हिंदी साहित्य – कविता ☆कविता ❤ बड़ी ठंड है ! ❤ ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।)

☆ कविता 🤦‍♀️बड़ी ठंड है ! डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी 

किसकी हिम्मत कहे कि मुझको

                                लगता भीषण जाड़ा।

सुन सुन कर सरदी में मेरी

                               चढ़ता जाता पारा।

सुबह हुई है, और हाथ में

                               गरम चाय की प्याली।

बक बक करते थमा गई वो

                               बुढ़िया ‘मेरी वाली’।

पी रहा हूँ ओढ़ के कम्बल

                               लिहाफ ही मिल जाता।

कौन हाथ से किसे सँभालूँ

                               इसे कौन समझाता ?

मफलर एक बँधा कानो पर

                               पवन नहीं घुस पाये,

जब खेत को चुग गई चिड़िया

                               मनवा क्यों पछताये ?

छीं छीं कहीं शुरू हो जाए

                                छींक, नाक से पानी,

कहीं उठा पटके बुड्ढे को

                              करे क्यों पहलवानी ?

परसों रात हवा थी सन सन

                              मैं तो कोट पहन कर

काँप काँप कर पहुँच गया था

                              जब लिहाफ के अन्दर,

आग बबूला होकर बुढ़िया

                              लगी सुनाने ताने,

ऐसे कौन बेड पर आता?

                              लगे बहुत सठियाने ?

गरम रजाई के अन्दर भी

                              कोट पहन कर सोना ?’

करके गुस्सा हाय मुझे फिर 

                             आता है जी रोना।’

                       ♦♦♦

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी

नया पता: द्वारा, डा. अलोक कुमार मुखर्जी, 104/93, विजय पथ, मानसरोवर। जयपुर। राजस्थान। 302020

मो: 9455168359, 9140214489

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 117 ☆ भजन – “प्रभु हैं तेरे पास में…१…” ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित भजन – “प्रभु हैं तेरे पास में…”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 117 ☆ 

☆ भजन – प्रभु हैं तेरे पास में…१ ☆

*

कहाँ खोजता मूरख प्राणी?, प्रभु हैं तेरे पास में…

*

तन तो धोता रोज न करता, मन को क्यों तू साफ रे!

जो तेरा अपराधी है, उसको कर दे हँस माफ़ रे..

प्रभु को देख दोस्त-दुश्मन में, तम में और प्रकाश में.

कहाँ खोजता मूरख प्राणी?, प्रभु हैं तेरे पास में…

*

चित्र-गुप्त प्रभु सदा चित्त में, गुप्त झलक नित देख ले.

आँख मूँदकर कर्मों की गति, मन-दर्पण में लेख ले..

आया तो जाने से पहले, प्रभु को सुमिर प्रवास में.

कहाँ खोजता मूरख प्राणी?, प्रभु हैं तेरे पास में…

*

मंदिर-मस्जिद, काशी-काबा मिथ्या माया-जाल है.

वह घट-घट कण-कणवासी है, बीज फूल-फल डाल है..

हर्ष-दर्द उसका प्रसाद, कडुवाहट-मधुर मिठास में.

कहाँ खोजता मूरख प्राणी?, प्रभु हैं तेरे पास में…

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आत्मानंद साहित्य #149 ☆ कविता – महात्मा गांधी ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 149 ☆

☆ ‌कविता – महात्मा गांधी ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

सत्य अहिंसा  उनके मन में, उनका नाम  महात्मा गांधी।

 अंग्रेजों की  चूल हिल गई, जब आई  वैचारिक आंधी  ।

असहयोग आंदोलन के जनक बने,  लाठी डंडे खाए।

सही यातना की पीड़ा, फिर भी कभी न पछताए ।।1।।

 

दुबला पतला शरीर था उनका, थे आतम बल के न्यारे।

 वाणी में  आकर्षण के चलते, जनता के बीच हुए प्यारे।

 दांडी आंदोलन के बल पर, सत्याग्रह अभियान चलाया।

 विदेशी कपड़ों की जला के होली, गली गली में नाम कमाया।।2।।

 

