हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ “मानुष हौं तो वही रसखानि” – भाग – 2 ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆
डाॅ. मीना श्रीवास्तव
☆ “मानुष हौं तो वही रसखानि” - भाग - 2 ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆
कृष्णभक्त रसखान के सवैयों का काव्यानुभव (उत्तरार्ध)
प्रिय पाठकगण
सस्नेह वंदन!
जन्माष्टमी का पर्व हमने उत्साह सहित मनाया! उस पावन पर्व के अवसर पर हम कृष्णभक्त रसखान के ‘मानुष हौं तो वही रसखानि’ इस काव्य के अन्य सवैयों का काव्यानंद अनुभव करेंगे|
धुरि भरे अति सोहत स्याम जू, तैसी बनी सिर सुंदर चोटी।
खेलत खात फिरैं अँगना, पग पैंजनी बाजति, पीरी कछोटी॥
वा छबि को रसखान बिलोकत, वारत काम कला निधि कोटी।
काग के भाग बड़े सजनी, हरि हाथ सों लै गयो माखन रोटी॥
उपरोक्त सवैये में एक गोपी अपनी सखी से कृष्ण के सुंदर रूप का वर्णन करते हुए कहती है, “अरी सखी, देख तो, धूल में खेलते खेलते कृष्ण का पूरा शरीर धूल से धूमिल हो गया है, कितना सुंदर लग रहा है ना! और हाँ देख उसके घुंघराले बाल कितनी खूबसूरती से बंधे हैं, एक चोटी उसके सर पर कैसी सज रही है (भले ही द्वारका जाकर उसे सोने...