हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 14 – – कारवां चलता रहा… – हंसा परिचय – 1 – मराठी लेखिका – सौ. उज्ज्वला केलकर ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’ ☆

सौ. उज्ज्वला केलकर

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है सौ. उज्ज्वला केलकर जी का डॉ हंसा दीप जी के जीवन से जुड़े संस्मरणों पर आधारित एक आत्मीय दस्तावेज़ कारवां चलता रहा… – हंसा परिचय । यह दस्तावेज़ तीन भागों में दे रहे हैं।) 

डॉ. हंसा दीप

☆  दस्तावेज़ # 14 – कारवां चलता रहा… – हंसा परिचय – 1 – मराठी लेखिका – सौ. उज्ज्वला केलकर ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’ ☆

पर्व एक 

हंसा मेरी सहेली । बिल्कुल खास । सगी । अब बोलते-बोलते वह सहेली से ‘दीदी’  और ‘दीदी’ से ‘दी’ पर कब पहुंच गयी,पता ही नहीं चला। हां, हम इतनी आत्मीय जरूर हैं पर  अबतक एक-दूसरे से  मिली कभी नहीं। मिलें भी कैसे ? वह है, दूरस्थ कैनडा के टोरंटो में और मैं हूं भारत, महाराष्ट्र के छोटे से सांगली शहर में। हम फोटो से एक दूसरे को पहचानती हैं और मोबाइल के वाट्स-अप पर इत्मीनान से गप्पेभी लड़ाती हैं।

हंसा का और मेरा आपस में परिचय संयोग से ही हुआ। हिंदी त्रैमासिक ‘कथाबिंब’  के माध्यम से। हुआ यूं कि ‘कथाबिंब’ को मैंने अपनी ‘हासिना’शीर्षक  कहानी का अनुवाद भेजा था। यह पत्रिका कहानी -प्रधान है। मेरी कहानी उसमें प्रकाशित हो गयी। वे कहानी के लिए मानदेय नहीं देते। वे ऐसा करते हैं कि कथाबिंबके साल में चार अंक निकलते हैं। वे उनमें प्रकाशित समस्त कहानियों की सूची नए साल के जनवरी अंक में प्रकाशित करते हैं और पाठकों से ही उनका मूल्यांकन करने को कहते हैं। पाठकों द्वारा दिए गए अंकों को जोड़कर उसके औसत के आधार पर पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं। क्रमानुसार प्रथम चार को और चार प्रोत्साहन पर। मुझे उस समय प्रोत्साहन पुरस्कार मिला था। उसके बाद एक दिन मुझे संपादक का पत्र मिला। -आपके पुरस्कार की राशि आपको भेज दी  जाएगी। तथापि एक अनुरोध है। आप एक साल के लिए कथाबिंबके सदस्य बनिए । आपकी सम्मति मिलने पर वार्षिक-शुल्क काटकर शेष राशि आपको चेक द्वारा भेज दी  जाएगी। मेरी कहानी जिसमें प्रकाशित हुई थी वह अंक मुझे स्तरीय लगा था। इस कारण मैंने अपनी सम्मति दे दी। उस माह से मुझे कथाबिंबके अंक आने लगे। (साल समाप्त होने के बावजूद भी उनका आना जारी है।) उन अंकों से मुझे अनुवाद के लिए उत्कृष्ट कहानियां प्राप्त हुईं ।

श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’

मैंने कथाबिंबकी सदस्यता ले ली। उसके बाद प्रथम अंक में ही प्रकाशित एक कहानी ने मेरा ध्यान आकर्षित कर लिया। कहानी का नाम ‘रुतबा।’ रुतबा यानी रुबाब। लेखिका थी, हंसा दीप। यह कहानी है ईशा, मनू अर्थात मनन और मनूका पड़ोसी मित्र जैनू, इन की । ईशा छह साल की। मनू उसका छोटा भाई और जैनू उससे साल भर छोटा । कहानी इन बच्चों के भावविश्व से संबंधित है। उनकी आपस की छीन-झपट, आशा -आकांक्षा, एक -दूसरे को मात देने की नैसर्गिक प्रवृत्ति, बड़ों की बातचीत, व्यवहार का उनके द्वारा किया जा रहा निरीक्षण और उसे अपने ढंग से अपनाने की उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति,किसी चीज की चाहत होनेपर उसके लिए की जानेवाली बारगेनिंग। ये सारी बातें कहानी में इस प्रकार चित्रित की गयी हैं कि लगता है हम कुछ पढ़ नहीं रहे अपितु सबकुछ साक्षात देख रहे हैं। कहानी का अंत होता है, कहानी का चरमोत्कर्ष । वह बहुत आकर्षक है। ईशा मनू पर रुबाब गालिब करती है। मनू, जैनूपर। जैनू सबमें छोटा । वह किस पर रुबाब गालिब करें ? और अनायास उसका ध्यान झूले में सो रही अपनी दो माह की बहन की ओर जाता है।

इस कहानी का मराठी में अनुवाद करने का मन हुआ। तब मैंने लेखिका से अर्थात हंसा दीप से औपचारिक अनुमति मांगी। इंटरनेट की सुविधा और मूल लेखिका की तत्परता एवं विनयशीलता के कारण वह मुझे तत्काल प्राप्त हो गयी। मैंने कहानी का रुबाब शीर्षक से अनुवाद किया। वह ‘पर्ण’ 2019 के दीपावली विशेषांक में प्रकाशित हो गयी।

उसके बाद हंसा की और दो-तीन कहानियां पढ़ने को मिलीं। अनुमति लेकर उनका भी मैंने अनुवाद किया। अनुमति के लिए बात करते समय फोनपर अन्य लेखकों का पसंद आया साहित्य, लेखन संबंधी मेरी अपनी धारणाएं, साहित्येतर विषय-इन पर चर्चा होती रही। शनै-शनै औपचारिकता मित्रता में बदलती गयी। वह अधिक स्नेहसिक्त, मजबूत होने लगी। औपचारिक ‘आप’ से तुम और ‘तुम’ से तू पर कब आ गए, पता ही  नहीं चला। यह मित्रता अंतरंग सहेली के रूप में और अधिक प्रगाढ़ होती गयी।

और एक दिन उसने मुझे अपना ‘प्रवास में आसपास’ कहानी-संग्रह भेजा। वह अभी पढ़कर पूरा किया ही था कि ‘शत-प्रतिशत’ यह दूसरा कहानी-संग्रह मिला। साथमें अनुमति-पत्र-

माननीय उज्ज्वला केलकर जी,

सादर अभिवादन।

विषय: मेरी कहानियों के मराठी भाषा में अनुवाद की अनुमति।

मैं सहर्ष अनुमति देती हूं कि आप मेरी किसी भी कहानी का अनुवाद कर सकती हैं। साथ ही, अनुवाद की गई कहानी को प्रकाशित करने के लिए आप किसी भी पत्रिका में भेज सकती हैं।

आपका सहयोग एवं स्नेह बना रहे।

असीम शुभकामनाएं ।

हंसा दीप,

टोरंटो, कैनेडा

इससे लाभ यह हुआ कि मुझे पसंद आई कहानियों का अनुवाद करने तथा उन्हें प्रकाशित करवाने के लिए मुझे समय खर्च नहीं करना पड़ा, ना ही हर बार कहानी के अनुवाद की अनुमति के लिए प्रतीक्षारत रहना पड़ा। मुझे दोनों संग्रहों की कहानियां पसंद आयीं। उनकी कथन शैली भा गयी। अपने अनुभूत प्रसंग, घटनाएं, उनसे संबंधित व्यक्ति, वे इतनी सहजता से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करती हैं कि लगता है, हम खुद भी वे प्रसंग, वे घटनाएं अनुभव कर रहे हो। उन व्यक्तियों से प्रत्यक्ष मिल रहे हो। उनकी बातचीत प्रत्यक्ष सुन रहे हो। हंसा की पसंद आयी कहानियों का अनुवाद करते -करते इतनी संख्या हुई  कि दो संग्रह हो जाते। ‘आणिशेवटी तात्पर्य’ तथा ‘मन गाभार्यातील शिल्पे’ शीर्षक से वे प्रकाशित भी हो गये।

हंसा का जन्म मध्य प्रदेश में, झाबुआ जिले के मेघनगर का। यह क्षेत्र आदिवासी  बहुल था। एक ओर शोषण, भूख और गरीबी से त्रस्त भील थे तो दूसरी ओर परंपराओं से जूझते, विवशताओं से लड़ते हुए जीने वाले मध्यवर्गीय परिवार थे। हंसा कहती है, ‘मेरे निवास-स्थान बदलते रहे। एक शहर से दूसरे शहर में, एक देश से दूसरे देश में, मैं अपने घर बसाती रही। बदलते हुए देश का बदलता परिवेश कहानियों में विविधता लाता रहा और रचनाओं को आकार देता रहा। पर मालवा की माटी और जन्मस्थली मेघनगर का पानी संवेदनशील कलम को सींचता रहा।

‘कथाबिंब’ में एक कॉलम होता है, ‘आमने-सामने।’ यह है, लेखक और पाठक के बीच का संवाद। अपने सामने श्रोता उपस्थित हैं, यह मानकर संवाद सम्पन्न करना। वे कौनसे प्रश्न पूछेंगें, क्या जानना चाहेंगे-यह सोचकर अपनी जानकारी, रचना-प्रक्रिया, अपनी साहित्यिक उपलब्धियां बयान करना। हंसा की ‘रुतबा’ प्रकाशित हुई उसी अंक में ‘आमने- सामने’ कॉलम के माध्यम से उसने पाठकों के साथ संवाद स्थापित किया था। आमने -सामने में प्रस्तुत हंसा के विचार, एक व्यक्ति के रूप में उसे जानने में बड़े सहायक सिद्ध हुए।

