हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #279 ☆ आज ज़िंदगी : कल उम्मीद… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख आज ज़िंदगी : कल उम्मीद। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 279 ☆

☆ आज ज़िंदगी : कल उम्मीद… ☆

‘ज़िंदगी वही है, जो हम आज जी लें। कल जो जीएंगे, वह उम्मीद होगी’ में निहित है… जीने का अंदाज़ अर्थात् ‘वर्तमान में जीने का सार्थक संदेश’ …क्योंकि आज सत्य है, हक़ीकत है और कल उम्मीद है, कल्पना है, स्वप्न है; जो संभावना-युक्त है। इसीलिए कहा गया है कि ‘आज का काम कल पर मत छोड़ो,’ क्योंकि ‘आज कभी जायेगा नहीं, कल कभी आयेगा नहीं।’ सो! वर्तमान श्रेष्ठ है; आज में जीना सीख लीजिए अर्थात् कल अथवा भविष्य के स्वप्न संजोने का कोई महत्व व प्रयोजन नहीं तथा वह कारग़र व उपयोगी भी नहीं है। इसलिए ‘जो भी है, बस यही एक पल है, कर ले पूरी आरज़ू’ अर्थात् भविष्य अनिश्चित है। कल क्या होगा… कोई नहीं जानता। कल की उम्मीद में अपना आज अर्थात् वर्तमान नष्ट मत कीजिए। उम्मीद पूरी न होने पर मानव केवल हैरान-परेशान ही नहीं; हताश भी हो जाता है, जिसका परिणाम सदैव निराशाजनक होता है।

हां! यदि हम इसके दूसरे पहलू पर प्रकाश डालें, तो मानव को आशा का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि यह वह जुनून है, जिसके बल पर वह कठिन से कठिन अर्थात् असंभव कार्य भी कर गुज़रता है। उम्मीद भविष्य में फलित होने वाली कामना है, आकांक्षा है, स्वप्न है; जिसे साकार करने के लिए मानव को निरंतर अनथक परिश्रम करना चाहिए। परिश्रम सफलता की कुंजी है तथा निराशा मानव की सफलता की राह में अवरोध उत्पन्न करती है। सो! मानव को निराशा का दामन कभी नहीं थामना चाहिए और उसका जीवन में प्रवेश निषिद्ध होना चाहिए। इच्छा, आशा, आकांक्षा…उल्लास है,  उमंग है, जीने की तरंग है– एक सिलसिला है ज़िंदगी का; जो हमारा पथ-प्रदर्शन करता है, हमारे जीवन को ऊर्जस्वित करता है…राह को कंटक-विहीन बनाता है…वह सार्थक है, सकारात्मक है और हर परिस्थिति में अनुकरणीय है।

‘जीवन में जो हम चाहते हैं, वह होता नहीं। सो! हम वह करते हैं, जो हम चाहते हैं। परंतु होता वही है, जो परमात्मा चाहता है अथवा मंज़ूरे-ख़ुदा होता है।’ फिर भी मानव सदैव जीवन में अपना इच्छित फल पाने के लिए प्रयासरत रहता है। यदि वह प्रभु में आस्था व विश्वास नहीं रखता, तो तनाव की स्थिति को प्राप्त हो जाता है। यदि वह आत्म-संतुष्ट व भविष्य के प्रति आश्वस्त रहता है, तो उसे कभी भी निराशा रूपी सागर में अवग़ाहन नहीं करना पड़ता। परंतु यदि वह भीषण, विपरीत व विषम परिस्थितियों में भी उसके अप्रत्याशित परिणामों से समझौता नहीं करता, तो वह अवसाद की स्थिति को प्राप्त हो जाता है… जहां उसे सब अजनबी-सम अर्थात् बेग़ाने ही नहीं, शत्रु नज़र आते हैं। इसके विपरीत जब वह उस परिणाम को प्रभु-प्रसाद समझ, मस्तक पर धारण कर हृदय से लगा लेता है; तो चिंता, तनाव, दु:ख आदि उसके निकट भी नहीं आ सकते। वह निश्चिंत व उन्मुक्त भाव से अपना जीवन बसर करता है और सदैव अलौकिक आनंद की स्थिति में रहता है…अर्थात् अपेक्षा के भाव से मुक्त, आत्मलीन व आत्म-मुग्ध।

हां! ऐसा व्यक्ति किसी के प्रति उपेक्षा भाव नहीं रखता … सदैव प्रसन्न व आत्म-संतुष्ट रहता है, उसे जीवन में कोई भी अभाव नहीं खलता और उस संतोषी जीव का सानिध्य हर व्यक्ति प्राप्त करना चाहता है। उसकी ‘औरा’ दूसरों को खूब प्रभावित व प्रेरित करती है। इसलिए व्यक्ति को सदैव निष्काम कर्म करने चाहिए, क्योंकि फल तो हमारे हाथ में है नहीं। ‘जब परिणाम प्रभु के हाथ में है, तो कल व फल की चिंता क्यों?

वह सृष्टि-नियंता तो हमारे भूत-भविष्य, हित- अहित, खुशी-ग़म व लाभ-हानि के बारे में हमसे बेहतर जानता है। चिंता चिता समान है तथा चिंता व कायरता में विशेष अंतर नहीं अर्थात् कायरता का दूसरा नाम ही चिंता है। यह वह मार्ग है, जो मानव को मृत्यु के मार्ग तक सुविधा-पूर्वक ले जाता है। ऐसा व्यक्ति सदैव उधेड़बुन में मग्न रहता है…विभिन्न प्रकार की संभावनाओं व कल्पनाओं में खोया, सपनों के महल बनाता-तोड़ता रहता है और वह चिंता रूपी दलदल से लाख चाहने पर भी निज़ात नहीं पा सकता। दूसरे शब्दों में वह स्थिति चक्रव्यूह के समान है; जिसे भेदना मानव के वश की बात नहीं। इसलिए कहा गया है कि ‘आप अपने नेत्रों का प्रयोग संभावनाएं तलाशने के लिए करें; समस्याओं का चिंतन-मनन करने के लिए नहीं, क्योंकि समस्याएं तो बिन बुलाए मेहमान की भांति किसी पल भी दस्तक दे सकती हैं।’ सो! उन्हें दूर से सलाम कीजिए, अन्यथा वे ऊन के उलझे धागों की भांति आपको भी उलझा कर अथवा भंवर में फंसा कर रख देंगी और आप उन समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए छटपटाते व संभावनाओं को तलाशते रह जायेंगे।

सो! समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए संभावनाओं की दरक़ार है। हर समस्या के समाधान के केवल दो विकल्प ही नहीं होते… अन्य विकल्पों पर दृष्टिपात करने व अपनाने से समाधान अवश्य निकल आता है और आप चिंता-मुक्त हो जाते हैं। चिंता को कायरता का पर्यायवाची कहना भी उचित है, क्योंकि कायर व्यक्ति केवल चिंता करता है, जिससे उसके सोचने-समझने की शक्ति कुंठित हो जाती है तथा उसकी बुद्धि पर ज़ंग लग जाता है। इस मनोदशा में वह उचित निर्णय लेने की स्थिति में न होने के कारण ग़लत निर्णय ले बैठता है। सो! वह दूसरे की सलाह मानने को भी तत्पर नहीं होता, क्योंकि सब उसे शत्रु-सम भासते हैं। वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है तथा किसी अन्य पर विश्वास नहीं करता। ऐसा व्यक्ति पूरे परिवार व समाज के लिए मुसीबत बन जाता है और गुस्सा हर पल उसकी नाक पर धरा रहता है। उस पर किसी की बातों का प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि वह सदैव अपनी बात को उचित स्वीकार कारग़र सिद्ध करने में प्रयासरत रहता है।

