हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 134 – कविता ☆ सोहल श्रृंगार कर… ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी  श्रवण मास पर आधारित रचना “सोहल श्रृंगार कर…”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 134 ☆

☆ कविता  🌿 सोहल श्रृंगार कर… 🙏

–*–

कारी- कारी बदरा, घिर आए सजना।

सोहल श्रृंगार कर, आई तेरे अंगना ।।

–*–

नैनो में कजरा, बालों में गजरा,

मांग सिंदुरी, हाथों में कंगना,

बिजूरी बनकर, चमकी तेरे अंगना।।

–*–

अमुवा की डाली, कोयलिया काली,

झूम के गाती, राग मल्हारी,

बन कर पाहुन, आई तेरे अंगना ।।

–*–

वर्षा का पानी, रुत हैं सुहानी,

प्रेम दीवानी, बनती कहानी,

रिमझिम बरसी, बादल अंगना ।।

–*–

गरज – गरज कर, बादल बरसे,

पिया मिलन को, गोरी तरसे,

लेके नैनों में सपना, डोलू तेरे अंगना।।

–*–

पांवों की पायल, रुन झुन साजे,

धक धक जियरा, तन में बाजें,

प्रीत में भीगी, निहारु तेरे अंगना ।।

–*–

मांथे में बिंदिया, होटो पे लाली,

धानी चुनरियां, सर पे डाली,

मांग सिंदूरी, सजाऊं तेरे अंगना ।।

–*–

हाथों में गागर, छलका सागर,

प्रीत की डोरी, ढाई आखर,

बन के जोगनियां, बैठी तेरे अंगना ।।

–*–

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 100 – गीत – घरनी से घर लगता है… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका एक अप्रतिम गीत – घरनी से घर लगता है…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 100 – गीत – घरनी से घर लगता है✍

घरनी से घर लगता है

वरना रैन बसेरा है।

 

पहली किरन उगे सूरज की

जग जाती है घरवाली।

हो जाता है स्नान ध्यान सब

सज जाती पूजा की थाली।

ऐसा सुखद सबेरा है।

 

करके झाड़ बुहारी सारी

करती लांघी चोटी है।

दाल उबलती बटलोई में

बनती जाती रोटी है।

चौका आंगन फेरा है ।

 

दफ्तर की भी जल्दी होती

सुई सरकती जाती है।

सबके खाने की चिंता में

कहां ठीक से खाती है।

लगता रहता टेरा।

 

राह देखता तुलसी चौरा

इंतजार में सँझवाती।

लौटा करती साँझ ढले वह

संग साथ सब्जी लाती।

सूर्यमुखी सँझबेरा  है ।

 

घरनी से घर लगता है

वरना रैन बसेरा है।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 102 – “इसी भूख का सार -…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “इसी भूख का सार -…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 102 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “इसी भूख का सार – ”|| ☆

इसी भूखके चलते चीलें

नील गगन के बीच

उडती रहतीं नील गगन में

अपनी आँखें मीच

 

इसी भूखके चलते बच्चा

माँ के स्तन से

चिपक चूसता भूखी आँतों

के भूखे तन से

 

इसी भूख की बिडम्बना

हैं नंगे भूखे लोग

इसी भूख के अंतर

में रोटी मिलना संयोग

 

इसी भूख के लिये लोग

करते हैं तैयारी

इसके ही कारण धरती

पर होती ऐयारी

 

इसी भूख की बाँह पकड़

होते अपराध यहाँ

इसी भूख पर

आधारित जीने की साध यहाँ

 

इसी भूख के किस्से

अखवारों में पढ़ते हैं

इसी भूख के सपने

कविताओं में गढ़ते हैं

 

इसी भूख की खातिर

कुनबे का किंचित जीवन

सदा प्रेम से भरा रहा

करता है सब तन मन

 

इसी भूख के तल में बैठी

रहती मानवता

इसी भूखके चलते

किस्से मिलते बिना पता

 

इसी भूखकी चौखट

पर है इंतजार बैठा

इसी भूख के लिये

पिता से पुत्र रहा ऐंठा

 

इसी भूख के अंतस में

मिलते हैं जयकारे

इसी भूख को सभी

लगाते आये हैं नारे

 

इसी भूख के लिये

सभी जन भागम भाग करें

इसी भूख से बाजारों की

सुलगी आग वरें

 

इसी भूख के लिये जमे हैं

लोग प्रशीतन में

इसी भूख को लोग

लगाये आस कमीशन में

 

इसी भूखके लिये

व्यस्त हैं सारे चौराहे

इसी भूखके लिये दौड़ते

दिन भर चरवाहे

 

इसी भूख के पंजीयन

पर मिला हमें जीवन

इसी भूख के लिये

परिश्रम करता है जन-जन

 

इस भूख पर आधारित

हैं वालीवुड फिल्मे

इसी भूख के चलते मर्यादा

कायम दिल में

 

इसी भूख का सार –

तत्व वर्णित है वेदों में

इसी भूख की खोज

छिपी है नभ के छेदों में

 

इसी भूखका केन्द्र, कराता

पंडित से प्रवचन

इसी भूख से जुड़े हुये हैं

अध्ययन -अध्यापन

 

इसी भूख में बैठा

हर जुगाड़ का उद्घाटन

इसी भूख से पृथक

नहीं होता है तीर्थाटन

 

इसी भूख को लेकर जन्मे

लोग नये सपने

इसी भूख को बैठ गया

मैं कागज पर लिखने

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

06-08-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – नेह ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

 ? संजय दृष्टि – नेह ??

