हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 28 ☆ मुक्तक ।।जनचेतना जीवन की पहली पुकार हो जाये।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका बाल साहित्य में एक भावप्रवण मुक्तक ।।जनचेतना जीवन की पहली पुकार हो जाये।। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 28 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।।जनचेतना जीवन की पहली पुकार हो जाये।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

[1]

मानवता की जीत दानवता  की  हार  हो  जाये।

प्रेम  से   दूर   अपनी   हर  तकरार   हो  जाये।।

महोब्बत    हर    जंग   पर    होती    भारी    है।

यह दुनिया बस इतनी सी समझदार हो जाये।।

[12]

संवेदना बस हर किसी का सरोकार हो जाये।

हर   कोई   प्रेम   का  खरीददार   हो   जाये।।

नफ़रतों  का   मिट   जाये   हर   गर्दो  गुबार।

धरती पर ही स्वर्ग सा यह संसार  हो  जाये।।

[3]

काम हर  किसी  का  परोपकार  हो   जाये।

हर  मदद  को  आदमी  दिलदार हो जाये।।

जुड़ जाये  हर दिल से हर दिल का ही तार।

तूफान खुद  नाव  की  पतवार  हो  जाये।।

[4]

अहम   हर  जिंदगी   में  बस   बेजार  हो  जाये।

धार    भी    हर  गुस्से   की   बेकार   हो  जाये।।

खुशी  खुशी  बाँटे  आदमी  हर  इक खुशी को।

गले से गले लगने को आदमी बेकरार हो जाये।।

[5]

हर   जीवन   से   दूर   हर   विवाद    हो    जाये।

बात घृणा की जीवन में कोई अपवाद हो जाये।।

राष्ट्र   की   स्वाधीनता   हो  प्रथम  ध्येय  हमारा।

देश   हमारा  यूँ   खुशहाल   आबाद  हो   जाये।।

[6]

वतन  की  आन  ही हमारा  किरदार   हो   जाये।

दुश्मन के लिए  जैसे हर बाजू ललकार हो जाये।।

राष्ट्र    की    गरिमा   और   सुरक्षा  हो  सर्वोपरि।

बस इस जनचेतना  का  सबमें संचार हो  जाये।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – खोया-पाया☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

 ? संजय दृष्टि – खोया-पाया ??

बूढ़े जीवन ने

यकायक पूछा-

कभी सोचा

अब तक

क्या खोया

क्या पाया?

अपनी संपन्नता पर

मैं इतराया,

मर्त्यलोक में

क्षरण के मूल्य पर

अक्षय पाता गया

साँसे खोता गया

अनुभव लबालब होता गया,

रीता आया था

सो कुछ नहीं खोया,

सृष्टि संपन्न लौट रहा हूँ

बस, पाया ही पाया!

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 93 ☆ ’’कल्पना का संसार…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता  “कल्पना का संसार…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 93 ☆ “कल्पना का संसार…”  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मनुज मन को हमेशा कल्पना से प्यार होता है

बसा उसके नयन में एक सरस संसार होता है।

 

जिसे वह खुद बनाता है, जिसे वह खुद सजाता है

कि जिसका वास्तविकता से अलग आकार होता है।

 

जहाँ हरयालियाँ होती, जहाँ फुलवारियां होती

जहाँ  रंगीनियों से नित नया अभिसार होता है।

 

जहाँ कलियाँ  उमगतीं है जहाँ पर फूल खिलते हैं

बहारों से जहाँ मौसम सदा गुलजार होता है।

 

जहाँ पर पालतू बिल्ली सी खुशियां लोटती पग पै

जहाँ पर रेशमी किरणों का वन्दनवार होता है।

 

अनोखी होती है दुनियां सभी की कल्पनाओं की

जहाँ संसार पै मन का मधुर अधिकार होता है।

 

जहाँ सब होते भी सच में कहीं कुछ भी नहीं होता

मगर सपनों में बस सुख का सुखद संचार होता है।      

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – असंभव ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

 ? संजय दृष्टि – असंभव ??

उसका समय

आया नहीं

पर चलो

कुछ छल करें,

छिप जाओ तुम;

तुम्हारी एवज में

उसके प्राण हरें,

गलती पकड़ी जाएगी;

तब देखी जाएगी,

तब तक तुम्हारी

जीवन-नैया भी

खेई जाएगी,

मेरे नकार से

तमतमा गया,

क्रोध के साथ

अचरज आ गया,

जीवन भर

सिद्धांतों पर

चलता रहा,

छल को पास

न फटकने दिया,

अब मृत्यु से

रक्षा के लिए

सिद्धांतों से

समझौता

संभव नहीं,

काल !

एक नहीं

अनेक बार

अकाल हरो,

पर जीवन से

छल करूँ;

संभव नहीं..!

© संजय भारद्वाज

(शुक्र 3 अगस्त 2019, मध्याह्न)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #143 ☆ भावना के दोहे…मेहंदी  ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे …मेहंदी ।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 143 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे …मेहंदी ☆

रंग उभर कर आ गया, लगी मेंहदी हाथ।

इसकी चमक बता रही, है पिया का साथ।।

 

रंग लाल उसका हुआ, करे पिया जो याद।

कब आओगे सामने, यही करे फरियाद।।

 

सावन में गोरी करे,  मेंहदी का श्रृंगार।

मेंहदी रची हाथ में, यही पिया का प्यार।।

 

सावन में आए सभी, तीज और त्योहार।

मेंहदी रची हाथ में, यही सजन का प्यार।।

 

संग सहेली बैठकर, भरे हाथ में रंग।

याद पिया को कर रही, रहने आओ संग।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #132 ☆ तुलसी के दोहे अमर… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है गोस्वामी तुलसीदास जी की जयंती पर रचित दोहे “तुलसी के दोहे अमर…। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 132 ☆

☆ तुलसी के दोहे अमर… ☆ श्री संतोष नेमा ☆

(गोस्वामी तुलसीदास जी की जयन्ती पर सादर समर्पित)

रामचरित मानस रची, देकर नव संस्कार

राह दिखा कर धरम की, किया बड़ा उपकार

 

बनें चरित्रवान सभी, चलें धरम की राह

देकर शिक्षा नीति की, मन में भरा उछाह

 

घर घर तक पहुँचा दिया, राम कथा का सार

सहज सरल अवधी लिखी, करके नव विस्तार

 

तुलसी के दोहे अमर, करते जो उजियार

काम, क्रोध, मद लोभ पर, तेज कलम की धार

 

रोम रोम मेँ रम गए, जिनके प्रभु श्री राम

तुलसी बाबा आपको, सादर करें प्रणाम

 

रामचरित मानस मिली, मिला सम्यक ज्ञान

सबके हिय “संतोष” है, कर रामायण गान

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

 

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कौड़ी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

 ? संजय दृष्टि – कौड़ी  ??

समय समय पर

वे उछालते रहे,

सत्ता और संपदा

के चलनी सिक्के,

सृजन की कौड़ी

मुट्ठी में बांधे,

मैं डटा रहा

समय के अंत तक…!

© संजय भारद्वाज

प्रात: 9:58 बजे 31.7.2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 174 ☆ भरोसा उठ गया है ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – भरोसा उठ गया है।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 174 ☆  

? कविता – भरोसा उठ गया है ?

है कपास

या है बिन पानी का टुकड़ा बादल का

टंका हुआ आसमान पर

सहेजे हुए सुई ।

 

सेल्फ एडिटिंग के इस जमाने में

विश्वसनीयता की खोज

रूई के ढेर में सुई की खोज सी बेमानी है ।

 

बिन धागे सुई का कोई काम नहीं

कतली बिना रूई बेमानी है

 

नोंक बिना सुई और

बदरी बिन पानी, बेमानी है

फरेबी है दुनियां , इंतिहा है

इंसा सरा सर बेपानी है ।

 

सफेदी झकाझक

आकर्षक है

और

स्याह आसमान

गुमनामी है।

 

भरोसा उठ गया है

गीत गजल कविता से

शब्द भरोसा न दे सके जो

तो हैं निरर्थक , बेनामी है

           

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 121 ☆ गीत – श्रम की देवी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 121 ☆

☆ गीत – श्रम की देवी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

श्रम की देवी तुम्हें नमन

करता हूँ बारंबार।

जीवन में संघर्ष बहुत हैं

जाती किस्मत हार।।

 

धूप ताप में पत्थर तोड़ो।

रिश्तों को ममता से जोड़ो।

जीवन भी है एक पहेली।

रोज हथौड़ी बने सहेली।

 

बच्चा देख रहा अपलक

लुटा रहा है प्यार।

श्रम की देवी तुम्हें नमन

करता हूँ बारंबार।।

 

पथ का बनना बहुत कठिन है।

झेली वर्षा , शीत , तपन है।

कितने श्रम से बनते पथ हैं।

तब जाकर के बढ़ते हम हैं।

 

ममता लटक रही कंधों पर

ईश्वर खेवनहार।

श्रम की देवी तुम्हें नमन

करता हूँ बारंबार।।

 

श्रम का मूल न पूरा मिलता।

आदिकाल से झेले जनता।

खुशी कहाँ है अज्ञानों में।

ढूँढें नकली सामानों में।

 

बच्चा रोए अगर कभी तो

माँ ही करे दुलार।

श्रम की देवी तुम्हें नमन

करता हूँ बारंबार।।

 

श्रम का मूल्य न समझे कोई

हार – हार निर्धनता रोई

कागज में सब चले ठीक है

नेताओं की नई सीख है

 

भूख प्यास में कभी – कभी तो

जीवन जाता हार।

श्रम की देवी तुम्हें नमन

करता हूँ बारंबार।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#144 ☆ अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण एवं विचारणीय अप्रतिम रचना “अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो…”)

☆  तन्मय साहित्य # 144 ☆

☆ अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो

शब्द अटपटे ये, समझो।

 

साँसों का विज्ञान अलग

टिका हुआ साँसों पर जग

प्रश्न  जिंदगी के बूझो

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो..

 

पाना हैं मीठे फल तो

स्वच्छ रखें हम जल-थल को

आम-जाम आँगन में बो

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो..

 

मन भारी जब हो जाए

पीड़ा सहन न हो पाए

बच्चों जैसा जी भर रो

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो..

 

कितना खोटा और खरा

अपने भीतर झाँक जरा

क्यों देखे इसको-उसको

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो..

 

संसद के गलियारों में

अपने राजदुलारों में

खेल चल रहा है खो-खो

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो..

 

गर अधिकार विशेष मिले

भूलें शिकवे और गिले

दूजों को उनका हक दो

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो..

 

बहुत जटिल जीवन अभिनय

मन में रखें न संशय-भय

अभिनव कला-मर्म सीखो

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो..।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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