हिन्दी साहित्य – कविता ☆ हिंदी माह विशेष – हिंदी के मुक्तक ☆ प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

☆ हिंदी माह विशेष – हिंदी के मुक्तक ☆ प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे ☆

(1)

हिंदी नित आगे बढ़े, यही आज अरमान।

हिंदी का उत्थान हो, यही फले वरदान।

हिंदी की महिमा अतुल, जाने सारा विश्व,

हिंदी का गुणगान हो, हिंदी का यशगान।।

(2)

हिंदी का अभिषेक हो, जो देती उजियार।

हिंदी का विस्तार हो, जो हरती अँधियार।

हिंदी तो सम्पन्न है, मंगल का है भाव,

हिंदी को पूजे सदा, अब सारा संसार।।

(3)

हिंदी तो शुभ नेग, हिंदी तीरथधाम।

फलदायी हिंदी सदा, लिए विविध आयाम।

हिंदी तो अनुराग है, हिंदी है संकल्प,

हिंदी को मानें सभी, यूँ ही सुबहोशाम।।

(4)

हिंदी में तो शान है, हिंदी में है आन।

हिंदी में क्षमता भरी, हिंदी में है मान।

हिंदी की फैले चमक, यही आज हो ताव,

हिंदी पाकर उच्चता, लाए नवल विहान।।

(5)

हिंदी में है नम्रता, किंचित नहीं अभाव।

नवल ताज़गी संग ले, बढ़ता सतत प्रभाव।

दूजी भाषा है नहीं, हिंदी तो अनमोल,

कितना नेहिल है ‘शरद’, इसका मधुर स्वभाव।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे 

शासकीय जेएमसी महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661
(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 76 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – पञ्चदशोऽध्यायः अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है पञ्चदशोऽध्यायः अध्याय

पुस्तक इस फ्लिपकार्ट लिंक पर उपलब्ध है =>> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 76 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – पञ्चदशोऽध्यायः अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा श्रीकृष्ण कृपा से दोहों में किया गया है। पुस्तक भी प्रकाशित हो गई है। आज आप पढ़िए पन्द्रहवां अध्याय। आनन्द उठाइए। ??

– डॉ राकेश चक्र 

पुरुषोत्तम योग

श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को पुरुषोत्तम योग के बारे में ज्ञान दिया।

 

श्रीभगवान ने कहा-

 

है शाश्वत अश्वत्थ तरु, जड़ें दिखें नभ ओर।

शाखाएँ नीचें दिखें, पतवन करें विभोर।। 1

जो जाने इस वृक्ष को, समझे वेद-पुराण।

जग चौबीसी तत्व में,बँटा हुआ प्रिय जान।। 1

 

शाखाएँ चहुँओर  हैं, प्रकृति गुणों से पोष।

विषय टहनियाँ इन्द्रियाँ,जड़ें सकर्मी कोष।। 2

 

आदि, अंत आधार को, नहीं जानते लोग।

वैसे ही अश्वत्थ है, वेद सिखाए योग।। 3

 

मूल दृढ़ी इस वृक्ष की, काटे शस्त्र विरक्ति।

जाए ईश्वर शरण में,पाकर मेरी भक्ति।। 4

 

मोह, प्रतिष्ठा मान से, जो है मानव मुक्त।।

हानि-लाभ में सम रहे, ईश भजन से युक्त।। 5

 

परमधाम मम श्रेष्ठ है, स्वयं प्रकाशित होय।

भक्ति पंथ जिसको मिला,जनम-मरण कब होय।। 6

 

मेरे शाश्वत अंश हैं, सकल जगत के जीव।

मन-इन्द्रिय से लड़ रहे, माया यही अतीव।। 7

 

जो देहात्मन बुद्धि को, ले जाता सँग जीव।

जैसे वायु सुगंध की, उड़ती चले अतीव।। 8

 

आत्म-चेतना विमल है, करलें प्रभु का ध्यान।

जो जैसी करनी करें, भोगें जन्म जहान।। 9

 

ज्ञानचक्षु सब देखते, मन ज्ञानी की बात।

अज्ञानी माया ग्रसित, भाग रहा दिन-रात।। 10

 

भक्ति अटल हो ह्रदय से, हो आत्म में लीन।

ज्ञान चक्षु सब देखते, तन हो स्वच्छ नवीन।। 11

 

सूर्य-तेज सब हर रहा, सकल जगत अँधियार।

मैं ही सृष्टा सभी का, शशि-पावक सब सार।। 12

 

मेरे सारे लोक हैं, देता सबको शक्ति।

शशि बनकर मैं रस भरूँ, फूल-फलों अनुरक्ति।। 13

 

पाचन-पावक जीव में, भरूँ प्राण में श्वास।

अन्न पचाता मैं स्वयं, छोड़ रहा प्रश्वास।। 14

चार प्रकारी अन्न है, कहें एक को पेय।

एक दबाते दाँत से, जो चाटें अवलेह्य।। 14

एक चोष्य है चूसते, मुख में लेकर स्वाद।

वैश्वानर मैं अग्नि हूँ, सबका मैं हूँ आदि।। 14

 

सब जीवों के ह्रदय में, देता स्मृति- ज्ञान।

विस्मृति भी देते हमीं, हम ही वेद महान।।15

 

दो प्रकार के जीव

दो प्रकार के जीव हैं,अच्युत-च्युत हैं नाम।

क्षर कहते हैं च्युत को, ये है जगत सकाम।। 16

क्षर अध्यात्मी जगत में, अक्षर ये हो जाय।

जनम-मरण से छूटता, सुख अमृत ही पाय।। 16

 

क्षर-अक्षर से है अलग, ईश्वर कृपानिधान।

तीन लोक में वास कर, पालक परम् महान।। 17

 

क्षर-अक्षर के हूँ परे, मैं हूँ सबसे श्रेष्ठ।

वेद कहें परमा पुरुष, तीन लोक कुलश्रेष्ठ।। 18

 

जो जन संशय त्यागकर, करते मुझसे प्रीत।

करता हूँ कल्याण मैं, चलें भक्ति की रीत।। 19

 

गुप्त अंश यह वेद का, अर्जुन था ये सार।

जो जानें इस ज्ञान को, होयँ जगत से पार।। 20

 

इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” पुरुषोत्तम योग ” पन्द्रहवां अध्याय समाप्त।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 3 (61-65)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #3 (61-65) ॥ ☆

 

आघात उसका विकट झेल छाती पै रघु गिरे नीचे औं आँसू भी सबके

पर झट व्यथा भूल, ले धनुष, लडने लगे सुनके जयकार फिर सँभल तनके। 61।

 

वज्राहत रघु के पराक्रम औं साहस से होके प्रभावित लगे इंद्र हँसने

सच है सदा सद्गुणों में ही होती है ताकत सदा सभी को वश में करने ॥ 62॥

 

कहा इंद्र ने इस बली वज्र से बस सहा पर्वतों के सिवा सिर्फ तुमने

मै हूँ तुम से खुश रघु अब इस अश्व को छोड़ वरदेने का सोचा है हमने ॥ 63॥

 

तब स्वर्ण रंजित चले बाण कतिपय से भासित सी दिखती थी जिसकी ऊँगलियाँ

उस रघु को बाणों को रख बात करते खिली पुष्प सी इंद्र के मन की कलियाँ। 64।

 

यदि अश्व यह आप देते नहीं है, तो यह दें – ‘‘ पिता यज्ञ का पुण्य पायें

इस सौवें अश्वमेघ के पूर्ण फल से पिता जी मेरे लाभ पूरा उठायें ॥ 65॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #99 – जब से मेडल गले में पहनाया… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा रात  का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण कविता  “जब से मेडल गले में पहनाया…” । )

☆  तन्मय साहित्य  # 99 ☆

☆ जब से मेडल गले में पहनाया… ☆

वो बात साफ साफ कहता है   

जैसे नदिया का नीर बहता है।

 

अड़चनें राह में आये जितनी

मुस्कुराते हुए वो सहता है।

 

अपने दुख दर्द यूँ सहजता से

हर किसी से नहीं वो कहता है।

 

हर समय सोच के समन्दर में

डूबकर खुद में मगन रहता है।

 

बसन्त में बसन्त सा रहता

पतझड़ों में भी सदा महका है।

 

इतनी गहराईयों में रहकर भी

पारदर्शी सहज सतह सा है।

 

शीत से काँपती हवाओं में

जेठ सा रैन-दिवस दहता है।

 

जब से मैडल गले में पहनाया

उसी पल से वो शख्स बहका है।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 50 ☆ लड़खड़ाते कदम ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

(श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे।आज प्रस्तुत है इस कड़ी  की अंतिम भावप्रवण कविता ‘लड़खड़ाते कदम। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 50 ☆

☆ लड़खड़ाते कदम

 

थम भी जाते कदम,

अगर कोई मुझे पुकार लेता,

रुक भी जाते बढ़ते कदम,

अगर कोई आकर हाथ थाम लेता ||

 

बढ़ते गए कदम धीरे-धीरे,

सोचा कोई तो मुझे थाम लेगा,

डगमगा रहे थे कदम,

सोचा अब कोई तो आवाज देगा ||

 

गिर पड़ा लड़खड़ाते कदम से,

लगा उठा लेगा कोई मुझे आकर,

किसी ने पलट कर भी ना देखा,

खून से लथपथ कदम मजबूर हो खुद खड़े हो गए ||

 

लड़खड़ाते कदम चलने को मजबूर थे,

ना किसी ने रोका ना किसी ने आंसू बहाये,

ड़गमगाते कदमों को खुद रोकना चाहा,

कदम रुकने के बजाय मजबूर होकर आगे बढ़ते गए || 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 3 (56-60)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #3 (51-55) ॥ ☆

 

औं दूसरे से सुरेन्द्र – रथ – ध्वजा को जो थी वज्रचिन्हित को भी काट डाला

तब देवलक्ष्मी के काटे गये केश सा कुपित इंद्र खुद को लड़ने सम्हाला ॥ 56॥

 

दोनों ही अपनी विजय कामना से लगे करने संग्राम भारी भयावह

इंद्र और रघु के उड़नशील सर्पो से बाणों से भयभीत साथी थे रहरह ॥ 57॥

 

अपनी सुयोजित संबल बाण वर्षा से भी इन्द्र रघु को न कर पाये फीका

जैसे स्वतः से ही अद्भुत विद्युत को बादल कभी भी न कर पाते फीका ॥ 58॥

 

तब रघु ने अपने एक अर्द्धचन्द्र श्शर से, देवेन्द्र के धनु की काटी प्रत्यंचा

जो कपिल चंदन लगे हाथ से मथे जाते उदधि की सी करता गरजना ॥ 59॥

 

हो इंद्र क्रोधित अलग फेंक धनु को उठा वज्र पर्वत के पर जिसने छांटे –

बिखरती रही थी प्रभा जिससे भारी बड़े वेग से चलाया रघु के आगे ॥ 60॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ प्रार्थना… ☆ सौ. प्रतिभा पद्माकर जगदाळे

सौ. प्रतिभा पद्माकर जगदाळे

अल्प – परिचय 

नाव: सौ. प्रतिभा पद्माकर जगदाळे

शिक्षण : बी. कॉम., एम. ए. (अर्थशास्त्र आणि मराठी)

प्रकाशित पुस्तके :

(१) भावनांच्या हिंदोळ्यावर (ललितगद्य) (२) अनुबंध (ललितगद्य ) (३) मिश्किली ( विनोदी लेखसंग्रह )  (४) चंदनवृक्ष ( चरित्रलेखन ) (५) भावतरंग ( काव्यसंग्रह )

? कवितेचा उत्सव ?

☆ प्रार्थना… ☆ सौ. प्रतिभा पद्माकर जगदाळे ☆ 

(वृत्त – प्रियलोचना)

चौदा विद्या चौसष्ठ कला, साऱ्यांचा तू अधिपती

शोध मूळ तू या विघ्नाचे निवार संकट गणपती

 

लेझीम ढोल ताशा वाजे खेळ चालले मुलांचे

किती नाचले सारे पुढती बंधन नव्हते कुणाचे

फिरूनी पुन्हा यावे दिन ते नाचू तुझिया संगती

शोध मूळ तू या विघ्नाचे, निवार संकट गणपती

 

अश्रू झाले मूक अंतरी उरी वेदना दाटली

आर्त हाक ती कशी गणेशा तू नाही रे ऐकली

विश्वासाने विनायका जन दुःख तुला रे सांगती

शोध मूळ तू या विघ्नाचे निवार संकट गणपती

 

कसा करावा मुळारंभ अन्, कैसे ग म भ न लिहावे

दिवस लोटले वर्ष संपले दोस्तास कसे पहावे

अजाणते वय भाबडी मने मनात उत्तर शोधती

शोध मूळ तू या विघ्नाचे  निवार संकट गणपती

 

अंधाराचे मळभ जाऊन, श्वास करावा मोकळा

तुझे आगमन शुभ व्हावे तो किरण दिसावा कोवळा

एकजुटीने जल्लोषाने तुझी करावी आरती

शोध मूळ तू या विघ्नाचे निवार संकट गणपती

 

चौदा विद्या चौसष्ठ कला साऱ्यांचा तू अधिपती

शोध मूळ तू या विघ्नाचे निवार संकट गणपती

 

© सौ. प्रतिभा पद्माकर जगदाळे

सांगली

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 88 ☆ ख़ुशी से रिश्ता ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “ख़ुशी से रिश्ता । )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 88 ☆

☆ ख़ुशी से रिश्ता ☆

बारिश हो रही थी, गुनगुना रही थी बहार 

बहकती हवाओं में था हसीं सा ख़ुमार 

उसने मुझे भी अपनी आगोश में ले लिया

और मेरे दिल को बेपरवाही से भर दिया

रिमझिम में भीगती हुई रक्स करने लगी

तितलियों की चाल में मैं मस्त चलने लगी…

कभी किसी कली को मुस्कुराकर चूमती,

कभी किसी टहनी का हाथ पकड़कर झूमती, 

कभी हंसती, कभी खिलखिलाती

तेज होती बारिश तो उसकी धार पकड़ झूल जाती

चलती तो यूं लगता हिरनी सी है मेरी चाल…

हाँ, हो गयी थी मैं बिलकुल ही बेखयाल…

 

बादल तो बादल था, थोड़ी देर में उड़ गया

पर ख़ुशी के साथ मेरा एक नया रिश्ता जुड़ गया

 

अब जब भी तनहाई की हलचल सुन लेती हूँ

मैं एक बार फिर से उस ख़ुशी से गले मिल लेती हूँ

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे – 6 – हिंदी दिवस विशेष – व्यंग्य – चेतावनी !☆ श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे – 6 ☆ हेमन्त बावनकर

☆ हिंदी दिवस विशेष – व्यंग्य – चेतावनी ! ☆

 

आइये

हम सब मिलकर

हिंदी का प्रचार-प्रसार करें

 

पर ठहरिये!

शुरुआत  मैं करुंगा

अपने कार्यालय की दीवार पर

अंग्रेजी की चेतावनी

"Use of English is injurious to the health of this office"

हिंदी में लगाकर

 अंग्रेजी का प्रयोग इस कार्यालय के स्वास्थ्य के लिये हानिप्रद है”

ताकि

मैं  तसल्ली से

‘अंग्रेजी’ 

पढ़ सकूँ,

लिख सकूँ और बोल सकूँ।

 

© हेमन्त बावनकर,

पुणे 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 3 (51-55)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #3 (51-55) ॥ ☆

 

सुन इंद्र की बात रक्षक रघु ने तो निर्भीक होकर कहा इंद्र से यह

अगर बात ये है, तो मुझसे विजय बिन न पाओगे घोड़ा समरहित सजग रह। 51।

 

यह कह सुरेश्वर की ही ओर मुख कर धर धनुष पै बाण उसने चढाये

औं चण्ड श्शंकर की सी भंगिमा कर, तनकर  कई बाण उसने चलाये ॥ 52॥

 

बिंध बाण से, क्रोधवश इन्द्र ने तब प्रलयंकर महामेघ सा रूप धारे

धनुष पर अजेय बाण संधान करके, रघु पर विजय हित लगातार मारे ॥ 53॥

 

उस बाण ने रक्त जिसने पिया था, सदा राक्षसों का नही मानवों का

रघु वक्ष में धँस लगा रक्त पीने, बडे चाव से, महासायकों सा ॥ 54॥

 

कार्तिकेय से पराक्रमी वीर रघु ने, इन्द्रास्त्र से विद्ध होके व्यथित हो

मारा स्वशर इन्द्र को छेद उसकी, श्शची तिलक अंकि बड़ी सी भुजा को ॥ 55।

 

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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