हर दिल में वैचारिक क्रांति का, गांधी ने उद्घघोष किया।

रामराज्य का सपना देखा, दुखियों  के दुख  अंत किया।

गांवों के विकास का सपना, उनकी आंखों ने देखा था।

और गुलामी से मुक्ति को, संघर्ष का नारा चोखा था।।3।।

 

राष्ट्र पिता की छवि बनी,  भारत को आजाद कराए।

औ खादी आंदोलन कर के, जन जन  के तन पर वस्त्र सजाए।

दो अक्टूबर को हम सब मिलकर, गांधी जयंती मनाते हैं।

 कभी न भूले शास्त्री जी को, उनको भी शीष झुकाते हैं।।4।।

 

आज के दिन ही भारत मां नें, जन्माए दो लाल थे।

सत्य, अहिंसा, और इमान के, दोनों बने मिसाल थे

दोनों ने अपनी कुर्बानी दे, अपने वतन का मान बढ़ाया।

अपनी हिम्मत अपने ताकत से, उसका शीष झुकाया।।5।।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #166 – 52 – “आंखों में जन्नत के ख़्वाब जवाँ रहते हैं…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “आंखों में जन्नत के ख़्वाब जवाँ रहते हैं…”)

? ग़ज़ल # 52 – “आंखों में जन्नत के ख़्वाब जवाँ रहते हैं…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

कुछ लोग तो सत्तर में भी जवां रहते हैं,

अपनी मस्ती में हर वक़्त रवां रहते हैं।

जिनको दो वक़्त की रोटी नसीब नहीं है,

आंखों में जन्नत के ख़्वाब जवाँ रहते हैं।

देखना धोखे में उनके कहीं आ न जाना तुम,

वो जो मासूम से लोग आस्तीनों में रहते हैं।

किसी पे कोई भरोसा ज़रा  नहीं करता यहाँ,

यह कैसा समय है जिसमें हम लोग रहते हैं।

किसी से पूछना ज़रूरी तो नहीं है कुछ भी,

दिल के हालात  ‘आतिश’ में अयाँ रहते हैं।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीष साधना🌻

आज का साधना मंत्र  – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – समय  ??

सारे मार्ग खुले थे,

दोनों साथ चले थे,

मैं बार-बार थमता रहा,

वह अबाध चलता रहा,

देखते-देखते ओझल हो गया,

अरे…!

समय हाथ से निकल गया..!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 43 ☆ मुक्तक ।। नारी तुझको अबला नहीं, सबला बन कर जीना है ।।☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।। नारी तुझको अबला नहीं, सबला बन कर जीना है ।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 43 ☆

☆ मुक्तक  ☆ ।। नारी तुझको अबला नहीं, सबला बन कर जीना है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

मोमबत्ती नहीं हर हाथ, में मशाल चाहिए।

नम नहीं आंखें अब, यह   लाल चाहिए।।

नारी के प्रति श्रद्धा, जब होने लगे कम।

कबतक यूं हीअब, हल यह सवाल चाहिए।।

[2]

नर पिशाच नहीं ये, नर नारायण का देश है।

बदल रहा क्यों  यह, जहरीला परिवेश है।।

नारी प्रति भेदभाव विद्वेष, कब तक चलेगा।

नारी शक्ति देवी पूज्य, यही पुरातन संदेश है।।

[3]

नारी सृष्टि रचनाकार, विधि विधान उसी से है।

मातृ भूमि धरा का भी,  सम्मान उसी से है।।

विधाता का रूप  स्वरूप, समाया हर स्त्री में।

मानवता की सेवा  और, गुणगान उसी से है।।

[4]

बच्चों को प्रारंभ से, साहस संस्कार देना चाहिए।

उनको उचित ज्ञान और, सरोकार देना चाहिए।।

बेटियों को बेटों सा,  ही  हमें सशक्त बनाना है।

जबअस्मिता पेआंच, हाथ में तलवार देना चाहिए।।

5

नारी तुमकोअबला नहीं, सबला बनके  जीना है।

तुझसे ही घर परिवार, सुंदर  रूप नगीना है।।

स्त्री सम्मान ही धुरी, अपने समाज कल्याण की।

बन जा रणचंडी नहीं घूंट, अपमान का पीना है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 109 ☆ ग़ज़ल – “जमाने की हवा से अब…”☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक ग़ज़ल – “जमाने की हवा से अब…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #109 ☆  ग़ज़ल  – “जमाने की हवा से अब…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