‘दुनिया की सबसे अच्छी किताब हम स्वयं हैं… ख़ुद को समझ लीजिए; सब समस्याओं का अंत स्वत: हो जाएगा।’ ऐसा व्यक्ति दूसरे की बातों व नसीहतों को अनुपयोगी व अनर्गल प्रलाप तथा अपने निर्णय को सर्वदा उचित उपयोगी व श्रेष्ठ ठहराता है। वह इस तथ्य को स्वीकारने को कभी भी तत्पर नहीं होता कि दुनिया में सबसे अच्छा है–आत्मावलोकन करना; अपने अंतर्मन में झांक कर आत्मदोष-दर्शन व उनसे मुक्ति पाने के प्रयास करना तथा इन्हें जीवन में धारण करने से मानव का आत्म-साक्षात्कार हो जाता है और तदुपरांत दुष्प्रवृत्तियों का स्वत: शमन हो जाता है; हृदय सात्विक हो जाता है और उसे पूरे विश्व में चहुं और अच्छा ही अच्छा दिखाई पड़ने लगता है… ईर्ष्या-द्वेष आदि भाव उससे कोसों दूर जाकर पनाह पाते हैं। उस स्थिति में हम सबके तथा सब हमारे नज़र आने लगते हैं।

इस संदर्भ में हमें इस तथ्य को समझना व इस संदेश को आत्मसात् करना होगा कि ‘छोटी सोच शंका को जन्म देती है और बड़ी सोच समाधान को … जिसके लिए सुनना व सीखना अत्यंत आवश्यक है।’ यदि आपने सहना सीख लिया, तो रहना भी सीख जाओगे। जीवन में सब्र व सच्चाई ऐसी सवारी हैं, जो अपने शह सवार को कभी भी गिरने नहीं देती… न किसी की नज़रों में, न ही किसी के कदमों में। सो! मौन रहने का अभ्यास कीजिए तथा तुरंत प्रतिक्रिया देने की बुरी आदत को त्याग दीजिए। इसलिए सहनशील बनिए; सब्र स्वत: प्रकट हो जाएगा तथा सहनशीलता के जीवन में पदार्पण होते ही आपके कदम सत्य की राह की ओर बढ़ने लगेंगे। सत्य की राह सदैव कल्याणकारी होती है तथा उससे सबका मंगल ही मंगल होता है। सत्यवादी व्यक्ति सदैव आत्म-विश्वासी तथा दृढ़-प्रतिज्ञ होता है और उसे कभी भी, किसी के सम्मुख झुकना नहीं पड़ता। वह कर्त्तव्यनिष्ठ और आत्मनिर्भर होता है और प्रत्येक कार्य को श्रेष्ठता से अंजाम देकर सदैव सफलता ही अर्जित करता है।

‘कोहरे से ढकी भोर में, जब कोई रास्ता दिखाई न दे रहा हो, तो बहुत दूर देखने की कोशिश करना व्यर्थ है।’ धीरे-धीरे एक-एक कदम बढ़ाते चलो; रास्ता खुलता चला जाएगा’ अर्थात् जब जीवन में अंधकार के घने काले बादल छा जाएं और मानव निराशा के कुहासे से घिर जाए; उस स्थिति में एक-एक कदम बढ़ाना कारग़र है। उस विकट परिस्थिति में आपके कदम लड़खड़ा अथवा डगमगा तो सकते हैं; परंतु आप गिर नहीं सकते। सो! निरंतर आगे बढ़ते रहिए…एक दिन मंज़िल पलक-पांवड़े बिछाए आपका स्वागत अवश्य करेगी। हां! एक शर्त है कि आपको थक-हार कर बैठना नहीं है। मुझे स्मरण हो रही हैं, स्वामी विवेकानंद जी की पंक्तियां…’उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक तुम्हें लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए।’ यह पंक्तियां पूर्णत: सार्थक व अनुकरणीय हैं। यहां मैं उनके एक अन्य प्रेरक प्रसंग पर प्रकाश डालना चाहूंगी – ‘एक विचार लें। उसे अपने जीवन में धारण करें; उसके बारे में सोचें, सपना देखें तथा उस विचार पर ही नज़र रखें। मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों व आपके शरीर के हर हिस्से को उस विचार से भरे रखें और अन्य हर विचार को छोड़ दें… सफलता प्राप्ति का यही सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।’ सो! उनका एक-एक शब्द प्रेरणास्पद होता है, जो मानव को ऊर्जस्वित करता है और जो भी इस राह का अनुसरण करता है; उसका सफल होना नि:संदेह नि:शंक है; निश्चित है; अवश्यंभावी है।

हां! आवश्यकता है—वर्तमान में जीने की, क्योंकि वर्तमान में किया गया हर प्रयास हमारे भविष्य का निर्माता है। जितनी लगन व निष्ठा के साथ आप अपना कार्य संपन्न करते हैं; पूर्ण तल्लीनता व पुरुषार्थ से प्रवेश कर आकंठ डूब जाते हैं तथा अपने मनोमस्तिष्क में किसी दूसरे विचार के प्रवेश को निषिद्ध रखते हैं; आपका अपनी मंज़िल पर परचम लहराना निश्चित हो जाता है। इस तथ्य से तो आप सब भली-भांति अवगत होंगे कि ‘क़ाबिले तारीफ़’ होने के लिए ‘वाकिफ़-ए-तकलीफ़’ होना पड़ता है। जिस दिन आप निश्चय कर लेते हैं कि आप विषम परिस्थितियों में किसी के सम्मुख पराजय स्वीकार नहीं करेंगे और अंतिम सांस तक प्रयासरत रहेंगे; तो मंज़िल पलक-पांवड़े बिछाए आपकी प्रतीक्षा करती है, क्योंकि यही है… सफलता प्राप्ति का सर्वोत्तम मार्ग। परंतु विपत्ति में अपना सहारा ख़ुद न बनना व दूसरों से सहायता की अपेक्षा करना, करुणा की भीख मांगने के समान है। सो! विपत्ति में अपना सहारा स्वयं बनना श्रेयस्कर है और दूसरों से सहायता व सहयोग की उम्मीद रखना स्वयं को छलना है, क्योंकि वह व्यर्थ की आस बंधाता है। यदि आप दूसरों पर विश्वास करके अपनी राह से भटक जाते हैं और अपनी आंतरिक शक्ति व ऊर्जा पर भरोसा करना छोड़ देते हैं, तो आपको असफलता को स्वीकारना ही पड़ता है। उस स्थिति में आपके पास प्रायश्चित करने के अतिरिक्त अन्य कोई भी विकल्प शेष रहता ही नहीं।