भूख, प्यास,

रोग, भोग,

ईर्ष्या, मत्सर,

पाखंड, षड्यंत्र,

मैं…मेरा,

तू… तेरा के

सारे सूखे के बीच,

नेह का

कोई निर्झर होता है,

जीवन को

हरा किये होता है,

नेह जीवन का

सोना खरा है,

वरना,

मर जाने के लिए

पैदा होने में

क्या धरा है..!

© संजय भारद्वाज

प्रात: 8:28 बजे, 7.7.21

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 149 ☆ “मन की बात” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कविता – “मन की बात”)  

☆ कविता # 149 ☆ “मन की बात” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

पहाड़ काले पत्थरों का ढेर,

              और निर्दयी खूसट नहीं होता,

सतही तौर पर वह,

                इतना सहज नहीं होता,

धरती के दुख से,

           वह भीतर भीतर पिघलता रहता है,

उसकी असंख्य आंखों से,

        तरल नीर बहकर समुद्र से मिलता है,

उसकी अंतरात्मा को,

            समझ पाना उतना ही मुश्किल है,

जितना संवेदनशील होकर,

                अपने मन को पहाड़ बना लेना,

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 93 ☆ # सावन का महीना है… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# सावन का महीना है…  #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 93 ☆

☆ # सावन का महीना है… # ☆ 

सावन का महीना है

अब तो तुम आ जाओ

 

तपती हुई देह में

बूंदे आग लगाती हैं

बह रहा है लावा भीतर

अंदर ही अंदर झुलसाती हैं

अपने शीतल जल से तुम

लावे को राख बना जाओ

सावन का महीना है

अब तो तुम आ जाओ

 

काले काले मेघ

गगन पे कैसे छाये हैं  

प्यासी धरती की

प्यास बुझाने आये हैं

रिमझिम रिमझिम बूंदें बन

तुम मेरी प्यास बुझा जाओ

सावन का महीना है

अब तो तुम आ जाओ

 

सावन में तुम आओगे

मुझे इंतज़ार तुम्हारा है

भीगेंगे अपने तन मन

मुझे एतबार तुम्हारा है

देखो बीत रहा सावन

आकर गले लगा जाओ

सावन का महीना  है

अब तो तुम आ जाओ /

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 104 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

?  Anonymous Litterateur of Social Media # 104 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 104) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 104 ?

☆☆☆☆☆

कभी-कभी लोग दौलत कमाने के

लिए रिश्तों तक को खर्च कर देते हैं

तरक्की की राह में बढ़ने के लिए

उसूलों को भी कुर्बान कर देते हैं

Sometimes people even spend

relationships to earn money

Just to grow over ambitiously,

they even sacrifice principles

  ☆☆☆☆☆

वो झूठ बोल रहा था

इस कदर सलीके से…

मैं एतबार ना करता

तो करता भी क्या…!

 

He was lying in such a

skillful manner that…

What else could’ve I done

than believing him…!

☆☆☆☆☆ 

अनदेखे अनछुए धागों से

यूँ  बाँध  गया  कोई,

वो साथ भी नहीं, और

हम  आज़ाद  भी  नहीं…

Someone tied me with the

unseen threads such that,

He is not even with me,

But still I’m not free…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 104 ☆ आवारा मेघ ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित सॉनेट ~ छंद सलिला– प्रदोष )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 104 ☆ 

☆ सदोका सलिला – आवारा मेघ ☆

लिए उच्चार

पाँच, सात औ’ सात

दो मर्तबा सदोका।

रूप सौंदर्य

क्षणिक, सदा रहे

प्रभाव सद्गुणों का।८।

सूरज बाँका

दीवाना है उषा का

मुट्ठी भर गुलाल

कपोलों पर

लगाया, मुस्कुराया

शोख उषा शर्माई।९।

आवारा मेघ

कर रहा था पीछा

देख अकेला दौड़ा

हाथ न आई

दामिनी ने गिराई

जमकर बिजली।१०।

हवलदार

पवन ने जैसे ही

फटकार लगाई।

बादल हुआ

झट नौ दो ग्यारह

धूप खिलखिलाई।११।

महकी कली

गुनगुनाते गीत

मँडराए भँवरे।

सगे किसके

आशिक हरजाई

बेईमान ठहरे।१२।

घर ना घाट

सन्यासी सा पलाश

ध्यानमग्न, एकाकी।

ध्यान भग्न

करना चाहे संध्या

दिखला अदा बाँकी।१३।

सतत बही

जो जलधार वह

सदा निर्मल रही।

ठहर गया

जो वह मैला हुआ

रहो चलते सदा।१४।

पंकज खिला

करता नहीं गिला

जन्म पंक में मिला।

पुरुषार्थ से

विश्व-वंद्य हुआ

देवों के सिर चढ़ा।१५।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१५-६-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #135 ☆ पूंजीवाद ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 135 ☆

☆ ‌ भोजपुरी रचना – पूंजीवाद ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

जब से जुग मशीन कै आयल,

छिनल हाथ से काम ।

पूंजी पती अमीर भयल,

‌मजदूरन कै नींद हराम।

 

बढ़ल बेकारी मजदूरन में,

पडल पेट पर लात।

जांगर चोरी सबै सिखाएस,

सबकर भूलि गइल औकात।

।।जब से जुग मशीन…।।१।।

 

मंदिर मस्जिद घर अंगना,

झालर बिजली से सजवला।

प्लास्टिक के पत्तल दोना में,

भगवान के भोग लगवला।

मुसहानें कोहरानें ना गइला,

उहवां जात लजइला।

कइसे जोत जली मंदिर में,

कइसे पूजा पूरी होइ ।

कइसे अशिष मिली माई से,

जब घर में बइठल भाई रोई।

।। जब से जुग मशीन कै…।।२।।

 

ना बगिया उपजल फूल खरीदला,

ना माइ के चढवला।

प्लास्टिक के फुलवन से तूं,

मंदिर के खूब सजवला ।

कइसे मंह मंह मंदिर महकी,

कइसे श्रृंगार माई कै होई।

कइसे सुहाग कै सेज सजी,

कइसे सेहरा सिर आज सजी।

कंहवां कोमल एहसास मिली,

उस फूलवा देहिया गडि़ जाइ।

अपने दुकान पर बइठल माली,

खाली बइठि बइठि पछिताई ।

।।जब से जुग मशीन कै… ।।३।।

 

जब जब पूंजी वाद बढ़ी,

सारा काम यंत्र से होई ।

ना हाथ में तोहरे काम रही,

बेटवा भूखल घर में रोइ।

गाय भइस ना घर में पलबा,

जांगर चोर हो जइबा।

घर में बेटवा भूख से रोइ,

पाउडर के दूध से काम चलइबा।

।।जब से जुग मशीन कै…।।४।।

 

बइठि बइठि चट्टी चौराहा,

खाली समय गवइबा।

खुद मेहनत करै भुला जइबा,

का अगली पीढ़ी के सिखइबा।

ना बेटवा खेलै मैदान में जाइ,

मोबाइल पर घर में खेली।

जबरी घर से बाहर निकलबा,

तोहसे होइ ठेला ठेली ।

कल पुर्जा कै जुग जवने दिन,

सबके लेइ फंसाई।

पीढ़ी आलसी बीमार हो जाई,

जीयल बवाल हो जाई।

।।जब से जुग मशीन कै… ।।५।।

 

एहि सुविधा साधन के चलते,

परदूषन  खूब बढ़त हौ।

धीरे धीरे कदम दर कदम ,

आगे मौत बढ़त हौ।

अबही समय बहुत हौ बाकी,

भइया चेता भयवा जागा।

देश समाज बचावै खातिर,

करा परिश्रम दिन भर भागा।

।।जब से जुग मशीन कै… ।।६।।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #151 – ग़ज़ल-37 – “बारिश में भीगते चलो जनाब…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “बारिश में भीगते चलो जनाब…”)

? ग़ज़ल # 37 – “बारिश में भीगते चलो जनाब…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

बारिश की बूँदों से पूछा रसवन्ती कहाँ से आई हो,

घट-घट में बसी, तुम पूछते हो कहाँ से आई हो।

 

बारिश ढ़ा रही क़हर बिछड़े-मिले हमदम की तरह,

मुरझाई क्यारी सिहर उठी दुल्हन जैसे अनछुई हो।

 

जब से नीमबाज़ आँखो की पहली बारिश में नहाए,

बेलौस अरमानों के स्याह बादल बन घिर आए हो।

 

बारिश में भीगते चलो जनाब आँसू छुप जाते हैं,

सुलगते अरमानों को क्यों पलकों पर सजाए हो।

 

क्या चारागरी  तजवीज़ कीजै मरीज़-ए-इश्क़ की,

जज़्बा-ए-क़ुर्बानी ही उसकी क़िस्मत में लिखा हो।

 

‘आतिश’ परेशां बीमार का तज़वीज़ क्या नुस्खा हो,

मरीज़-ए-इश्क पर अब दवा-ए-वक्त ही कारगर हो।

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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