतिसुन्दर रचना के लिए आदरणीया श्रीमती हेमलता जी की लेखनी को नमन। )

 ☆  मुकरी – गिरगिट चीनी पर कड़वी मुकरियां  ☆ 

 

बरसों ठगुआ साथ बिताए

छोट-छोट आँखें मिचकाए

बोली बोले कैसी मिनमीन

हे सखि– साजन?

ना सखि– चीन!

 

माटीमिला भेंट लै आवै

दोइ-दोइ दे अरु एक गिनावै

जगत भरोस मुआ जीत लीन

हे सखि– साजन?

ना सखि – – चीन!

 

घूम घूम करे प्रिय बतियाँ

गले लगा छींके असगुनियाँ

घर घर कीट कीट करि दीन

हे सखि— साजन?

ना सखि— चीन!

 

भोली सुरत बनावै ठिगुना

कहे मीत बिन भाए कछु ना

लबरा बहुत बजाई बीन

हे सखि– साजन?

ना सखि— चीन!

 

बातन में ना उसके आउं

अबके हाथ उसे जो पाऊं

लेऊं मुखौटो उसको छीन

हे सखि— साजन?

ना सखि—चीन!

 

एक पग बैरी बढन ना  दूँ

देहरी पार अब करन न दूँ

विनती लाख करे बन दीन

हे सखि– साजन?

ना सखि– चीन!

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर महाराष्ट्र 440010

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 34 ☆ नवगीत – भीगिए, गाइए आज गाना ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक सकारात्मक एवं भावप्रवण नवगीत  “भीगिए, गाइए आज गाना.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 34 ☆

☆ नवगीत  – भीगिए, गाइए आज गाना ☆ 

 

फिर हुआ

आज मौसम सुहाना

आ गया बारिशों का जमाना

भीगिए

गाइए आज गाना

 

गा रही हैं फुहारें

छतों पर

दर्द लिख दीजिए

सब खतों पर

 

बचपने में चले जाइएगा

बूँदों से है

रिश्ता पुराना

 

युग-यगों से

प्रतीक्षा रही है

मीत!अब आस

पूरी हुई है

 

प्रेयसी आ गई

आज मिलने

बात मन की

उसे अब बताना

 

जागिए

अब निकलिए घरों से

उड़ चलें आज

मन के परों से

 

छेड़ दी रागिनी

पंछियों ने

देखिए

पंख का फड़फड़ाना

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 54 – होती पूर्ण कहाँ कविता है ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता  होती पूर्ण कहाँ कविता है। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 54 ☆

☆  होती पूर्ण कहाँ कविता है ☆  

 

होती पूर्ण कहाँ कब कविता

जितने शब्द भरें हम इसमें

फिर भी घट रीता का रीता।

 

धरती लिखा, किंतु

कब इस पर किया गौर है

शुरू कहां से हुई

आखिरी कहां छोर है,

किसने नापा है

हाथों में लेकर फीता।।

 

जब आकाश लिखा,

सोचा ये भी अनन्त है

सूर्य-चांद, तारे ग्रह

फैले, दिग्दिगन्त है,

स्वर्ग-नर्क के तर्कों में

क्या विश्वसनीयता।।

 

लिखा भूख, तो

रोज पेट खाली का खाली

प्यासा मन कब भरी

एषणाओं की प्याली,

अनगिन व्याप्त

वासनाओं से कौन है जीता।।

 

अलग-अलग हिस्सों में

बंटी हुई, कविताएं

जैसे बंटा आदमी

ले, छिटपुट चिंताएं

पढ़ा, सुना है, पूर्ण

एक वह सृष्टि रचियता।।

 

होती पूर्ण कहां कब कविता

जितने शब्द भरें हम इसमें

फिर भी घट रीता का रीता।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ संवाद ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ संवाद 

उधार लिए

कुछ अक्षर मैंने,

उसने जुटाए

यहाँ-वहाँ से,

शब्दों का ढांचा

खड़ा हो पाता,

वाक्य का

ताना-बाना बुन पाता,

उससे पहले

उसकी आँख से

टपकी खारी बूँद

और मेरी पलकों की

कोरों का भीगा अहसास

सब कुछ कह गया,

निःशब्द सेतु है

अब हमारे बीच,

संवाद जिस पर

चहलकदमी कर रहा है!

