हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 123 ☆ भावना के दोहे  – होली ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  होली पर्व पर विशेष  “भावना के दोहे  – होली। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 123– साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे  – होली  ☆

बरजोरी तुम ना करो, अपनी ले लो राह।

नहीं मिलेगी कान्हा, घर में हमें पनाह।।

 

रंग पिया का लग गया, चढ़ा प्यार का रंग।

रंग बिरंगी हो रही, लगे फड़कने अंग ।।

 

अंतर्मन से जो कहा, सुन ली मन की बात।

होली में मन मिल गए, मिलती है सौगात ।।

 

ढूंढ रहे है सब मुझे, लिए हाथ में रंग।

छिपती छिपती फिर रही, अपने मोहन संग।।

 

अबीर गुलाल संग है, मिला फागुनी प्यार।

मिल बैठे खाएं सभी, मीठी गुझिया चार।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 113 ☆ मत कर चोरी अब नंदलाला… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  रचना “मत कर चोरी अब नंदलाला…। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 113 ☆

☆ मत कर चोरी अब नंदलाला…

मात जसोदा कहें श्याम से, नटखट बृज की बाला

दधि माखन के लाने काहे, तूने डाका डाला

नंदबाबा को नाम बहुत है, देते सबै हवाला

घर में कमी ने कछु बात की, पियो दूध को प्याला

ब्रजवासी सब हँसी उड़ावें, गारी देबे ग्वाला

ललचानो “संतोष” कहत है, श्याम का रँग निराला

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 14 (36-40)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #14 (36 – 40) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -14

हतप्रभ राजा राम ने जो थे बहुत उदास।

बुला दुखी अनुजों को तब की उनसे यों बात।।36।।

 

मुझ पावन सदाचारी से भी रविकुल-सम्मान।

दर्पण सा क्यों हो चला वाष्पवायु से म्लान।।37।।

 

तैल सा जल मैं फैलता जन में मम अपवाद।

मुझे सहन नहीं ज्यों प्रथम बंधन को गजराज।।38।।

 

धोने अपयश सिया का करना होगा त्याग।

पितृाज्ञा से राज्यश्री का ज्यों था परित्याग।।39।।

 

ज्ञात मुझे सीता तो है अति पवित्र निष्पाप।

किन्तु मुझे हैं कोंचता झूठा लोकापवाद।।40।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 148 ☆ कविता – रंगोली ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण कविता रंगोली

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 148 ☆

? कविता – रंगोली ?

त्यौहार पर सत्कार का

इजहार रंगोली

उत्सवी माहौल में,

अभिसार रंगोली

 

खुशियाँ हुलास और,

हाथो का हुनर हैं

मन का हैं प्रतिबिम्ब,

श्रंगार रंगोली

 

धरती पे उतारी है,

आसमां से रोशनी

है आसुरी वृत्ति का,

प्रतिकार रंगोली

 

बहुओ ने बेटियों ने,

हिल मिल है सजाई

रौनक है मुस्कान है,

मंगल है रंगोली

 

पूजा परंपरा प्रार्थना

जयकार लक्ष्मी की

शुभ लाभ की है कामना,

त्यौहार रंगोली

 

संस्कृति का है दर्पण,

सद्भाव की प्रतीक

कण कण उजास है,

संस्कार रंगोली

 

बिन्दु बिन्दु मिल बने,

रेखाओ से चित्र

पुष्पों से कभी रंगों से

अभिव्यक्त रंगोली

 

धरती की ओली में

रंग भरे हैं

चित्रो की भाषा का

संगीत रंगोली

 

अक्षर और शब्दों से,

हमने भी बनाई

गीतो से सजाई,

कविता की  रंगोली

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 101 ☆ गीत – तुझको चलना होगा☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है आपका एक गीत  “तुझको चलना होगा”.

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 101 ☆

☆ गीत – तुझको चलना होगा ☆ 

धीरे – धीरे बढ़ो मुसाफिर

जीवन है अनमोल।

दुख चाहे जितने भी आएं

मुख में मिश्री घोल।।

 

चलना नियति सदा जीवन की

तुझको चलना होगा।

जागो ! उठो दूर है मंजिल

स्थिति सम ढलना होगा।

 

असत और सत बल्लरियों में

देख कहाँ है झोल।।

 

लक्ष्य बनाकर बढ़ना आगे

और स्वयं विश्वास करो।

मृत्यु रही जीवन का गहना

मत रोना कुछ हास करो।

 

पंछीगण को देख निकट से

मन में भरें किलोल।।

 