नये युग की धमक है अब धुंधलके से उजाले तक

नया सा दिखता है अब सब बाजारों से शिवाले तक।

 

पुराने घर, पुराने सब लोग, उनकी पुरानी बातें

बदल गई सारी दुनियां ज्यों सुराही से प्याले तक।

 

जमाने की हवा से अब अछूता कुछ नहीं दिखता

झलक दिखती नये रिश्तों की पति-पत्नी से साले तक।

 

चली हैं जो नयी फैशन दिखावों औ’ मुखोटों की,

लगे दिखने हैं अब चेहरे तो गोरे रंग से काले तक।

 

ली व्यवहारों ने जो करवट बाजारू सारी दुनिया में

किसी को डर नहीं लगता कहीं करते घोटाले तक।

 

निडर हो स्वार्थ अपने साधना, अब आम प्रचलन है

दिये जाने लगे हैं झूठे मनमाने हवाले तक।

 

मिलावट हो रही हर माल में भारी धड़ाके से

बाजारों में नही मिलते कहीं असली मसाले तक।

 

फरक आया है ऐसा सबकी तासीरों में बढ़चढ़कर

नहीं देते है गरमाहट कि अब ऊनी दुशाले तक।

 

बताने, बोलते, रहने, पहिनने के सलीकों में

नयापन है बहुत खानों में, स्वदों में निवाले तक।

 

खनक पैसों की इतनी बढ़ गई अब बिक रहा पानी

नहीं तरजीह देते फर्ज को कोई कामवाले तक।

 

गिरावट आचरण की, हुई तरक्की हुई दिखावट की

’विदग्ध’ मुश्किल से मिलते है, कोई सिद्धान्त वाले अब।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चादर ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीष साधना🌻

आज का साधना मंत्र  – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि –  चादर ??

लिखनेवाले की चादर

अनुभूति समझ लेती है,

कम-से कम शब्दों में

अभिव्यक्त हो लेती है..!

© संजय भारद्वाज 

(कवितासंग्रह- मैं नहीं लिखता कविता)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #159 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से \प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है “भावना के दोहे।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 159 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

गघरी ली है हाथ में,थककर बैठी छाँव।

गहरी सोच में डूबती,पिया नहीं है गाँव।।

🌴

राह प्रिय की देख रही,गुमसुम बैठी सोच।

कब आओगे सजन तुम,दिल में आई मोच।।

🤔

मिलने प्रिय को आ गई,घर में नहीं है ठाँव।

कब आओगे प्रिये तुम,थमते नहीं है पाँव।।

🌹

पानी भरकर बैठती,चेहरा है उदास।

दिल में उसके हो रही,बस प्रिय की है आस।।

💐

चिंता मन में हो रही,आ जाओ प्रिय पास।

दिल से दिल की दूरियां,जगती मन में खास।।

🌹

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #145 ☆ गरीबी पर दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  “गरीबी पर दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 145 ☆

☆ गरीबी पर दोहे ☆ श्री संतोष नेमा ☆

होती धन की हीनता, बनते तभी गरीब

समझ सकें क्या दीनता, जब सुख होत करीब

 

धन-दौलत से आँकते, यहाँ गरीबी लोग

दोष सभी दें ईश को, कहें भाग्य का योग

 

कोसें अक्सर समय को, करें न कोई कर्म

भाग्य भरोसे न रहें, निभा कर्म का धर्म

 

अटल इरादे गर रखो, बनो नहीं मजबूर

कर्मों की कर साधना, करो गरीबी दूर

 

धन-दौलत से खुशी का, नहीं कोई संबंध

निर्धन रहता चैन से, उस पर क्या प्रतिबंध

 

जाने कितनी योजना, चला रहीं सरकार

पर गरीबी मिटी नहीं, सब बेबस लाचार

 

महनत कर कर थक गए, संवरा नहीं नसीब

जाने क्या है भाग्य में, सोचे यही गरीब

 

रोज चुनौती मिल रहीं, हो कैसे निर्वाह

मंहगाई के दौर में, निर्धन रहा कराह

 

दीनबन्धु सुध लीजिए, है गरीब लाचार

उनको भी संतोष हो, ऐसा कर उपचार

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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