हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #212 ☆ सुविधा-प्राप्त सम्मान…कितने सार्थक… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख सुविधा-प्राप्त सम्मान…कितने सार्थक…। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 212 ☆

☆ सुविधा-प्राप्त सम्मान…कितने सार्थक

‘भीख में प्राप्त मान-सम्मान प्रगति के पथ में अवरोधक होते हैं, जो आपकी प्रतिभा को कुंद कर देते हैं’ यह कथन कोटिशः सत्य है। सन् 2011-12 में डॉ• नांदल द्वारा रचित एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी… ‘अभिनन्दन करवा लो’ बहुत सुंदर व्यंग्य-रचना थी, जिसमें आधुनिक साहित्यकारों की मनोवृत्ति व सोच का लेखा-जोखा बड़े सुंदर ढंग से रेखांकित किया गया था। आदिकाल व रीतिकाल … आश्रयदाताओं का गुणगान…एक पुरातन परंपरा, जिसका भरपूर प्रचलन आज तक हो रहा है; जिसे देख कर हृदय ठगा-सा रह गया, परंतु वह आज भी समसामयिक है। साहित्य जगत् में अक्सर लोग इस दौड़ अथवा प्रतिस्पर्द्धा में बढ़-चढ़कर भाग ही नहीं लेते; सर्वश्रेष्ठ स्थान पाने को भी आतुर रहते हैं। चंद कविता या कहानियाँ लिखीं या उनमें थोड़ा हेर-फेर कर अपने नाम से प्रकाशित करवा लीं…बस हो गए मूर्धन्य कवि व साहित्यकार…साहित्य जगत् के देदीप्यमान नक्षत्र, जिसकी रश्मियों का प्रकाश सीमित समय के लिए चहुंओर भासता है। अमावस के घने अंधकार में तो जुगनू भी राहत दिलाने में अहम् भूमिका निभाते हैं, भले ही वे पलभर में अस्त हो जाते हैं, परंतु उनका महत्व समय व स्थान के अनुकूल अत्यंत सार्थक होता है। उनका जीवन तो क्षणिक होता है और वे पानी के बुलबुले की मानिंद उसी जल में विलीन हो जाते हैं, क्योंकि यदि कुंभ के बाहर व भीतर जल होता है…कुंभ के टूटने के पश्चात् वह उसी में समा जाता है, एकाकार हो जाता है। परंतु वे साहित्यकार, जिन पर साहित्य के आक़ाओं का वरद्-हस्त होता है, अक्सर मंचों पर छाए रहते हैं। उनका महिमाण्डन बड़े-बड़े साहित्यकारों द्वारा ही नहीं किया जाता, मीडिया वाले भी उनके साक्षात्कार को अपनी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कर स्वयं को धन्य समझते हैं और उन्हें साक्षात् दर्शकों से रू-ब-रू करवा कर अपने भाग्य को सराहते व फूले नहीं समाते हैं और यह सिलसिला अनवरत चल निकलता है… भले ही उनकी लड़खड़ाती सांसें लंबे समय तक इनका साथ नहीं देतीं।

आप एक पुस्तक का संपादन कर भी अमर हो सकते हैं, भले वह आपके पूर्वजों द्वारा रचित हो या आप द्वारा संपादित… कृति आपके नाम से शाश्वत् हो जाती है और आप निरंतर सुर्खियों में बने रहते हैं। इतना ही नहीं, आजकल तो समाज के हर वर्ग का लेखक इस संक्रमण-रोग से पीड़ित है; जो बहुत शीघ्रता से फैलता ही नहीं; अपनी जड़ें भी गहराई तक स्थापित कर लेता है और उससे निज़ात पाने के निमित्त इंसान को लम्बे समय तक संघर्ष करना पड़ता है। इस प्रकार तथाकथित संस्थाओं में नाम व पद पाने के लिए, धन-संपदा लुटाने व पैसा बहाने में किसी को संकोच नहीं होता, क्योंकि ऐसे पदासीन लोगों व संस्थापकों के पीछे तो लोग मधुमक्खियों की भांति दौड़ते नज़र आते हैं तथा इसके उपरांत वे विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित भी किए जाते हैं।

‘आदान-प्रदान अर्थात् एक हाथ से दो और बदले में दूसरे हाथ से लो’ की प्रणाली निरंतर चली आ रही है। हम अपनी संस्कृति के उपासक हैं। पहले यह प्रथा हमारी विवशता थी; मजबूरी थी, क्योंकि इंसान को अपनी मूलभूत

आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए लेन-देन प्रणाली को अपनाना पड़ता था। इंसान रोटी, कपड़ा व मकान जुटाने का उपक्रम, लाख कोशिश करने के पश्चात् भी अकेला नहीं कर सकता था, जो आज भी संभव नहीं है। परंतु आधुनिक युग में संचार-व्यवस्था तो बहुत कारग़र है और पूरा विश्व ग्लोबल विश्व बन कर रह गया है। भौगोलिक दूरियां कम होने के कारण दिनों का सफ़र चंद घंटों में पूरा हो जाता है। सब वस्तुएं हर मौसम में हर स्थान पर उपलब्ध हो जाती हैं। परंतु हमने तो उस व्यवस्था को धरोहर सम संजोकर रखा है, जिसका उपयोग-उपभोग हम बड़ी शानोशौक़त व धड़ल्ले से आज तक कर रहे हैं।

परंतु इक्कीसवीं सदी में आत्मकेंद्रितता का भाव एकाकीपन व अजनबीपन के रूप में चहुंओर तेज़ी से पांव पसार रहा है, जो संवादहीनता के रूप में परिलक्षित है…जिसके परिणाम- स्वरूप हम अहंवादी होते जा रहे हैं। हमें अपने व अपने परिजनों के सिवाय कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता, ठीक उसी प्रकार जैसे सावन के अंधे को केवल हरा ही हरा दिखाई पड़ता है। वह केवल अपनों में ही रेवड़ियां बांटता है,क्योंकि वह केवल उनसे ही परिचित होता है। उसकी सोच का दायरा बहुत सीमित होता है तथा उसकी दुनिया केवल तथाकथित अपनों तक ही सीमित होती है। इसका प्रचलन हमारे साहित्य व विद्वत-समाज में बखूबी हो रहा है; जिसे देखकर मानव सोचने पर विवश हो जाता है कि साष्टांग दण्डवत् प्रणाम कर व धन-सम्पदा लुटाकर उपाधियां व प्रशस्ति-पत्र प्राप्त करने वाले कृपा-पात्र, केवल बड़े-बड़े मंचों पर आसीन ही नहीं होते; उनकी प्रशंसा व सम्मान में कसीदे भी गढ़े जाते हैं; जिसे सुनकर वे सीधे सातवें आसमान पर पहुंच जाते हैं और इस जहान के बाशिंदों से उनका संबंध- सरोकार शेष नहीं रह जाता।