सो! दूसरों से अपेक्षा करना महान् मूर्खता है, क्योंकि सच्चे मित्र बहुत कम होते हैं। अक्सर लोग विभिन्न सीढ़ियों का उपयोग करते हैं… कोई प्रशंसा रूपी शस्त्र से प्रहार करता है, तो अन्य निंदक बन आपको पथ-विचलित करता है। दोनों स्थितियां कष्टकर हैं और उनमें हानि भी केवल आपकी होती है। सो! स्थितप्रज्ञ बनिए; व्यर्थ के प्रशंसा रूपी प्रलोभनों में मत भटकिए और निंदा से विचलित मत होइए। इसलिये ‘प्रशंसा में अटकिए मत और निंदा से भटकिए मत।’ सो! हर परिस्थिति में सम रहना मानव के लिए श्रेयस्कर है। आत्मविश्वास व दृढ़-संकल्प रूपी बैसाखियों से आपदाओं का सामना करने व अदम्य साहस जुटाने पर ही सफलता आपके सम्मुख सदैव नत-मस्तक रहेगी। सो! ‘आज ज़िंदगी है और कल अर्थात् भविष्य उम्मीद है… जो अनिश्चित है; जिसमें सफलता-असफलता दोनों भाव निहित हैं।’ सो! यह आप पर निर्भर करता है कि आपको किस राह पर अग्रसर होना चाहते हैं।

●●●●

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 703 ⇒ फूल और पत्थर ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “फूल और पत्थर।)

?अभी अभी # 703 ⇒ फूल और पत्थर ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बच्चे फूल से नाजुक होते हैं, फूल से भी नाजुक नन्हीं नन्हीं कलियां होती हैं। फूलों का राजा गुलाब होता है, गुलाब में कांटे भी होते हैं और खुशबू भी। सार सार को ग्रहण करने वाला चतुर इंसान गुलाब से तो प्रेम करता है लेकिन कांटों में नहीं उलझता। वह किसी कली के फूल बनने का इंतजार भी नहीं करता। गुलाब की कलियां बारातियों को पेश की जाती हैं जो बाद में मसल दी जाती हैं। जिन फूलों को मंदिर में अपने आराध्य को चढ़ाया जाता है, वे ही फूल नेताओं के स्वागत में भी बरसाए जाते हैं। फूल को कोई ऐतराज नहीं, उसकी बनी माला इष्ट को समर्पित की जाए अथवा किसी मुख्य अतिथि के गले में अर्पित कर दी जाए। जन्म से विवाह, और विवाह से अंतिम यात्रा तक पुष्प को अनासक्त रूप से अर्पित और समर्पित ही होना है।

आप चाहें गुलाब को पांवों तले रौंदें अथवा उसका गुलाब जल अथवा गुलकंद बना लें, चम्पा, चमेली, जूही का गजरा बना लें, वेणी की तरह बालों में सजा लें, राजेंद्रकुमार की तरह एक फूल किसी के जूड़े में सजा दें, पुष्प को कोई ऐतराज नहीं। एक कवि भले ही पुष्प की अभिलाषा को अभिव्यक्त कर दे, पुष्प का समर्पण तो अव्यक्त और अहैतुक ही होता है। ।

जो रास्ते का एक पत्थर है, अथवा एक राहगीर के लिए मील का पत्थर है, जिस पत्थर की सीढ़ियों पर चलकर हम पहाड़ चढ़े हैं, जिस पत्थर ईंट से हमने घर बनाया है, उसी पत्थर की मूरत की जब मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा हो जाती है, तो वह भगवान हो जाता है।

फूल पत्थर की मूर्ति पर माला बन प्रतिष्ठित हो जाता है। फूल और पत्थर दोनों धन्य हो जाते हैं।

जिस पत्थर से हमने कभी ठोकर खाई है, उसी पत्थर को जब हम भगवान के रूप में पूजते हैं, तो वहां मत्था टेकते हैं, विनती करते हैं, गिड़गिड़ाते हैं, प्रेमाश्रु बहाते हैं और पूछते हैं ;

ओ रूठे हुए भगवान

तुझको कैसे मनाऊं

तुझको कैसे मनाऊं ?

फूल जहां भी गया, सबके चेहरों पर खुशियाँ बिखेरते गया, गम और खुशी दोनों में फूल ने हमारा साथ निभाया लेकिन पत्थर बड़ा पत्थर दिल निकला। ऐसा क्यों है, जब हमें गुस्सा आता है, हम कोई फूल नहीं तोड़ते, रास्ते पर पड़ा कोई पत्थर उठा लेते हैं। पत्थर एक ऐसा सर्वगुण संपन्न अस्त्र है जो फेंककर मारा जाता है। सिर्फ पत्थर फेंकने से भी गुस्सा शांत हो जाता है। मैने बचपन में अपने कई साथियों को, जब घर में मार पड़ती थी, तो उसका गुस्सा उन्हें सड़क पर राह चलते कुत्ते और सुअर को पत्थर मारकर उतारते देखा है। पहले गुस्सा किया जाता है, फिर किसी पर उतारा जाता है।

हमने भी बचपन में बहुत पत्थर फेंके हैं। गणेश चतुर्थी की रात को पहले चंद्रमा को देखना, फिर दूसरों की छत पर पत्थर फेंककर, चोरी के इल्जाम से बचने के लिए, प्रायश्चित करना। ।

कौन जानता था, जो पत्थर कभी बचपन में, बचपने में, अनजाने में, बिना किसी का अहित किए फेंके गए, समय के साथ ऐसा विकराल रूप धारण कर लेंगे। दुष्यंत ने तो यूं ही कह दिया था, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों, कौन कहता है, आसमान में सूराख नहीं होता। क्या एक फेंका गया पत्थर इतना बड़ा सूराख कर सकता है कि वहां से पत्थरों की बारिश ही होने लग जाए।

अगर किसी ने गलती से मधुमक्खी के छत्ते को छेड़ा भी है तो अब सिर्फ आग और धुआं ही हमें मधुमक्खी के हमले से बचा सकता है। जिन हाथों में फूल होने चाहिए वहां पत्थर शोभा नहीं देते।

पत्थर तो खैर पत्थर है, लेकिन पत्थर फेंकने वाला नादान नहीं। कोई क्षमादान नहीं। हम अगर पत्थर को पूजना जानते हैं तो पत्थर फेंकने वालों की पूजा करना भी जानते हैं।

आज दुष्यंत होते तो शायद वे भी यही कहते, इन पत्थर फेंकने वालों का तबीयत से इलाज करो यारों। ।

जो जग को जीतना जानते हैं, मनजीत भी हैं, उनका स्वागत है, आगे आएं, कुछ ऐसा कर पाएं, कि जहां से पत्थरों की बारिश हो रही है वहां से कल पुष्प वर्षा हो।

प्रेम से पत्थर को पिघलते जिन्होंने देखा है, उन्होंने ही बियाबान में फूलों को भी खिलते देखा है ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 702 ⇒ राजनीति और व्यंग्य ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “राजनीति और व्यंग्य।)

?अभी अभी # 702 ⇒ राजनीति और व्यंग्य ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

राजनीति एक शास्त्र है और व्यंग्य एक सहित्यिक विधा ! जो कभी शास्त्र था, वह एक शस्त्र कब से बन गया, कुछ पता नहीं चला। वैसे तो अरस्तु को राजनीति शास्त्र का जनक माना जाता है, लेकिन भारत के संदर्भ में चाणक्य पर आकर सुई अटक जाती है। कौटिल्य शब्द से ही कूटनीति टपकती है, और कौटिल्य के अर्थ-शास्त्र के बिना सभी शास्त्र अधूरे हैं।

विडंबना देखिये, अर्थशास्त्र पर अर्थ हावी हो गया, और राजनीति शास्त्र पर राजनीति। बुद्धि पर बुद्धिजीवी भारी पड़ गया और ज्ञान पर ज्ञानपीठ। और व्यंग्य जो शास्त्र नहीं था, हास्य की पगडंडियों से चलता चलता साहित्य की प्रमुख धारा में शामिल हो गया। अगर कल का राजनीति शास्त्र आज अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित है, तो व्यंग्य भी किसी ब्रह्मास्त्र से कम नहीं। ।

कितने दुःख का विषय है, राजनीति से व्यंग्य है, और तो और व्यंग्य में राजनीति भी है, लेकिन राजनीति में आज व्यंग्य का नितांत अभाव है। याद आते हैं वे दिन जब संसद में ज़ोरदार बहस होती थी, शायरी होती थी, नोंकझोंक होती थी, हंगामे भी होते थे, लेकिन किसी का अपमान नहीं होता था। शून्यकाल में बहस चलती थी। प्रश्नोत्तर काल में मंत्री महोदय पर विपक्ष द्वारा प्रश्नों की बौछार कर दी जाती थी। सत्ता से अधिक लोगों में विपक्ष के लिए सम्मान था।

यूँ कहने को तो व्यंग्य और राजनीति का चोली दामन का साथ है, लेकिन दोनों की आपस में बोलचाल तक बंद है। व्यंग्य बंद कमरे में फलता-फूलता है, राजनीति सड़क पर उतर आती है। व्यंग्य पर कोई कीचड़ नहीं उछाल सकता, लेकिन अगर किसी व्यंग्यकार ने राजनीति पर कीचड़ उछाला, तो यह आपे में नहीं रहती। राजनीति को नहीं दोष परसाई। ।

राजनीति में पार्टी होती है, हर पार्टी का झंडा होता है, नेता होता है, पार्टी का कोई नाम होता है। व्यंग्य इस बारे में बहुत कमजोर है। उसके पास कोई नाम नहीं, नेता नहीं, झंडा नहीं, कोई नारा नहीं। वह विघ्नसन्तोषी है ! नेता, नारे, पार्टी और झंडे किसी को नहीं बख्शता। अतः उसे समाज में वह सम्मान प्राप्त नहीं होता जो राजनीति को होता है।

जनता नेता की दीवानी होती है, किसी व्यंग्यकार की नहीं। हमारा व्यंग्यकार कैसा हो, परसाई जैसा हो, कोई नहीं कहता।

गुटबाजी और अवसरवाद राजनीति और व्यंग्य में समान रूप से हावी है। वंशवाद के बारे में एक व्यंग्यकार पूरा कबीर है। कमाल के पूत होते हैं उसके ! एक व्यंग्यकार का लड़का कितना भी बड़ा हो जाए, अपने पिता के जूते में पाँव डालना पसंद नहीं करता। राजनीति में तो पूत के पाँव पालने में ही नज़र आ जाते हैं। ।

शेक्सपियर के शब्दों में राजनीति और व्यंग्य Strange bedfellows हैं। राजनीति का काम व्यंग्य के बिना आसानी से चल जाता है, लेकिन व्यंग्य को राजनीति की बैसाखी की ज़रूरत पड़ती है। लेकिन व्यंग्यकार जब उसी बैसाखी से राजनीति की पिटाई कर देता है, तो बात बिगड़ जाती है। मेरी बिल्ली मुझ पर म्याऊँ ! लेकिन बिल्ली बड़ी चालाक है। वह किसी के टुकड़ों पर नहीं पलती। जहाँ भी मलाई मिलती है, मुँह मार लेती है।

ज़िन्दगी में हास परिहास हो, व्यंग्य विनोद हो !राजनीति में कटुता समाप्त हो। सहमति-असहमति का नाम ही पक्ष-विपक्ष है। घर घर में विवाद होते हैं, कहासुनी होती है, स्वभावगत विरोध भी होते हैं। लेकिन जब गृहस्थी की गाड़ी आसानी से चल सकती है, तो राजनीति की क्यों नहीं। सत्ता और विपक्ष लोकतंत्र के दो पहिये हैं। दोनों समान रूप से मज़बूत हों। राजनीति में जब व्यंग्य का समावेश होगा, तब ही यह संभव है। आईना साथ रखें। किसी को आइना दिखाने के पहले अपना मुँह अवश्य देखें।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 246 ☆ उम्मीद जाग्रत रखें… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना उम्मीद जाग्रत रखें। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 246 ☆ उम्मीद जाग्रत रखें

हरियाली हो हर मौसम में,

रंग बिरंगी क्यारी हो।

बागों की डाली- डाली भी

अनुपम अद्भुत न्यारी हो।।

*

संस्कार अरु संस्कृतियों का

संगम प्यारा- प्यारा है।

आओ मिल सब सृजन करेंगे

ये संसार हमारा है।।

संसार रूपी बगिया में फूलों की तरह खिलना, महकना और मुस्कुराहट बिखेरने आना चाहिए। जो हो रहा है उसे स्वीकार कर आगे बढ़ते जाना, कदम से कदम मिलाते हुए जो भी निरंतर चला है उसे न केवल अपनों का साथ मिला है वरन प्रकृति ने भी उसके लिए अपने दोनों हाथ खोल दिये हैं। कहते हैं जो सोचो वो मिलेगा, बस सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ ऊर्जान्वित रहिए। यही सब तो आस्था, संस्कार, श्रद्धा, विश्वास व संस्कृति सिखाती है। बस मनोबल कम नहीं होना चाहिए। उम्मीद की डोर थामे अच्छा सोचें अच्छा करें।

गंगा की बहती धारा से,

मन पावन हो जाता है।

सुख -दुख सब इसमें तजकर के,

मनुज मनुज बन पाता है।।

*

अहंकार परित्याग करें तो,

चमन चमन बन जायेगा।

ऋषि मुनि सारे हवन करेंगे

स्वर्ग धरा पर आयेगा।।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, chhayasaxena2508@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ब्रह्मांड ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – ब्रह्मांड ? ?

