हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 111 – “सुनकर साक्ष्य – दलीलें……” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत –सुनकर साक्ष्य – दलीलें।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 111 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “सुनकर साक्ष्य – दलीलें” || ☆

निकल गई विधवा की,

अपनी माँ जैसी धरती

पड़ी हुई थी यों बरसों

से बेशक वह परती

 

जमी हुई थीं कई दबंगों

की उस पर आँखें

और कतरने को आतुर

थे दुखिया की पाँखे

 

जो अपनी उधेड़बुन में

जर्जर कर के काया

सूख रही थी, करती वह

तो आखिर क्या करती

 

पटवारी भी तुरत  कोर्ट

में हलफ उठायेगा

तब सच झूठी शहादतों

में बदला जायेगा

 

धीरे  गीता अलमारी

में रख   दीजायेगी

इतना दुख अपनी छाती में

कैसे क्या धरती

 

हाकिम थका थका सुनता है

बेमन जिरह जहाँ

जो सच्चाई और झूठ का

निर्णय करे वहाँ

 

सुनकर साक्ष्य – दलीलें

विधवा वंचित ही होगी

न्याय तराजू खडी हाशिये

पर घूरा करती

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

08-10-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – दृष्टि ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ नवरात्र  साधना सम्पन्न हुई 🌻

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – दृष्टि  ??

मौसम तो वही था,

यह बात अलग है,

तुमने एकटक निहारा

स्याह पतझड़,

मेरी आँखों ने चितेरे

रंग-बिरंगे वसंत,

बुज़ुर्ग कहते हैं-

देखने और

दृष्टि में

अंतर होता है..!

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 101 ☆ # इस सावन में, तुम क्यों नहीं आये ?… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “#इस सावन में, तुम क्यों नहीं आये ?…#”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 101 ☆

☆ # इस सावन में, तुम क्यों नहीं आये ?… # ☆ 

( सावन में बिछड़े प्रेमी युगल की प्रणय गाथा है)

यह सावन भी बीत गया

बादल बरस कर रीत गया          

आंखों में आंसू भर आये

इस सावन में

तुम क्यों नहीं आये ?

 

कली- कली यह पूछ रही है

एक पहेली बूझ रही है

जो तितली बन लहराती थी

इस बगिया में छा जाती थी

कितने लुभावने रंग थे उसके

कितने दिलकश ढंग थे उसके

वो बगिया की रानी थी

हर शै उसकी दीवानी थी

सब पर निराशा है छाई

वो सावन में क्यों नहीं आई

हम किस किस को समझाये

इस सावन में

तुम क्यों नहीं आये ?

 

यूं ही सावन में मिली थी तुम

शुभ्र वस्त्र में ढली थी तुम

मंदिर की सीढ़ियां चढ़ रही थी

मेरे दिल की धड़कन बढ़ रही थी

हाथों में था पूजा का थाल

उड़ रहे थे मखमली बाल

नाज़ुक उंगलियों से जब घंटी बजाई

मंदिर में मदहोशी सी छाई

तुमने जोड़े शिव जी को जब हाथ

मैंने मांगा था बस तुम्हारा साथ

हमने मिलकर थे फूल चढ़ाये

फिर इस सावन में

तुम क्यों नहीं आये ?

 

फिर दिन-रात एक हो गए

हम एक दूजे में खो गए

मंद मंद बहे पुरवाई

जैसे पिया मिलन की रुत आई

केवड़े के बन में हो नागिन भटकी

मदमस्त हो तुम मुझसे लिपटी

टूट गये फिर सारे बंधन

मिट्टी बन गई जैसे चन्दन

सागर में कितनी लहरें उठीं

वो साहिल से टकराकर टूटी

हमने धरती पर ही था स्वर्ग बसाये

इस सावन में

तुम क्यों नहीं आये ?

 

जब आंख खुली और तंद्रा टूटी

सारी दुनिया हमसे थी रूठी

अपने हो गये थे सब पराए

दिल की बात किसे बताए

आंख में आंसू थे हर पल

भोग रहे थे दुनिया का छल

हम दोनों के बीच उठ गई दीवारें

रूढ़िवादी लोगों ने खींची तलवारें

इस जुदाई को हम दोनों ने सहा था

सावन में मिलूंगी तुमने कहा था

फिर तुमने क्यों ना वादे निभाये

इस सावन में

तुम क्यों नहीं आये ? /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 112 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

?  Anonymous Litterateur of Social Media # 112 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 112) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 112 ?

