हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 28 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 28 ??

मेलों का महत्व-

मेले परम्पराओं और रीति-रिवाजों का जतन करते हैं। मेले सांस्कृतिक धरोहर का वहन करते हैं। सदियों से चले आ रहे पर अब लगभग समाप्तप्राय अनेक खेल, तमाशा, मेलों में देखने को मिलते हैं। अनेक लोककलाएँ केवल मेलों के दम पर टिकी हैं।

कभी-कभार जिनसे काम पड़ता हो, ऐसे अनेक शिल्पी, प्रशिक्षित कारीगर यहाँ अपनी कारीगरी की प्रदर्शनी करते हैं। लोग उनके सम्पर्क क्रमांक लेते हैं। इस तरह इन सधे हाथों को व्यापार मिलता है, वाणिज्यिक लेन-देन बढ़ता है, समाज की आर्थिक समृद्धि बढ़ती है। साथ ही समाज में हर प्रतिभा को मंच एवं मान्यता मिलते हैं। कहा जा सकता है कि हर मेला समाज के विभिन्न घटकों के बीच सम्बन्धों को अधिक घनिष्ठ करता है।

हर समाज की अपनी कुछ  सार्वजनिक मान्यताएँ तथा वर्जनाएँ भी होती हैं। कुछ वर्जनाएँ तो अकारण ही समाज में घर किये बैठी होती हैं। समाज जब साथ आता है, एक-दूसरे से प्रत्यक्ष या परोक्ष सहयोग करता है तो व्यवहारिकता की कसौटी पर वर्जनाएँ कसी जाती हैं। फलत: अनेक वर्जनाएँ समाप्त हो जाती हैं। अस्पृश्यता से लेकर भोजन के आदान-प्रदान तक अनेक वर्जनाओं को दुर्बल करने में मेलों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

मराठी में एक कहावत है जिसका अर्थ है कि सारे स्वांग हो सकते हैं पर पैसे का स्वांग संभव नहीं होता। हाथ में पैसा होना समाज की रीढ़ होता है। मेले से होनेवाले आर्थिक लाभ से समुदाय को अपनी रोजी-रोटी जुटाने और टिकाने में सहायता मिलती है।

मनुष्य जंगल में रहा या नागरी जीवन में, मनोरंजन उसे दैहिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रखने का बड़ा कारण रहा है। मेलों के माध्यम से होनेवाला मनोरंजन विशेषकर गाँव और कस्बाई जीवन को नये उत्साह एवं उमंग से भर देता है।

मेला देखने के लिए गाँव से निकला व्यक्ति प्राय:  आसपास के इलाके घूम भी लेता है। इससे पर्यटन और वित्तीय विनिमय को विस्तार मिलता है।

सबसे महत्वपूर्ण है मानव की मानवता का बचा रहना। सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक परंपराओं से जुड़ा होना कहीं न कहीं मनुष्य को अमनुष्य होने से बचाए रखता है। मेला मनुष्य और मनुष्यता के बीच सेतु की भूमिका का निर्वाह करता है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा#72 ☆ गजल – ’’कला और गुण की बहुत कम है कीमत’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “कला और गुण की बहुत कम है कीमत”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 72 ☆ गजल – ’’कला और गुण की बहुत कम है कीमत’’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

जो देखा औ’ समझा, सुना और जाना

किसे कहें अपना औ’ किसको बेगाना।

यहाँ कोई दिखता नहीं है किसी का

अधिकतर है धन का ही साथी जमाना।

कला और गुण की बहुत कम है कीमत

जगत ने है धन को ही भगवान माना।

धनी में ही दिखते है गुण योग्यतायें

सहज है उन्हें सब जगह मान पाना।

गरीबों की दुनियाँ  में हैं विवशताएँ

अलग उनके जीवन का है ताना-बाना।

उन्हें जरूरत तक को पैसे नहीं हैं

धनी खोजते खर्च का कोई बहाना।

है जनतंत्र में कुछ नये मूल्य विकसे

बड़ा वह जिसे आता बातें बनाना।

सदाचार दुबका है चेहरा छुपायें

दुराचार ने सीखा फोटो छपाना।

विजय काँटों को हर जगह मिल रही है

सही न्याय युग गया हो अब पुराना।

सही क्या, गलत क्या ये कहना कठिन है

न जाने कहाँ जा रहा है जमाना।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 14 (6-10)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #14 (6 – 10) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -14

 

माताओं ने स्नेह से तब कह- ‘‘अस्वीकार’’।

बेटी तेरे पुण्य ही राम विजय-आधार।।6।।

 

तब रघुकुल मणि राम का हुआ राज्य-अभिषेक।

तीर्थसलिल प्रेमाश्रु से कर के पावन षेक।।7।।

 

पावन सागर-सर-नदी से लाकर जल पूत।

बरसाये श्रीराम पर सुग्रीव विभीषण दूत।।8।।

 