– इस दुनिया के अलावा मेरे भीतर एक और दुनिया बसती है, समुद्री जीव-जंतुओं की दुनिया। खारे पानी के भीतर की दुनिया मुझे बेहद आकर्षित करती है। रंग-बिरंगी मछलियाँ, व्हेल, शार्क, डॉलफिन, ऑक्टोपस, शैवाल, कवक, कोरल और जाने क्या-क्या…, पहले ने कहा।

– मेरे भीतर की दुनिया में अंतरिक्ष है, आकाशगंगा हैं। उल्का पिंड हैं, धूमकेतु हैं। इस दुनिया में सौरमंडल है। सूर्य है, बृहस्पति है, शनि है, शुक्र है, मंगल है, बुध है, यूरेनस है, नेपच्यून है, और भी घूमते अनेक ग्रह हैं, ग्रहों पर बस्तियाँ हैं, बस्तियों में रहते एलियंस हैं…, दूसरे ने कहा।

– मेरे भीतर तो अपनी धरती के जंगल हैं जो लगातार मुझे बुलाते हैं। घने जंगल, तरह-तरह के जंगली जानवर, जानवरों का आपसी तालमेल! सोचता हूँ कि इस जंगल के इतने भीतर चला जाऊँ कि किसी दिन डायनासोर को वहाँ टहलता हुआ देख सकूँ…, तीसरे ने कहा।

– मेरे भीतर की दुनिया कहती है कि मैं पर्वतों पर चढ़ने के लिए पैदा हुआ हूँ। चोटियाँ मुझे आवाज़ लगाती हैं। हर ग्लेशियर में जैसे मेरी आत्मा का एक टुकड़ा जमा हुआ हो। पैर उठते हैं और चोटियाँ नापने लगते हैं।

– मेरे भीतर की दुनिया में है भूगर्भ…मेरी दुनिया में पेड़-पत्ते हैं….मेरी दुनिया तो पंछी हैं…मैं चींटियों की सारी प्रजातियों और उनकी जीवनशैली के बारे में जानना चाहता हूँ…।

अनगिनत लोग, हरेक के भीतर अपनी एक दुनिया..!

– एक बात बताओ, यह आदमी जो हमेशा खोया-खोया-सा रहता है, इसके भीतर भला कौनसी दुनिया बसती होगी?

– उसके भीतर दुनिया नहीं, पूरा ब्रह्मांड है। इसकी दुनिया, उसकी दुनिया, हमारी दुनिया, तुम्हारी दुनिया, हरेक की दुनिया उसके भीतर है। आँखों से दिखती दुनिया के साथ आदमी के अंतर्मन की दुनिया उसके भीतर है। आदमी को देखने, जानने, खंगालने की दुनिया है। उसकी अपनी दुनिया है, उसका अपना सौरमंडल है। वह अपनी दुनिया बनाता है, अपनी दुनिया चलाता है, वही अपनी दुनिया में प्रलय भी लाता है। उसके भीतर सृजन है, उसीके भीतर विसर्जन है।…वह कर्ता है, लेखनी से नित अपनी सृष्टि रचता है। वह लेखक है।

?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

 

🕉️ हमारी अगली साधना श्री विष्णु साधना शनिवार दि. 7 जून 2025 (भागवत एकादशी) से रविवार 6 जुलाई 2025 (देवशयनी एकादशी) तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना का मंत्र होगा – ॐ नमो नारायणाय।💥

💥 इसके साथ ही 5 या 11 बार श्री विष्णु के निम्नलिखित मंत्र का भी जाप करें। साधना के साथ ध्यान और आत्म परिष्कार तो चलेंगे ही –

शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम्
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ||

💥 संभव हो तो परिवार के अन्य सदस्यों को भी इससे जोड़ें💥  

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 701 ⇒ पाठकनामा ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पाठकनामा।)

?अभी अभी # 701 ⇒ पाठकनामा ? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

हम सब पढ़े लिखे इंसान हैं। जो पढ़ता है, वह पाठक कहलाता है, और जो लिखता है, वह लेखक कहलाता है। हम पहले पढ़ना सीखते हैं और बाद में लिखना ! अक्षर ज्ञान में हम पहले अक्षर को पहचानते हैं फिर उसे लिखने की कोशिश करते हैं। एक अनार से हिंदी के पहले अक्षर की पहचान होती है और एक apple से अंग्रेजी के पहले word की। इस तरह शुरू होता है जिंदगी का पहला पाठ ! एक अनार सौ बीमार और An apple a day, keeps the doctor away.

हर पढ़ने वाला एक पाठक हो सकता है, लेकिन हर लिखने वाला लेखक नहीं हो सकता।

पढ़ने के लिए तो खैर पाठ होता है, लेकिन लिखने के लिए सिर्फ सुंदर लेखन होता है। जब देश में टाइपराइटर नहीं थे, तब सुंदर लिखने वाले अच्छे अर्जीनवीस बन जाते थे, जिन्हें दस्तावेज़ लेखक अथवा पिटीशन राइटर भी कहते थे। हनुमंत राव, मार्तण्ड राव भुसारी एक ऐसे ही पिटीशन राइटर थे, जिनके हाथ के लिखे दस्तावेज़ आज धरोहर बन गए हैं। ।

हर लेखक एक अच्छा पाठक होता है। पाठक का लेखक होना जरूरी नहीं ! सुरेंद्र मोहन पाठक एक अच्छे लेखक हैं इसलिए उनके करोड़ों पाठक हैं। प्रेमचंद, यशपाल और शरद बाबू के पाठकों की संख्या कोई नहीं गिनता। किसने उन्हें नहीं पढ़ा ? मैने अच्छे लेखकों को पढ़ा है, लेकिन सुरेंद्र मोहन पाठक को नहीं पढ़ा। मैं जानता हूं, मेरे नहीं पढ़ने से उनकी पाठक संख्या नहीं घटने वाली।

हर पाठक की अपनी पसंद होती है, और अपनी पसंद का लेखक ! आप अपनी पसंद किसी पर थौंप नहीं सकते। हर अच्छा लेखक, एक अच्छा पाठक ढूंढा करता है, और हर अच्छा पाठक, एक अच्छा लेखक। बस यहीं से पाठक, लेखक का रिश्ता कायम हो जाता है। लेखक अपनी कृतियों के कारण अमर हो जाते हैं, पाठकों की पीढ़ियां आती रहती हैं, जाती रहती हैं। कुछ तो है उनके लेखन में, यूं ही नहीं दिल लगाता कोई। ।

हर अच्छे पाठक में एक लेखक की संभावना होती है। कहीं इस संभावना को अवसर और प्रोत्साहन मिल जाता है तो कहीं इसकी भ्रूण हत्या हो जाती है। जो अपनी लेखनी को निरंतर मांजते रहते हैं, कुछ ना कुछ लिखते और छपते रहते हैं, उन्हें आखिरकार सफलता हाथ लगती ही है। अखबारों में पत्र संपादक के नाम लिखने वाले कई सुधी पाठक आगे चलकर अच्छे लेखक साबित हुए हैं। एक अच्छी शुरुआत अच्छे ही परिणाम देती है।

जिस तरह आप एक पाठक को पढ़ने से नहीं रोक सकते, एक लेखक अपने आपको लिखने से नहीं रोक सकता। विचारों का सृजन, उसकी अभिव्यक्ति और उसके कद्रदान जब तक मौजूद हैं, यह सिलसिला अनवरत चलता रहेगा, नदी के प्रवाह की तरह, क्योंकि सृजन का आकाश कभी सूना नहीं होता, और पाठक रूपी चातक, अपनी प्यास बुझा ही लेता है। सृजन की धारा ही अमृत धारा है। ।

लेखक की अपनी सीमाएं हैं और पाठक की अपनी ! लेखक वही लिखता है, जो पाठक चाहता है, और पाठक वही पढ़ता है, जो लेखक चाहता है। जब दोनों के बीच बाज़ार आ जाता है, तो दोनों मजबूर हो जाते हैं। जो बिकेगा वही लिखा जाएगा। पाठकों की रूचि के अनुसार जब लेखन होगा, तो वह स्वांत: सुखाय हो ही नहीं सकता। प्रेमचंद, रेणु, जैनेंद्र ने जो लिखा, पाठकों ने पसंद किया, उन्हें सर माथे बिठाया, क्योंकि उनके लेखन में सामाजिक चेतना थी, सच्चाई थी।

हर पीढ़ी कुछ नया चाहती है। अच्छे पाठक ही आगे चलकर अच्छे लेखक बनते हैं। काश मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव जैसी तिकड़ी फिर कथादेश में अवतरित हो, कोई आवारा मसीहा, कोई गुनाहों का देवता फिर से सुधी पाठकों पर मेहरबान हो, पुनः नीड़ का निर्माण हो, फिर कोई मनोहर श्याम कुरु कुरु स्वाहा करे, बहुत हुआ राग दरबारी और महाभोज, अब कुछ आपके बंटी के लिए भी हो जाए। पाठक की भी कुछ अपनी पसंद हो जाए, तो लेखन में भी नीर क्षीर विवेक पुनः स्थापित हो जाए। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पर्यावरण दिवस ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – पर्यावरण दिवस ? ?

-दो वर्ष पहले पर्यावरण महोत्सव में आपके एकल काव्य पाठ ने श्रोताओं का मन जीत लिया था। जैसे आपसे पहले बात हुई थी, इस वर्ष भी 5 जून को उसी स्थान पर आपका काव्य पाठ आयोजित होगा। नई सजावट के साथ कार्यक्रम स्थल की कुछ तस्वीरें भी आपको भेजी थीं।

-हाँ मैंने देखीं पर यह आयोजन स्थल तो भिन्न लग रहा है। यह कोई हॉल जैसा है। लग्जरी कुर्सियाँ लगी हैं। मंच बना हुआ है। एसी भी दिख रहा है। 2 वर्ष पहले तो मैंने विशाल बरगद के नीचे माटी के चबूतरे पर खुले में कविता पाठ किया था।

-जी हाँ, यह वही स्थान है। क्या है न कि खुले में मच्छर काटते थे। अचानक बारिश-अँधड़ आने का डर लगा रहता, सो अलग। इसलिए बरगद कटवा कर छोटा-सा एसी हॉल बनवा दिया है। इससे कवि को रचना सुनाने का और श्रोताओं को कविता सुनने का अधिक आनंद आएगा। एकॉस्टिक सिस्टम के प्रभाव से प्रस्तुति भी अलग ही स्तर की होगी। सारी व्यवस्था देखकर आपको बहुत अच्छा लगेगा।

-क्षमा कीजिएगा मैं नहीं आ पाऊँगा।

-अरे ऐसा क्या हो गया? तैयारी में या आपकी सुविधा में कुछ कमी दिख रही है क्या?

-एक तो मैं केवल संवेदनशील लोगों के बीच कविता पढ़ता हूँ। दूसरे, कथनी से नहीं अपितु करनी से मनाता हूँ मैं पर्यावरण दिवस, कहकर उसने फोन रख दिया।

?

© संजय भारद्वाज  

अपराह्न 12:56 बजे, 15 मई  2025

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

 

🕉️ हमारी अगली साधना श्री विष्णु साधना शनिवार दि. 7 जून 2025 (भागवत एकादशी) से रविवार 6 जुलाई 2025 (देवशयनी एकादशी) तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना का मंत्र होगा – ॐ नमो नारायणाय।💥

💥 इसके साथ ही 5 या 11 बार श्री विष्णु के निम्नलिखित मंत्र का भी जाप करें। साधना के साथ ध्यान और आत्म परिष्कार तो चलेंगे ही –

शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम्
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ||

💥 संभव हो तो परिवार के अन्य सदस्यों को भी इससे जोड़ें💥  

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 135 – देश-परदेश – दिल्ली 6 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 135 ☆ देश-परदेश – दिल्ली 6 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली 6 के नाम से फिल्म आई थी, खूब चली थी। दिल्ली के दिल चांदनी चौक के आस पास के क्षेत्र को दिल्ली 6 कहा जाता हैं।

स्वतंत्रता के बाद जब शहर महानगर बन रहे थे, तब वहां ऐसे बड़े शहरों को 1 अंक से नंबर आरंभ दिए गए थे, शहर के क्षेत्र को अंक देकर विभाजित किया गया था। इसके बाद छः अंक का पिन कोड आरंभ हुआ, जो विद्यमान में भी कार्यरत हैं।

पुराने लोग तो कभी भी पिन कोड के महत्व को समझ नहीं पाए थे। कौन छे नंबर याद रखें। उनका ये मानना था, कि पत्र को प्राप्त करने वाला व्यक्ति बहुत जानी मानी हस्ती है, इसलिए मिल जाता हैं। पूरा शहर उसको जानता है।

चार दशक पूर्व हमारे एक पत्र पर नाम के साथ स्टेट बैंक और शहर का नाम लिख कर प्रेषित किया था। पोस्टमैन ने भी उसको समय से हमारे पास पहुंचा दिया था। अब समय बदल गया है, बहुत सारे लोग तो पड़ोसी का नाम तक भी नहीं जानते हैं।

वर्तमान में पोस्टल सेवाओं की उपयोगिता भी कम हो गई है। मोबाइल और ईमेल जैसी सुविधा आ चुकी हैं। लॉजिस्टिक और ई कॉमर्स में समय का महत्व बहुत है, अधूरे पत्ते से उनको बहुत हानि हो रही हैं। इसलिए अब 14 डिजिट का डिजिपिन व्यवस्था लागू की जा रही हैं। समय की पुकार जो हैं। देश की आधी से अधिक जनसंख्या अभी छह अंक के पिन कोड तक को याद नहीं कर पाई है, अब ये 14 अंक कैसे याद रखेगी, ये तो आने वाला समय ही बता पाएगा।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – कविता ☆ “05 जून : विश्व पर्यावरण दिवस” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय दुबे ☆

डॉ. वंदना पाण्डेय दुबे

परिचय 

शिक्षा – एम.एस.सी. होम साइंस, पी- एच.डी.

पद : प्राचार्य,सी.पी.गर्ल्स (चंचलबाई महिला) कॉलेज, जबलपुर, म. प्र. 

विशेष – 

  • 39 वर्ष का शैक्षणिक अनुभव। *अनेक महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय के अध्ययन मंडल में सदस्य ।
  • लगभग 62 राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में शोध-पत्रों का प्रस्तुतीकरण।
  • इंडियन साइंस कांग्रेस मैसूर सन 2016 में प्रस्तुत शोध-पत्र को सम्मानित किया गया।
  • अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान शोध केंद्र इटली में 1999 में शोध से संबंधित मार्गदर्शन प्राप्त किया। 
  • अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘एनकरेज’ ‘अलास्का’ अमेरिका 2010 में प्रस्तुत शोध पत्र अत्यंत सराहा गया।
  • एन.एस.एस.में लगभग 12 वर्षों तक प्रमुख के रूप में कार्य किया।
  • इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में अनेक वर्षों तक काउंसलर ।
  • आकाशवाणी से चिंतन एवं वार्ताओं का प्रसारण।
  • लगभग 110 से अधिक आलेख, संस्मरण एवं कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।

 प्रकाशित पुस्तकें- 1.दृष्टिकोण (सम्पादन) 2 माँ फिट तो बच्चे हिट 3.संचार ज्ञान (पाठ्य पुस्तक-स्नातक स्तर)

☆ पर्यावरण दिवस विशेष ☆

☆ “05 जून : विश्व पर्यावरण दिवस” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय दुबे 

पर्यावरण से छेड़छाड़ न करें

धरती और उसके जीवन को बचाएं

जिस पृथ्वी और प्रकृति के बीच हम रह रहे हैं, जो हमें चारों ओर से घेरे हुए है वही पर्यावरण है। जिसमें समस्त जैविक एवं अजैविक (सजीव और निर्जीव) तत्व सम्मिलित हैं। भौतिक सुख सुविधाओं विलासिता और ऐश्वर्यपूर्ण जीवन की असीम लालसा, पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण ने हमें पेड़-पौधों के झुरमुट उनकी शीतल छाया, नदियों-झरनों से आने वाली मधुर जल-तरंगों, पर्वतों-पहाड़ों जंगलों से आने वाली बयारों, पक्षियों की चहचहाटों उनके कलरवों तथा प्राकृतिक मनमोहक दृश्यों से तो दूर किया ही है, पर्यावरण को भी प्रदूषित कर दिया है। जीवन को चलाने और निर्धारित करने में जिस ‘पर्यावरण’ को प्रकृति ने हमें उपहार स्वरूप प्रदान किया है, जिस प्रकृति की गोद में हम बैठे हैं उसे सुरक्षित रखना और सहेजना हमारा कर्तव्य है। अफसोस की बात है कि विज्ञान और विकास के नाम पर वृक्षों को काटकर प्रकृति की गोद को सूनी कर हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। चिंतक एवं विचारक पवन दीवान जी की निम्न पंक्तियां अत्यंत सटीक, समीचीन और मार्मिक हैं –

 सिर्फ इतना ही नहीं कि वन कटा है

आरियों की धार से जीवन कटा है

अब कहाँ दरख़्तों की सेना जो लड़े तूफानों से

आंधियों की धार से अब तना कटा है

नीड को तरसे कबूतर शांति का

 साथ वृक्षों के हमारा मन कटा है

आग में जलता हुआ देखे उसे हम

 जिसकी छाँव में जीवन कटा है।

बदलते परिस्थिति चक्र में मिटटी-गारे से बने गोबर से लिपे-पुते कच्चे घर सीमेंट-कंक्रीट में बदल गए हैं, अब हम दातौन से टूथब्रश पर, पंखों से कूलर और ए.सी.पर, साइकिल से गाड़ी-कार पर एवं पीतल, तांबे, कांसे के बर्तनों से स्टील और प्लास्टिक के बर्तनों पर आ गए हैं। रासायनिक खादों, कीटनाशकों, सौंदर्य प्रसाधनों, परफ्यूम, प्रिजर्वेटिव्स(भोज्य सरंक्षक पदार्थ) फास्ट फूड, जंक फूड आदि का प्रयोग बढ़ा है। कृषि उत्पाद एवं दुग्ध उत्पादन बढ़ाने के लिए ऑक्सीटोसिन जैसे हानिकारक पदार्थों एवं इंजेक्शनों के प्रयोग का चलन बढ़ा है। जिसका स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है।

वर्तमान में पर्यावरण और स्वास्थ्य पर जो सर्वाधिक नुकसान दायक प्रभाव डाल रहा है वह है ‘प्लास्टिक’। वैश्विक तौर पर यह चिंता का कारण बन गया है। यही कारण है कि इसके हानिकारक प्रभाव से बचने के लिए एवं लोगों को जागरूक करने के लिए इस वर्ष 2025 में ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ पर ‘प्लास्टिक प्रदूषण समाप्त करना’ थीम रखी गई है।

अध्ययनों एवं शोधों से अब यह स्पष्ट हो चुका है कि बीते वर्षों में जो प्लास्टिक हमारे जीवन में जादुई प्रभाव लेकर आया था, जिसकी बनी सामग्रियां सुंदर-आकर्षक, सुविधाजनक टिकाऊ और सस्ती होती हैं वह प्लास्टिक हमारे ड्राइंग रूम से किचन तक ही नहीं पहुंचा वरन उसने तो माउंटआबू की चोटी से लेकर नदी, तालाब, समुद्रों के तटों – तलहटियों तक अपना साम्राज्य बना लिया है। सभी स्थानों पर सर्वाधिक रूप से पॉलिथीन बैग, पानी की बोतलें, डिब्बों, चाय के कपों आदि का प्रयोग हो रहा है। वस्तुतः प्लास्टिक हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का अभिन्न हिस्सा बन गया है। सर्वेक्षणों से पता चलता है कि दुनिया भर में 500 बिलियन से ज्यादा पॉलिथीन बैग (थैलियां) का इस्तेमाल किया जा रहा है। पूरी दुनिया में एक वर्ष में 10 (दस) खरब प्लास्टिक बैगों का प्रयोग कर कचड़े के रूप में खुले वातावरण में नदी-नालों, सड़कों पर फेंक दिया जाता है। पर्यावरण नियंत्रण बोर्ड, भारत सरकार के आंकड़ों के अनुसार भारत वर्ष में प्रत्येक व्यक्ति प्रतिवर्ष 6 से 7 किलोग्राम प्लास्टिक का प्रयोग कर रहा है। प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रयुक्त होने वाला यह प्लास्टिक धीमा जहर बनकर पर्यावरण और स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहा है। प्लास्टिक / पॉलिथीन में नष्ट न होने की प्रवृत्ति के कारण यह अधिक हानिकारक प्रभाव छोड़ने में सक्षम है। परिणाम स्वरुप भूमि की उर्वरा शक्ति कम हो रही है, वातावरण में फैले पॉलिथीन नाले- नालियों, सीवर लाइनों को ब्लॉक कर रहे हैं, इनके पशुओं के शरीर में पहुंचने पर उनके मौत का भी खतरा रहता है। प्लास्टिक -पॉलिथीन के जलने पर अपेक्षाकृत अधिक वायु प्रदूषण होता है। नदियों, जलाशय में इनके पहुंचने पर जल प्रदूषण भी होता है।

20 माइक्रोन और उससे कम वजन वाली पॉलिथिन अधिक हानिकारक होती हैं। सिर्फ पॉलिथीन ही नहीं प्लास्टिक के बोतल, डब्बे चाय कॉफी सूप के कप का प्रयोग भी नुकसानदायक है। गर्म भोज्य पदार्थों के लिए इनका प्रयोग निषेध ही होना चाहिए। यह स्वास्थ्य के लिए अत्यंत घातक है। इनके प्रयोग से कैंसर, ट्यूमर स्ट्रोक जैसी गंभीर बीमारियों का खतरा बढ़ रहा है। गर्भवती महिलाओं को विशेष रूप से इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है। गर्भस्थ शिशु पर इसका दुष्प्रभाव पड़ने की प्रबल आशंका बनी रहती है। यह सच है कि पॉलीथीन बैग तथा अन्य प्लास्टिक सामग्रियों ने हमारे जीवन को अत्यधिक सुगम बना दिया है किंतु सब जानकर तात्कालिक लाभ और सुविधा के लिए, स्वस्थ दीर्घ जीवन को दांव में लगाना सर्वथा अनुचित है। यद्दपि प्रशासन द्वारा 20 माइक्रोन से कम वाली (पतली) पॉलिथीन पर प्रतिबंध लगा दिया गया है किन्तु मोटी पॉलीथिन और प्लास्टिक की वस्तुएं भी एलर्जी, त्वचा रोग, पाचन तथा तांत्रिका संस्थान से संबंधित रोगों के लक्षण उत्पन्न कर स्वास्थ्य स्तर को प्रभावित कर रहे हैं।

आज ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ पर हम सब ‘प्लास्टिक के प्रयोग को रोकने का संकल्प लें। प्रण करें कि हम पॉलिथीन थैलों के स्थान पर पेपर, कपड़े, जूट के थैलों तथा प्लास्टिक की पानी की बोतलों के स्थान पर कांच की बोतलों का प्रयोग करेंगे तथा अन्य प्लास्टिक सामग्रियों का भी बहिष्कार करेंगे।

आईए पर्यावरण जागरूकता की दिशा में एक कदम हम भी बढ़ाएं पर्यावरण बचाने के लिए..

© डॉ. वंदना पाण्डेय दुबे 

प्राचार्य, चंचलाबाई पटेल महिला महाविद्यालय, जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 699 ⇒ एक था गधा ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “एक था गधा ।)

?अभी अभी # 699 ⇒ एक था गधा ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मेरे शहर से गधे वैसे ही ग़ायब हो गए हैं, जैसे गधे के सर से सींग ! वैसे गधे के सर पर कभी सींग थे ही नहीं, तो गायब होने का सवाल ही पैदा नहीं होता, लेकिन मेरे शहर में कभी गधे थे, और बहुतायत से थे। किसी को भले ही चिंता न हो, मुझे तो है।

सरकार हर विलुप्त प्राणी की चिंता करती है। टाइगर और सफेद शेर के लिए अभ्यारण्य और प्रोजेक्ट टाइगर पर कितना खर्च करती है, लेकिन गधों के प्रति उपेक्षा के पीछे ज़रूर कोई राजनैतिक कारण ही रहा होगा। गधों की उपेक्षा हम भी करें और सरकार भी, ये अच्छी बात नहीं है।।

एक वक्त था जब बिग बी गुजरात के गधों की चर्चा करते थे ! फिर चर्चा चली पाकिस्तान के गधों की। मुझे जब भी गधों की याद आती है, निमाड़ के खरगौन अथवा राजगढ़ ब्यावरा चला जाता हूँ। बरसात में छाते ही छाते की सेल की तरह वहाँ बहुतायत से गधे उपलब्ध हैं।

आखिर गधे ने हमारा क्या बिगाड़ा है। कुछ लोग गधे घोड़े में फ़र्क करना नहीं जानते। मैं जब छोटा था, तब गाय गधे में फ़र्क नहीं कर पाता था। माँ द्वारा दी गई गाय की रोटी, किसी गधे को नसीब हो जाती थी। गधे के भाग बड़े सजनी ! माँ डाँटती। गाय की रोटी गाय को ही देनी थी। गधे के लिए दूसरी ले जाते। मेरे पास कोई जवाब नहीं होता था। इंसान में इतनी तो बुद्धि होनी चाहिए कि वो गाय और गधे में फ़र्क पहचान ले। माना कि दोनों ही सीधे हैं। लेकिन गऊ तो हमारी माता है, और गधा, सिर्फ गधा।।

मेरी नज़र में गधा एक अनासक्त संत है। गाय इतनी चौकन्नी और सजग होती है कि, एक आवाज़ में पीछे मुड़कर देखने लगती है। हमारे लिए गाय एक व्यक्तिवादी संज्ञा है। गाय जानती है कि उसे गाय कहकर पुकारा जाता है। अपना नाम सुनते ही, तत्काल उसके कान खड़े हो जाते हैं। गधे को नहीं मालूम, कि उसे गधा कहते हैं। उस बेचारे को तो यह भी नहीं मालूम, कि उसे गधा क्यूँ कहते हैं। अक्सर सड़कों पर, बस्ती में बाज़ार में, घास के मैदान में, गधे आपकी तरफ पीठ किये खड़े रहते हैं। आप भले ही इनके मुँह के पास चले जाओ, ये मुँह तो छोड़िए, एक नज़र तक आपकी ओर उठाकर नहीं देखेंगे। एक गधे की उपेक्षा इंसान बर्दाश्त नहीं कर पाता और कह उठता है, साला गधा है।।

गधे की उपयोगिता कभी कुम्हार के लिए थी। मैंने गधों को ही नहीं, इंसानों को भी ईंटें ढोते देखा है। कभी कभी इंसान को भी गधा-हम्माली करनी पड़ती है। जब मेहनत बेगार लगने लगे, समझ जाइए, आप गधा हम्माली कर रहे हैं।

मेरे शहर से गधे तो पहले से ही गायब हो गए थे, अब गाय का भी पता नहीं। श्वान और शूकर के बीच ज़िन्दगी गुजारनी पड़ रही है। मेरे शहर में कभी गधा टेकरी होती थी, उसे भी मुगलसराय समझ लोगों ने नाम बदल दिया। अब उसका जो भी नाम रखा हो, पर दीनदयाल टेकरी तो नहीं ही रखा।।

नाम बदलने का ऐसा प्रचलन चल पड़ा है कि खंडवा रोड पर अच्छा भला आसाराम बापू चौराहा था, उसका भी नाम बदलकर आई-टी पार्क रख दिया। लगता है, लोगों का अच्छाई पर से भरोसा ही उठ गया है। वह तो भला हो कृष्ण चंदर का जिन्होंने गधे को सड़क से संसद तक पहुंचा दिया।

मुझमें कभी कभी हीनता की भावना भी घर कर जाती है कि एक गधे की आत्मकथा लिखी जा सकती है, लेकिन आज तक मैं अपनी आत्मकथा नहीं लिख पाया। मैं इतना बड़ा गधा भी नहीं कि कृष्ण चंदर जैसे महान अफ़साना-निगार से अपनी आत्मकथा लिखवाऊं, खुद ही कोशिश करूँगा। बस पहले अपने आप में गुणों को तो तलाश लूँ, अभी मौका है, थोड़ा खुद को तराश लूँ।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares