श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ताइवान के अमरूद।)

?अभी अभी # 237 ⇒ ताइवान के अमरूद… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

अगर आपने बागपत के खरबूजों की तारीफ सुनी है, तो हमने भी बड़वानी के पपीते खाए हैं। आज अगर लोकल फॉर वोकल और स्वदेशी का जमाना है, तो हमारा जमाना तो पूरा देसी ही था। मांडव की खिरनी और फलबाग के जाम अगर देसी थे तो बड़वाह का चिवड़ा और राऊ की कचौरी भी अपनी ही तो थी।

सूरज की पहली किरण के साथ ही, दूध, अखबार, अटाला और सब्जी वाला मोहल्ले में एक साथ दस्तक देते थे। उनके सभी लोकल काम, वोकल ही तो होते थे। सूर्योदय से पहले ही सबसे पहला संगीत सड़क पर झाड़ू बुहारने का गूंजा करता था। और फिर शुरू होता था बिग बास्केट और ज़ोमेटो की जगह ठेलों पर ताजी सब्जियों, और फलों का तांता, अपने अपने सुर और राग में। एक ही सांस में सभी सब्जियों के नाम। तेरी आवाज ही पहचान है। फेरी वालों की पहचान आवाज से ही होती थी।

दोपहर होते होते तो एक बूढ़ी लेकिन कड़क आवाज हींग वाले की भी सुनाई दे जाती थी।।

तब तो टमाटर भी देसी ही आते थे और नींबू भी कागदी, बिल्कुल पीयर्स साबुन की तरह पारदर्शी। फिर शुरू हुआ संकर मक्का और हाइब्रीड का दौर! टमाटर भी देसी और सलाद के आने लगे, बिना बीज के, बिना रस, स्वाद और खटाई के। बीज से लोगों को पथरी होने लगी।

रासायनिक खाद ने छिलकों में छोड़िए, पूरे फलों में ही जहर भर दिया।

पहले अंगूर खट्टे और बीज वाले होते थे। आज उन्नत अंगूर देखिए बिना बीज वाले, लंबे लंबे, नासिक वाले। आज आप कौन से संतरे खा रहे हैं, आप ही जानें। हम तो नागपुरी संतरों की बात कर रहे हैं।।

पपीते की जगह तो कब से ताइवान के पपीते ने ले रखी है, नासपाती और अमरूद ने मिलकर एक अलग ही खिचड़ी पका ली। केले समय पूर्व पकने के चक्कर में अपना स्वाद और खुशबू, सब खो चुके हैं। करते रहिए छींटाकशी, बाजार में छींटे वाले केले कहीं नजर नहीं आएंगे।

इस बार तो देसी भुट्टो के लिए भी तरस गए। यह कैसा स्वदेशी और लोकल फॉर वोकल, हर जगह अमरीकन भुट्टे का ही बोलबाला। जो किसान बोएगा, वही तो बाजार में उपलब्ध होगा।।

बदलते मौसम के साथ फलों की भी बहार आती है। एकाएक पूरे बाजार में ताजे ताजे, बड़े बड़े अमरूदों की बहार आ गई। अमरूद किसकी कमजोरी नहीं। एक अमरूद रोज, an apple a day, का ही काम करता है, क्योंकि इसके बीज आंतों की सफाई करते हैं और इसे शुगर वाले मरीज भी खा सकते हैं।

लेकिन हाय री किस्मत, इस बार हमें अमरूद भी ताइवान के ही हाथ लगे। हम अमरूदों की खुशबू पहचानते हैं। खुशबू तेरे बदन सी, किसी में नहीं नहीं! लेकिन पहली बार उस ताइवानी अमरूद की शक्लो सूरत और बाहरी सुंदरता पर मर मिटे। अच्छा मोटा ताजा, मुंह में पानी लाने वाला।।

हमें न जाने क्यों ऐसे वक्त पर बर्नार्ड शॉ याद आ जाते हैं। जो चाहते हो, वह पा लो, वर्ना जो पाया है, उसे ही चाहने लग जाओगे। अरहर और मूंग की दाल भी आजकल हमें आकार में छोटी नजर आने लगी है, बड़ी मांगो तो स्वाद और खुशबू गायब। अब तो बस, जो मिल गया, उसी को मुकद्दर समझ लिया। मैं स्वाद, खुशबू और गुणवत्ता के साथ समझौता करता चला गया।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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