इन्हीं दिनों कन्हैया लाल भट्ट जी का ‘राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कार और सम्मान—एक व्यवसाय’ और मनीष तिवारी जी की उक्त भाव व कटु सत्य को उजागर करती सार्थक कविता ‘ओ सम्मान वालो’ पढ़ने को मिलीं। दोनों रचनाओं में पुरस्कारों-सम्मानों की लालसा व दौड़ में अक्सर ऐसा ही देखने को मिल रहा है। वास्तव में जो सम्मान के हक़दार हैं, वे उन सम्मानों से वंचित रह जाते हैं। परंतु फिर भी वे शांत व निष्काम भाव से साहित्य-सृजनरत रहते हैं और आजीवन सम्मान के पात्र नहीं बन पाते।

आश्चर्य होता है, यह देखकर कि राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार नवाज़ने वाली संस्थाएं शॉल, श्रीफल व सम्मान-पत्र जुटाए विज्ञापन देती हैं तथा ऐसे लोगों की तलाश में रहती हैं…’पैसा दो; कार्यक्रम की व्यवस्था में सहयोग करो और राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर के सम्मान प्राप्त करो।’ इतना ही नहीं, उनके यहां मानद उपाधियों का भी अंबार लगा रहता है। ‘पैसा फेंको…और बदले में मनचाही उपाधि प्राप्त करो।’ पीएच• व डी•लिट्• की मानद उपाधियों से नवाज़े गये लोग यू•जी•सी• द्वारा प्रदत डिग्री के समकक्ष लिखने अर्थात् नाम से पहले ‘डॉक्टर’ लिखने से तनिक भी गुरेज़ नहीं करते, जबकि यह कानूनी अपराध है… बल्कि वे तो फख़्र महसूस करते हैं, क्योंकि वे तो बिना परिश्रम के, थोड़ी-सी धन-राशि जुटाकर वह सब पा लेते हैं; जिसे प्राप्त करने के लिए लोग वर्षों तक साधना करते हैं। उन दिनों उन्हें दिन-रात समान भासते हैं। परंतु आजकल तो कानून का भय, डर व ख़ौफ़ है ही कहां? यह आमजन के जीवन की त्रासदी है, जिसे आप हर मोड़ पर अनुभव कर सकते हैं।

वास्तव में उन साहित्यकारों की नियति देखकर असीम दु:ख होता है, जो एक तपस्वी की भांति शांत भाव से निरंतर चिंतन-मनन व लेखन करते रहते हैं और तिलस्मी दुनिया के कर्णाधारों को उन कर्मयोगियों की साधना की खबर तक भी नहीं होती। इस दुनिया में सबका अपना-अपना नसीब है, अपना-अपना भाग्य है, अपनी-अपनी तक़दीर है। परंतु यह तो पूर्वजन्म के कर्मों का लेखा-जोखा है…जिसे जितनी साँठगाँठ करने का सलीका व अनुभव होगा, वह उतने अधिक सम्मान पाने में समर्थ होगा। ‘शक्तिशाली विजयी भव’ अर्थात् जो जितना अधिक जोखिम उठाने का साहस जुटा पाएगा; उतना ही ख्याति-प्राप्त साहित्यकार बन जाएगा। तो आइए! अवसर का लाभ उठाने की प्रतियोगिता में प्रतिभागी बन जाइए और शामिल हो जाइए इस दौड़ में…जहां अध्ययन, परिश्रम व साधना अस्तित्वहीन हैं, उनकी तनिक भी दरक़ार नहीं। हां! इस तथ्य से तो आप सब अवगत होंगे कि ‘जितना गुड़ डालोगे, उतना मीठा होगा’ अर्थात् जितना धन जुटाओगे; उतना बड़ा सम्मान पाकर नाम कमाओगे।

यह भी अकाट्य सत्य है कि ‘यह सुविधा-प्राप्त सम्मान व पुरस्कार आत्मोन्नति के पथ में बाधक होते हैं और आपकी सोचने-विचारने की शक्ति को कुंद कर देते हैं। जब इंसान बिना प्रयास के आकाश की ऊंचाइयों को छूने में समर्थ हो जाता है, तो वह अपनी जड़ों से कट जाता है।’ वह इस तथ्य से भी बेखबर हो जाता है कि उसे लौट कर इसी धरा पर आना है; समाज के लोगों के मध्य अर्थात् उनके साथ ही रहना हैं। अत्यधिक प्रशंसा सदैव पतन का कारण बनती है और अकारण प्रशंसा करने वाले लोगों से मानव को सदैव सावधान रहना चाहिए, क्योंकि वे मित्र नहीं, शत्रु होते हैं; जो आपके हितैषी कदापि नहीं हो सकते। जैसे नमक की अधिकता रक्तचाप को बढ़ा देती है और व्यर्थ की चिंता अनगिनत रोगों की जनक है; जिससे निज़ात पाना संभव नही। आप चाहकर भी इस दुष्चक्र अथवा मिथ्या अहं-रूपी व्यूह से बाहर निकल ही नहीं सकते, क्योंकि उस स्थिति में आप स्वयं को सर्वश्रेष्ठ अनुभव करने लगते हैं। यह एक ऐसा लाइलाज रोग है;  जिससे मुक्ति पाना, नशे की गिरफ़्त से स्वतंत्र होने के समान कठिन ही नहीं; ना-मुमक़िन है, क्योंकि जितना व्यक्ति इसके चंगुल से बाहर आने का प्रयास करता है, उतना अधिक उस दलदल में धंसता चला जाता है। ‘यह मथुरा काजर की कोठरि,जे आवहिं ते कारे’ अर्थात् वहाँ से आने वाले सब, उसे काले ही नज़र आते हैं…पांचों इंद्रियों के दास, इच्छाओं के ग़ुलाम, अहंनिष्ठ, निपट स्वार्थी… सो! ऐसे माहौल में वह अपने सोचने-समझने की शक्ति खो बैठता है।

आइए! आत्मावलोकन करें; परिश्रम व साहस को जीवन में धारण कर निरंतर अध्ययन व गंभीर चिंतन की प्रवृत्ति में लीन रहें; अपने अहं को विगलित कर साहित्य-सृजन करना प्रारंभ करें। मुझे स्मरण हो रहा है वह प्रसंग–जब रवीद्रनाथ ठाकुर से अंतिम दिनों में किसी ने उन से यह प्रश्न किया कि 2000 गीतों की रचना करने के पश्चात् वे कैसा अनुभव करते हैं? टैगोर जी सोच में पड़ गये… ‘जो गीत वे लिखना चाहते थे, अब तक नहीं लिख पाए हैं।’ नोबल पुरस्कार विजेता के मुख से ऐसा अप्रत्याशित उत्तर सुन वह दंग रह गया।

रहीम जी ने ‘जे आवहिं संतोष धन, सब धन धूरि समान’ संतोष को सबसे बड़ा धन स्वीकारा है, परंतु साहित्य-सृजन के संदर्भ में संभावनाओं को ज़हन में रखना आवश्यक है…यही सफलता का सोपान है। ज्ञान असीम है, अनंत है, सागर की भांति अथाह है। जितना आप गहरे जल में गोता लगाएंगे; उतने अनमोल मोती व सीपियां आपके हाथ लगेंगी। सो! बड़े सपने देखिए, परंतु खुली आंखों से देखिए और तब तक आराम से मत बैठिए… जब तक आप मंज़िल पर नहीं पहुंच जाते। जीवन की अंतिम सांस तक निष्काम भाव से साहित्य सृजनरत रहिए; सुविधा-प्राप्त पुरस्कारों की प्रतियोगिता में प्रतिभागी मत बनिए…पीछे मुड़कर मत देखिए… बीच राह से लौटने के भाव को भी मन से निकाल दूर फेंकिए; रास्ते व गुणों के पारखी आपको स्वयं ही ढूंढ निकालेंगे। यही ज़िंदगी का मूलमंत्र है… सार है… मक़सद है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 237 ⇒ ताइवान के अमरूद… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ताइवान के अमरूद।)

?अभी अभी # 237 ⇒ ताइवान के अमरूद… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

अगर आपने बागपत के खरबूजों की तारीफ सुनी है, तो हमने भी बड़वानी के पपीते खाए हैं। आज अगर लोकल फॉर वोकल और स्वदेशी का जमाना है, तो हमारा जमाना तो पूरा देसी ही था। मांडव की खिरनी और फलबाग के जाम अगर देसी थे तो बड़वाह का चिवड़ा और राऊ की कचौरी भी अपनी ही तो थी।

सूरज की पहली किरण के साथ ही, दूध, अखबार, अटाला और सब्जी वाला मोहल्ले में एक साथ दस्तक देते थे। उनके सभी लोकल काम, वोकल ही तो होते थे। सूर्योदय से पहले ही सबसे पहला संगीत सड़क पर झाड़ू बुहारने का गूंजा करता था। और फिर शुरू होता था बिग बास्केट और ज़ोमेटो की जगह ठेलों पर ताजी सब्जियों, और फलों का तांता, अपने अपने सुर और राग में। एक ही सांस में सभी सब्जियों के नाम। तेरी आवाज ही पहचान है। फेरी वालों की पहचान आवाज से ही होती थी।

दोपहर होते होते तो एक बूढ़ी लेकिन कड़क आवाज हींग वाले की भी सुनाई दे जाती थी।।

तब तो टमाटर भी देसी ही आते थे और नींबू भी कागदी, बिल्कुल पीयर्स साबुन की तरह पारदर्शी। फिर शुरू हुआ संकर मक्का और हाइब्रीड का दौर! टमाटर भी देसी और सलाद के आने लगे, बिना बीज के, बिना रस, स्वाद और खटाई के। बीज से लोगों को पथरी होने लगी।

रासायनिक खाद ने छिलकों में छोड़िए, पूरे फलों में ही जहर भर दिया।

पहले अंगूर खट्टे और बीज वाले होते थे। आज उन्नत अंगूर देखिए बिना बीज वाले, लंबे लंबे, नासिक वाले। आज आप कौन से संतरे खा रहे हैं, आप ही जानें। हम तो नागपुरी संतरों की बात कर रहे हैं।।

पपीते की जगह तो कब से ताइवान के पपीते ने ले रखी है, नासपाती और अमरूद ने मिलकर एक अलग ही खिचड़ी पका ली। केले समय पूर्व पकने के चक्कर में अपना स्वाद और खुशबू, सब खो चुके हैं। करते रहिए छींटाकशी, बाजार में छींटे वाले केले कहीं नजर नहीं आएंगे।

इस बार तो देसी भुट्टो के लिए भी तरस गए। यह कैसा स्वदेशी और लोकल फॉर वोकल, हर जगह अमरीकन भुट्टे का ही बोलबाला। जो किसान बोएगा, वही तो बाजार में उपलब्ध होगा।।

बदलते मौसम के साथ फलों की भी बहार आती है। एकाएक पूरे बाजार में ताजे ताजे, बड़े बड़े अमरूदों की बहार आ गई। अमरूद किसकी कमजोरी नहीं। एक अमरूद रोज, an apple a day, का ही काम करता है, क्योंकि इसके बीज आंतों की सफाई करते हैं और इसे शुगर वाले मरीज भी खा सकते हैं।

लेकिन हाय री किस्मत, इस बार हमें अमरूद भी ताइवान के ही हाथ लगे। हम अमरूदों की खुशबू पहचानते हैं। खुशबू तेरे बदन सी, किसी में नहीं नहीं! लेकिन पहली बार उस ताइवानी अमरूद की शक्लो सूरत और बाहरी सुंदरता पर मर मिटे। अच्छा मोटा ताजा, मुंह में पानी लाने वाला।।

हमें न जाने क्यों ऐसे वक्त पर बर्नार्ड शॉ याद आ जाते हैं। जो चाहते हो, वह पा लो, वर्ना जो पाया है, उसे ही चाहने लग जाओगे। अरहर और मूंग की दाल भी आजकल हमें आकार में छोटी नजर आने लगी है, बड़ी मांगो तो स्वाद और खुशबू गायब। अब तो बस, जो मिल गया, उसी को मुकद्दर समझ लिया। मैं स्वाद, खुशबू और गुणवत्ता के साथ समझौता करता चला गया।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 249 ☆ आलेख – शरद जोशी की प्रासंगिकता शाश्वत है ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय आलेख – शरद जोशी की प्रासंगिकता शाश्वत है)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 249 ☆

? आलेख – शरद जोशी की प्रासंगिकता शाश्वत है ?

हिंदी व्यंग्य को वर्तमान नवरूप की त्रिधारा में वास्तविक पहचान देने में परसाई, शरद जी और त्यागी जी की लेखनी का योगदान उल्लेखनीय है। इन महत्वपूर्ण लेखकों ने स्वयं अपनी मौलिकता से व्यंग्य लेखन की विधा को एक नया आयाम दिया। अपने समय की सामाजिक, धार्मिक कुरीतियों और राजनीति पर शरद जी ने अपनी ही स्टाइल में निरंतर कटाक्ष किया। उनके व्यंग्य आज की परिस्थितियों में भी उतने ही प्रासंगिक हैं। वे शाश्वत बने हुए हैं, क्योंकि तत्कालीन विसंगतियां रूप अदल बदल कर समाज में यथावत बनी हुई हैं।

शरद जी के व्यंग्यों में उन समस्याओं पर इतना गहरा कटाक्ष होता था, की वह पाठक को भीतर तक झकझोर देता था और लंबे समय तक उस पर सोचते रहने को मजबूर कर देता था।

शरद जोशी की लोकप्रियता का सबसे अहम कारण उनके व्यंग्यों में मौजूद विरोध का स्वर और उनका आम लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़ा होना था।

शरद जी के विरोध के स्वर को लोकप्रियता मिली, क्योंकि वह सीधे लोगों के सरोकारों तक पहुंचते थे। लोगों को लगा जो बात वह नहीं कह पाते वह इन व्यंग्यों में कही गई है। राजनीति, भ्रष्टाचार पर अपने स्तंभ प्रतिदिन में वे चोट करते थे। सामाजिक कुरीतियों पर उनके प्रहार बदलाव लाने के कारक बने, उन्होंने लोगों को किसी भी घटना को देखने का एक नया नजरिया दिया।

जोशी जी ने शालीन भाषा में भी अपनी बात को बेहतर ढंग और बहुत ही बारीकी से रखा, जिस कारण वह और उनके व्यंग्य पाठकों में खासे लोकप्रिय होते चले गए।

शरद जी ने किसी एक क्षेत्र को नहीं छुआ। उन्होंने सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक यहां तक कि धार्मिक सभी विषयों पर व्यंग्य किया। जितनी विविधता उनके विषयों में दिखाई देती है उतनी ही उसके प्रस्तुतीकरण में भी झलकती है। उनकी भाषा−शैली और प्रस्तुतीकरण का ढंग विषय के मुताबिक होता था जो सीधा पाठक के दिल में उतरता था। जोशी के व्यंग्यों की सबसे खास बात थी उनकी तात्कालिकता, वे किसी घटना पर तुरंत व्यंग्य लिखते थे जिससे पाठक उससे आसानी से जुड़ जाता था। उस समय हुए एक घोटाले पर उन्होंने ‘हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे’ नामक व्यंग्य लिखा। अपने शीर्षक से ही यह पूरी बात कह देता है। इसकी प्रासंगिकता आज भी बरकरार है। वे अपने व्यंग्यों में किसी को नहीं बख्शते थे, चाहे वह प्रधानमंत्री हो या निचले स्तर का कोई व्यक्ति हो। नवभारत टाइम्स में उनका कॉलम ‘प्रतिदिन’ बहुत लोकप्रिय था, यहां तक की लोग उसके लिए अखबार को पीछे से पढ़ना शुरू करते थे। शरद जी अपने पाठक के प्रति सदैव प्रतिबद्ध रहे। अखबारों में छपने वाले लेख की साहित्यिक उम्र अधिक नहीं मानी जाती पर उनके कॉलम भी साहित्य की अमूल्य धरोहर बन गए और आज किताबों के रूप में हमारे सामने हैं। शरद जोशी का जन्म 21 मई 1931 को मध्य प्रदेश के उज्जैन में हुआ। उन्होंने इंदौर के होल्कर कॉलेज से बीए किया और यहीं पर समाचार पत्रों तथा रेडियो में लेखन के जरिए अपने कॅरियर की शुरुआत की। उन्होंने ‘जीप पर सवार इल्लियां’, ‘परिक्रमा’, ‘किसी बहाने’, ‘तिलस्म, ‘यथा संभव’, ‘रहा किनारे बैठ’ सहित कई किताबें लिखीं। इसके अलावा जोशी जी ने कई टीवी सीरियलों और फिल्मों में संवाद भी लिखे। पांच सितंबर 1991 को उनका देहावसान हुआ पर वे अपने साहित्य के माध्यम से अमर हैं।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 236 ⇒ मुझको मेरे बाद ज़माना ढूँढेगा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आड़े तिरछे लोग…।)

?अभी अभी # 236 ⇒ मुझको मेरे बाद ज़माना ढूँढेगा… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

ज़माने ने मारे जवां कैसे कैसे, जमीं खा गई आसमां कैसे कैसे। जहां पल दो पल का साथ हो, वहां कौन किसको याद करता है, किसी की याद में दो आंसू बहाता है। देखी जमाने की यारी, बिछड़े, सभी बारी बारी।

हम एक साधारण व्यक्ति को आम कहते हैं, और असाधारण को खास। एक साधारण व्यक्ति में हमें कुछ भी असाधारण नजर नहीं आता, जिसके बारे में कबीर कह भी गए हैं ;

पानी केरा बुदबुदा

अस मानस की जात।

देखत ही छुप जाएगा

ज्यों तारा परभात।।

लेकिन होते हैं कुछ लोग असाधारण, जिनमें लोग साधारण ढूंढा करते हैं। कितना बड़ा आदमी, लेकिन इत्ता भी घमंड नहीं। एक साधारण इंसान की अच्छाई किसी को नजर नहीं आती, पहले असाधारण बनिए, उसके बाद ही आपके गुण दोष नजर आएंगे। लेकिन कोई व्यक्ति महान यूं ही नहीं बन जाता।।

कुछ देश के लिए, कुछ समाज के लिए, कुछ इंसानियत के लिए, और कला, संगीत और साहित्य के अलावा भी जब कुछ असाधारण किया जाता है, तब ही दुनिया आपको याद करती है, सलाम करती है, और आपका नाम इतिहास में दर्ज हो जाता है।

महानता अथवा प्रसिद्धि काजल की कोठरी भी है। यहां कालिख का दाग बहुत जल्द लगता है। यहां अगर चंद रायचंद हैं तो कुछ जयचंद भी! जलने वाले और टांग खींचने वाले, हर दो कदम पर मौजूद हैं यहां। गला काट स्पर्धा में, आगे बढ़कर नाम कमाना, और अपनी नेकी और काबिलियत से इल्म और शोहरत की दुनिया में नाम कमाना इतना आसान भी नहीं।।

कौन था मोहम्मद रफी! एक पेशेवर फिल्मी गायक ही तो था। खूब पैसा और शोहरत कमाई बाकी फिल्मी हस्तियों की तरह।

बड़ा आदमी इंसान यूं ही नहीं बन जाता। कुछ ऐब, कुछ ठाठ-बाट और कुछ विचित्र आदतें, उसे और खास बना देती है।

वह एक कलाकार है, कोई संत महात्मा नहीं। वैसे असली ठाठ-बाट तो आजकल राजनेता, अभिनेता, क्रिकेट खिलाड़ी और संत महात्माओं के ही हैं।

ऐसे असाधारण और महान व्यक्तियों की भीड़ में अगर कोई एक अदना सा गायक यह कह जाए, कि मुझको मेरे बाद जमाना ढूंढेगा, तो एकाएक यकीन नहीं होता। क्या ऐसा खास था, इस इंसान में जो आम से भी अलग, खासमखास था।

क्या यह नेकी और सादगी का ही नूर था उस कोहिनूर में, जो आज उसके चले जाने के ४३ बरस बाद भी हमें यह कहने को मजबूर करता है, वो जब याद आए, बहुत याद आए।।

दीवाना मुझ सा नहीं

इस अंबर के नीचे।

आगे है कातिल मेरा

और मैं पीछे पीछे।।

पाया है, दुश्मन को

जब से प्यार के काबिल।

तब से ये आलम है,

रस्ता याद ना मंजिल,

नींद में जैसे चलता है

कोई

चलना यूं ही आँखें मींचे।।

पूरी इंसानियत को अगर आज एक छत के नीचे देखना हो तो बस रफी को सुन लो, गुनगुना लो। छल, स्वार्थ, राजनीति और नफरत से परे एक दुनिया है मोहब्बत की, जिसका नाम मोहम्मद रफी है।

मेरे दुश्मन तू मेरी दोस्ती को तरसे। लेकिन, है अगर दुश्मन दुश्मन जमाना, गम नहीं। कोई आए, कोई जाए, हम किसी से कम नहीं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 235 ⇒ सौ बार जनम लेंगे… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सौ बार जनम लेंगे।)

?अभी अभी # 235 ⇒ सौ बार जनम लेंगे… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आज हम नहीं कहेंगे, बहारों फूल बरसाओ, क्योंकि दुनिया जानती है, आज से सौ साल पहले, आज ही के दिन, यानी 24 दिसंबर 1924 को आसमान से एक फरिश्ता हमें प्यार का सबक सिखलाने आया था। आओ तुम्हें मैं प्यार सिखा दूं, वह खुद बहारों की बारात साथ लेकर साथ आया था। जैसी मुस्कुराहट उसके हंसते हुए नूरानी चेहरे पर जन्म के समय थी, वही मुस्कुराहट और ढेर सारी नेकी और प्यार वह अपने नगमों के जरिए हम सबमें लुटा गया ;

बा होशो हवास मैं दीवाना

ये आज वसीयत करता हूं।

ये दिल ये जाॅं मिले तुमको,

मैं तुमसे मोहब्बत करता हूं।।

आज रफी साहब का जन्म दिन ही नहीं, उनके जन्म शताब्दी महोत्सव का आज

पहला दिन है। पूरे साल उनके नगमे आसमान में वैसे ही गूंजेंगे, जैसे उनकी आवाज हमेशा हमारे कानों में गूंजती आई है। साल में दो बार इस इंसान को याद किया जाता है, आज के दिन, यानी 24 दिसंबर और 31 जुलाई 1980, जिस दिन यह पंछी अपने बाग को छोड़ आसमान में उड़ गया था।

मुझे अच्छी तरह याद है, रफी साहब की 25 वीं पुण्यतिथि पर रेडियो सीलोन ने पूरा जुलाई माह इस गायक को श्रद्धापूर्वक समर्पित कर दिया था। 1जुलाई से 31 जुलाई तक रेडियो सीलोन पर केवल रफी साहब की ही आवाज गूंजी थी। वो जब याद आए, बहुत याद आए। क्या दिन, महीना और साल, क्योंकि ;

जनम जनम का साथ है, हमारा तुम्हारा।

अगर मिले ना इस जीवन में

लेंगे जनम दोबारा।।

क्योंकि उनका ही यह वादा था ;

सौ बार जनम लेंगे

सौ बार फना होंगे।

ऐ जाने वफा फिर भी

हम तुम ना ज़ुदा होंगे।।

जन्मदिन खुशी का मौका होता है, आज किसी के गम में आंसू नहीं बहाते, लेकिन खुशी में भी कहां बाज आते हैं ये आंसू। क्योंकि ये आंसू मेरे दिल की जुबान है।।

हमारा दिल भी तो एक मंदिर ही है। रफी साहब का तो इबादत का अंदाज भी निराला ही था ;

एक बुत बनाऊंगा और पूजा करूंगा।

अरे मर जाऊंगा यार

अगर मैं दूजा करूंगा।

जिसकी अंखियां हरि दर्शन को प्यासी हों, जिसकी आंखों में हमने प्यार ही प्यार बेशुमार देखा हो, जो बस्ती बस्ती, परबत परबत, एक बंजारे की तरह, दिल का इकतारा लेकर गाता रहता हो, और प्यार के गीत सुनाता हो, अपने दिल का दर्द बयां करता हो, आज उसके जन्मदिन पर यही कह सकते हैं :

बार बार दिन ये आए…

और हजारों सालों तक यह दुनिया आपके गीत गुनगुनाएं। आप जब भी याद आए, बहुत याद आए। बिछड़ने का तो सवाल ही नहीं, क्योंकि जन्म शताब्दी का तो आज फकत आगाज़ ही है ;

मेरी आवाज सुनो,

प्यार का राज़ सुनो।

दिल का भंवर करे पुकार,

प्यार का राग सुनो।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 234 ⇒ ठंड, धूप और भूख… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ठंड, धूप और भूख…।)

?अभी अभी # 234 ⇒ ठंड, धूप और भूख… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिस तरह मनुष्य की मूल भूत तीन आवश्यकताएं, रोटी, कपड़ा और मकान हैं, उसी तरह उसके स्वस्थ रहने की केवल तीन अवस्थाएं हैं, सर्दी का मौसम हो, जम से ठंड पड़ रही हो, सुबह सुबह आसमान साफ हो, और खूब तेज धूप निकल रही हो, और पेट में चूहे कबड्डी खेल रहे हों। यानी जोरदार ठंड, कड़कती धूप और जबरदस्त भूख की अगर सुबह सुबह जुगलबंदी हो जाए, तो तन, मन और उपवन में राग मस्ती और तंदुरुस्ती का आनंद लिया जा सकता है।

तेज धूप ठंड को रोशन तो करती ही है, ठंड में पेट की जठराग्नि को और भी बढ़ाती है। जो उबलती चाय का स्वाद, बर्फीली ठंड में जुबां को नसीब होता है, वही गुनगुना स्पर्श, नख से लेकर शिख तक, यानी तलवों से चोटी तक, उजल धूप से इस शरीर को प्राप्त होता है।।

यह एक सात्विक, इस लोक में अलौकिक, ऐसा सुख है, जिसमें इंसान की ना कौड़ी खर्च होती है, और ना एक धेला। इस धूप समाधि पर हर जड़ चेतन, कीड़े मकौड़े से लगाकर पशु, पक्षी, वन वनस्पति, पेड़ पौधे और फल फूलों का भी उतना ही अधिकार है। ठंड में खुली धूप का सुख, हर अमीर गरीब इंसान और कुत्ते बिल्ली तक के लिए, मुफ्त में उपलब्ध है। ठंड में जहां भी धूप फैली है, आप भी फैल जाइए। धूप में विटामिन डी जो है।

कड़ाके की ठंड हो, आसमान से धूप बरस रही हो, और ऐसे में भूख ना लगे, ऐसा हो ही नहीं सकता। जब चैन, संतुष्टि और सुख से पेट भर जाता है तो इंसान की भूख और भी बढ़ जाती है। धूप में कोई गन्ना चूस रहा है तो कोई सब्जी सुधारते सुधारते, गाजर मूली ही खा रहा है। बस दिन भर खाते रहो, चबाते रहो, पचाते रहो।।

ठंड में गर्म चीजें, तो गर्मी में ठंडी चीजें। कितने काढ़े, गर्मागर्म सूप ही नहीं,

सर पर टोपा, बदन पर शॉल, मफलर, कोट और गर्म जैकेट भी ! सुबह अगर पूरी कायनात को धूप का इंतजार होता है, तो रात होते ही, कंबल, बिस्तर और रजाई की याद आने लगती है। जो मजा सिगड़ी और अलाव की आग का है, वह रूम हीटर वालों को कहां नसीब।

ईश्वर ने ठंड केवल धूप खाने के लिए ही नहीं बनाई, हाजमे और स्वास्थ्य का खयाल रखते हुए सुबह सुबह दूध जलेबी के

सेवन के लिए भी बनाई है। गुड़, तिल्ली और मूंगफली खाने के लिए कोई मुहूर्त नहीं निकाला जाता। छोड़िए आलू की कचोरी को, भुट्टे और मटर, यानी बटले की कचोरी खाइए। किस को नहीं पसंद, अपनी पत्नी के हाथ का बना भुट्टे का किस और उसमें ढेर सारा नींबू और जिरावन !

अब गराडू़ की बात तो बस रहने ही दो। ताजा घर का बिलोया हुआ मक्खन और मक्के की रोटी और सरसों के साग का प्रोग्राम है आज।।

खूब जमेगी, जब मिल बैठेंगे हम चार यार, ठंड, धूप, तगड़ी भूख और आप सबका ढेर सारा प्यार। जलूल जलूल से आप भी आइए, लेकिन हां, धूप साथ लेकर आइए ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 63 – देश-परदेश – उल्लुनामा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 63 ☆ देश-परदेश – उल्लुनामा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

बचपन में घर के बड़े बजुर्ग, शिक्षक आदि और जवानी में उच्च अधिकारी उल्लू, गधा इत्यादि की उपाधि से हमें नवाज़ा करते थे।

इन दोनों जीवों को समाज ने हमेशा तिस्कृत दृष्टि से ही दुत्कारा है। व्यापार जगत में भी इनके नाम से कोई भी वस्तु (ब्रैंड) नहीं बन सकी है।

शेर, ऊंट, मुर्गा इत्यादि के नाम से तो बीड़ी भी खूब प्रसिद्ध हुई हैं। लेकिन कभी भी उल्लू या गधे के नाम से कोई भी प्रतिष्ठान कार्यरत सुनने में नहीं आया।

“यहां गधा पेशाब कर रहा है” कुछ इस प्रकार के लिखे हुए शब्द दीवार पर अवश्य देखने को मिल जाते हैं। समय की मांग को देखते हुए, हो सकता है, इस वाक्य को हवाई जहाज के अंदर भी लिखा जा सकता है।

उपरोक्त फोटू में प्रथम बार “समझदार उल्लू (wise owl)” के नाम से पेड़ पर बांधे जाने वाले झूले विक्रय के लिए उपलब्ध देखने को मिला, वैसे उल्लू भी अधिकतर पेडों पर ही पाए जाते हैं। लक्ष्मी देवी की सवारी भी तो उल्लू ही है।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 233 ⇒ मेहनत का मोती… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मेहनत का मोती…।)

?अभी अभी # 233 ⇒ मेहनत का मोती… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जहां मेहनत है, वहां पसीना है, पसीने की हर बूंद किसी मोती से कम नहीं होती।

यूं ही नहीं किसी को लौह पुरुष और विकास पुरुष कहा जाता है, अरे कोई कारण होगा। श्रम में कैसी शर्म।

दफ्तर में हमारे एक सहयोगी थे मालवीय जी। सीधे सादे, गंभीर किस्म के, काम से काम रखने वाले, संकोची इंसान ! जो व्यक्ति जल्दी खुलता नहीं, उसके रोचक किस्सों का पिटारा बहुत जल्द खुल जाता है। कुछ साथी उन्हें दबी जुबान से मेहनत का मोती कहते थे। ऐसे रहस्य बहुत जल्द उजागर नहीं होते।।

देखादेखी हमने भी उनमें रुचि लेना शुरू कर दिया।

कुछ लोग परिश्रम से उपाधि हासिल करते हैं और कुछ को उपाधि मुफ्त में ही प्रदान कर दी जाती है। दादा, पंडित जी, गुरु जी, खलीफा पहलवान और डॉक्टर जैसी सम्मानजनक उपाधियां हमारे दफ्तरों में खुले आम बांटी जाती है, बिना हींग और फिटकरी के। और वे भी इसे ससम्मान ग्रहण कर लेते हैं।

लेकिन कुछ दबी जुबान की उपाधियां सार्वजनिक नहीं होती। बहुत हिटलर, खड़ूस, कंजूस मक्खीचूस, और दिलफेंक रोमियो होते हैं दफ्तरों में जिनमें कोई श्याणा कौआ होता है, तो कोई बहुत चलती रकम।।

हमारे रहस्यमयी मेहनत के मोती, मालवीय जी पर भी रिसर्च की गई तो पता चला, मोती उनका बचपन का नाम था, क्योंकि घर में एक हीरा पहले ही पैदा हो गया था। जन्म से ही उनके चेहरे पर चेचक के दाग थे, जिनका मेहनत से कोई सरोकार नहीं था। उन्हें मोती नाम पसंद नहीं था, क्योंकि मोहल्ले में सड़क पर और भी उनके हमनाम घूमा करते थे। शायद इसीलिए दफ्तर के रेकॉर्ड में उनका नाम एम. एल.मालवीय, यानी मांगीलाल मालवीय था। इस नाम और संबोधन से उन्हें रत्ती भर भी आपत्ति नहीं थी।

जब भी हम मालवीय जी को देखते, हमें हमारे सामने मेहनत का मोती नजर आता, लेकिन कभी हिम्मत नहीं हुई, उनसे पूछने की, उन्हें दबी जुबान से मेहनत का मोती क्यूं कहते हैं। लेकिन आखिरकार एक दिन वह भी आ ही गया, जब हमें इस मेहनत के मोती का राज भी पता चल गया।।

हुआ यूं, कि अचानक शाम को दफ्तर खत्म होने पर हम साथ साथ बाहर निकले। कुछ ही दूर पर उनका दुपहिया वाहन खड़ा था, जिस पर शुद्ध हिंदी में मेहनत का मोती लिखा हुआ था। हम तो एकाएक उछल ही पड़े, मालवीय जी

यह गाड़ी आपकी है ? वे हमारा आशय समझ गए !

हां शर्मा जी, यह गाड़ी हमारी है, और हमारे खरे पैसे की कमाई है। अगर हमने इस पर मेहनत का मोती लिखवा दिया तो

आपको क्या आपत्ति है !हमने संभलकर जवाब दिया, नहीं मालवीय जी,

किसने कहा। यह तो बहुत अच्छी बात है। वह आश्वस्त हुए या नहीं, पता नहीं, लेकिन मेहनत के मोती का राज़ तो खुल चुका था। फिर भी मजाल है, कोई उन्हें खुले आम मेहनत का मोती कहकर पुकार ले। अब उन्हें कौन समझाए, जब वे अपने वाहन पर गुजरते हैं, सब यही तो कहते हैं, देखो, वह मेहनत का मोती जा रहा है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 220 – यथार्थ की कल्पना ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 220 ☆ यथार्थ की कल्पना ?

कल्पनालोक.., एक शब्द जो प्रेरित करता है अपनी कल्पना का एक जगत तैयार कर उसमें विचरण करने के लिए। यूँ देखें तो कल्पना अभी है, कल्पना अभी नहीं है। इस अर्थ में इहलोक भी कल्पना का ही विस्तार है। कहा गया है, ‘ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या’ किंतु घटता इसके विपरीत है। सामान्यत: जीवात्मा, मोहवश ब्रह्म को विस्मृत कर जगत को अंतिम सत्य मानने लगता है। सिक्के का दूसरा पक्ष है कि वर्तमान के अर्जित ज्ञान को आधार बनाकर मनुष्य भविष्य के सपने गढ़ता है। सपने गढ़ना अर्थात कल्पना करना। कल्पना अपनी प्रकृति में तो क्षणिक है पर उसके गर्भ में कालातीत होने की संभावना छिपी है। 

शब्द और उसके अर्थ के अंतर्जगत से निकलकर खुली आँख से दिखते वाह्यजगत में लौटते हैं।

वाह्यजगत में सनातन संस्कृति जीवात्मा को चौरासी लाख योनियों में परिक्रमा कराती है। लख चौरासी के संदर्भ में पद्मपुराण कहता है,

जलज नव लक्षाणि, स्थावर लक्ष विंशति:, कृमयो रुद्रसंख्यक:।

पक्षिणां दश लक्षाणि त्रिंशल लक्षाणि पशव: चतुर्लक्षाणि मानव:।

अर्थात 9 लाख जलचर, 20 लाख स्थावर पेड़-पौधे, 11 लाख सरीसृप, कीड़े-मकोड़े, कृमि आदि, 10 लाख पक्षी/ नभचर, 30 लाख पशु/ थलचर तथा 4 लाख मानव प्रजाति के प्राणी हैं।

सोचता हूँ जब कभी घास-फूस-तिनका बना तब जन्म कहाँ पाया था? किसी घने जंगल में जहाँ खरगोश मुझ पर फुदकते होंगे, हिरण कुलाँचे भरते होंगे, सरीसृप रेंगते होंगे। हो सकता है कि फुटपाथ पर पत्थरों के बीच से अंकुरित होना पड़ा हो जहाँ अनगिनत पैर रोज मुझे रौंदते होंगे। संभव है कि सड़क के डिवाइडर में शोभा की घास के रूप में जगत में था, जहाँ तय सीमा से ज़रा-सा ज़्यादा पनपा नहीं कि सिर धड़ से अलग।

जलचर के रूप में केकड़ा, छोटी मछली से लेकर शार्क, ऑक्टोपस, मगरमच्छ तक क्या-क्या रहा होऊँगा! कितनी बार अपने से निर्बल का शिकार किया होगा, कितनी बार मेरा शिकार हुआ होगा।

पेड़-पौधे के रूप में नदी किनारे उगा जहाँ खूब फला-फूला। हो सकता है कि किसी बड़े शहर की व्यस्त सड़क के किनारे खड़ा था। स्थावर होने के कारण इसे ऐसे भी कह सकता हूँ कि जहाँ मैं खड़ा था, वहाँ से सड़क निकाली गई। कहने का तरीका कोई भी हो, हर परिस्थिति में मेरी टहनियों ने जब झूमकर बढ़ना चाहा होगा, तभी उनकी छंटनी कर दी गई होगी। विकास से अभिशप्त मेरा कभी फलना-फूलना न हो सका होगा। स्वाभाविक मृत्यु भी शायद ही मिली होगी। कुल्हाड़ी से काटा गया होगा या ऑटोमेटिक आरे से चीर कर वध कर दिया होगा।

सर्प का जीवन रहा होगा, चूहे और कनखजूरे का भी। मेंढ़क था और डायनासोर भी। केंचुआ बन पृथ्वी के गर्भ में उतरने का प्रयास किया, तिलचट्टा बन रोशनी से भागता रहा। सुग्गा बन अनंत आकाश में उड़ता घूमा था या किसी पिंजरे में जीवन बिताया होगा जहाँ से अंतत: देह छोड़कर ही उड़ सका।

माना जाता है कि मनुष्य जीवन, आगमन-गमन के फेरे से मुक्ति का अवसर देता है। जानता हूँ कि कर्म ऐसे नहीं कि मुक्ति मिले। सच तो यह है कि मैं मुक्ति चाहता भी नहीं।

चाहता हूँ कि बार-बार लौटूँ इहलोक में। हर बार मनुज की देह पाऊँ। हर जन्म लेखनी हाथ में हो, हर जन्म में लिखूँ, अनवरत लिखूँ, असीम लिखूँ।

इतना लिखूँ कि विधाता मुझे मानवमात्र का लेखा लिखने का काम दे। तब मैं मनुष्य के भीतर दुर्भावना जगाने वाले पन्ने कोरे छोड़ दूँ। दुर्भावनारहित मनुष्य सृष्टि में होगा तो सृष्टि परमात्मा के कल्पनालोक का जीता-जागता यथार्थ होगी।

चाहता हूँ कि इस कल्पना पर स्वयं ईश्वर कहें, ‘तथास्तु।’

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मार्गशीर्ष साधना 28 नवंबर से 26 दिसंबर तक चलेगी 💥

🕉️ इसका साधना मंत्र होगा – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 232 ⇒ पकड़ लो, हाथ गिरधारी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पकड़ लो, हाथ गिरधारी।)

?अभी अभी # 232 ⇒ पकड़ लो, हाथ गिरधारी… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बात आज की नहीं, कई बरसों पुरानी है, एक फिल्म आई थी शहनाई, जिसमें राजेंद्र कृष्ण का एक गीत रफी साहब की आवाज में था, जो सुनते सुनते, जबान पर चढ़ गया था ;

ना झटको, जुल्फ से पानी,

ये मोती फूट जाएंगे।

तुम्हारा कुछ ना बिगड़ेगा

मगर दिल टूट जाएंगे।।

सन् १९६४ की यह फिल्म थी, और हमने ज़ुल्फ और हुस्न जैसे शब्द केवल सुन ही रखे थे, इनके अर्थ के प्रति हम इतने गंभीर भी नहीं थे। आप चाहें तो कह सकते हैं, हम उदासीन की हद तक मंदबुद्धि थे। ऐ हुस्न, जरा जाग तुझे इश्क जगाए, जैसे गीत हमें जरा भी जगा ना सके, और शायद इसीलिए ये गीत हमें सुनने में तो अच्छे लगते थे, लेकिन हम कभी सुर में गा न सके। फिर भी हम यह मानते हैं कि सुर की साधना भी परमेश्वर की ही साधना है।

तब अखबारों में भी विज्ञापन आते थे, और जगह जगह लाउडस्पीकर पर फिल्मी कथावाचक फिल्मी धुनों पर अच्छे अच्छे भजन प्रस्तुत किया करते थे। संगीत अगर कर्णप्रिय हो, तो सुधी श्रोता के कानों में प्रवेश कर ही जाता है।।

महिलाएं कामकाजी हों या घरेलू, पूजा पाठ, व्रत उपवास और भजन सत्संग के लिए समय निकाल ही लेती है। शादी ब्याह हो या कोई मंगल प्रसंग, सत्य नारायण की कथा अथवा कम से कम भजन कीर्तन तो बनता ही है। महिलाओं की शौकिया और कम खर्चीली भजन मंडलियाॅं भी होती हैं, जो केवल एक ढोलक की थाप पर ऐसा समाॅं बाॅंधती हैं, कि देखते ही बनता है।

भजन और आरती संग्रह का साहित्य ही इनकी जमा पूंजी होता है। रात दिन गाते गाते इन्हें सभी भजन कंठस्थ हो चुके होते हैं।

गृह कार्य से निवृत्त हो, जब इनकी मंडली जमती है, तो कुछ ही समय में सभी देवताओं का आव्हान कर लिया जाता है। राम जी भी आना, सीता जी को भी साथ लाना। करना ना कोई बहाना बहाना।।

महिला संगीत तो आजकल विवाह समारोहों का एक आवश्यक अंग बन चुका है। खुशी का मौका होता है, गाना बजाना और डांस तो बनता ही है।

परिवार वालों की महीनों प्रैक्टिस होती है, एक एक गीत के लिए। इवेंट मैनेजमेंट का एक प्रमुख हिस्सा है महिला संगीत, कोई मजाक नहीं।

जो पुरुष ताउम्र कहीं नहीं नाचा, उसे उसकी पत्नी और बच्चे सबके सामने नचाकर ही मानते है। और गीत भी कैसा, लाल छड़ी, क्या खूब लड़ी, क्या खूब लड़ी।

पिछली रात आसपास की महिलाएं यूं ही घर में मिल बैठी तो बिना ढोलक के ही सुर निकलने लगे। महिलाओं का स्वर पुरुष के स्वर से अधिक मीठा और अधिक सुरीला होता है। अचानक एक भजन पर मेरा ध्यान चला गया, वही मेरी प्यारी धुन लेकिन कितने खूबसूरत बोल ;

पकड़ लो हाथ बनवारी

नहीं तो डूब जाएंगे।

तुम्हारा कुछ ना बिगड़ेगा

तुम्हारी लाज जाएगी।।

 

धरी है, पाप की गठरी

हमारे सर पे ये भारी।

वजन पापों का है भारी

इसे कैसे उठाएंगे।।

 

तुम्हारे ही भरोसे पर

जमाना छोड़े बैठे हैं।

जमाने की तरफ देखो

इसे कैसे निभाएंगे।।

 

दर्दे दिल की कहें किससे

सहारा ना कौन देगा।

सुनोगे आप ही मोहन

और किसको सुनाएंगे।।

 

फॅंसी है, भॅंवर में नैया

प्रभु अब डूब जाएगी।

खिवैया आप बन जाओ

तो बेड़ा पार हो जाए।।

 

पकड़ लो हाथ गिरधारी ..

कोई बुद्धि, दिखावे और प्रपंच का खेल नहीं, कोई बहस, विवाद, तर्क वितर्क नहीं, बस कुछ पल का बिना शर्त समर्पण है यह ;

सौंप दिया अब जीवन का सब भार तुम्हारे चरणों में।

अब जीत भी तुम्हारे चरणों में

और हार भी तुम्हारे चरणों में।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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