डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख सुविधा-प्राप्त सम्मान…कितने सार्थक…। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 212 ☆

☆ सुविधा-प्राप्त सम्मान…कितने सार्थक

‘भीख में प्राप्त मान-सम्मान प्रगति के पथ में अवरोधक होते हैं, जो आपकी प्रतिभा को कुंद कर देते हैं’ यह कथन कोटिशः सत्य है। सन् 2011-12 में डॉ• नांदल द्वारा रचित एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी… ‘अभिनन्दन करवा लो’ बहुत सुंदर व्यंग्य-रचना थी, जिसमें आधुनिक साहित्यकारों की मनोवृत्ति व सोच का लेखा-जोखा बड़े सुंदर ढंग से रेखांकित किया गया था। आदिकाल व रीतिकाल … आश्रयदाताओं का गुणगान…एक पुरातन परंपरा, जिसका भरपूर प्रचलन आज तक हो रहा है; जिसे देख कर हृदय ठगा-सा रह गया, परंतु वह आज भी समसामयिक है। साहित्य जगत् में अक्सर लोग इस दौड़ अथवा प्रतिस्पर्द्धा में बढ़-चढ़कर भाग ही नहीं लेते; सर्वश्रेष्ठ स्थान पाने को भी आतुर रहते हैं। चंद कविता या कहानियाँ लिखीं या उनमें थोड़ा हेर-फेर कर अपने नाम से प्रकाशित करवा लीं…बस हो गए मूर्धन्य कवि व साहित्यकार…साहित्य जगत् के देदीप्यमान नक्षत्र, जिसकी रश्मियों का प्रकाश सीमित समय के लिए चहुंओर भासता है। अमावस के घने अंधकार में तो जुगनू भी राहत दिलाने में अहम् भूमिका निभाते हैं, भले ही वे पलभर में अस्त हो जाते हैं, परंतु उनका महत्व समय व स्थान के अनुकूल अत्यंत सार्थक होता है। उनका जीवन तो क्षणिक होता है और वे पानी के बुलबुले की मानिंद उसी जल में विलीन हो जाते हैं, क्योंकि यदि कुंभ के बाहर व भीतर जल होता है…कुंभ के टूटने के पश्चात् वह उसी में समा जाता है, एकाकार हो जाता है। परंतु वे साहित्यकार, जिन पर साहित्य के आक़ाओं का वरद्-हस्त होता है, अक्सर मंचों पर छाए रहते हैं। उनका महिमाण्डन बड़े-बड़े साहित्यकारों द्वारा ही नहीं किया जाता, मीडिया वाले भी उनके साक्षात्कार को अपनी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कर स्वयं को धन्य समझते हैं और उन्हें साक्षात् दर्शकों से रू-ब-रू करवा कर अपने भाग्य को सराहते व फूले नहीं समाते हैं और यह सिलसिला अनवरत चल निकलता है… भले ही उनकी लड़खड़ाती सांसें लंबे समय तक इनका साथ नहीं देतीं।

आप एक पुस्तक का संपादन कर भी अमर हो सकते हैं, भले वह आपके पूर्वजों द्वारा रचित हो या आप द्वारा संपादित… कृति आपके नाम से शाश्वत् हो जाती है और आप निरंतर सुर्खियों में बने रहते हैं। इतना ही नहीं, आजकल तो समाज के हर वर्ग का लेखक इस संक्रमण-रोग से पीड़ित है; जो बहुत शीघ्रता से फैलता ही नहीं; अपनी जड़ें भी गहराई तक स्थापित कर लेता है और उससे निज़ात पाने के निमित्त इंसान को लम्बे समय तक संघर्ष करना पड़ता है। इस प्रकार तथाकथित संस्थाओं में नाम व पद पाने के लिए, धन-संपदा लुटाने व पैसा बहाने में किसी को संकोच नहीं होता, क्योंकि ऐसे पदासीन लोगों व संस्थापकों के पीछे तो लोग मधुमक्खियों की भांति दौड़ते नज़र आते हैं तथा इसके उपरांत वे विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित भी किए जाते हैं।

‘आदान-प्रदान अर्थात् एक हाथ से दो और बदले में दूसरे हाथ से लो’ की प्रणाली निरंतर चली आ रही है। हम अपनी संस्कृति के उपासक हैं। पहले यह प्रथा हमारी विवशता थी; मजबूरी थी, क्योंकि इंसान को अपनी मूलभूत

आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए लेन-देन प्रणाली को अपनाना पड़ता था। इंसान रोटी, कपड़ा व मकान जुटाने का उपक्रम, लाख कोशिश करने के पश्चात् भी अकेला नहीं कर सकता था, जो आज भी संभव नहीं है। परंतु आधुनिक युग में संचार-व्यवस्था तो बहुत कारग़र है और पूरा विश्व ग्लोबल विश्व बन कर रह गया है। भौगोलिक दूरियां कम होने के कारण दिनों का सफ़र चंद घंटों में पूरा हो जाता है। सब वस्तुएं हर मौसम में हर स्थान पर उपलब्ध हो जाती हैं। परंतु हमने तो उस व्यवस्था को धरोहर सम संजोकर रखा है, जिसका उपयोग-उपभोग हम बड़ी शानोशौक़त व धड़ल्ले से आज तक कर रहे हैं।

परंतु इक्कीसवीं सदी में आत्मकेंद्रितता का भाव एकाकीपन व अजनबीपन के रूप में चहुंओर तेज़ी से पांव पसार रहा है, जो संवादहीनता के रूप में परिलक्षित है…जिसके परिणाम- स्वरूप हम अहंवादी होते जा रहे हैं। हमें अपने व अपने परिजनों के सिवाय कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता, ठीक उसी प्रकार जैसे सावन के अंधे को केवल हरा ही हरा दिखाई पड़ता है। वह केवल अपनों में ही रेवड़ियां बांटता है,क्योंकि वह केवल उनसे ही परिचित होता है। उसकी सोच का दायरा बहुत सीमित होता है तथा उसकी दुनिया केवल तथाकथित अपनों तक ही सीमित होती है। इसका प्रचलन हमारे साहित्य व विद्वत-समाज में बखूबी हो रहा है; जिसे देखकर मानव सोचने पर विवश हो जाता है कि साष्टांग दण्डवत् प्रणाम कर व धन-सम्पदा लुटाकर उपाधियां व प्रशस्ति-पत्र प्राप्त करने वाले कृपा-पात्र, केवल बड़े-बड़े मंचों पर आसीन ही नहीं होते; उनकी प्रशंसा व सम्मान में कसीदे भी गढ़े जाते हैं; जिसे सुनकर वे सीधे सातवें आसमान पर पहुंच जाते हैं और इस जहान के बाशिंदों से उनका संबंध- सरोकार शेष नहीं रह जाता।

इन्हीं दिनों कन्हैया लाल भट्ट जी का ‘राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कार और सम्मान—एक व्यवसाय’ और मनीष तिवारी जी की उक्त भाव व कटु सत्य को उजागर करती सार्थक कविता ‘ओ सम्मान वालो’ पढ़ने को मिलीं। दोनों रचनाओं में पुरस्कारों-सम्मानों की लालसा व दौड़ में अक्सर ऐसा ही देखने को मिल रहा है। वास्तव में जो सम्मान के हक़दार हैं, वे उन सम्मानों से वंचित रह जाते हैं। परंतु फिर भी वे शांत व निष्काम भाव से साहित्य-सृजनरत रहते हैं और आजीवन सम्मान के पात्र नहीं बन पाते।

आश्चर्य होता है, यह देखकर कि राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार नवाज़ने वाली संस्थाएं शॉल, श्रीफल व सम्मान-पत्र जुटाए विज्ञापन देती हैं तथा ऐसे लोगों की तलाश में रहती हैं…’पैसा दो; कार्यक्रम की व्यवस्था में सहयोग करो और राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर के सम्मान प्राप्त करो।’ इतना ही नहीं, उनके यहां मानद उपाधियों का भी अंबार लगा रहता है। ‘पैसा फेंको…और बदले में मनचाही उपाधि प्राप्त करो।’ पीएच• व डी•लिट्• की मानद उपाधियों से नवाज़े गये लोग यू•जी•सी• द्वारा प्रदत डिग्री के समकक्ष लिखने अर्थात् नाम से पहले ‘डॉक्टर’ लिखने से तनिक भी गुरेज़ नहीं करते, जबकि यह कानूनी अपराध है… बल्कि वे तो फख़्र महसूस करते हैं, क्योंकि वे तो बिना परिश्रम के, थोड़ी-सी धन-राशि जुटाकर वह सब पा लेते हैं; जिसे प्राप्त करने के लिए लोग वर्षों तक साधना करते हैं। उन दिनों उन्हें दिन-रात समान भासते हैं। परंतु आजकल तो कानून का भय, डर व ख़ौफ़ है ही कहां? यह आमजन के जीवन की त्रासदी है, जिसे आप हर मोड़ पर अनुभव कर सकते हैं।

वास्तव में उन साहित्यकारों की नियति देखकर असीम दु:ख होता है, जो एक तपस्वी की भांति शांत भाव से निरंतर चिंतन-मनन व लेखन करते रहते हैं और तिलस्मी दुनिया के कर्णाधारों को उन कर्मयोगियों की साधना की खबर तक भी नहीं होती। इस दुनिया में सबका अपना-अपना नसीब है, अपना-अपना भाग्य है, अपनी-अपनी तक़दीर है। परंतु यह तो पूर्वजन्म के कर्मों का लेखा-जोखा है…जिसे जितनी साँठगाँठ करने का सलीका व अनुभव होगा, वह उतने अधिक सम्मान पाने में समर्थ होगा। ‘शक्तिशाली विजयी भव’ अर्थात् जो जितना अधिक जोखिम उठाने का साहस जुटा पाएगा; उतना ही ख्याति-प्राप्त साहित्यकार बन जाएगा। तो आइए! अवसर का लाभ उठाने की प्रतियोगिता में प्रतिभागी बन जाइए और शामिल हो जाइए इस दौड़ में…जहां अध्ययन, परिश्रम व साधना अस्तित्वहीन हैं, उनकी तनिक भी दरक़ार नहीं। हां! इस तथ्य से तो आप सब अवगत होंगे कि ‘जितना गुड़ डालोगे, उतना मीठा होगा’ अर्थात् जितना धन जुटाओगे; उतना बड़ा सम्मान पाकर नाम कमाओगे।

यह भी अकाट्य सत्य है कि ‘यह सुविधा-प्राप्त सम्मान व पुरस्कार आत्मोन्नति के पथ में बाधक होते हैं और आपकी सोचने-विचारने की शक्ति को कुंद कर देते हैं। जब इंसान बिना प्रयास के आकाश की ऊंचाइयों को छूने में समर्थ हो जाता है, तो वह अपनी जड़ों से कट जाता है।’ वह इस तथ्य से भी बेखबर हो जाता है कि उसे लौट कर इसी धरा पर आना है; समाज के लोगों के मध्य अर्थात् उनके साथ ही रहना हैं। अत्यधिक प्रशंसा सदैव पतन का कारण बनती है और अकारण प्रशंसा करने वाले लोगों से मानव को सदैव सावधान रहना चाहिए, क्योंकि वे मित्र नहीं, शत्रु होते हैं; जो आपके हितैषी कदापि नहीं हो सकते। जैसे नमक की अधिकता रक्तचाप को बढ़ा देती है और व्यर्थ की चिंता अनगिनत रोगों की जनक है; जिससे निज़ात पाना संभव नही। आप चाहकर भी इस दुष्चक्र अथवा मिथ्या अहं-रूपी व्यूह से बाहर निकल ही नहीं सकते, क्योंकि उस स्थिति में आप स्वयं को सर्वश्रेष्ठ अनुभव करने लगते हैं। यह एक ऐसा लाइलाज रोग है;  जिससे मुक्ति पाना, नशे की गिरफ़्त से स्वतंत्र होने के समान कठिन ही नहीं; ना-मुमक़िन है, क्योंकि जितना व्यक्ति इसके चंगुल से बाहर आने का प्रयास करता है, उतना अधिक उस दलदल में धंसता चला जाता है। ‘यह मथुरा काजर की कोठरि,जे आवहिं ते कारे’ अर्थात् वहाँ से आने वाले सब, उसे काले ही नज़र आते हैं…पांचों इंद्रियों के दास, इच्छाओं के ग़ुलाम, अहंनिष्ठ, निपट स्वार्थी… सो! ऐसे माहौल में वह अपने सोचने-समझने की शक्ति खो बैठता है।

आइए! आत्मावलोकन करें; परिश्रम व साहस को जीवन में धारण कर निरंतर अध्ययन व गंभीर चिंतन की प्रवृत्ति में लीन रहें; अपने अहं को विगलित कर साहित्य-सृजन करना प्रारंभ करें। मुझे स्मरण हो रहा है वह प्रसंग–जब रवीद्रनाथ ठाकुर से अंतिम दिनों में किसी ने उन से यह प्रश्न किया कि 2000 गीतों की रचना करने के पश्चात् वे कैसा अनुभव करते हैं? टैगोर जी सोच में पड़ गये… ‘जो गीत वे लिखना चाहते थे, अब तक नहीं लिख पाए हैं।’ नोबल पुरस्कार विजेता के मुख से ऐसा अप्रत्याशित उत्तर सुन वह दंग रह गया।

रहीम जी ने ‘जे आवहिं संतोष धन, सब धन धूरि समान’ संतोष को सबसे बड़ा धन स्वीकारा है, परंतु साहित्य-सृजन के संदर्भ में संभावनाओं को ज़हन में रखना आवश्यक है…यही सफलता का सोपान है। ज्ञान असीम है, अनंत है, सागर की भांति अथाह है। जितना आप गहरे जल में गोता लगाएंगे; उतने अनमोल मोती व सीपियां आपके हाथ लगेंगी। सो! बड़े सपने देखिए, परंतु खुली आंखों से देखिए और तब तक आराम से मत बैठिए… जब तक आप मंज़िल पर नहीं पहुंच जाते। जीवन की अंतिम सांस तक निष्काम भाव से साहित्य सृजनरत रहिए; सुविधा-प्राप्त पुरस्कारों की प्रतियोगिता में प्रतिभागी मत बनिए…पीछे मुड़कर मत देखिए… बीच राह से लौटने के भाव को भी मन से निकाल दूर फेंकिए; रास्ते व गुणों के पारखी आपको स्वयं ही ढूंढ निकालेंगे। यही ज़िंदगी का मूलमंत्र है… सार है… मक़सद है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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