☆☆

☆☆

आज हलकी-हलकी सी बारिश है,

आज सर्द हवा का रक़्स भी है,

आज फूल भी निखरे-निखरे से हैं,

आज उनमें तुम्हारा अक्स भी है…

Today there is light drizzle around,

Today cold breeze is also swaying…

Today flowers are also blossoming,

Today they’ve your reflection in them…!

☆☆☆☆☆

बारिशों का यूं  इस 

कदर  लौट  आना,

ना जाने कौन है प्यासा

ना जाने कौन है तन्हा…

 

The return of

rains insomuch,

Don’t know who is thirsty

and, who is lonely…

☆☆☆☆☆

बड़ी  गुस्ताख़  हैं  तेरी  यादें

इन्हें थोड़ी तमीज सीखा दो

दस्तक भी नहीं देती हैं और

सीधे दिल में उतर आती हैं

Your memories are too insolent

Teach them a bit of manners

They don’t even knock and

enter straight into the heart

☆☆☆☆☆

कल ही तो तौबा की मैंने

शराब से

कमबख्त मौसम आज फिर

बेईमान हो गया

Just yesterday only,

I gave up on alcohol

Wretched weather got

dishonest again today

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 111 ☆ सॉनेट ~ दशहरा… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित सॉनेट ~ दशहरा…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 111 ☆ 

☆ सॉनेट ~ दशहरा ☆

दश हरा, मन जीत जाता

पंच ज्ञानेंद्रिय न रीतें

पंच कर्मेंद्रिय न बीतें

ईश पद सिर सिर नवाता।

 

नाद प्रभु का गान करता

ताल हँस संगति निभाता

थाप अविचल संग आता

वाक् लहरित तान भरता।

 

शब्द आप निशब्द होते

अर्थ अपने अर्थ खोते

जागते नहिं, नहीं सोते।

 

भाव हो बेभाव जाता

रसिक रस में डूब जाता

खुद खुदी को, खुदा पाता।

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संवस

६-१०-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आत्मानंद साहित्य #143 ☆ कविता – क्या रावण जल गया? ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 143 ☆

☆ ‌कविता – क्या रावण जल गया? ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

हर साल जलाते हैं रावण को, फिर भी अब-तक जिंदा है।

वो लंका छोड़ बसा हर मन में, मानवता शर्मिंदा हैं।

 

हर साल जलाते रहे उसे, फिर भी वो ना जल पाया।

जब हम लौटे अपने घर को, वो पीछे पीछे घर आया।

 

मर्यादाओं की चीर हरे वो, मानवता चीत्कार उठी।

कहां गये श्री राम प्रभु, सीतायें  उन्हें पुकार उठी।

 

अब हनुमत भी लाचार हुए, निशिचरों ने उनको फिर बांधा।

शूर्पणखायें घूम रही गलियों में, है कपट वेष अपना‌ साधा।,

 

कामातुर जग में घूम रहे, आधुनिक बने ये नर-नारी।

फिर किसे दोष दे हम अब, है फैशन से सब की यारी।

 

आधुनिक बनी जग की नारी, कुल की मर्यादा लांघेगी।

फैशन परस्त बन घूमेगी, लज्जा खूंटी पर टांगेगी।

 

जब लक्ष्मण रेखा लांघेगी, तब संकट से घिर जायेगी।

फिर हर लेगा कोई रावण, कुल में दाग लगायेगी।

 

कलयुग के  लड़के राम नहीं, निशिचर,बन सड़क पे ‌घूम रहे।

अपनी मर्यादा ‌भूल गये, नित नशे में वह अब झूम रहे।

 

रावण तो फिर भी अच्छा था, राम नाम अपनाया था।

दुश्मनी के चलते ही उसने, चिंतन में राम बसाया था।

 

श्री राम ने अंत में इसी लिए, शिक्षार्थ लखन को भेजा था।

सम्मान किया था रावण का, अपने निज धाम को भेजा था।

 

अपने चिंतन में हमने क्यों, अवगुण रावण का बसाया है।

झूठी हमदर्दी दिखा दिखा, हमने अब तक क्या पाया है।

 

उसके रहते  अपने मन में, क्या राम दरस हम पायेंगे।

फिर कैसे पीड़ित मानवता को, न्याय दिला हम पायेंगे।

 

इसी लिए फिर ‌बार‌ बार, मन के रावण को मरना होगा।

उसकी पूरी सेना का, शक्ति हरण अब करना ‌होगा।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #160 – 46 – “चश्मे मुहब्बत सजाए…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “चश्मे मुहब्बत सजाए …”)

? ग़ज़ल # 46 – “चश्मे मुहब्बत सजाए …” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

बहुत पापड़ बेले हैं ऐसे ही तेरे सनम नहीं हुए

हमारी खोपड़ी पर बाल बेवजह कम नहीं हुए। 

उस्तादों के ख़ूब नाज़ उठाए और गालियाँ खाईं

फ़क्त रियाज़ करके बलिश्त दमख़म नहीं हुए।

हम तक आते-आते खुट जाती उनकी बख़्शीश,

हौसले इम्तिहान के फिर भी कम नहीं हुए। 

चश्मे मुहब्बत सजाए इन रहे हसीन वादियों में,

लद्दाख़ के वीरान पहाड़ों से तेरे बलम नहीं हुए। 

मुहब्बत में हर दम बेचैनी बेसबब नहीं है ‘आतिश’

रूह भटकेगी जब तलक मशवरे बाहम नहीं हुए।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 37 ☆ मुक्तक ।।मानवता की जीत दानवता की हार हो जाये।।☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।।मानवता की जीत दानवता की हार हो जाये।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 37 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।। मानवता की जीत दानवता की हार हो जाये ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

मानवता की  जीत दानवता की हार हो जाये।

प्रेम    से  दूर   अपनी  हर  तकरार हो जाये।।

महोब्बत    हर    जंग    पर    होती    भारी  है।

यह दुनिया बस इतनी सी समझदार हो जाये।।

[2]

संवेदना बस हर किसी का सरोकार हो जाये।

हर   कोई   प्रेम   का   खरीददार  हो    जाये।।

नफ़रतों    का    मिट    जाये   हर  गर्दो  गुबार।

धरती  पर  ही  स्वर्ग  सा  यह  संसार  हो जाये।।

[3]

काम  हर किसी का परोपकार हो जाये।

हर मदद को आदमी दिलदार हो जाये।।

जुड़ जाये हर दिल से हर दिल का ही तार।

तूफान खुद नाव  की पतवार हो  जाये।।

[4]

अहम   हर  जिंदगी  में  बस  बेजार  हो  जाये।

धार  भी  हर  गुस्से  की   बेकार   हो   जाये।।

खुशी  खुशी  बाँटे  आदमी  हर  इक सुख को।

गले से गले लगने को आदमी बेकरार हो जाये।।

[5]

हर    जीवन   से   दूर  हर    विवाद   हो   जाये।

बात घृणा की जीवन में कोई अपवाद हो जाये।।

राष्ट्र  की  स्वाधीनता  हो   प्रथम   ध्येय   हमारा।

देश  हमारा  यूँ  खुशहाल  आबाद   हो   जाये।।

[6]

वतन  की  आन  ही  हमारा  किरदार  हो   जाये।

दुश्मन के लिए जैसे हर बाजू ललकार हो जाये।।

राष्ट्र  की   गरिमा    और    सुरक्षा   हो  सर्वोपरि।

बस  इस  चेतना  का  सब में  संचार  हो  जाये।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आँखें ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ नवरात्र  साधना सम्पन्न हुई 🌻

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – आँखें ??

देखती हैं वर्तमान,

बुनती हैं भविष्य,

जीती हैं अतीत,

त्रिकाल होती हैं आँखें…!

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 103 ☆’’हासिल नहीं होता कुछ भी…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा श्री गणेश चतुर्थी पर्व पर रचित एक रचना “हासिल नहीं होता कुछ भी…”। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #103 ☆’’हासिल नहीं होता कुछ भी…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

औरों के हर किये की खिल्ली उड़ाने वालो

अपनी तरफ भी देखो, खुद को जरा संभालों।

 

बस सोच और बातें देती नहीं सफलता

खुद को बड़ा न समझों, अभिमान को निकालो।

 

हासिल नहीं होता कुछ भी, डींगे हाँकने से

कथनी के साथ अपनी करनी पै नजर डालो।

 

सुन-सुन के झूठे वादे पक गये हैं कान सबके

जो कर न सकते उसके सपने न व्यर्थ पालो।

 

सब कर न पाता पूरा कोई भी कभी अकेला

मिलकर के साथ चलने का रास्ता निकालो।

 

आशा लगाये कब से पथरा गई हैं ऑखें

चाही बहार लाने के दिन न और टालो।

 

जो बीतती है मन पै किससे कहो बतायें

बदरंग हुये घर को नये रंग से सजालो।

 

कोई ’विदग्ध’ अड़चन में काम नहीं आते

कल का तो ध्यान रख खुद बिगड़ी तो बना लो।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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