हंसा कहती है, ‘इस एक ही जन्म में मैंने तीन युग अनुभव किए।’ अर्थात समय और परिस्थिति के कारण । उसका जन्म, बालपन, शिक्षा हुई मेघनगर जैसे पिछड़े कसबे में । गांव में बिजली नहीं थी। ढिबरी और कंदील की रोशनी में पढ़ाई हुई। पिता की किराणा दुकान थी। पिताजी के निधन के बाद भाई ने दुकान संभाली । दुकान में आनेवाले भीलों को अनाज तौलकर देते और वहां अनाज खाने के लिए प्रस्तुत बकरियों से अनाज की रखवाली करते-करते उसकी पढ़ाई होती। पर उससे पढ़ाई में बाधा पहुंचती है, ऐसा उसे कभी नहीं लगा।

स्कूल में वह हमेशा ही अव्वल दर्जे में पास होती। उसके अलावा विविध अंतर-शालेय, तहसील, जिला स्तरीय व्यक्तृत्व, निबंध, नाट्य आदि स्पर्धाओं में वह स्कूल का प्रतिनिधित्व किया करती। गांव में पुस्तकालय नहीं था पर शिक्षक उसे अपने पास की पुस्तकें पढ़ने के लिए दिया करते । शहर में कोई कार्यक्रम हो तो वे उसे साथ लेकर जाते। उसकी बुद्धिमत्ता,प्रतिभा,कौशल को अनुभव का साथ मिलता रहा। गांव तो एकदम देहात था। उस कारण लड़कियों पर अनेक बंधन लादे जाते। इसके बावजूद हंसा कहती है, ‘मुझपर मेरे भाई ने तथा मां ने कोई बंधन नहीं लादे। मैं कहीं भी जाने के लिए, कुछ भी करने के लिए बिल्कुल आजाद थी। भाई ने तो अपनी पुत्री की तरह प्यार किया मुझे। मेरी हर उपलब्धि  पर वह प्रसन्न होता। वह समय कष्टप्रद जरूर था पर बड़ा मधुर था।  मौज मस्ती का समय था वह । न कोई शिकायत न किसी प्रकार की चिंता।

क्रमशः… 

डॉ हंसा दीप

संपर्क –  22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada

दूरभाष – 001 + 647 213 1817  ईमेल  – hansadeep8@gmail.com

मूल लेखिका – सौ. उज्ज्वला केळकर

संपर्क – निलगिरी, सी-५ , बिल्डिंग नं २९, ०-३  सेक्टर – ५, सी. बी. डी. –  नवी मुंबई , पिन – ४००६१४ महाराष्ट्र

मो.  836 925 2454, email-id – kelkar1234@gmail.com 

भावानुवाद  – श्री भगवान वैद्य ‘ प्रखर ‘

संपर्क – 30 गुरुछाया कालोनी, साईनगर, अमरावती 444607

मो. 9422856767, 8971063051

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-१० ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-१० ☆ श्री सुरेश पटवा ?

राम राय के मारे जाते ही विजयनगर की सेना तितर-बितर हो गई। मुस्लिम सेना ने विजयनगर पर कब्जा कर लिया। उसके बाद वैभव, कला तथा विद्वता की इस ऐतिहासिक नगरी में विध्वंश का जो तांडव शुरू हुआ, उसकी नादिर शाह की दिल्ली लूट और कत्लेआम से ही तुलना की जा सकती है। हत्या, लूट, बलात्कार तथा ध्वंस का ऐसा नग्न नृत्य किया गया कि जिसके निशान आज भी हम्पी में देखे जा सकते हैं।

बीजापुर, बीदर, गोलकोंडा तथा अहमदनगर की सेना करीब 5 महीने हम्पी में रही। इस अवधि में उसने इस वैभवशाली नगर की ईंट से ईंट बजा दी। ग्रंथागारों व शिक्षा केंद्रों को आग की भेंट चढ़ा दिया गया। मंदिरों और मूर्तियों पर लगातार हथौड़े बरसते रहे। हमलावरों का एकमात्र लक्ष्य था विजयनगर का ध्वंस और उसकी लूट। साम्राज्य हथियाना उनका प्रथम लक्ष्य नहीं था। क्योंकि बेरहम विध्वंस के बाद वे जनता को बदहाल करके यहाँ से चलते बने।

सल्तनत की संयुक्त सेना ने हम्पी को खूब लूटा और इसे खंडहर में बदल दिया। अपनी पुस्तक ‘द फॉरगॉटेन एम्पायरट‘ में रॉबर्ट सेवेल ने लिखा है, “आग और तलवार के साथ वे विनाश को अंजाम दे रहे थे। शायद दुनिया के इतिहास में ऐसा कहर कभी नहीं ढाया गया। इस तरह एक समृद्ध शहर लूटने के बाद नष्ट कर दिया गया और वहाँ के लोगों का बर्बर तरीके से नरसंहार कर दिया गया।”

सामान्यतः विजयी सेना विजित राज्य के ख़ज़ाने को लूटती है। मुस्लिम सेना ने हम्पी पहुँच खजाने को नहीं पाया तो उन्होंने आम कत्लेआम का फरमान जारी कर जिहाद का “सिर कलम या इस्लाम” आदेश दिया। दक्कन की सल्तनतों की संयुक्त सेना ने विजयनगर की राजधानी हम्पी में प्रवेश करके जनता  को बुरी तरह से लूटा और सब कुछ नष्ट कर दिया।

मुस्लिम आक्रांताओं ने पूरी राजधानी का एक भी नागरिक ज़िंदा नहीं छोड़ा और एक भी घर या दुकान नष्ट करने से नहीं छोड़ी। पंक्तिबद्ध खड़े पत्थर के खंभे बिना छत की क़तारबद्ध दुकानों के अवशेष मुस्लिम अत्याचार की कहानी कहते हैं। महल, रनिवास, स्नानागार, बैठक, चौगान, गलियारे सभी नेस्तनाबूद कर दिये। बारूद से मंदिरों और मूर्तियों को तोड़ने और भ्रष्ट करने के कार्य चार महीनों तक अनवरत जारी रहे। हम्पी में गिद्दों और जगली कुत्तों के सिवाय कुछ भी शेष नहीं छोड़ा।

हम्पी को खंडहर में तब्दील करने के बाद बीजापुर, गोलकुंडा, अहमदनगर, और मराठों के प्रतिनिधि घोरपड़े ने संपूर्ण विजयनगर साम्राज्य के इलाक़ों को आपस में बाँट लिया। एकमात्र हिंदू विजयनगर साम्राज्य मिट्टी में मिला दिया गया। तालीकोटा की लड़ाई के पश्चात् विजयनगर राज्य का अस्तित्व समाप्त हो गया। मैसूर के राज्य, वेल्लोर के नायकों और शिमोगा में केलादी के नायकों ने विजयनगर से अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। दक्कन की इन सल्तनतों ने विजयनगर की इस पराजय का लाभ नहीं उठाया और पुनः पहले की तरह एक दूसरे से लड़ने में व्यस्त हो गए और अंततः मुगलों के आक्रमण के शिकार हुए। बाद में शिवाजी के अभ्युदय से इनका बहुत बड़ा इलाक़ा मराठा साम्राज्य में विलीन हो गया।

विजयनगर की हार के कई कारण थे। दक्कन की सल्तनतों की तुलना में  विजयनगर के सेना में घुड़सवार सेना की कम संख्या थी। दक्कन की सल्तनतों की तुलना में  विजयनगर के सेना में जो भी हथियार इस्तेमाल किये जा रहे थे वे आधुनिक व परिष्कृत नहीं थे। दक्कन की सल्तनतों के तोपखाने बेहतर थे। उनकी व्यूह रचना कारगर सिद्ध हुई। विजयनगर की हार का सबसे बड़ा कारण उनकी सेना के गिलानी भाइयों का विश्वासघात था।

गौरवशाली विजयनगर साम्राज्य की हार के बाद, सल्तनत की सेना ने हम्पी के खूबसूरत शहर को लूट खंडहर में बदल दिया। यह एक उजड़ा हुआ बंजर इलाका है, जहां खंडहर बिखरे हुए हैं, जो एक हिंसक अतीत की कहानी बयान करते हैं। हम्पी धूल धूसरित होकर ज़मीन के भीतर खो गया था। जिसके ऊपर पेड़ झाड़ी ऊग आए और यह पहाड़ियों में तब्दील हो गया था।

ईस्ट इंडिया कंपनी के फ़ौजी अधिकारी से पुरातत्ववेत्ता बने कॉलिन मैकेंज़ी ने 1800-1810 में हम्पी के खंडहरों की खोज की थी। 1799 में, मैकेंज़ी सेरिंगपट्टम की लड़ाई में ब्रिटिश सेना का हिस्सा थे, जिसमें मैसूर के महाराजा टीपू सुल्तान की हार हुई थी। टीपू की हार के बाद, उन्होंने 1799 और 1810 के बीच मैसूर सर्वेक्षण का नेतृत्व किया और इसका एक उद्देश्य राज्य की सीमाओं के साथ-साथ निज़ाम के क्षेत्रों को निर्धारित करना था। सर्वेक्षण में दुभाषियों, ड्राफ्ट्समैन और चित्रकारों की एक टीम शामिल थी जिन्होंने क्षेत्र के प्राकृतिक इतिहास, भूगोल, वास्तुकला, इतिहास, रीति-रिवाजों और लोक कथाओं पर सामग्री एकत्र की।

सदाशिव राय का शाही परिवार तब तक पेनुकोंडा (वर्तमान अनंतपुर जिले में स्थित) पहुंच गया था। पेनुकोंडा को उसने अपनी नई राजधानी बनाया, लेकिन वहां भी नवाबों ने उसे चैन से नहीं रहने दिया। बाद में वहां से हटकर चंद्रगिरि (जो चित्तूर जिले में है) को राजधानी बनाया। वहां शायद किसी ने उनका पीछा नहीं किया। विजयनगर साम्राज्य करीब 80 वर्ष और चला। गद्दारों के कारण विजयनगर साम्राज्य 1646 में पूरी तरह इतिहास के कालचक्र में दफन हो गया। इस वंश के अंतिम राजा रंगराय (तृतीय) थे, जिनका शासन 1642-1650 था। यह चर्चा करते-करते हम सभी तीन बजे तक हम्पी पहुँच गए। बीच में एक दक्षिण भारतीय होटल में रुककर शुद्ध दक्षिण भारतीय भोजन किया। सूर्य पूरी तन्मयता से तपा रहा था। हमारे साथी लोग सिकंजी, नारियल पानी, आइसक्रीम इत्यादि पर टूट पड़े। निस्तार इत्यादि से फुरसत होने के पश्चात सबको इकट्ठा कर विरूपाक्ष मंदिर चल दिए।

क्रमशः…

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 13 – मूल्यवान धरोहर: परसाई और पुणतांबेकर की हस्तलिपि – ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ मूल्यवान धरोहर: परसाई और पुणतांबेकर की हस्तलिपि।) 

☆  दस्तावेज़ # 13 – मूल्यवान धरोहर: परसाई और पुणतांबेकर की हस्तलिपि ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

महान रचनाकार केवल उत्कृष्ट साहित्य ही नहीं रचते बल्कि नव-अंकुरित रचनाकारों को भी प्रोत्साहित करते हैं।

लगभग नब्बे के दशक की बात है। तब मैं जबलपुर में कार्यरत था। बैंक का काम हो जाने के बाद, मैं, प्रति मंगलवार, शाम को श्रद्धेय हरिशंकर परसाई के नेपियर टाऊन स्थित आवास में नियमपूर्वक जाया करता था। वे एक तख़त पर, पीछे पीठ टिकाए, अधलेटे, कुछ पढ़ते हुए मिलते। अत्यंत सौम्य, शांत और गंभीर।

मैंने तब व्यंग्य लिखना शुरू ही किया था। वो मेरी बात को ध्यानपूर्वक सुनते और मार्गदर्शन करते। उन्होंने मुझसे कहा कि अच्छा गद्य लिखना है तो रवींद्रनाथ त्यागी को पढ़ो। जब मैंने उनसे अपने पहले व्यंग्य-संग्रह ‘तिरछी नज़र’ के फ्लैप के लिए कुछ लिखने को कहा, तो उन्होंने बहुत सहजता से कहा, “लिखकर रखूंगा। अगली बार जब आओ तो ले लेना।”

श्रद्धेय शंकर पुणतांबेकर को मैं अपनी रचनाएं डाक से भेजता था। वो, उन्हें पढ़ने के बाद, अपना मार्गदर्शन देते थे। उन्होंने भी कृपापूर्वक मेरी पहली पुस्तक के लिए फ्लैप पर उदारतापूर्वक लिखा।

परसाई जी और पुणतांबेकर जी ने जो कुछ लिखा, उनकी हस्तलिपि में मेरे पास आज भी सुरक्षित है। ये मेरे लिए महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हैं।  इन्हें मैं, इस संस्मरण के साथ, आपसे साझा कर रहा हूं।

परसाई जी ने लिखा:

जगत सिंह बिष्ट विनोद और व्यंग्य लिखते हैं। वे पत्र-पत्रिकाओं में व्यंग्य और विनोद के लेख काफी वर्षों से लिख रहे हैं। उनमें विनोद क्षमता है। वे जीवन की विसंगति विडंबना की पकड़ भी रखते हैं। वे “विट” में क्षमतावान हैं। उनके लेख वास्तविक अनुभवों पर आधारित हैं। वे सामान्यतः दिखावटीपन और झूठी आधुनिकता को व्यंग्य का विषय बनाते हैं। उनका यह पहिला संग्रह प्रकाशित हो रहा है। मुझे आशा है यह पाठकों को संतुष्ट करेगा। वे आगे और अनुभव तथा मनन करके बेहतर रचना करेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है।

-हरिशंकर परसाई

4-1-1992

पुणतांबेकर जी ने लिखा:

व्यंग्यकारों की नई पीढ़ी में जगत सिंह बिष्ट का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यह इस में कि विसंगतियों को पकड़ने का उनका अपना अंदाज़ है और वे सहज ढंग से तीखी बात कह देते हैं। बिष्ट के पास तीखी दृष्टि ही नहीं, प्रसंगानुरूप तीखी भाषा भी है जो किसी भी व्यंग्य को सही व्यंग्य बनाती है। व्यंग्य का प्रमुख बिंदु प्रायः राजनीति और राजनेता होता है, किन्तु बिष्ट के व्यंग्य का विषय बहुआयामी है। वे जीवन के सभी क्षेत्रों की विसंगतियों को उतनी ही प्रखरता से प्रस्तुत करते हैं। लेखक व्यर्थ के विस्तार में नहीं जाता, अतः व्यंग्य में जिस चुस्ती और प्रभावात्मकता की आवश्यकता होती है वह उसकी रचनाओं में पूरी संजीदगी के साथ विद्यमान है। आज जब व्यंग्य कॉलमी लेखन के कारण बुरी तरह ढलान पर है, उस दशा में बिष्ट की ये रचनाएं हमें इस बात से आश्वस्त करती हैं कि सही व्यंग्य लेखन की दृष्टि नयी पीढ़ी के व्यंग्यकारों में भी विद्यमान है, पूरी प्रखरता के साथ विद्यमान है।

-शंकर पुणतांबेकर

2.1.92

♥♥♥♥

© जगत सिंह बिष्ट

Laughter Yoga Master Trainer

LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 12 – कालजयी कृति राग दरबारी के रचयिता: सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल – ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “कालजयी कृति राग दरबारी के रचयिता: सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल”।) 

☆  दस्तावेज़ # 12 – कालजयी कृति राग दरबारी के रचयिता: सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

श्रीलाल शुक्ल का नाम हिंदी साहित्य के शीर्षस्थ व्यंग्यकारों में हरिशंकर परसाई, शरद जोशी और रवींद्रनाथ त्यागी के साथ बहुत सम्मानपूर्वक लिया जाता है। एक सरकारी अफसर जो फाइलों के ढेर में उलझा रहता हो, इतना बारीक व्यंग्य लिख देता है कि पढ़ते-पढ़ते आप सोचने लगते हैं कि ये तो हमारे ही आसपास का हाल है।

वे आईएएस अफसर थे और इस सरकारी नौकरी में उन्होंने भारतीय समाज और प्रशासन की हर बारीकी को इतने करीब से देखा कि उसे कागज़ पर उतार दिया। लेकिन उन्होंने केवल देखा ही नहीं, महसूस भी किया। शायद यही वजह थी कि उनका व्यंग्य महज़ हंसी-मज़ाक नहीं था, बल्कि समाज की गहरी सच्चाइयों को दिखाने वाला एक आईना था।

उनका व्यंग्य उपन्यास ‘राग दरबारी’  एक कालजयी कृति है। 1968 में जब यह उपन्यास प्रकाशित हुआ तो जैसे साहित्य जगत में खलबली मच गई। यह उपन्यास भारत के ग्रामीण जीवन, राजनीति और शिक्षा प्रणाली का ऐसा सजीव चित्रण करता है कि जो भी इसे पढ़ता है, वह खुद को शिवपालगंज के किसी गली-कूचे में घूमता हुआ महसूस करता है।

‘शिवपालगंज’ गाँव हर जगह है। आपका अपना गाँव, कस्बा, मोहल्ला। और इसमें जो पात्र हैं – वैद्य जी, रंगनाथ, छोटे पहलवान – ये सब ऐसे लगते हैं जैसे हमारे ही आसपास के लोग हों। वैद्यजी ऐसे किरदार हैं जिनका नाम लेते ही चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। उनकी चतुराई, उनकी राजनीति और उनके तंज इतने अनोखे हैं कि वे हिंदी साहित्य का हिस्सा बन गए हैं।

‘राग दरबारी’ में शिक्षा प्रणाली पर लाजवाब कटाक्ष है। शुक्ल ने लिखा कि हमारे स्कूल सिर्फ़ परीक्षा पास करने की मशीनें हैं। ज्ञान से कोई मतलब नहीं है।

जब इस उपन्यास को टीवी पर दिखाया गया, तो लोग देखकर ऐसे खुश होते थे मानो उनके ही गाँव की कहानी हो। 1986 में दूरदर्शन पर ‘राग दरबारी’ को धारावाहिक के रूप में दिखाया गया था। अगर आपने देखा हो, तो आपको याद होगा कि हर किरदार जैसे किताब के पन्नों से निकलकर आपके सामने आ गया हो।

मुझे लगता है कि ‘राग दरबारी’ की खासियत यही है कि यह महज़ एक उपन्यास नहीं, बल्कि एक समय, एक समाज का दस्तावेज़ है। और यह दस्तावेज़ तब भी प्रासंगिक था, आज भी है, और शायद आगे भी रहेगा।

शुक्ल का कहना था कि शिवपालगंज जैसा गाँव हर जगह है। मैं जब-जब ‘राग दरबारी’ पढ़ता हूँ तो मुझे लगता है कि वह गाँव कहीं और नहीं बल्कि मेरे ही भीतर है।

उनका व्यक्तित्व बहुत सहज था। लगता ही नहीं था कि वे इतने बड़े सरकारी अधिकारी और व्यंग्यकार हैं। उनके द्वारा लिखा गया एक पत्र आज भी मेरे पास अमूल्य निधि की तरह सुरक्षित है। उस पोस्टकार्ड को मैं ई-अभिव्यक्ति के पाठकों के साथ साझा कर रहा हूं। उन्होंने लिखा:

=======

बी 2251 इंदिरा नगर लखनऊ 226016

                                      17.1.’99

प्रिय बिष्ट जी,

‘कुछ लेते क्यों नहीं’ की प्रति मिली। कृतज्ञ हूं। एक बार देख गया हूं। काफी दिलचस्प है और अमौलिक विषयों पर मौलिक दृष्टि से संपन्न है। इत्मीनान से बाद में पढूंगा।

समस्त शुभकामनाओं के साथ,

                                  आपका

                               श्रीलाल शुक्ल

=======

उन्हें शत् शत् नमन!💐

♥♥♥♥

© जगत सिंह बिष्ट

Laughter Yoga Master Trainer

LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 11 – 50 साल पहले जबलपुर का परिदृश्य और साइंस कॉलेज से ग्रेजुएशन – ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ 50 साल पहले जबलपुर का परिदृश्य और साइंस कॉलेज से ग्रेजुएशन।) 

☆  दस्तावेज़ # 11 – 50 साल पहले जबलपुर का परिदृश्य और साइंस कॉलेज से ग्रेजुएशन ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

काफी उथल-पुथल का समय था। एक संत, आचार्य विनोबा भावे, जबलपुर को संस्कारधानी घोषित करके जा चुके थे और दूसरे संत, आचार्य रजनीश, जिनका मिजाज़ कुछ अलग था, संभोग से समाधि की ओर जाने का मार्ग बता रहे थे। महर्षि महेश योगी के भावातीत ध्यान का भी प्रवर्तन हो रहा था। यह नगरी अभी इतनी प्रगतिशील नहीं हुई थी कि टॉर्च बेचने वाले जादूगरों के अलावा अन्य बुद्धिजीवियों को स्वीकार कर सके। व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई को ‘वैष्णव की फिसलन’ लिखने के परिणामस्वरूप अपने हाथ-पांव तुड़वाने पड़े थे।

रॉबर्टसन कॉलेज तब तक गवर्नमेंट साइंस कॉलेज कहलाने लगा था। बगल में, महाकौशल आर्ट कॉलेज था। सिविल लाइंस के पचपेड़ी में इनके विशालकाय परिसर थे। निकट ही, मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री, इंदिरा गांधी के राजनीतिक सलाहकार और ‘कृष्णायन’ ग्रन्थ के रचयिता, पंडित द्वारिकाप्रसाद मिश्र का निवास था। थोड़ा आगे चलकर, जबलपुर यूनिवर्सिटी थी, जिसका नामकरण अब रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय हो गया है।

सेठ गोविंददास लंबे समय तक जबलपुर के सांसद रहे। उन्होंने हिंदी की सेवा की और ‘केरल के सुदामा’ तथा अन्य रचनाओं का अपनी कलम से सृजन किया। मुझे तो उस वक्त शहर के सबसे बड़े विद्वान दर्शनाचार्य गुलाबचंद्र जैन प्रतीत होते थे क्योंकि पाठ्यक्रम में उन्हीं की लिखी पुस्तकें पढ़ाई जाती थीं! सेठ गोविंददास के बाद, विश्वविद्यालय के छात्र संघ के अध्यक्ष, शरद यादव, अगले सासंद चुने गए।

जब हमने कॉलेज में दाखिला लिया (1971), तो उसके तुरंत बाद पाकिस्तान से दूसरा युद्ध हुआ और बांग्लादेश स्वतंत्र हुआ। जनरल नियाज़ी और उसके साथ आत्म-समर्पण करने वाले पाक सैनिकों को कॉलेज के पास ही आर्मी एरिया में कैद रखा गया था। हम रांझी से साइकिल में, गन कैरेज फैक्ट्री होते हुए, सेंट्रल स्कूल के परिसर के अंदर से शॉर्टकट लेकर, कॉलेज की पिछली ओर साइकिल स्टैंड में पहुंचते थे। कुछ समय तक वेस्टलैंड खमरिया से, प्रदीप मित्रा का साथ मिला। लंबे रास्ते में हम कार्ल मार्क्स के साम्यवाद और अमेरिका में पूंजीवाद की चर्चा करते थे। मुझे तो इन विषयों की कोई खास समझ नहीं थी लेकिन प्रदीप, फर्ग्यूसन कॉलेज पूना और आई आई टी कानपुर होते हुए, अमेरिका पहुंचकर वहां प्रोफेसर बन गया।

कॉलेज में पढ़ाई का अनुकूल वातावरण था और प्रोफ़ेसर बहुत योग्य थे। प्रोफेसर हांडा हमें गणित पढ़ाते थे। वह बहुत लंबे थे। गर्दन टेढ़ी कर कार चलाते थे। क्लास के अंत में पूछते, “एनी क्वेशचन?” जब हम ‘न’ में सिर हिलाते, तो वो बोलते, “नो क्वेशचन, वैरी इंटेलीजेंट!” छोटे कद के, अत्यंत प्रखर, डॉ प्रेमचंद्र, गणित के हमारे दूसरे प्रोफेसर थे। उनकी मूछें बहुत आकर्षक थीं। वे ‘इक्वेशन’ और ‘इक्वल टू’ का बहुत अजीबोगरीब और नाटकीय उच्चारण करते थे। ऐसा करने में, उनकी मूछें, तराजू के दो पलड़ों की तरह ऊपर-नीचे झुक जाती थीं – एक नीचे की तरफ और दूसरी ऊपर की ओर!

केमिस्ट्री के प्रोफेसर डॉ महाला और मिश्रा सर सादगी की प्रतिमूर्ति लेकिन गहन विद्वान थे। महाला सर तो ब्लैकबोर्ड के सामने बीचोंबीच खड़े होकर, दोनों तरफ दाएं और बाएं हाथ से एक जैसा लिखते थे। सहस्त्रबुद्धे सर पुलिस अधिकारी की तरह कड़क थे, हम उनसे डरते थे। फिजिक्स डिपार्टमेंट के प्रोफेसर एस के मिश्रा और निलोसे सर बहुत सौम्य थे। उन्हें विषय का गहरा ज्ञान था। पालीवाल सर अप्लाइड मैथेमेटिक्स के अंतर्गत स्टेटिस्टिक्स पढ़ाते थे। उनका पढ़ाने का ढंग मज़ेदार था। वो पढ़ाते वक्त, कलाई को स्पिन गेंदबाज की तरह घुमाते थे, आँखें भी गोलगोल नचाते थे और उनकी जीभ भी घिर्रघिर्र करती थी। वे जब कक्षा को ‘कोरिलेशन’ का गणितीय पाठ पढ़ा रहे होते तो छात्र उस युग की तारिकाओं, शर्मीला टैगोर, वहीदा रहमान, तनूजा और डिंपल कपाड़िया के सौंदर्य का आपस में कोरिलेशन ढूंढ रहे होते।

जबलपुर उन दिनों फिल्म डिस्ट्रीब्यूशन की महत्वपूर्ण टेरिटरी हुआ करती थी। राजकपूर की ‘मेरा नाम जोकर’ फ्लॉप हुई तो उन्होंने, नुकसान की भरपाई के लिए, एक बोल्ड फिल्म ‘बॉबी’ बना डाली जिसने सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले। इस शहर में, ‘दो रास्ते’ और ‘जय संतोषी मां’ जैसी फिल्मों ने सिल्वर जुबली मनाई। पुराने समय में तो श्याम टॉकीज, श्रीकृष्णा, सुभाष, प्लाजा, विनीत और लक्ष्मी टॉकीज जैसे ही पुराने सिनेमा हॉल थे। फिर, कुछ अच्छे बने जैसे ज्योति टॉकीज, आनंद और शीला टॉकीज। प्रेमनाथ की एम्पायर टॉकीज और डिलाइट टॉकीज का अपना ऑडियंस था। वहां हमने ‘द गंस ऑफ नेवरोन’, ‘एंटर द ड्रैगन’ और चार्ली चैपलिन की फिल्में देखीं। डिलाइट में एक बार हंगेरियन फिल्म फेस्टिवल भी आयोजित हुआ था।

हमारे सहपाठी थे – विजय कुमार चौरे, इंद्र कुमार दत्ता, जी पी दुबे, पी पी दुबे, अरविंद हर्षे, विजय कुमार बजाज, प्रवीण मालपानी (सेठ गोविंददास के नाती), रविशंकर रायचौधुरी, प्रदीप मित्रा, आशीष बैनर्जी… और मैं, जगत सिंह बिष्ट। एक नाम मैं भूल रहा हूं। उनकी उम्र हमसे कुछ अधिक थी और वो शायद सिहोरा के आसपास से आते थे। उनका स्वभाव अत्यंत मृदु था। दो छात्र यमन से पढ़ने आए थे – अब्दुल रहमान सलेम देबान और उमर बशर। हमारी कक्षा में दो ही छात्राएं थीं – मंजीत कौर और  उमा देवी। हम सब शुद्ध, सात्विक और दूध के धुले थे। न जाने किस मनचले ने कन्याओं की बेंच की ओर, चुपके से प्रेमपत्र खिसका दिया। तत्पश्चात वह प्रतिदिन उत्तर की प्रतीक्षा करता। कुछ दिन खामोशी रही। आखिर उस तरफ से, उस लड़के को एक पर्ची पहुंची, जिसमें लिखा था – “ईश्वर आपको सद्बुद्धि दे!”