 

©  संजय भारद्वाज

17.6.2013

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ बूढ़ी माई ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार

डॉ प्रतिभा मुदलियार

(डॉ प्रतिभा मुदलियार जी का अध्यापन के क्षेत्र में 25 वर्षों का अनुभव है । वर्तमान में प्रो एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय। पूर्व में  हांकुक युनिर्वसिटी ऑफ फोरन स्टडिज, साउथ कोरिया में वर्ष 2005 से 2008 तक अतिथि हिंदी प्रोफेसर के रूप में कार्यरत। कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत।  इसके पूर्व कि मुझसे कुछ छूट जाए आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया डॉ प्रतिभा मुदलियार जी की साहित्यिक यात्रा की जानकारी के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें –

जीवन परिचय – डॉ प्रतिभा मुदलियार

आज प्रस्तुत है डॉ प्रतिभा जी की एक भावप्रवण कविता  बूढ़ी माई।  कृपया आत्मसात करें । )

☆ बूढ़ी माई ☆

वो जो बूढ़ी माई

बैठी है उस पार पटरी के

जोह रही

घर ले जानेवाली

रेल की राह है।

जिये जा रही थी

भीड़ में अकेली

अपनों में पराये सी,

इन्सानों में जानवरों सी।

आरामतलब घर में

जब नहीं जला पायी नेह की बाती

तब उठाएं तन को

कदमों पर अपने

निकल पड़ी

उस घर की ओर

जिसका नहीं कोई ठांव और ठोर।

गठरी में थे उसके

रोटी के दो चार टुकडे सूखे

और कुछ कपड़े  फटे पुराने

पल्लू के कोने में बांधी थी

कोई पुड़िया कागज़ की

जिसपे लिखा था

धुंधला सा नाम कोई

जिस पढ़ा  न जा सके कभी।

पूछा जब उसे जाना कहाँ है

बोली वह मुस्कुराकर

जाती घर मैं अपने

जो है मीलों दूर यहाँ से

गाडी का है मुझे इंतजार

ले जाएगी जो उस पार।

मेरा है लाल उधर

और एक घर सुंदर

नहीं रास आया यह शहर

अब मैं चली अपने घर।

नहीं निकला था शब्द भी

कोई अस्पष्ट

उसके भरोसे पर

मेरा मौन ही था उत्तर।

और उठे थे मेरे भीतर

प्रश्न कई सारे।

क्यों काट देते हैं

जड़ें अपनों की

और रोप देते हैं

मिट्टी में परायों की …

क्यों खुदगर्ज हैं इतने

कि मतलब निकलते ही

छोड़ देते हैं बेसहारा

सडकों पर,

क्यों नहीं थाम लेते हैं

कांपते हाथ

कि ला सकें एक

निखालिस मुस्कान अधरों पर

कि थम जाए थके कदम

अपनी ही

दहलीज के भीतर।

उसकी आँखों में नहीं था

कोई डर या आतंक

तैर रहा था

उसकी गहरी आँखों में

खुले आसमान के नीचे

खुली सांस लेने का

परमानंद।।

 

©  डॉ प्रतिभा मुदलियार

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी अध्ययन विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय, मानसगंगोत्री, मैसूर 570006

दूरभाषः कार्यालय 0821-419619 निवास- 0821- 2415498, मोबाईल- 09844119370, ईमेल:    [email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 5 – हकीकत में एक पत्थर हूँ ☆ – श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी  अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता हकीकत में एक पत्थर हूँ . 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 5 –हकीकत में एक पत्थर हूँ ☆

 

मैं अभागा पत्थर पहाड़ों से गिरता पड़ता तलहटी पर आ कर रुक गया,

यहां पहुंचने तक मेरे अनगिनत टुकड़े हो गए,

खुद की दुर्दशा देख खून के आंसू रोता,

तभी कुछ लोगों की नजर मुझ पर पड़ी, पास आकर मुझे देखने लगे ||

 

मैं हतप्रत रह गया लोग मुझे भगवान की स्वयंभू प्रतिमा बताने लगे,

भगवान के नाम का जयकारा लगने लगा,

चारों तरफ लोगों का हुजूम इकट्ठा होने लगा,

लोग मुझे पानी से नहला मंत्रोचारण के साथ माला प्रसादचढ़ाने लगे ||

 

चमत्कारी मूर्ति समझ मेरे दर्शन को लोग दूर-दूर से आने लगे,

तिलक सिंदूर से मेरी पूजा करने लगे,

कुछ लोग नारियल बांध मन्नत मांगने लगे,

कुछ दिनों बाद लोग वापिस आकर नारियल-धागा खोलने लगे ||

 

मन्नत पूरी होने की ख़ुशी में लोग यहां आकर सवामणि करने लगे,

कुछ समझ नहीं आ रहा लोग ये सब क्या करने लगे,

जिस्म का दूसरा टुकड़ा अपनी दुर्दशा पर रो रहा,

रोज नारियल की चोट खाता, लोग उसी पर नारियल फोड़ने लगे ||

 

मुझे बोलता तू तो अब भगवान हो गया, मेरा तो उद्दार कर दे,

क्या करूं भला? मैं खुद हिल नहीं पाता बूत बने खड़ा हूँ,

मैं कुछ नहीं करता, ना जाने कैसे लोगों की मन्नत पूरी होती है,

जिस दिन टूट जाऊँगा, लोग मुझे उठा फेकेंगे फिर में वापिस तेरे जैसा हो जाऊंगा ||

 

लोगों का हुजूम बढ़ता गया  हमेशा भीड़ रहने लगी,

लोगों को भले अन्धविश्वास में, कुछ तो खुशियां मिलने लगी,

लोग मुझे रोज नई पोशाक पहनाते और प्रसाद चढ़ाते,

लोगों की नजर में भगवान हूँ, हकीकत में पत्थर हूँ पत्थर था  पत्थर ही रहूंगा ||

 

प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ पूर्णिमा का चाँद  ☆ सुश्री सरिता त्रिपाठी

सुश्री सरिता त्रिपाठी  

( युवा साहित्यकार सुश्री सरिता त्रिपाठी जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप  CSIR-CDRI  में एक शोधार्थी के रूप में कार्यरत हैं। विज्ञान में अब तक 23 शोधपत्र अंतरराष्ट्रीय जर्नल में सहलेखक के रूप में प्रकाशित हुए हैं। वैज्ञानिक एवं तकनीकी क्षेत्र में कार्यरत होने के बावजूद आपकी हिंदी साहित्य में विशेष रूचि है । आज प्रस्तुत है आपकी  भावप्रवण कविता “पूर्णिमा का चाँद”। )

आज जन्मदिवस के अवसर पर आपको हार्दिक शुभकामनाएं !

☆ पूर्णिमा का चाँद ☆  

 

निकले जो रात को टहलने

चाँदनी का वो दीदार हुआ

निकला तो था वो आज पूरा

पूर्णिमा का चाँद जो था

 

रोशनी की तमन्ना में नयन

टकटकी जो लगाए बैठे थे

देखने को वो चाँद पूरा

फुर्सत से आ बैठे थे

 

देखते देखते घिर गया था वो

बादलों के उस चादर से

अपने मोबाइल में हमने भी

उसे कैद कर लिये थे

 

सिमट रहा था वो अब

बादलों के आगोश में

उसकी इस बेबसी पे

हम बेचैन हो रहे थे

 

© सरिता त्रिपाठी

लखनऊ, उत्तर प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 42 ☆ ग़ज़ल ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  “ग़ज़ल  ”।  यह कविता आपकी पुस्तक एक शमां हरदम जलती है  से उद्धृत है। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 42 ☆

☆ ग़ज़ल  ☆

 

प्यासी रूह को मुकम्मल करे ऐसा मुनफ़रिद सुराग है यह

यूं फूंककर हवाओं से न बुझाओ कि जलता चराग है यह

 

कांपते दिल को दे जो सुकून, तड़पते लबों को आराम

समझो तो कुछ भी नहीं, समझो तो दहकती आग है यह!

 

वैसे भी बुझाए कहाँ बुझे हैं मोहब्बत के जलते शोले?

धधकती हुई लौ दिल में छुपाये सुलगता अलाव है यह!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ अजातशत्रु ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ अजातशत्रु 

आँखों में आँखें डालकर

धमकी भरे स्वर में

उसने पूछा,

तुमसे मिलने आ जाऊँ?

उसकी बिखरी लटें समेटते

दुलार से मैंने कहा,

अपने चाहनेवाले से

इस तरह कभी

पेश आता है भला कोई?

जाने क्या असर हुआ

शब्दों की अमरता का,

वह छिटक कर दूर हो गई,

मेरी नश्वरता

प्रतीक्षा करती रही,

उधर मुझ पर रीझी मृत्यु

मेरे लिए जीवन की

दुआ करती रही..!

 

©  संजय भारद्वाज

(9.48 बजे, 14 जून 2019)

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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