राम जो तापस वेश में भी थे सुधर ललाम।

राजवेश में वे हुये दुगने शोभाधाम।।9।।

 

राम अयोध्या में गये कुल परम्परानुसार।

जहाँ वाद्य सह गीत थे और मंगलाचार।।10अ।।

 

बरसाई जा रही थी खील, थी भीड़ अपार।

द्वार-द्वार पर थे सजे सुन्दर वन्दनवार।।10ब।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 122 ☆ कविता – स्त्री क्या है ? ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  आपकी एक भावप्रवण कविता स्त्री क्या है ?। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 122– साहित्य निकुंज ☆

☆ कविता – स्त्री क्या है ? ☆

क्या तुम बता सकते हो

एक स्त्री का एकांत

स्त्री

जो है बेचैन

नहीं है उसे चैन

स्वयं की जमीन

तलाशती एक स्त्री

क्या तुम जानते हो

स्त्री का प्रेम

स्त्री का धर्म 

सदियों से

वह स्वयं के बारे में

जानना चाहती है

क्या है तुम्हारी नजर

मन बहुत व्याकुल है

सोचती है

स्त्री को किसी ने नहीं पहचाना 

कभी तुमने

एक स्त्री के मन को है  जाना

पहचाना

कभी तुमने उसे रिश्तो  के उधेड़बुन में

जूझते देखा है..

कभी उसके मन के अंदर झांका है

कभी पढ़ा है

उसके भीतर का अंतर्मन .

उसका दर्पण.

कभी उसके चेहरे को पढ़ा है

चेहरा कहना क्या चाहता है

क्या तुमने कभी महसूस किया है

उसके अंदर निकलते लावा को

क्या तुम जानते हो

एक स्त्री के रिश्ते का समीकरण

क्या बता सकते हो

उसकी स्त्रीत्व की आभा

उसका अस्तित्व

उसका कर्तव्य

क्या जानते हो तुम ?

नहीं जानते तुम कुछ भी..

बस

तुम्हारी दृष्टि में

स्त्री की परिभाषा यही है ..

पुरुष की सेविका ……

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 112 ☆ हर्षित हो गाने लगीं… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  रचना “हर्षित हो गाने लगीं….। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 112 ☆

☆ हर्षित हो गाने लगीं…

भँवरे गुँजन कर रहे, कोयल गाये गीत

मन को मोहक लग रही, देखो सरसों पीत

 

दुल्हन सी लगती धरा, लो आ गया बसंत

ज्ञान सभी को बांटते, सांचे साधू संत

 

कुदरत खूब बिखेरती, नित नवरूप अनूप

हरियाली चहुँ ओर है, खिली खिली सी धूप

 

खग अंबर में नाचते, भँवरे गायें गीत

खूब चहकतीं तितलियाँ, दिखा दिखा कर प्रीत

 

प्रियतम को ज्यूँ मिल गया, अपने मन का मीत

हर्षित हो गाने लगीं, ऋतु बसंत के गीत

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 14 (1-5)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #14 (1 – 5) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -14

 

वहाँ लखा दशरथ तनय ने विपन्न दो मात ।

श्री विहीन जैसे लता आश्रय – तरू – अपघात।।1 ।।

 

लख न सकी मुख सुतों के अश्रु भरे थे नैन ।

किन्तु स्पर्श सुख से मिला उन्हें मिलन का चैन।।2 ।।

 

प्रेम – अश्रु की शीत से शांत हुई दुख पीर ।

हिमगिरि जल से ज्यों गरम गंगा सरयू नीर।।3 ।।

 

सहलाये छू देह को माँ ने सुतों के घाव ।

वीर प्रसू गौरव से था बड़ा स्नेह का भाव।।4 ।।

 

तथा कोसती स्वतः को कह सब दुख का मूल ।

सीता ने आ वंदना की माँ की अनुकूल।।5 ।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 147 ☆ कविता – शायद होता हो हल युद्ध भी कभी कभी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है  आपकी एक समसामयिक विषय पर आधारित कविता  शायद होता हो हल युद्ध भी कभी कभी

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 147 ☆

? कविता – शायद होता हो हल युद्ध भी कभी कभी ?

 

इतिहास है गवाह, होता है हल,

युद्ध भी कभी कभी.

क्योंकि जो बोलता नहीं,

सुनता ही रह जाता है

 

कुछ लोग जो,

मानवता से ज्यादा, मानते हैं धर्म

उन्हें दिखता हो शायद ईसा और मूसा के खून में फर्क

वे बनाना चाहते हैं

कट्टर धर्मांध दुनियां

बस एक ही धर्म की

 

मोहल्ले की सफेद दीवारों पर

रातों – रात उभर आये तल्ख नारे,

देख लगता है,

ये शख्स हमारे बीच भी हैं

 

मैं यह सब अनुभव कर,

हूं छटपटाता हुआ,

उसी पक्षी सा आक्रांत,

जिसे देवदत्त ने

मार गिराया था अपने

तीक्ष्ण बाणों से

 

सिद्धार्थ हो कहां

आओ बचाओ

इस तड़पते विश्व को

जो मिसाइलों

की नोक पर

लगे

परमाणु बमों से भयाक्रांत

है सहमी सी

 

मेरी यह लम्बी कविता,

युद्धोन्मादियों को समझा पाने को,

बहुत छोटी है

काश, होती मेरे पास

प्यार की ऐसी पैट्रियाड मिसाइल,

जो, ध्वस्त कर सकती,

नफरत की स्कड मिसाइलें,

लोगों के दिलों में बनने से पहले ही.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कविता – युद्ध के विरुद्ध ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – कविता – युद्ध के विरुद्ध ??

कल्पना कीजिए,

आपकी निवासी इमारत

के सामने वाले मैदान में,

आसमान से एकाएक

टूटा और फिर फूटा हो

बम का कोई गोला,

भीषण आवाज़ से

फटने की हद तक

दहल गये हों

कान के परदे,

मैदान में खड़ा

बरगद का

विशाल पेड़

अकस्मात

लुप्त हो गया हो

डालियों पर बसे

घरौंदों के साथ,

नथुनों में हवा की जगह

घुस रही हो बारूदी गंध,

काली पड़ चुकी

मटियाली धरती

भय से समा रही हो

अपनी ही कोख में,

एकाध काले ठूँठ

दिख रहे हों अब भी

किसी योद्धा की

ख़ाक हो चुकी लाश की तरह,

अफरा-तफरी का माहौल हो,

घर, संपत्ति, ज़मीन के

सारे झगड़े भूलकर

बेतहाशा भाग रहा हो आदमी

अपने परिवार के साथ

किसी सुरक्षित

शरणस्थली की तलाश में,

आदमी की

फैल चुकी आँखों में

उतर आई हो

अपनी जान और

अपने घर की औरतों की

देह बचाने की चिंता,

बच्चे-बूढ़े, स्त्री-पुरुष

सबके नाम की

एक-एक गोली लिये

अट्टाहस करता विनाश

सामने खड़ा हो,

भविष्य मर चुका हो,

वर्तमान बचाने का

संघर्ष चल रहा हो,

ऐसे समय में

चैनलों पर युद्ध के

विद्रूप दृश्य

देखना बंद कीजिए,

खुद को झिंझोड़िए,

संघर्ष के रक्तहीन

विकल्पों पर

अनुसंधान कीजिए,

स्वयं को पात्र बनाकर

युद्ध की विभीषिका को

समझने-समझाने  का यह

मनोवैज्ञानिक अभ्यास है,

मनुष्यता को बचाये

रखने का यह प्रयास है!

 

©  संजय भारद्वाज

अपराह्न 4:29 बजे, 7 मार्च 2022

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 100 ☆ गीत – हँसता जीवन ही बचपन ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है आपका एक गीत  “हँसता जीवन ही बचपन”.

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 100 ☆

☆ गीत – हँसता जीवन ही बचपन ☆ 

भोला बचपन कोमल मन है

प्यार तुम्हारा सदा अमर है।

मुझको तो बस ऐसा लगता

तू पूरा ही गाँव  – नगर है।।

 

रहें असीमित आशाएँ भी

जो मुझको नवजीवन देतीं।

जीवन का भी अर्थ यही है

मुश्किल में नैया को खेतीं।

 

हँसता जीवन ही बचपन है

दूर सदा पर मन से डर है।

भोला बचपन कोमल मन है

प्यार तुम्हारा सदा अमर है।।

 

पल में रूठा , पल में मनता

घर – आँगन में करे उजारा।

राग, द्वेष, नफरत कब जागे

इससे तो यह तम भी हारा।

 

बचपन तू तो खिला सुमन है

पंछी – सा उड़ता फर – फर है।

भोला बचपन कोमल मन है

प्यार तुम्हारा सदा अमर है।।

 

बचपन का नाती है नाना

खेल करे यह खूब सुहाए।

सदा समर्पित प्यार तुम्हीं पर

तुम ही सबका मिलन कराए।

 

झरने, नदियाँ तुम ही सब हो

जो बहता निर्झर – निर्झर है।

भोला बचपन कोमल मन है

प्यार तुम्हारा सदा अमर है।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #109 – बाल कविता – चूसेगा पप्पू  ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर बाल कविता – “चूसेगा पप्पू।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 109 ☆

☆ बाल कविता – चूसेगा पप्पू ☆ 

कच्चे आम हरेभरे है.

पक्के हैं पीलेपीले।

दस भरे रसीले है

लगते जैसे गीलेगीले ।।

 

इस को मूनिया खाएगी

रस बना, पी आएगी।

चूसेगा पप्पू राजा

पिंकी पी इतराएगी ।।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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