जो सोया है, उसने खोया

आँख खोल मत डर प्यारे।

अपनी मदद स्वयं जो करते

उस पर ही ईश्वर वारे।

 

परिभाषा जीवन की अद्भुत

सदा तराजू तोल।।

 

संशय , भ्रम में नहीं भटकना

यह जीवन नरक बनाते।

द्वेष – ईर्ष्या वैर भाव भी

सदा अँधेरा यह लाते।

 

सच्चाई की जीत लिखी है

आगे होगा गोल।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 14 (31-35)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #14 (31 – 35) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -14

 

भद्र नाम के गुप्तचर से पूंछी कुशलात।

कहो लोक अवधारणा क्या जन-प्रिय संवाद?।।31।।

 

रहा गुप्तचर मौन पर तनिक सोच के बाद।

बोला स्वामी ठीक है, पर है एक परिवाद।।32अ।।

 

राक्षस गृह आवास भी बाद भी सिय-स्वीकार।

को कहते कुछ नहीं यह मर्यादा अनुसार।।32ब।।

 

तप्त लोह जाता दरक सह धन की ज्यों मार।

त्यों टूटा मन राम का सुन यह वज्र-प्रहार।।33।।

 

क्या है उचित? करूँ मैं क्या? भुला दूँ मैं अपवाद।

या जन-मन का ध्यान रख करूँ मैं पत्नी त्याग?।।34अ।।

 

इस द्विविधा में फँस लगे चिंता करने राम।

झूले की सी गति हुई मन को न था विश्राम।।34ब।।

 

मन के मन्थन बाद भी मिला न कोई उपाय।

पत्नी के परित्याग की ही तब समूझी राह।।35अ।।

 

यशोधनी यश बचाने करते तन का त्याग।

फिर इंद्रिय सुख हेतु क्या? क्यों इंद्रिय-अनुराग।।35ब।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#124 ☆ तो क्यों तुम हैरान हो गए….! ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है होली के मूड में एक अतिसुन्दर रचना  “तो क्यों तुम हैरान हो गए….!”)

☆  तन्मय साहित्य  #124 ☆

☆ तो क्यों तुम हैरान हो गए….! ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

गतिविधियों से धूम मचाई

कस्बे गाँव शहर में तुमने,

हम घर बैठे चर्चाओं में

तो क्यों तुम हैरान हो गए!

 

बेल चुके काफी पहले हम

पापड़,- अब तुम बेल रहे हो

सूद मिल रहा उसका हमको,

तो क्यों तुम हैरान हो गए!

 

विजय जुलूस निकाले तुमने

वोटों की गिनती से पहले

जश्न जीत का मना रहे हम,

तो क्यों तुम हैरान हो गए!

 

राज्यपाल से तुम सम्मानित

आस लगी अब राष्ट्रपति से

ग्रामपंच से हमें मिल गया

तो क्यों तुम हैरान हो गए!

 

होली के पहले से होती

शुरू हरकतें सदा तुम्हारी

हम होली पर जरा हँस लिए,

तो क्यों तुम हैरान हो गए!

 

रंग, भंग के सँग होली में

डूबे तुम हुरियार बने हो

जरा गुलाल लगाया हमने,

तो क्यों तुम हैरान हो गए!

 

वाट्सप इंस्टाग्राम फेसबुक

भरे तुम्हारे कॉपी पेस्ट से

एक पोस्ट हफ्ते में अपनी

तो क्यों तुम हैरान हो गए।

 

दीन दुखी गरीब जनता के

सुख समृद्ध धनी सेवक तुम

भूखों की अगुआई हमने की

तो क्यों हैरान हो गए!

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 18 ☆ कविता – पत्र – बाबू जी के नाम ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है। 

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक कविता  पत्र – बाबू जी के नाम”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 18 ✒️

?  कविता – पत्र – बाबू जी के नाम —  डॉ. सलमा जमाल ?

बाबूजी,

मेरे जनक,

मेरे पिता,

महसूस करती हूं,

तुम्हारी व्यथा ——

 

माँ को दिया,

सम्मान ज़्यादा,

जबकि दोनों

थे बराबर,

सम्मान होना

चाहिए था,

दोनों का आधा-आधा ——

 

अगर माँ ने

गीले से,

सूखे में लिटाया,

तो पिता भी,

परिश्रम करके

बाज़ार से फ़लिया,लंगोट

ख़रीद कर लाया ——

 

माँ ने उंगली

पकड़कर,

उठना, बैठना,

चलना सिखाया,

तो पिता ने भी

कांधे पर बैठाकर

घोड़ा बन टहलाया ——

 

अगर बीमारी में,

रात – रात भर,

माँ ने जागकर

देखभाल की,

तो पिता ने,

दवाई डॉक्टर की

फ़ीस भी तो अदा की ——

 

माँ ने हाथों से,

कौर बना कर

खिलाया तो,

पिता भी पसीना

बहाकर, तपकर,

दो जून की रोटी

कमा कर लाया ——

 

माँ ने साल दो साल,

आँचल से दूध पिलाया,

तो पिता ने,पच्चीस वर्षों तक

हमें पाला – पोसा,

पढ़ाया – लिखाया

हमें युवावस्था

तक पहुंचाया ——

 

हम उन्हें,

एक अच्छे पिता,

ना होने का,

सदैव ही

उलाहना देते थे,

परंतु वो मुस्कुराकर

सदा चुप रहते थे ——

 

वग़ैर शिक़ायत,

वो चले गये,

आज उनके

गुज़रने के बाद,

जब मैंने उनकी ज़िम्मेदारी

उठाई तो हृदय,

क्यों भर आया ? ——

 

अलमारी में केवल

दो जोड़े थे,

जब उनके कपड़े पहने,

तो शरीर सिहर उठा,

कंधे बोझ से झुक गए,

धूप में बढ़ते हुए,

क़दम अचानक रुक गए ——

 

अब समझ में आई

उनकी वेदना,

परिवार के प्रति भावना,

धर्म कानून के सम्मुख

माँ का स्थान ऊंचा था,

माँ का अधिकार

नौ माह  ज़्यादा था ——

 

मैं तो कहती हूँ,

अगर माँ स्वर्ग है,

तो पिता स्वर्ग का द्वार,

अगर माँ देवी तो

पिता देव का अवतार

जो करता है सेवक की भांति

हमारी साज – संवार  ——-

 

पिता की मेहनत

भावनाओं को

हम नहीं सकते नकार

जन्म के सूत्रधार,

मेरे जन्म दाता

पालनहार पिता को

नमन करती हूँ बार-बार ——

 

बाबूजी तुम्हारी कुछ

ख़िदमत कर पाती,

जिसने भी

पिता दिवस बनाया,

उत्कृष्ट कार्य किया है,

उसने पिता को

अन्दर तक जिया है ——

 

जब भी संकट की,

आंधियां चलीं

तुमने वट वृक्ष बन कर

उसके नीचे हमें सहेजा है

नहीं जताया

कौन बेटी है ?

कौन बेटा है ? —–

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 14 (26-30)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #14 (26 – 30) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -14

 

दिन बीते, निखरे नयन, मुख छवि हुई कुछ पीत।

गर्भलक्षिणी सिया प्रति और बढ़ी पति-प्रीति।।26।।

 

तन्वी कृष्ण पयोधरा सीता को ले राम।

लगे पूछने रहसि में इच्छा समित ललाम।।27।।

 

सीता ने तब की प्रकट ऋषि-आश्रम की चाह।

लखने फिर नीवार, मुनि-कन्या, सरित-प्रवाह।।28।।

 

करने इच्छा पूर्ति का आश्वसन दे राम।

लगे निरखने नगर-छवि, साकेत की अभिराम।।29।।

 

मुझे मुदित यह देख सब मार्ग, विपणि, और लोग।

सरयू जल में नहाते स्वस्थ, समृद्ध निरोग।।30।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 25 – सजल – भोर की किरणें खिली हैं… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है दोहाश्रित सजल “भोर की किरणें खिली हैं… । आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 25 – सजल – भोर की किरणें खिली हैं… 

समांत- आरे

पदांत- अपदांत

मात्राभार- 14

 

है तिरंगा फिर निहारे ।

देश की माटी पुकारे।।

 

थाम लें मजबूत हाथों,

मातु के हैं जो दुलारे ।

 

सैकड़ों वर्षों गुलामी,

बहते घाव थे हमारे ।

 

भगत सिंह,सुभाष गांधी,

हैं सभी जनता के प्यारे।

 

स्वराज खातिर जान दी,

हँसते-हँसते हैं सिधारे। १५

 

देश की उल्टी हवा ने,

बाग सारे हैं उजारे।

 

सीमा पर रक्षक डटे हैं,

कर रहे हैं कुछ इशारे।

 

बाँबियों में फिर छिपे हैं

मिल सभी उनको बुहारे।

 

हैं पचहत्तर साल गुजरे,

खुशी से हँसते गुजारे।

 

भोर की किरणें खिली हैं,

रात में चमके सितारे ।

 

निर्माण-की वंशी बजी,

देश को मिल कर सँवारे ।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

02 अगस्त  2021

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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