कॉलेज परिसर में एक छोटी सी कैंटीन थी जिसमें चाय और समोसे मिलते थे। कभी कभी हम कुछ दोस्त इंडियन कॉफी हाउस (सदर या सिटी) जाकर डोसा और कॉफी का लुत्फ़ उठाते थे। शायद इसी के लिए, हमें हर महीने स्कॉलरशिप मिलती थी। प्रिंसिपल के ऑफिस के बाहर ही बाबू लोग बैठते थे। हमें तो कोई परेशानी नहीं होती थी लेकिन अरविंद को अपने पिताजी को लेकर आना पड़ता था क्योंकि वो इतना मासूम लगता था कि बाबू उसके हाथ में पैसे देने से हिचकिचाते थे। तत्कालीन प्रिंसिपल, कालिका सिंह राठौर बहुत सख़्त थे। अनुशासन का पालन न करने वाले को ऐसी डांट लगाते थे कि वो तौबा करने लगता था।

इस बार मैं न्यूज़ीलैंड गया तो बेटे ने अपने दोस्त रौनक से मिलवाया। बातों ही बातों में मालूम हुआ कि उसके पापा भी जबलपुर के हैं और साइंस कॉलेज से पढ़े हैं। निकुंज श्रीवास्तव नाम है उनका। मॉडल स्कूल और साइंस कॉलेज में पढ़े हैं। हम दोनों ने स्कूल 1971 में पास किया और दोनों ही 1974 में ग्रेजुएट हुए। कॉलेज में सेक्शन जरूर अलग अलग थे। मिलते ही, पहली बात उन्होंने पूछी, “तुमने कॉलेज में घोड़े की आवाज़ सुनी थी?” मैंने कहा, “हां, कई बार।” बोले, “वो मैं ही था!” मैंने पूछा, “आपको एक बार सस्पेंड भी कर दिया था न?” बोले, “हां, एक बार नहीं, सात बार सस्पेंड हुआ हूं!” ज़बरदस्त शख्सियत है उनकी! लगता है, मेले में बिछुड़ गए थे हम। अब मिले हैं। उनसे मिलकर बहुत आनंद आता है। लगता है, अभी भी वही कॉलेज के दिन चल रहे हैं। वही उमंग, वही मस्ती। ढेर सारे किस्से हैं उन दिनों के जाे एक के बाद एक याद आते हैं। हरि अनंत, हरि कथा अनंता।

♥♥♥♥

© जगत सिंह बिष्ट

Laughter Yoga Master Trainer

LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 10 – ‘लगान’ से पहले, एक था रांझी क्रिकेट क्लब – ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ ‘लगान’ से पहले, एक था रांझी क्रिकेट क्लब।) 

  दस्तावेज़ # 10 – ‘लगान’ से पहले, एक था रांझी क्रिकेट क्लब ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

मुझे तो लगता है कि आशुतोष गोवारिकर को ‘लगान’ फिल्म की पटकथा लिखने की प्रेरणा, जबलपुर के रांझी क्रिकेट क्लब से मिली होगी। फिल्म तो 2001 में बनी, यह क्लब उसके कई साल पहले स्थापित हो चुका था। यहां बहुत पहले से भुवन, भूरा, लाखन, गोली, देवा और कचरा जैसे पात्र, टीम में शामिल रहे हैं। वही उमंग, वही जज़्बा, बीच-बीच में थोड़ा असमंजस, लेकिन कुछ कर गुज़रने की ख्वाहिश इनके दिलों में भी रही है। न कोई साधन, न परंपरा, न राह दिखने वाला कोई इशारा। बस, कुछ करके दिखाना है।

ब्रिटिश काल से, जबलपुर आयुध और सेना का बहुत बड़ा केंद्र रहा है। दूर तक फैले, हरे-भरे मैदान, क्रिकेट के लिए अनुकूल थे। यहां पुराने समय से ही खूब क्रिकेट खेला जाता था। मुझे याद है, बहुत पहले, कैंटोनमेंट के गैरिसन ग्राउंड में सोबर्स, हॉल और ग्रिफिथ वाली वेस्ट इंडीज़ की टीम प्रदर्शन मैच खेलने आई थी। उनकी पेस बॉलिंग हैरतअंगेज़ थी। गेंदबाज बाउंड्री लाइन से दौड़ते हुए आते थे। गेंद दिखाई ही नहीं देती थी।

शहर से दूर, ऑर्डनेंस फैक्टरी के नज़दीक, छोटा-सा उपनगर रांझी, 1965-70-75 के समय उन्नींदा-सा रहता था। न कोई आवागमन के साधन, न कोई सुख-सुविधा। कुछ बच्चे रबर की गेंद से और कुछ बड़े लड़के कॉर्क की गेंद से क्रिकेट खेलते दिख जाते थे। इतवार के दिन छोटे-मोटे मैच भी हो जाते थे।

अजित वाडेकर की कप्तानी में, भारतीय क्रिकेट टीम 1971-72-73 में, पहली बार वेस्ट इंडीज़ और इंग्लैंड से उनकी धरती पर सिरीज़ जीतकर लौटी। टीम में गावस्कर, विश्वनाथ, इंजीनियर के साथ-साथ बेदी, प्रसन्ना, वेंकटराघवन और चंद्रशेखर भी थे। तत्पश्चात, कपिल देव के जांबाज़ों की टीम 1983 का इतिहास रचने के लिए तैयार हो रही थी। देशभर में ही क्रिकेट के प्रति उत्साह की लहर दौड़ रही थी।

रांझी में भी हलचल होना स्वाभाविक था। युवा क्रिकेट प्रेमी मोहन, सुभाष, विनोद, विजय, पटेल और जॉली ने चंदा इकट्ठा किया और सदर में सरदार गंडा सिंह की स्पोर्ट्स शॉप से बैट, स्टंप्स, पैड्स, ग्लव्स और कुछ गेंद लेकर आए। तब मैं बहुत छोटा था। मैदान के बाहर बैठकर सामान की रखवाली करता था और किसी न किसी दिन खेलने के सपने देखा करता था। विनोद लंब की खब्बू स्पिन गेंदबाज़ी देखकर बहुत आनंद आता था। यह पीढ़ी जल्दी ही दुनियादारी में लग गई। इसकी वजह से, एक खालीपन सा आ गया।

कुछ समय बाद, हम बल्ला थामने लायक हो गए थे। किसी ने बताया कि राइट टाऊन स्टेडियम में एन एम पटेल टूर्नामेंट होने जा रहा है, एंट्री ले लो। तब तक न टीम बनी थी, न हमारे पास क्रिकेट की किट थी, और न ही प्रैक्टिस हो पाई थी। बस ठान लिया कि मैदान में उतरना है। गुंडी (अजय सूरी) ने कमान संभाली और टीम तैयार होने लगी – चेतन, गुरमीत, गुंडी, जगत, बब्बी, अशोक, प्रदीप, बुल्ली (सुशील), थॉमस डेविड, अनिल वर्मा, काले (हरमिंदर), नीलू, और कभी एकाध और।

सरदार मेला सिंह का क्रिकेट के प्रति गहरा लगाव था। उनकी कोठी का प्रांगण रांझी क्रिकेट क्लब का अघोषित हेडक्वार्टर बन गया। वहीं लॉन में प्रैक्टिस शुरू हुई। ईंट से टिकी कुर्सी बनी स्टंप्स और मेला सिंह अंकल ने रंदा घिसकर टेंपररी बैट तैयार किया। गेंद रबर की। पहले हफ्ते में ही उनके घर के सब शीशे टूट चुके थे। जिस दिन अंकल खुश होते थे तो बाकायदा ड्रिंक्स ब्रेक में चाय नसीब होती थी। मेरे पास डॉन ब्रैडमैन की पुस्तक ‘द आर्ट ऑफ क्रिकेट’ की प्रति थी। हम यदाकदा उससे कुछ सीखने का प्रयास करते।

हमारे पास किट नहीं थी। फिर, खेलेंगे कैसे? तय हुआ कि यहां-वहां से जो भी सेकंड हैंड मिल जाए, इकट्ठा कर लो। पैड मिले तो काफी पुराने और जर्जर थे। उनकी हालत ऐसी थी कि पैड नहीं, बल्कि पैड का एक्स-रे दिखाई देते थे। दोनों पैरों के एक-एक बक्कल टूटे हुए थे। गुरमीत ने कीपिंग ग्लव्स ढूंढ लिए। चंदा करके हम बैट भी ले आए। बैट को तेल पिलाना शुरू किया और कपड़े में लिपटी पुरानी बॉल से स्ट्रोक बनाया। दो पुराने एब्डोमन गार्ड भी मिल गए, जिनमें सिर्फ प्लास्टिक वाला हिस्सा बचा रह गया था, कमर से बांधने वाली इलास्टिक बेल्ट उनमें नहीं थी। गार्ड को उसके नियत स्थान पर फंसाना पड़ता था। थोड़ी लज्जा भी आती थी। एक बैट्समैन आउट होकर वापस आ रहा है और दूसरा अंदर जा रहा है। बीच मैदान में, पूरे पब्लिक व्यू में, गार्ड और पैड का आदान-प्रदान होता था। कुछ सामान दूसरी टीम से उधार भी मांग लेते थे।

टूर्नामेंट में अन्य टीमें मजबूत और प्रोफेशनल थीं – एम एच क्लब (मोहनलाल हरगोविंददास), टोरनैडो, ऑर्डनेंस फैक्टरी, व्हीकल फैक्ट्री, गन कैरेज फैक्ट्री, गवर्नमेंट साइंस कॉलेज, और बाद में जहांगीराबाद। उनके खिलाड़ी दक्ष और अनुभवी थे – श्रवण पटेल (इंग्लैंड में प्रशिक्षित), सिद्धार्थ पटेल, आजाद पटेल, मुकेश पटेल, गोपाल राव, अशोक राव, पंडित, अलेक्ज़ेंडर थॉमस, साल्वे, पम्मू, और अन्य।

एन एम पटेल टूर्नामेंट का हमारा पहला फिक्सचर, व्हीकल फैक्टरी से तय था। उनकी टीम सशक्त थी और खिलाड़ी अनुभवी थे। हमारा कोई इतिहास नहीं था, बस वर्तमान था, और हम भविष्य का निर्माण करने निकले थे। मैदान में उतरे तो किसी के कपड़े सफेद थे, किसी के क्रीम, किसी के बादामी। क्रिकेट शूज़ एक दो खिलाड़ियों के ही पैरों में थे। लेकिन खेल शुरू होते ही हमने पूरी तरह फोकस किया। उस दिन गोपाल की लेफ्ट आर्म स्पिन और मेरी मीडियम पेस गेंदबाजी चल निकली। सबको आश्चर्य हुआ जब हमने उन्हें बहुत कम स्कोर में निकाल लिया। हमारी बैटिंग की बारी आई तो चेतन ने ओपनिंग बल्लेबाजी करते हुए, ऑफ स्टंप के बाहर की गेंदों पर बेहतरीन फ्लैश लगाए। गुरमीत ने एक छोर संभाले रखा और गुंडी ने, मिडिल ऑर्डर में, कप्तान की पारी खेली। हमें भारी जीत हासिल हुई और अगली सुबह ‘नवभारत’ अखबार में हमारा और रांझी क्रिकेट क्लब का नाम आया। बहुत अच्छा लगा।

क्रिकेट जीवन को जीने की कला है। वह हमें जीत और हार को, खिलाड़ी भावना के साथ, समभाव से स्वीकार करना सिखाती है। अगला मैच हमारा गवर्नमेंट साइंस कॉलेज से था। हम हार गए और टूर्नामेंट से बाहर हो गए। फिर भी, हमारी टीम की थोड़ी-बहुत साख तो बन ही गई थी और हमें समय-समय पर मैच खेलने के लिए आमंत्रित किया जाने लगा। हम बाकायदा खेलने जाते, अच्छा प्रदर्शन करते, और जो दिन हमारा होता उस दिन शहर की किसी भी टीम को पराजित कर देते। अजय सूरी (गुंडी) के हम विशेष रूप से कृतज्ञ हैं कि शून्य से शुरू कर, वो टीम को बहुत आगे तक ले गए। शांत व्यवहार, होठों पर सदैव मुस्कान, धैर्य, और हम सब पर अटूट विश्वास था उनका। उन्हें मालूम था, एक-दो मैच हारेंगे, फिर जीतेंगे भी। हमारी टीम के कई खिलाड़ियों में बहुत प्रतिभा थी। हमारे पास अपना ग्राउंड होता, कुछ साधन होते, और कोई मार्गदर्शक होता तो हम क्या नहीं कर सकते थे!

तब तक हमने हनुमंत सिंह, सलीम दुर्रानी, जगदाले और गट्टानी को अनेक बार रणजी में खेलते देखा था। 1977-78 के आसपास, राइट टाउन स्टेडियम में, चंदू सरवटे बेनिफिट मैच हुआ तो बहुत सारे खिलाड़ियों को खेलते देखा – गावस्कर, बेदी, संदीप पाटिल, मोहिंदर अमरनाथ, सुरिंदर अमरनाथ, मदन लाल, अशोक मांकड, धीरज परसाना, और अनेक अन्य। उस मैच में, हमारा अपना, सी एन सुब्रमण्यम भी खेला, जो शहर का बहुत ही होनहार खिलाड़ी था लेकिन किन्हीं कारणों से शिखर तक नहीं पहुंच सका। अब केवल उसकी स्मृतियां शेष हैं। जबलपुर में पुराने समय से ही खूब क्रिकेट खेला जाता है लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खिलाड़ियों का पहुंचना क्यों नहीं हो पाता?

लोग बताते हैं अब रांझी में बहुत कुछ बदल गया है। पहले हमें मैच के लिए नई गेंद लेने के लिए अंधेरदेव या सदर जाना पड़ता था। अब रांझी में स्पोर्ट्स का सारा सामान मिल जाता है। उत्सुकता है जानने की कि आजकल वहां क्रिकेट का क्या हाल है, कौन-कौन खेल रहा है, कौन से क्लब हैं, किन टूर्नामेंट्स में भाग लेते हैं और क्रिकेट प्रशिक्षण की क्या व्यवस्था है?

♥♥♥♥

© जगत सिंह बिष्ट

Laughter Yoga Master Trainer

LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – ““सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ साभार – स्व. जय प्रकाश पाण्डेय ☆

स्व. जय प्रकाश पाण्डेय

(स्व. जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर थे  उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा था। हमारे परम मित्र जयप्रकाश जी आज हमारे बीच नहीं रहे किन्तु, उनके द्वारा प्रारम्भ किए गए इस स्तम्भ को संस्कारधानी जबलपुर से ही भाई श्री प्रतुल श्रीवास्तव जी के सहयोग से जारी रख रहे हैं।  

ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं – ““सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा  )

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ – “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीरओखदे   ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३८ – “जिम्मेदार शिक्षक – स्व. कवि पं. दीनानाथ शुक्ल” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३९ – “सहृदय भावुक कवि स्व. अंशलाल पंद्रे” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४० – “मानवीय मूल्यों को समर्पित- पूर्व महाधिवक्ता स्व.यशवंत शंकर धर्माधिकारी” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४१ – “प्रखर पत्रकार, प्रसिद्ध कवि स्व. हीरालाल गुप्ता” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४२ – “जिनकी रगों में देशभक्ति का लहू दौड़ता था – स्व. सवाईमल जैन” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

डॉ महेश दत्त मिश्रा 

☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ ☆

☆ “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा  ☆ स्व. जय प्रकाश पाण्डेय ☆

(यह संस्मरण तकनीकी कारणों से स्व जय प्रकाश पाण्डेय जी के रहते प्रकाशित नहीं हो सका था।)

लड़कपन की एक बात याद आ गई, जब हम छठवीं या सातवीं में पढ़ रहे थे गांव से पढ़ने शहर आये थे। गरीबी के साथ गोलबाजार के एक खपरैल कमरे में रहते थे। बड़े भाई उन दिनों डाॅ महेश दत्त मिश्रा जी के अंडर में ‘इण्डियन प्राईममिनिस्टर थ्योरी एण्ड प्रेक्टिस’ संबंधी विषय पर पीएचडी कर रहे थे। पिताजी स्वतंत्रता संग्राम के दिनों नौकरी छोड़कर आंखें गवां चुके थे, मां पिता जी गांव में ही थे। घर के पड़ोस में महाकौशल स्कूल था और उस पार अलका लाज के पास साहू के मकान में महात्मा गांधी के निजी सचिव पूर्व सांसद डाक्टर महेश दत्त मिश्र  जी दो कमरे के मकान में रहते थे। सीमेंट से बना मकान था। अविवाहित थे, खुद अपने हाथों घर की साफ-सफाई करते, खाना बनाते, बर्तन और कपड़े धोते। खेलते खेलते कभी हम उनके घर पहुंच जाते, एक दिन घर पहुंचे तो वे फूली फूली रोटियां सेंक रहे थे और एक पुरानी सी मेज में बैठे दाढ़ी वाले सज्जन को वो गर्म रोटियां परोस रहे थे, हम भी सामने बैठ गए, हमें भी गरमा गर्म एक रोटी परोस दी उन्होंने। खेलते खेलते भूख तो लगी थी वे गरम रोटियां जो खायीं तो उसका प्यारा स्वाद आज तक नहीं भूल पाए।

मिश्र जी गोल गोल फूली रोटियां सामने बैठे दाढ़ी वाले को परोसते जाते और दोनों आपस में हंस हंसकर बातें भी कर रहे थे। वे दाढ़ी वाले सज्जन आचार्य रजनीश थे जो उन दिनों विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र पढ़ाते थे। लड़कपन था खाया पिया और हम बढ़ लिए…. ।

आज जब ‘कहां गए वे लोग’ कालम लिखते हुए आदरणीय डॉ महेश भाई बहुत याद आए। हां जी, मैं उन्हीं महेश भाई की बात कर रहा हूं जो महात्मा गांधी के निजी सचिव थे, पूर्व सांसद थे, और बहुत सहज सरल व्यक्तित्व के धनी थे। आज भी स्वाधीनता सेनानी स्वर्गीय प्रोफेसर महेश दत्त मिश्र को हरदा के गांधी के रूप में जाना जाता है। पिछले कई वर्षों से मिश्र जी के परिजन उनकी स्मृति में हरदा में व्याख्यान माला आयोजित करते हैं।

महेश दत्त मिश्र का जन्म 1915 में हरदा में हुआ था। उनके पिता का नाम स्वर्गीय पंडित चंद्र गोपाल मिश्र था। उन्होंने बी ए (आनर्स), एम ए किया। उनकी पढ़ाई राधा स्वामी शैक्षणिक संस्थान, दयालबाग, आगरा, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और इलाहाबाद से हुई। जबलपुर विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के वरिष्ठ रीडर; पूर्व में सहायक प्रोफेसर, इलाहाबाद विश्वविद्यालय; 1958-59 में शिकागो विश्वविद्यालय के भारतीय सभ्यता पाठ्यक्रम के स्टाफ पर काम किया। 1952-57 में पीएसपी से जुड़े; 1930-32 में एक छात्र के रूप में और 1940  और 1942 में जेल गए; छात्र जीवन से कई वर्षों तक पीसीसी और एआईसीसी के सदस्य रहे। 1952 से 1957 तक वे मध्यप्रदेश विधानसभा में विधायक रहे । सामाजिक गतिविधियाँ: रचनात्मक कार्य, ग्रामीण उत्थान, सांस्कृतिक गतिविधियाँ में  बचपन से वे सक्रिय रहे।छात्र जीवन से ही सभी गांधीवादी गतिविधियों स जुड़े रहे।  रचनात्मक कार्य, खादी और ग्रामोद्योग, हरिजन उत्थान, हिंदू-मुस्लिम एकता, कृषि और ग्रामीण विकास में वे विशेष रुचि रखते थे। यूरोप, पूर्व के साथ-साथ पश्चिम, अमरीका, मध्य पूर्व देशों की उन्होंने अनेक बार विदेश यात्राएं की थी। वे जीवन भर अविवाहित रहे। प्रारंभिक नागरिक शास्त्र, सामाजिक अध्ययन जैसे अनेक विषयों पर उन्होंने किताबें लिखीं हैं। उन्हें सादर नमन।

साभार – स्व. जय प्रकाश पाण्डेय 

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 9 -रवींद्रनाथ त्यागी: मोती जैसे सुन्दर अक्षर, संतों जैसे स्पष्ट बोल- ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ रवींद्रनाथ त्यागी: मोती जैसे सुन्दर अक्षर, संतों जैसे स्पष्ट बोल।) 

☆  दस्तावेज़ # 9 – रवींद्रनाथ त्यागी: मोती जैसे सुन्दर अक्षर, संतों जैसे स्पष्ट बोल ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

श्रद्धेय रवींद्रनाथ त्यागी व्यंग्यकार के रूप में जाने जाते हैं लेकिन उन्होंने उत्कृष्ट कविताएं, और ललित निबंध भी लिखे हैं। साथ ही साथ, वे एक बड़े सरकारी अधिकारी भी थे।

गर्मियों की छुट्टी में हम अक्सर देहरादून जाते थे। वहां उनकी एक आलीशान कोठी थी। उनके पुस्तकालय में, संस्कृत, हिंदी और इंग्लिश की, हजारों पुस्तक और ग्रन्थ थे। उनके जैसा विद्वान और खूब पढ़ने वाला साहित्यकार मैंने नहीं देखा। उनके अक्षर मोती जैसे सुन्दर थे और वे बहुत मेहनत से, अपनी कलम से ही पुस्तकों की पांडुलिपि तैयार करते थे।

मेरे और मेरे परिवार के प्रति उनका गहरा स्नेह था। उन्होंने हमें अनेक बार डिनर पर आमंत्रित किया। एक बार हम उनके लिए अल्मोड़ा की प्रसिद्ध बाल मिठाई लेकर गए। उन्होंने पूछा कि यह क्या है? जब हमने बताया कि बाल मिठाई है, तो मिठाई के बड़े आकार को देखकर बोले, “ये बाल मिठाई नहीं, बाप मिठाई है!” उन्होंने डब्बे में से एक पीस निकालकर कहा, “बाकी घर ले जाओ, यहां डायबिटीज़ की वजह से मीठा खाने वाला कोई नहीं है।”

एक दिन उन्होंने कहा, “मेरी एक मोटी पुस्तक आने वाली है – बादलों का गांव। उसकी पहली प्रति तुमको भेजूंगा।” पुस्तक प्रकाशित होने पर, उन्होंने एक प्रति मुझे रजिस्टर्ड डाक से भेजी। अंदर उनका पता लिखा एक पोस्टकार्ड था। उन्होंने लिखा था, “आज ही प्राप्ति की सूचना भेजो। पुस्तक पर प्रतिक्रिया पढ़कर भेजना।”

‘बादलों का गांव’ रवींद्रनाथ त्यागी की अति सुन्दर कृति है। एक-एक रचना मन पर गहरा प्रभाव छोड़ती है। शीर्षक रचना ‘बादलों का गांव’ तो अप्रतिम है। ऐसी करुणामय रचना हिंदी या विश्व साहित्य में शायद ही कोई और हो! ऐसे आत्मकथ्य के लिए बहुत साहस और ईमानदारी चाहिए। शत् शत् प्रणाम!

मेरे पहले व्यंग्य-संग्रह की उन्होंने सराहना की थी और लिखा, “यह मेरे पहले संग्रह से कहीं बेहतर है।”

एक बार उन्होंने कहा था – तुम्हारी ‘पल्पगंधा’ व्यंग्य-कथा मुझे बहुत अच्छी लगी। यह हिंदी साहित्य की एक उत्कृष्ट रचना है। जो जगत सिंह बिष्ट पल्पगंधा लिख सकता है, वह ऐसी और रचनाएं क्यों नहीं लिखता?

मेरे चौथे संग्रह पर उनकी तल्ख़ टिप्पणी थी, “आपकी पुस्तक (कुछ लेते क्यों नहीं) मिली। ध्यानपूर्वक पढ़ गया। बहुत कमज़ोर कृति है। बढ़िया पंक्तियां तीस से ज़्यादा नहीं निकलेंगी। इस तरह जल्दी करने से कुछ नहीं मिलेगा… सस्ती ख्याति का कोई महत्व नहीं होता। हर अगली किताब पिछली वाली से श्रेष्ठतर होनी है और आपको सबसे अलग कुछ देना है। मैं तुमसे आयु और अनुभव में बड़ा हूं। कभी कभी डांटना मेरा अधिकार है। मैं झूठी प्रशंसा करके आपको गुमराह नहीं करना चाहता हूं। आप मेरे आत्मीय हैं।”

पंद्रह दिन बाद, उनका अगला पत्र आया, जिसमें उन्होंने लिखा, “आपकी पुस्तक पर मैंने शायद कुछ ज़्यादा ही तीखा लिख डाला। कृपा करके तुरंत लिखो कि तुमने इस बड़े भाई को क्षमा कर दिया।” ऐसे नेक दिल इंसान थे बड़े भाई रवींद्रनाथ त्यागी जी!

उन्होंने मुझे अनेकों पत्र लिखे, यह मेरा सौभाग्य है। उनके द्वारा लिखे गए दो पत्रों की फोटो इस संस्मरण के साथ पोस्ट कर रहा हूं। इनसे आपको एक अंदाज़ा लग जाएगा। उनके जैसे सुन्दर अक्षर, मानो गढ़े हुए, अब दुर्लभ हो गए हैं। उनके ये पत्र, उस समय के मूल्यवान दस्तावेज़ बन गए हैं। उनके जैसे अनुशासित और कठिन परिश्रम करने वाले व्यक्तित्व अब मानो लुप्त हो गए हैं। उनके जैसा सुगठित लेखन भी अब कहां देखने को मिलता है। वैसा स्नेहिल बड़प्पन अब कहां खोजें? बहुत याद आते हैं श्रद्धेय रवींद्रनाथ त्यागी जी!

♥♥♥♥

© जगत सिंह बिष्ट

Laughter Yoga Master Trainer

LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 8 – तस्वीरें जब बन जाती हैं दस्तावेज़: नामवर, काशीनाथ, रवींद्र त्यागी और  ज्ञानरंजन ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ तस्वीरें जब बन जाती हैं दस्तावेज़: नामवर, काशीनाथ, रवींद्र त्यागी और  ज्ञानरंजन ।) 

☆  दस्तावेज़ # 8 – तस्वीरें जब बन जाती हैं दस्तावेज़: नामवर, काशीनाथ, रवींद्र त्यागी और  ज्ञानरंजन ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

ज्यों ज्यों समय आगे बढ़ता है, कुछ तस्वीरें दस्तावेज़ में तब्दील हो जाती हैं। उन तस्वीरों में उपस्थित कुछ इंसान हमें छोड़कर न जाने कहां चले जाते हैं और कुछ यहीं बैठे उनको याद करते हैं।

इस संस्मरण के साथ, यह कोलॉज जो आप देख रहे हैं, तीन तस्वीरों से बना है। तीनों के पीछे अपनी एक कहानी है।

पहली तस्वीर (ऊपर) रीवा विश्वविद्यालय के ऑडिटोरियम में ली गई है। संभवतः वर्ष 1995 के दौरान। डॉ कमला प्रसाद वहां हिंदी के विभागाध्यक्ष थे। उन्होंने हिंदी कहानी की दशा और दिशा पर एक भव्य संगोष्ठी आयोजित की थी। इसमें दिल्ली से ख्यातिप्राप्त आलोचक डॉ नामवर सिंह और काशी से प्रतिष्ठित कहानीकार काशीनाथ सिंह विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित थे। मेरा सौभाग्य कि मैं उस कार्यक्रम में सपरिवार उपस्थित था। नामवर जी को विश्वविद्यालय प्रांगण में 8-9 वर्ष के छोटे बालक (हमारे पुत्र अनुराग) को देखकर कौतूहल हुआ। जब हम उनसे मिले तो उन्होंने पूछा, “बालक, तुम भी कुछ लिखते-पढ़ते हो?” हमारे बेटे ने उन्हें तुरंत निराला की कविता, “अबे, सुन बे गुलाब..” सुनाकर अचंभित कर दिया। यह तस्वीर उस अवसर की है।

दूसरी तस्वीर (नीचे, बाएं) देहरादून में रवींद्रनाथ त्यागी के घर में उनके पुस्तकालय में ली गई है। 1990 के दशक के उत्तरार्द्ध में कभी। हम गर्मियों की छुट्टी में उनसे मिलने लगभग हर दूसरे साल जाते थे। उनका विशेष स्नेह मुझे और मेरे परिवार को प्राप्त था। यदि मैं उनके पास साहित्यिक मार्गदर्शन के लिए कभी अकेला जाता, तो वे मुझे अगली शाम सपरिवार भोजन के लिए आमंत्रित करते। कहते, “जल्दी आ जाना, पहले कुछ देर बातें होंगी और फिर पेटपूजा।”

तीसरी तस्वीर जबलपुर की है। वर्ष 1992। साहित्यिक पत्रिका ‘पहल’ का आयोजन था। उस कार्यक्रम में, कहानीकार और संपादक ज्ञानरंजन के कर-कमालों से मेरे प्रथम व्यंग्य-संग्रह ‘तिरछी नज़र’ के विमोचन का यह दृश्य है। संयोगवश, ज्ञानरंजन जी ने ही कटनी में ‘पहल’ के एक आयोजन में, मेरी दूसरी पुस्तक ‘अथ दफ्तर कथा’ का विमोचन किया। फिर, प्रगति मैदान में, दिल्ली पुस्तक मेले में मेरी पुस्तक ‘हिन्दी की आख़िरी क़िताब’ का विमोचन जब डॉ शेरजंग गर्ग ने किया, तो वहां भी ज्ञानरंजन जी उपस्थित थे। इसका प्रसारण दूरदर्शन पर भी हुआ।

यह मेरा परम सौभाग्य है कि इन महान साहित्य-सेवियों का आशीर्वाद मुझे प्राप्त हुआ और उनके साथ खींची गई ये तस्वीरें एक यादगार बन गई हैं।

♥♥♥♥

© जगत सिंह बिष्ट

Laughter Yoga Master Trainer

LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४२ – “जिनकी रगों में देशभक्ति का लहू दौड़ता था – स्व. सवाईमल जैन” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

डॉ. वंदना पाण्डेय

परिचय 

शिक्षा – एम.एस.सी. होम साइंस, पी- एच.डी.

पद : प्राचार्य,सी.पी.गर्ल्स (चंचलबाई महिला) कॉलेज, जबलपुर, म. प्र. 

विशेष – 

  • 39 वर्ष का शैक्षणिक अनुभव। *अनेक महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय के अध्ययन मंडल में सदस्य ।
  • लगभग 62 राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में शोध-पत्रों का प्रस्तुतीकरण।
  • इंडियन साइंस कांग्रेस मैसूर सन 2016 में प्रस्तुत शोध-पत्र को सम्मानित किया गया।
  • अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान शोध केंद्र इटली में 1999 में शोध से संबंधित मार्गदर्शन प्राप्त किया। 
  • अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘एनकरेज’ ‘अलास्का’ अमेरिका 2010 में प्रस्तुत शोध पत्र अत्यंत सराहा गया।
  • एन.एस.एस.में लगभग 12 वर्षों तक प्रमुख के रूप में कार्य किया।
  • इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में अनेक वर्षों तक काउंसलर ।
  • आकाशवाणी से चिंतन एवं वार्ताओं का प्रसारण।
  • लगभग 110 से अधिक आलेख, संस्मरण एवं कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।

 प्रकाशित पुस्तकें- 1.दृष्टिकोण (सम्पादन) 2 माँ फिट तो बच्चे हिट 3.संचार ज्ञान (पाठ्य पुस्तक-स्नातक स्तर)

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व मानवीय मूल्यों को समर्पित- पूर्व महाधिवक्ता स्व.यशवंत शंकर धर्माधिकारीके संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ – “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीरओखदे   ☆

स्व. सवाईमल जैन

☆ कहाँ गए वे लोग # ४२ ☆

☆ “जिनकी रगों में देशभक्ति का लहू दौड़ता था – स्व. सवाईमल जैन” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय

गौर वर्ण, ऊंची कद काठी वाले जबलपुर के पूर्व विधायक स्व. सवाईमल जी का व्यक्तित्व भी ऊंचा, गरिमापूर्ण और देशभक्ति के जज्बे से परिपूर्ण था। 30 नवम्बर 1912 में संस्कारधानी में श्री पूसमल एवं श्रीमती लक्ष्मी देवी जैन के परिवार में जन्मे सवाईमल जी की कर्मभूमि जबलपुर ही रही। आप बाल्यकाल से ही कुशाग्र बुद्धि के थे । तत्कालीन समय में देश की गुलामी, शासकाें के मनमाने अत्याचारों ने उनके मन को उद्वेलित कर दिया। उनके मन में विरोध की चिंगारी सुलग उठी जिसने शीघ्र ही विद्रोह का रूप धारण कर लिया, उन्हें अन्याय  के खिलाफ आवाज उठाने प्रेरित एवं विवश किया । 1930 के जनआंदोलन में उन्होंने सक्रियता के साथ भाग लिया, फलस्वरूप उन्हें स्कूल की शिक्षा से हाथ धोना पड़ा यद्दपि बाद में उन्होंने बी.कॉम. के साथ कानून की पढ़ाई भी की। देश-प्रेम की अटूट भावना के साथ वे जन आंदोलन में निरंतर भाग लेते रहे । मात्र 18 वर्ष की उम्र में उन्हें एक वर्ष के लिए जेल जाना पड़ा । जेल से बाहर आते ही वे पुनः आजादी प्राप्त करने की गतिविधियों और तरकीबों में जुट गए । 1932 के जन आंदोलन में उन्हें पुनः गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। इस बार उन्हें 6 महीने का कठोर कारावास एवं 20 रु. का जुर्माना भी लगाया गया। श्री सवाईमल जी अत्यंत स्वाभिमानी थे। सश्रम करवास के बाद उन्होंने जुर्माना भरने से  इनकार कर दिया । इस कारण उनकी सजा डेढ़ माह के लिए और बढ़ा दी गई । शरीर जहाँ कष्ट में तप रहा था, वहीं संकल्प और मजबूत होता जा रहा था। उनका स्वाभिमान और आत्मविश्वास मानो कह रहा हो –

हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं

हमसे ज़माना है ज़माने से हम नहीं।

देश प्रेम की ऊर्जा से भरे युवा सवाईमल जी ने1939 के त्रिपुरा कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया और इसी बीच उनकी सक्रियता ने उन्हें पुनः 6 माह के लिए नागपुर जेल में भेज दिया।  जेल से रिहा होते ही पुनः पूरी शिद्दत और जुनून के साथ आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े। राष्ट्र को परतंत्रता से मुक्त कराने उन्होंने युवाओं की टोली बनाई। नई-नई तरकीबों के साथ उन्होंने अपनी गतिविधियां जारी रखीं । अच्छे नेतृत्व के साथ वे स्वतंत्रता प्राप्ति की रणनीति बनाकर कार्य करने लगे । 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भूमिगत हो गए किंतु अब तक वे अंग्रेजों की आंखों की किरकिरी बन चुके थे अन्ततः क्रांतिकारी सवाईमल जी को गिरफ्तार कर लिया गया। इस बार उन्हें 1 साल 10 माह 24 दिन की कठोर यातना के साथ कारागार में दिन बिताने पड़े। उनके संघर्ष की यात्रा चलती रही। उन जैसे वीर सपूतों के प्रयास से देश स्वतंत्र हुआ ।

श्री सवाईमल जी ने स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात 1952 से 1964 तक नगर निगम के विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया । इस बीच वे जबलपुर नगर के दो बार महापौर भी निर्वाचित हुए । 1970 के उपचुनाव में वे जबलपुर पश्चिम क्षेत्र से विधायक चुने गए पुनः 1972 में विधायक बनकर उन्होंने अपने क्षेत्र के विकास में अभूतपूर्व योगदान दिया ।

शहर के सामाजिक, व्यापारिक संस्थाओं में उनका अविस्मरणीय योगदान रहा । प्रांत के प्रसिद्ध औद्योगिक प्रतिष्ठान परफेक्ट पॉटरी कंपनी के उच्च प्रशासनिक पदों पर कार्य किया एवं वित्तीय सलाहकार भी रहे । शिक्षा के क्षेत्र में उन्हें विशेष रुझान था । शैक्षणिक संस्थाओं के उन्नयन हेतु भी उन्होंने अनेक कार्य किए । महाकौशल शिक्षा प्रसार समिति जिसके द्वारा प्रथम प्रतिष्ठित चंचलबाई महिला महाविद्यालय संचालित हुआ वे  उसके 1977 से 1994 तक निरंतर अध्यक्ष रहे तथा उसे नई ऊंचाईयां दी।

1960 में सोवियत संघ एवं 1976 में भारतीय प्रतिनिधि मंडल के सदस्य के रूप में विदेश यात्रा की । भारत सरकार ने स्वतंत्रता संग्राम में उनके विशेष योगदान हेतु स्वतंत्रता दिवस की  25 वीं वर्षगांठ पर उनको ताम्रपत्र प्रदान कर सम्मानित किया ।

देश के गौरव श्री सवाईमल जैन जी का 82 वर्ष की आयु में 09 जनवरी 1994 को देहांत हो गया। उनके लिए केवल यही कहा जा सकता है कि –

जो शख्स मुल्क में लाता है इंकलाब

 उसका चेहरा जमाने से जुदा होता है।

राष्ट्रभक्त, राष्ट्रपुत्र स्व. सवाईमल जैन जी को शत-शत नमन ….

डॉ. वंदना पाण्डेय 

प्राचार्य, सी. पी. महिला महाविद्यालय

संपर्क : 1132 /3 पचपेड़ी साउथ सिविल लाइंस, जबलपुर, म. प्र. मोबाइल नंबर :  883 964 2006 ई -मेल : vandanapandeydubey@gmail.com

संकलन – श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares