(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है श्री श्रवण कुमार उर्मलियाके व्यंग्य संग्रह “निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 28☆
☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य संग्रह – निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे ☆
पुस्तक – (व्यंग्य संग्रह )निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे
लेखक – श्री श्रवण कुमार उर्मलिया
प्रकाशक –भारतीश्री प्रकाशन , दिल्ली ३२
मूल्य – २५० रु , पृष्ठ १२८, हार्ड बाउंड
☆ व्यंग्य संग्रह – निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे – श्री श्रवण कुमार उर्मलिया– चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆
इस सप्ताह मुझे इंजीनियर श्रवण कुमार उर्मलिया जी की बढ़िया व्यंग्य कृति ‘निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे पढ़ने का सुअवसर सुलभ हुआ.
बहुत परिपक्व, अनुभव पूर्ण रचनायें इस संग्रह का हिस्सा हैं. व्यंग्य के कटाक्षो से लबरेज कथानको का सहज प्रवाहमान व्यंग्य शैली में वर्णन करना लेखक की विशेषता है.पाठक इन लेखो को पढ़ते हुये घटना क्रम का साक्षी बनता चलता है. अपनी रचना प्रक्रिया की विशद व्याख्या स्वयं व्यंग्यकार ने प्रारंभिक पृष्ठो में की है. वे अपने लेखन को आत्मा की व्यापकता का विस्तार बतलाते हैं. वे व्यंग्य के कटाक्ष से विसंगतियो को बदलना चाहते हैं और इसके लिये संभावित खतरे उठाने को तत्पर हैं.
पुस्तक में ५२ व्यंग्य और २ व्यंग्य नाटक हैं. ५२ के ५२ व्यंग्य, ताश के पत्ते हैं, कभी ट्रेल में, तो कभी कलर में, लेखों में कभी पपलू की मार है, तो कभी जोकर की. अनुभव की पंजीरी से लेकर निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे पीटने के लिये ईमानदारी की बेईमानी, भ्रष्टाचार का शिष्टाचार व्यंग्यकार के शोध प्रबंध में सब जायज है. हर व्यंग्य पर अलग समीक्षात्मक आलेख लिखा जा सकता है, अतः बेहतर है कि पुस्तक चर्चा में मैं आपकी उत्सुकता जगा कर छोड़ दूं कि पुस्तक पठनीय, बारम्बार पठनीय है.
( हाल ही में संस्कारधानी जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी का कालजयी काव्य संग्रह “स्त्रियां घर लौटती हैं ” का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में संपन्न हुआ। यह काव्य संग्रह लोकार्पित होते ही चर्चित हो गया औरवरिष्ठ साहित्यकारों के आशीर्वचन से लेकर पाठकों के स्नेह का सिलसिला प्रारम्भ हो गया।काव्य जगत श्री विवेक जी में अनंत संभावनाओं को पल्लवित होते देख रहा है। ई-अभिव्यक्ति की ओर से यह श्री विवेक जी को प्राप्त स्नेह /प्रतिसाद को श्रृंखलाबद्ध कर अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास है। इस श्रृंखला की चौथी कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं श्री नरेंद्र पुण्डरीक के विचार “स्त्रियों को लेकर बहुत ही श्रेष्ठ रचाव इन कविताओं में है ” ।)
☆ पुस्तक विमर्श #9 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “स्त्रियों को लेकर बहुत ही श्रेष्ठ रचाव इन कविताओं में है ” – श्री नरेन्द्र पुण्डरीक ☆
स्त्रियां घर लौटती हैं’ के लिए वरिष्ठ कवि एवं सम्पादक ‘माटी’ आदरणीय श्री नरेन्द्र पुण्डरीक जी की टिप्पणी…
विवेक चतुर्वेदी कविता संकलन “स्त्रियां घर लौटती हैं ” काफी दिन पहले मिला था । तब से पाठकों द्वारा इतना समादृत किया गया कि कविता के प्रति बढते लगाव को देख कर लगा कि अच्छी कविता के प्रति पाठकों की भूख लगातार बनी हुई है।
जो लोग कहते है कि कवितायेँ कौन पढता हैं उन्हें विवेक की यह कविताएं जरुर एक बार पढ़नी चाहिये।
जिन लोगों को कविता में भाव और भाषा का प्रीतिभोज अच्छा लगता है इन कविताओं में उन्हें प्रीतिभोज का उल्लास और तृप्ति दोनों मिलेगी।
इनमें मेरी अपनी भाषा का वह गौरव दिखाई दिया जिन्हें पढ़ कर मैं भीतर तक भीग गया । बुन्देली शब्दों के गोथ की लम्बी यात्रा दिखाई दी।
स्त्रियों को लेकर बहुत ही श्रेष्ठ रचाव इन कविताओं में है। स्त्रियां जो दिन भर सूरज के साथ उठ कर सूरज के साथ घर लौटती हैं।
विवेक की कविता समकालीन हिन्दी कविता की गहरी आश्वस्ति है।
( हाल ही में संस्कारधानी जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी का कालजयी काव्य संग्रह “स्त्रियां घर लौटती हैं ” का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में संपन्न हुआ। यह काव्य संग्रह लोकार्पित होते ही चर्चित हो गया औरवरिष्ठ साहित्यकारों के आशीर्वचन से लेकर पाठकों के स्नेह का सिलसिला प्रारम्भ हो गया।काव्य जगत श्री विवेक जी में अनंत संभावनाओं को पल्लवित होते देख रहा है। ई-अभिव्यक्ति की ओर से यह श्री विवेक जी को प्राप्त स्नेह /प्रतिसाद को श्रृंखलाबद्ध कर अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास है। इस श्रृंखला की चौथी कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं श्री आलोक कुमार मिश्र के विचार “एक अनोखा काव्य संग्रह हिन्दी जगत में आया है ” ।)
☆ पुस्तक विमर्श #7 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “एक अनोखा काव्य संग्रह हिन्दी जगत में आया है ” – श्री आलोक कुमार मिश्र ☆
‘आंगन में बंधी डोरी पर
सूख रहे हैं कपड़े
पुरुष की कमीज़ और पतलून
फैलाई गई है पूरी चौड़ाई में
सलवटों में सिमटकर
टंगी है औरत की साड़ी
लड़की के कुर्ते को
किनारे कर
चढ़ गयी है लड़के की जींस
झुक गई है जिससे पूरी डोरी
उस बाँस पर
जिससे बाँधी गई है डोरी
लहरा रहे हैं पुरुष अन्तःवस्त्र
पर दिखाई नहीं देते महिला अन्तःवस्त्र
वो जरूर छुपाये गये होंगे तौलियों में ।।’
‘डोरी पर घर’ नाम की यह कविता सूखने को डाले गये कपड़ों के बहाने घर-परिवार-समाज में स्त्री की स्थिति की थाह ही नहीं लेती बल्कि पितृसत्ता के महीन धागों को उघाड़ती भी है। यह कविता हाल ही में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुए काव्य संग्रह ‘स्त्रियाँ घर लौटती हैं’ में शामिल ऐसी ही कई स्त्री चेतना और पूर्ण समानुभूति से लैस कविताओं में से एक है। इस संग्रह के रचयिता हैं हमारे समय के चर्चित कवि विवेक चतुर्वेदी जी।
पहली ही कविता ‘स्त्रियाँ घर लौटती हैं’ से यह संग्रह पाठक को सम्मोहित कर लेता है। रोजमर्रा की पारिवारिक घटना जब इस उदात्त संवेदना के साथ सामने आती है तो अपने ही घर की महिलाएँ हमारे जेहन में अपनी सशक्त उपस्थिति के साथ आ धमकती हैं और हमें खुद में झाँकने का संदेश देने लगती हैं। पंक्तियां देखिए-
‘स्त्रियों का घर लौटना
पुरुषों का घर लौटना नहीं है
पुरुष लौटते हैं बैठक में ,फिर गुसलखाने में
फिर नींद के कमरे में
स्त्री एक साथ पूरे घर में लौटती है
वो एक साथ, आँगन से
चौके तक लौट आती है।’
सच में हम पुरुषों को कितने ही स्त्रैण गुणों को सीखने की जरूरत है, वह यह कविता स्पष्ट करती है।
‘माँ’ पर न जाने कितनी कविताएँ लिखी गईं पर इस संग्रह में शामिल ‘माँ’ कविता उसे पूरी दुनिया के बच्चों की नेमत घोषित करती है न कि अपनी माँ को खुद से ही जोड़ती है। दूर होने के बाद भी वह नेमतों संग दिखती है।
‘माँ चाँद के आँगन में बैठी है
अब वो दुनिया भर के
बच्चों के लिए
आम की फाँक काट रही है।।’
कविता ‘औरत की बात’ में औरत होने को सृजन और उत्पादकता से जोड़ कर विवेक चतुर्वेदी जिस तरह पेश करते हैं वह लाजवाब है। उनके चलने, देखने, करने से प्रकृति सहयोजित होकर चलती है। एक पिता का अपनी नन्हीं बच्ची के साथ होने से पैदा हो रही भावुकता कविता ‘भोर…होने को है’ में एक नहीं सैकड़ो ऐसी पृथ्वियों की कल्पना से एकाकार हो जाती है जो अपनी पूरी प्रकृति में सभी दोषों से विमुक्त हो। कविता ‘टाइपिस्ट’ एक छोड़ी हुई औरत की हिम्मत और जिजीविषा को पूरी गरिमा के साथ उपस्थित करती है।
तमाम मंचीय स्त्री विमर्श के खोखलेपन को उजागर करते हुए कवि ने नेपथ्य में चलने वाली पुरुषों की कामुक लोलुपता के संवादों को कविता ‘स्त्री विमर्श’ में उघाड़ कर रख दिया है। वे लिखते हैं-
‘उस रात विमर्श में
स्त्री बस नग्न लेटी रही
न उसने धान कूटा
न पिघलाया बच्चे को दूध
न वो ट्राम पकड़ने दौड़ी
न उसने देखी परखनली
न सेंकी रोटी
रात तीसरे पहर उन सबने
अलगनी पर टंगे
अपने मुखौटे पहने
और चल दिए
वहाँ छूट गई
स्त्री सुबह तक
अपनी इयत्ता ढूंढती रही।।’
‘शो रूम में काम करने वाली लड़की’ नामक लंबी कविता में कवि कुछ इस तरह परकाया प्रवेश कर जाता है कि लगता है जैसे ऐसी कोई कामगार लड़की ही हमसे आँखों में आंख डाल बात कर रही हो और पूछ रही हो- ‘सुनो! इस सदी में स्त्री को/ जबरिया काम पर भेजने वाले/ स्त्री के मुक्तिकामी विमर्शकारों/ अपना कोलाहल बंद करो/ ये लड़की क्यों घर जाना चाहती है।।’ वे स्त्री के प्रति घनीभूत संवेदना के कवि होते हुए भी एकल पहचान के दायरे को तोड़ वर्गीय विभाजन की दहलीज में भी बार-बार पैर रखते हैं। जिसे इस कविता में तो महसूस किया ही जा सकता है लेकिन ‘वर्गवादी’ कविता में तो खुले रूप से देखा जा सकता है जब वे सुबह-सुबह नौकर द्वारा दरवाजा खटखटाने के बाद हो सकने वाली प्रतिक्रियाओं को औरों के मुकाबले तौलते हैं। ‘हरी मिर्च और नमक’ में तो न केवल वो रोते हैं अपितु पाठक को भी रुला देते हैं। सचमुच विवेक चतुर्वेदी जी दमित पहचानों के पक्षधर कवि बनकर उभरे हैं इन कविताओं में।
इस संग्रह में रिश्ते-नातों की पोटली भी अपने पूरे सुगंध के साथ खुलती हुई दिखती है। यहाँ माँ, बाबूजी जहाँ स्मृतियों से होते हुए वर्तमान की हर संवेदना से एकाकार दिखाई देते हैं वहीं नन्हीं बिटिया, प्रेमिका, पत्नी भी अपनी पूर्ण उपस्थिति लिए साथ कदमताल करती हैं। कविता ‘माँ’, ‘प्रार्थना की साँझ’, ‘माँ को खत’ जहाँ माँ को याद करते हुये और अधिक मासूम हो जाने की कविताएँ हैं वहीं कविता ‘पिता’, ‘बाबू’, ‘तुम आए बाबा’, ‘सुनो बाबू’, ‘उनकी प्रार्थना में’, ‘पिता की याद’ पिता की बात-बात करते-करते जीवन के रूखे मौसमों में प्रेम और सम्मान की नमी को संजोये रखने और जिजीविषा बनाए रखने के संदेश से लैस हैं। वो पिता जो कभी अम्मा के लिए कनफूल न ला पाए पर जब कभी वो उसके पसंद के फूल क्यारी में अंकुआते हैं तब एक पुत्र प्रेम के मायने और जीवन का पाठ पढ़ता है।
कविता ‘चुप’, ‘तुम यहीं तो मिले हो’, ‘किसी दिन…कोई बरस’, ‘कहाँ हो तुम’, ‘तेरे बिराग से’, ‘तुम्हारे साथ जो भी काता मैंने’ जैसी कविताएँ प्रेम से पगी कोमल भावनाओं की कविता हैं जो अंतस तक उतर जाती हैं। संग्रह में कुछ कविताएँ अन्य तरह की सामाजिक व्यवस्थाओं से भी जुड़ी हुई हैं व सवाल उठाती हैं।
एक कविता मुझे एक शिक्षक के रूप में बहुत अंदर तक कुरेद गई। वह है बचपन के अपने स्कूल को याद करते हुए उसकी तुलना जेल और कैद से करती हुई कविता ‘मेरे बचपन की जेल’। कवि अपनी संवेदना और अनुभूति को इस कविता में बहुत गहन तरीके से उतारते हुए हमें हमारे स्कूली दिनों में पहुंचा देता है। स्कूल की एक-एक गतिविधि को कुरेदते याद करते वह मानवीयता के उन स्याह कोनों की थाह ले आते हैं जो हर एक के बस की नहीं। वे आज भी इन स्कूलों को शंका से देखते हुए इस लंबी कविता के अंत में आते-आते कहते हैं कि- ‘आज बरसों के बाद/ मैं उस जेल के सामने/ फिर आकर खड़ा हूँ इसके/ देखता हूँ/ जेल की इमारत कुछ और/ रंगीन हो गई है/ जैसे कि कभी जहर रंगीन होता है।’ यहाँ वास्तविकता की गहरी पड़ताल होते हुए भी विनम्रता पूर्वक कवि से असहमत होते हुए मैं उन्हें वर्तमान स्कूलों, उसे संचालित करने वाले शिक्षा दर्शन व दस्तावेजों का और गहरा अवलोकन करने की सलाह दूँगा क्योंकि स्थिति अब इतनी भयावह नहीं। बहुत से सकारात्मक बदलावों ने अपनी जगह बना ली है।
कुल मिलाकर यह कहना चाहूँगा कि सन् 2019 बीतते-बीतते और नये वर्ष में यह एक ऐसा अनोखा काव्य संग्रह हिन्दी जगत में आया है जो पाठकों की अपेक्षाओं पर पूरा खरा उतरेगा। इसे पढ़ते हुए नई और बेहतर दुनिया का सपना और अधिक संभव होने के करीब महसूस होगा। कवि विवेक चतुर्वेदी को उनके इस सुंदर संग्रह की बधाई देते हुए मेरी कामना है कि वे इसी तरह भविष्य में अपने रचना कर्म से हमें चकित करते रहें
( हाल ही में संस्कारधानी जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी का कालजयी काव्य संग्रह “स्त्रियां घर लौटती हैं ” का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में संपन्न हुआ। यह काव्य संग्रह लोकार्पित होते ही चर्चित हो गया औरवरिष्ठ साहित्यकारों के आशीर्वचन से लेकर पाठकों के स्नेह का सिलसिला प्रारम्भ हो गया।काव्य जगत श्री विवेक जी में अनंत संभावनाओं को पल्लवित होते देख रहा है। ई-अभिव्यक्ति की ओर से यह श्री विवेक जी को प्राप्त स्नेह /प्रतिसाद को श्रृंखलाबद्ध कर अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास है। इस श्रृंखला की चौथी कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं श्री गणेश गनीके विचार “विवेक अभिव्यक्ति के लिए नितान्त भिन्न तरह से करना चाहते हैं ” ।)
☆ पुस्तक विमर्श #7 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “विवेक अभिव्यक्ति के लिए नितान्त भिन्न तरह से करना चाहते हैं ” – श्री लीलाधर जगूडी ☆
कविता संग्रह ‘स्त्रियां घर लौटती हैं’ पर हिन्दी के वरिष्ठ कवि व्यास सम्मान से सम्मानित श्री लीलाधर जगूडी जी की टिप्पणी…
विवेक चतुर्वेदी की कविता में सबसे अच्छी बात जो मुझे लगी वह यह कि वे भाषा का प्रयोग सहसा अपनी अभिव्यक्ति के लिए नितान्त भिन्न तरह से करना चाहते हैं और उस भाषा के लिए वे निरंतर अपनी संवेदना को तराशते प्रतीत होते हैं वे अकथ के लिए कोई कथनीय सौंदर्य गढ़ना चाहते हैं तभी तो ‘रात के रफूगर’ और ‘धूप की खीर’ जैसी उक्ति उनकी कविता में पैदा हो सकी है
‘पिता’ कविता में घर के भीतर खंटता- बंटता पिता का प्रेम अनायास उठता है और मुंडेर पर पीपल की तरह फैल जाता है जैसे पिता का छतनार होना ही मुक्ति का उद्घोष हो लेकिन विडम्बना का बिम्ब देखिए जो पिता अम्मा के लिए कनफूल नहीं ला सका वो चुपके से क्यारी में अम्मा की पसंद के फूल खिलाता रहा है
‘मेरे बचपन की जेल’ कविता के पात्र जेल में अच्छा नागरिक नहीं जेलर की नजर में अच्छा कैदी बनने में लगे हैं इस कविता में आए बिम्ब लगभग थर्रा देते हैं यह पृथकता उनकी हर कविता में दिखती है
अभी उनकी कविताओं में कहानी जैसे कथानक ज्यादा हैं और वे कविता की निज भाषा खोजने- संवारने में जुटे लगते हैं मेरी शुभकामनाएं हैं कि वे कविता में काव्य तत्व की और दायित्वपूर्ण सरल भाषा की खोज कर सकें।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है श्री अजीत श्रीवास्तव जी के व्यंग्य संग्रह “ मुर्गे की आत्मकथा ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 27☆
☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य संग्रह – मुर्गे की आत्मकथा ☆
पुस्तक – मुर्गे की आत्मकथा (व्यंग्य संग्रह)
लेखक –श्री अजीत श्रीवास्तव
प्रकाशक –अयन प्रकाशन , नई दिल्ली
मूल्य २५० रु , पृष्ठ १२८, हार्ड बाउंड
☆ व्यंग्य संग्रह – मुर्गे की आत्मकथा – श्री अजीत श्रीवास्तव – चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆
किताबें छप तो बहुत रही हैं, किन्तु पढ़ी बहुत कम जा रही हैं. मेरा प्रयास है कि कम से कम पुस्तकों के कंटेंट की कुछ चर्चा होती रहे, जिस पाठक को रुचि हो वह जानकारी के आधार पर पुस्तक ढ़ूंढ़कर पढ़ सके. आप सब के फीड बैक से इस प्रयास के सुपरिणाम परिलक्षित होते दिखते हैं तो नई ऊर्जा मिलती है. अनेक लेखक व प्रकाशक अपनी पुस्तकें इस हेतु भेज रहे हैं, कई कई पाठको की प्रतिक्रियायें मिल रही हैं .
इसी क्रम में मुर्गे की आत्मकथा व्यंग्य उपन्यासिका मिली. दरअसल पुस्तक में एक नही दो लघु व्यंग्य उपन्यासिकायें हैं. पहली राजनीति के योगासन है. राजनीति प्रत्येक व्यंग्यकार का सर्वाि प्रिय कच्चामाल है. अजीत श्रीवास्तव जी ने राजनीति के योगासन में र आसन राशन, भ आसन भाषण, अश्व आसन आश्वासन, करजोड़ासन, पदासन, शासन, निष्कासन, पुनरागमनआसन, चमचासन, कुर्सियासन, सिंहासन, वगैरह वगैरह शब्दों की विशद विवेचना करते हुये हास्य, व्यंग्य के संपुट के साथ नवाचार किया है. यह रोचक शैली पठनीय है.
इसी क्रम में एक मुर्गे की आत्मकथा, में मुर्गे को प्रतीक बना कर बिल्कुल नई शैली मे समाज की विद्रूपताओ पर मजेदार कटाक्ष किये गये हैं. समाज में हर कोई दूसरे को मुर्गा बनाने में जुटा हुआ है, ऐसे समय में यह उपन्यासिका वैचारिक पृष्ठभूमि निर्मित करती है. अजीत जी पुरस्कृत, वरिष्ठ व्यंग्यकार हैं, पेशे से एड्वोकेट हैं, उनका कार्यक्षेत्र बड़ा है, लेखन दृष्टि परिपक्व है, अभिव्यक्ति की सशक्त नवाचारी क्षमता रखते हैं, किताब पढ़कर ही सही मजे ले पायेंगे . आपकी उत्सुकता जगाना ही इस चर्चा का उद्देश्य है.
( हाल ही में संस्कारधानी जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी का कालजयी काव्य संग्रह “स्त्रियां घर लौटती हैं ” का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में संपन्न हुआ। यह काव्य संग्रह लोकार्पित होते ही चर्चित हो गया औरवरिष्ठ साहित्यकारों के आशीर्वचन से लेकर पाठकों के स्नेह का सिलसिला प्रारम्भ हो गया।काव्य जगत श्री विवेक जी में अनंत संभावनाओं को पल्लवित होते देख रहा है। ई-अभिव्यक्ति की ओर से यह श्री विवेक जी को प्राप्त स्नेह /प्रतिसाद को श्रृंखलाबद्ध कर अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास है। इस श्रृंखला की चौथी कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं श्री गणेश गनीके विचार “इस सदी में काम पर जाने वाली स्त्री की प्रतिनिधि कविता है ” ।)
☆ पुस्तक विमर्श #6 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “इस सदी में काम पर जाने वाली स्त्री की प्रतिनिधि कविता है ” – श्रीमती अर्चना पांडेय ☆
स्त्रियां घर लौटती हैं
कुछ कविताएं न केवल मर्म को छू जाती हैं बल्कि उन्हें पढ़कर हमारे भीतर की वो संवेदना जग जाती है जो कि दुनिया की चीख-पुकार में कहीं खो गई थी विवेक के वाणी प्रकाशन से प्रकाशित कविता संग्रह ‘स्त्रियां घर लौटती हैं ‘ में शामिल कविताएं ऐसी ही कविताएं हैं प्रेम पर ऐसी सघन, ऐसी बारीक बुनावट वाली कविता ‘मीठी नीम’ देखिए
मीठी नीम
एक गन्ध ऐसी होती है
जो अंतस को छू लेती है
चन्दन सी नहीं
गुलाब सी नहीं
मीठी नीम सी होती है
तुम ऐसी ही एक गन्ध हो।।
एक कविता है ‘पिता की याद’, इसे पढ़कर मैं हैरत में पड़ गई क्या पिता के प्रेम की व्यंजना को ऐसे भी अनुभव किया जा सकता है? जबकि प्राय: साहित्य में पुरुष सत्ता की आलोचना ही बिखरी पड़ी है
‘भोर होने को है’ में यह देखना विस्मयकारी है कि एक पुरुष कवि कैसे ऐसी स्त्रीमूलक कविता रच पाता है इन कविताओं को पढ़कर बार बार ये अनुभव होता है कि कवि अपनी रचना के भीतर अपना व्यक्तित्व छोड़ कर पैठ गया है
और ‘स्त्रियां घर लौटती हैं’ तो शायद इस सदी में काम पर जाने वाली स्त्री की प्रतिनिधि कविता है इतनी समग्र कविता कम देखने मिलती है इस कविता का आखिरी अंश देखिए
…स्त्रियों का घर लौटना
महज स्त्री का घर लौटना नहीं है
धरती का अपनी धुरी पर लौटना है।।
लगता है कि विवेक अपनी कविताओं का सूक्ष्म ट्रीटमेंट करने में सक्षम कवि हैं कुछ भी छूटता नहीं है कविता एक पूरा जगत समेटकर चलती है
इस संग्रह का किसी पाठक के पास होना सच में एक उपलब्धि है।।
( हाल ही में संस्कारधानी जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी का कालजयी काव्य संग्रह “स्त्रियां घर लौटती हैं ” का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में संपन्न हुआ। यह काव्य संग्रह लोकार्पित होते ही चर्चित हो गया औरवरिष्ठ साहित्यकारों के आशीर्वचन से लेकर पाठकों के स्नेह का सिलसिला प्रारम्भ हो गया।काव्य जगत श्री विवेक जी में अनंत संभावनाओं को पल्लवित होते देख रहा है। ई-अभिव्यक्ति की ओर से यह श्री विवेक जी को प्राप्त स्नेह /प्रतिसाद को श्रृंखलाबद्ध कर अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास है। इस श्रृंखला की चौथी कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं श्री गणेश गनीके विचार “अच्छी कविताएं अच्छे कवि ही लिखेंगे!” ।)
☆ पुस्तक विमर्श #4 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “अच्छी कविताएं अच्छे कवि ही लिखेंगे!” – श्री गणेश गनी ☆
कुछ बड़े कहलाए जाने वाले कवियों ने आगे ऐसी परम्परा स्थापित करने की कोशिश की या नहीं की, पर एक रास्ता जरूर बन गया, जिसपर चलने वाले चन्द युवा भी हैं। ये लोग स्त्रियों पर ऐसी शर्मसार करने वाली कविताएं लिख रहे हैं कि जिन्हें आप अश्लीलता की श्रेणी में ही रख सकते हैं। हद तो तब होती है जब ऐसी फूहड़ कविताओं को पुरस्कार दिए जाते हैं। कुछ आलोचक इनका भरपूर समर्थन भी करते हैं।
हालांकि कुछ ऐसे कवि भी हैं जिन्होंने अपनी भाषा और शिल्प से दैहिक कविता को भी कुछ यूं बांधा है कि पढ़ते हुए शर्म नहीं बल्कि स्त्री के प्रति सम्मान बढ़ता ही है। शताब्दी राय की ए लड़की कविता और दोपदी सिंघार की पेटीकोट कविता कुछ ऐसी ही कविताएं हैं। ऐसे समय में स्त्री और देह पर लिखने वाले कुछ शानदार कवि भी हैं, जिनसे आश्वस्त हुआ जा सकता है। विवेक चतुर्वेदी की यह कविता देखें-
लड़की दौड़ती है तो
थोड़ी तेज हो जाती है
धरती की चाल
औरत टाँक रही है
बच्चे के अँगरखे पर
सुनहरा गोट…
और गर्म हो चली है
सूरज की आग
बुढ़िया ढार रही है
तुलसी के बिरवे पर जल
तो और हरे हो चले हैं
सारे जंगल…
पेट में बच्चा लिए
प्राग इतिहास की
गुफा में बैठी औरत
बस ..बाहर देख रही है
और खेत के खेत सुनहरे
गेहूँ के ढेर में बदलते जा रहे हैं…।।
ऐसा नहीं है कि अच्छी कविताओं का अकाल पड़ा है। अच्छी कविताएं अच्छे कवि ही लिखेंगे। खराब व्यक्ति तो सब कुछ खराब कर देता है, फिर कविता क्या है उसके लिए। कवि कह रहा है, सुनो-
अंधेरी रात के कुफ्र में
जब रौशन नमाज़ से गूंजा चाँद
दुआओं सा मैं तुझे याद करता हूँ।
प्रेम पर हर कवि लिखता है। ख़ासकर नया नया कवि तो प्रेम कविताएं ही लिखता है। भले ही प्रेम पर उसकी समझ सिफ़र ही क्यों न हो। विवेक की यह प्रेम कविता बंधन जैसा एहसास नहीं करवाती, न ही कोई शर्त लगाती है । प्रेम तो आपसी समझ की वो ऊंचाई है, जिससे आगे केवल आज़ादी है। यह केवल वफ़ादारी और कुर्बानी ही नहीं है बल्कि विश्वास की पराकाष्ठा भी है-
तुमने लगाया था
जो मेरे साथ
एक आम का पेड़
तुम्हारा होना उस पेड़ में
आम की मिठास बनके
बौरा गया है
आज आसाढ़ की पहली बारिश में भीगकर
ये आम का पेड़ लहालोट हो गया है
एक कोयल ने अभी अभी
कहा है अलविदा
अब वो बसेरा करेगी
जब पीले फागुन सी
बौर आएगी अगले बरस
हम अपनी जड़ों के जूते
मिट्टी में सनाए
खड़े रहेंगे बरसों बरस
मैं अपने छाल होने के खुरदरेपन से तुम्हारी थकी देह सहलाता रहूँगा
पर सो न जाना तुम
कभी रस हो जाएंगे फल
ठिठुरती ठंड में सुलगकर आँच हो जाएंगी टहनियां
छाँव हो जाएंगी हरी
पत्तियाँ
कभी सूखकर ये
पतझड़ की आंधियों में उड़ेंगी
उनके साथ हम भी तो
मीलों दूर जाएंगे
गोधूलि… तक हम कितनी दूर जाएंगे
तुमने लगाया था जो मेरे साथ एक आम का पेड़..।
विवेक की एक और प्रेम कविता यहां देखी जा सकती है। एक संवेदनशील कवि अपनी स्मृतियों में जीता है, जीना भी चाहिए, क्या बुराई है। नॉस्टेल्जिया तब तक कविता में अच्छा लगता है, जब तक उसके साथ एक ऐसा रिश्ता बना रहे कि जिसमें बेचारपन न हो-
तुम्हारे साथ जो भी काता मैंने
खूँटी पर टाँग रखा है
तुम चाहो उतारो उसे या
वहीं रहे टँगा… छिन जाए
जब भी देखता हूँ
चाहता हूँ उसे उतार दूँ
पर टूटने लगता है अरझ कर
एक एक सूत
दर्द भरी टीस के साथ
और नहीं तोड़ सकता
मैं एक भी सूत
जो साथ हमने काता है
तुम्हारे साथ…।।
चुप रहना कितना मुश्किल है, यह साधना जैसा है, जिसे हर कोई नहीं साध सकता। चुप्पी खूबसूरत होती है, शांत होती है, अहिंसक होती है। हमें दोस्तों की चुप्पी हमेशा याद रहती है। कई बार इसे तोड़ना भी पड़ता है, ज़रूरी है चीखना कई जगह, कई बार चुप नहीं रहा जाता, परन्तु चुप का अपना स्वाद है-
किसी रोज़
नदी के निर्जन घाट पर
चुप…बैठे रहेंगे साथी
उस शाम
तुम नहीं कहोगी
…शांत है ये जल
मैं नहीं कहूँगा
…अच्छा है इस शाम यहाँ होना
नदी की धार को
पैरों से छूता
एक पंछी
हू तू तू…बोलता
उड़ जाएगा
हम.. कुछ भी न कहेंगे
बहुत सा जो खूबसूरत
मिट रहा है
इस दुनिया से
चुप…उनमें से एक है साथी ।।
कवि कभी कभी कविता के माध्यम से अपना दृष्टिकोण भी बता डालता है। यह आवश्यक भी है कि वास्तव में एक कवि की सोच क्या है-
नहीं जाता अब सुबह
मन्नतों से ऊबे
अहम से ऐंठे
पथरीले देवों के घर
उठता हूँ आँगन बुहारता हूँ
नेह की खुरपी से
कुछ बच्चों के लिए
इक भोर उगाता हूँ।।
विवेक छोटी छोटी कविताओं के माध्यम से अधिक खुलते हैं। यह आवश्यक नहीं है कि लम्बी कविता ही लिखी जाए। लम्बी कविता यदि एक कुशल कवि लिखे तो बात ज़्यादा बन सकती है। छोटी कविता भी बहुत मुश्किल है बनाना। एक अर्थपूर्ण छोटी कविता लिखने के लिए भी कुशलता ही चाहिए-
आज रात
चाँद के पीछे भागता
एक छोटा सा तारा
नहीं है शुक्र
झूलाघर से मचला
बच्चा है
कामकाजी औरत है
चाँद
जिसे दफ्तर पहुंचना है
दफ्तर खेत है
औरत जहाँ दो रोटी
उगाती है।।
सबसे कठिन काम है बच्चों के मनोविज्ञान पर लिखना। इधर बहुत चूक होने की संभावना रहती है। विवेक ने अपने बचपन को याद रख कर कुछ कड़ियों को जोड़ा है जो सीधे बचपन के आंगन ले जाती हैं। बच्चा वो सब सोचता है, जिसे सोचना बड़ों की औकात ही नहीं है-
बच्चा सोचता है…
फूली हुई रोटी से हों दिन
या फिर दिन हों नर्म भात से
सेमल की रूई से हों हल्के
रसीले हों संतरे की गोली से
क्यों न हों लड्डू से गोल
दिन हों नई बुश्शर्ट से रंगीन
बच्चा सोचता है
आएंगे ये दिन…
जब परदेस से बाबू आएंगे
पर क्या… बाबू आएंगे?
विवेक की एक और कविता देखें बचपन की पड़ताल करती हुई-
बरस गया है
आसाढ़ का पहला बादल
हरी पत्तियाँ जो पेड़ में ही
गुम हो गई थीं
फिर निकल आई हैं
कमरों में कैद बच्चे
कीचड़ में लोट कर
खेलने लगे हैं
दरकने लगा है
आँगन का कांक्रीट
उसमें कैद माटी से
अँकुए फूटने लगे हैं
कहाँ हो तुम …।
विवेक की कविताओं में प्रेम, लोकधर्मिता, प्रतिबद्धता आदि विविधताएं हैं। कविताएं ताज़गी से भरपूर और असरदार हैं। बिम्बों और रूपकों का प्रयोग कविताओं को बेहतर बनाता है-
सबके जीवन में उगता है
धार्मिकता का क्षण
एक बच्चे के लिए
चुराते हुए गुड़ …. खेलते सितोलिया
होते हुए बारिश में लहालोट
कहें कि पूरा बचपन ही
रुका हुआ क्षण है धार्मिकता का
एक युवा सांड़ के लिए है सम्भोग में
एक अँकुए के लिए फोड़ते हुए मिट्टी
एक पिता के लिए आता है
धार्मिकता का क्षण
जब बड़े हो रहे बेटे को
थमा देता है अपना स्कूटर
एक लड़के के लिए
जब सुलगाता है वो पहली सिगरेट
लड़की के लिए, छत पर
सहसा उतर आई एक
रंगीन पतंग के साथ…
माँ के लिए आज भी राह देखने
और गर्म रोटी में बचा है
धार्मिकता का क्षण।
विवेक चतुर्वेदी की कविताएं साधारण भाषा और शिल्प में लिखी अच्छी कविताएं हैं, जिन्हें पढ़कर एक तसल्ली मिलती है मन को को। कवि अपने आसपास की चीज़ों से संबंध बनाते हुए जीवन की आशाओं को यहीं खोजता है। वो आशावादी है, बच्चों, फूलों, धरती आदि को प्रेम करने वाला कवि है।
( हाल ही में संस्कारधानी जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी का कालजयी काव्य संग्रह “स्त्रियां घर लौटती हैं ” का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में संपन्न हुआ। यह काव्य संग्रह लोकार्पित होते ही चर्चित हो गया औरवरिष्ठ साहित्यकारों के आशीर्वचन से लेकर पाठकों के स्नेह का सिलसिला प्रारम्भ हो गया।काव्य जगत श्री विवेक जी में अनंत संभावनाओं को पल्लवित होते देख रहा है। ई-अभिव्यक्ति की ओर से यह श्री विवेक जी को प्राप्त स्नेह /प्रतिसाद को श्रृंखलाबद्ध कर अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास है। इस श्रृंखला की तीसरी कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं सुश्री संध्या श्रीवास्तव के विचार “जल्द ही ये कविताएं पंछियों की तरह सरहदों के पार भी उड़ जाएंगी“।)
☆ पुस्तक विमर्श #1 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “जल्द ही ये कविताएं पंछियों की तरह सरहदों के पार भी उड़ जाएंगी” – सुश्री सन्ध्या श्रीवास्तव ☆
(चण्डीगढ़ में रह रहीं… प्रतिभाशाली…प्रयोगधर्मी चित्रकार सुश्री सन्ध्या श्रीवास्तव ने ‘स्त्रियां घर लौटती हैं’ पढ़कर भेजा…एक पाठक का रचनात्मक संतोष… जो निःसंदेह एक कवि को रचनात्मक साहस देता है । आत्मिक आभार सन्ध्या! – विवेक चतुर्वेदी। )
अमेज़न से आज तुम्हारा कविता संग्रह मिला।
वरिष्ठ साहित्यकार जयप्रकाश मानस ने कहीं कहा है – “कविता की पहली सामर्थ्य है उसकी यात्रा-शक्ति ।
यात्रा-शक्ति यानी पाँव-पाँव चलने का हौसला । यात्रा-शक्ति अर्थात् स्मृति के पर्वत, खाई, जंगल, घाटी, बीहड, गाँव, शहर, बस्ती और गली फिर घर – कहीं भी जा पहुँचने की शक्ति । पाठक या श्रोता यानी भावबोध तक सारे थकानों, सारी उदासियों, सारे अड़चनों के बाद भी उपस्थिति की आत्मीय जिद !
जिस कविता में यह सामर्थ्य होगी, वह मनुष्य या मन की सारी विस्मृतियों के बाद भी वनफूल की तरह महमहा उठेगी।”
आज तुम्हारे संग्रह से शीर्षक कविता ‘स्त्रियां घर लौटती हैं’ पढ़ रही थी कि Family WhatsApp group में हजारों मील दूर से यही कविता पोस्ट होकर पास ही रखे मोबाइल पर सामने आ खड़ी हुई तो लगा कि मानस जी की टिप्पणी कितनी सार्थक है,
पुस्तक की और भी कविताएं भी कितनी सुन्दर,कितनी गहरी हैं और इनमें स्त्री मन की समझ बेहद हैरान करती है
मुझे लगता है जल्द ही ये कविताएं पंछियों की तरह सरहदों के पार भी उड़ जाएंगी
( हाल ही में संस्कारधानी जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी का कालजयी काव्य संग्रह “स्त्रियां घर लौटती हैं ” का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में संपन्न हुआ। यह काव्य संग्रह लोकार्पित होते ही चर्चित हो गया औरवरिष्ठ साहित्यकारों के आशीर्वचन से लेकर पाठकों के स्नेह का सिलसिला प्रारम्भ हो गया।काव्य जगत श्री विवेक जी में अनंत संभावनाओं को पल्लवित होते देख रहा है। ई-अभिव्यक्ति की ओर से यह श्री विवेक जी को प्राप्त स्नेह /प्रतिसाद को श्रृंखलाबद्ध कर अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास है। इस श्रृंखला की प्रथम कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं सुप्रतिष्ठित वरिष्ठ साहित्यकार श्री निरंजन श्रोत्रिय जी के आशीर्वचन “क्या यह जरूरी है कि स्त्री विमर्श की कविता कोई कवयित्री ही रचे?“।)
☆ पुस्तक विमर्श #1 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “क्या यह जरूरी है कि स्त्री विमर्श की कविता कोई कवयित्री ही रचे?” – श्री निरंजन श्रोत्रिय ☆
(‘स्त्रियां घर लौटती हैं” की कुछ कविताओं पर वरिष्ठ कवि, लेखक,आलोचक,सम्पादक-समावर्तन आदरणीय श्री निरंजन श्रोत्रिय जी की दृष्टि में … जो निःसंदेह कवि का पाथेय है।)
“क्या यह जरूरी है कि स्त्री विमर्श की कविता कोई कवयित्री ही रचे? क्या कोई पुरुष कवि स्त्री- संवेदनों की थाह नहीं ले सकता? कहने को हमारा समाज कितना ही पुरुष प्रधान क्यों ना हो लेकिन क्या हम हर वक्त स्त्रियों से घिरे नहीं हैं! युवा कवि विवेक चतुर्वेदी ने स्त्री को लेकर कई नायाब कविताएं लिखी हैं। ये कविताएं इसका स्पष्ट और पुख्ता प्रमाण हैं कि- कोई संवेदनशील मन बगैर किसी जेंडर कारक के स्त्री को पूरी शिद्दत के साथ अभिव्यक्त कर सकता है। पहली ही कविता ‘औरत की बात’ स्त्री की क्रियाशीलता का काव्य- रूपक है। अपने उद्मम और जिजीविषा से वह लौकिक और अलौकिक को ऊर्जस्वित कर रही है- लड़की दौड़ती है /तो थोड़ी तेज हो जाती है /धरती की चाल।
‘डोरी पर घर’ कविता एक भारतीय घर का दृश्य है जो कविता होकर अनूठा हो गया है। इस अद्भुत शब्द चित्र के माध्यम से विवेक ने भारतीय स्त्री की सीमाओं और टैबू को रेखांकित किया है। शर्म,लज्जा और परंपरा की कथित बेड़ियों में स्त्री को इस कदर जकड़ दिया गया है कि उसके अंतर्वस्त्रों को एक हाइजेनिक धूप का टुकड़ा भी नसीब नहीं है। पुरुष के अंतर्वस्त्र ‘लहराते’ हुए अलगनी पर पूरी चौड़ाई पाते हैं जबकि साड़ी सलवटों में सिमटी हुई है।
‘स्त्रियों का घर लौटना पुरुषों का घर लौटना नहीं है/ पुरुष लौटते हैं बैठक में फिर गुसलखाने में/फिर नींद के कमरे में/ स्त्री एक साथ पूरे घर में लौटती है’ (स्त्रियां घर लौटती हैं) इस कविता में ‘लौटना’ शब्द की अनेक पुनरावृत्तियां हैं लेकिन हर बार एक नई अर्थवत्ता के साथ! साथ ही स्त्री विमर्श को जब तक पुरुष के साथ तुलनात्मक दृष्टि से नहीं देखा जाएगा तब तक वह विमर्श अधूरा रहेगा। विवेक इस कविता में वह जरूरी काम करते हैं इस अद्भुत क्लाईमेक्स में के साथ कि- दरअसल एक स्त्री का घर लौटना/ धरती का अपनी धुरी पर लौटना है’।
‘ताले रास्ता देखते हैं’ हमारे समय के अलगाते रिश्तों की कविता है जिसे ताले और चाबी के अनिवार्य संबंधों के रूपक के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है। यहां दो कारकों की अंतर्निर्भरता को बहुत मार्मिकता से कवि ने दिखाया है विवेक चतुर्वेदी के रोजमर्रा के उपेक्षित- से प्रेक्षण को कविता के केंद्र में ले आते हैं- एक बाकायदा कविता बनाते हुए।’चाबियों को याद करते हैं ताले/ वे रास्ता देखते हैं’ क्या यह पंक्ति ताला खुलने के बाद एक संसार को नए सिरे से देखने के लिए पाठकों को आमंत्रित नहीं करती?
‘उनकी प्रार्थना में’ एक छोटी मगर मार्मिक कविता है। इसमें प्रार्थना का सत्व है जो किसी आस्था को महिमामंडित ना करते हुए उसके मर्म को और सदाशयी भाव को अभिव्यक्त करता है।
‘मां को खत’ जैसी बहुत छोटी कविता में भी धूप की खीर, अक्टूबर का महीना, सुबह, पंजा ठंड की बिल्ली जैसे शब्दों से मां की चिंता का अनूठा काव्य रचा गया है।
इस युवा कवि को रिश्तों और उनकी उदात्तता की गहरी समझ है ‘पिता की याद’ एक ऐसी ही कविता है जिसमें पिता के दायित्व और दाय को बहुत ही मार्मिकता से चित्रित किया गया है ।कटोरदान में बच गई आखरी रोटी की अधूरी भूख एक ऐसा समर्पण है जिसे इस तरह के काव्य संवेदन ही व्यक्त कर सकते हैं ।
हर सच्चा कवि लोग मंगल का भी अभिलाषी होता है। ‘शिवेतरक्षतये’ यह काव्य- प्रतिज्ञा क्या मूल भाव होता है।
ऐसी ही कामनाएं हैं ‘दुनिया के लिए जरूरी है’ कविता में। एक ओर वह गौरैया, कुनकुनी धूप बचपन और तारों का संरक्षण चाहता है वहीं दूसरी ओर मिसाइल और दानवीय मशीनों को इंसानियत के विरुद्ध मानता है।
‘पसीने से भीगी कविता’ कवि और कविता का मूल प्रयोजन व्यक्त करती है। इस कविता में अनूठे बिम्बों द्वारा कवि की अभीप्सा को व्यक्त किया गया है। यह मनुष्य और मानवता के पक्ष में कविता की सार्थक भूमिका का बयान है।
‘सभा’ कविता एक दृश्य- बंध है जिसमें मछलियों और मगर के जरिए समकालीन राजनीतिक परिदृश्य का इकोसिस्टम रचा गया है इसमें कवि की प्रतिबद्धता स्पष्ट परिलक्षित होती है सच की बूढ़ी माई के सभा में ना पाने की विवशता पूरी कविता को एक प्रभावी क्लाइमैक्स में घटित करती है।
युवा कवि विवेक चतुर्वेदी की कविताएं गहन संवेदनों और कम शब्दों में अधिक बोलती कविताएं हैं। उनकी काव्य पंक्तियां छोटी लेकिन अर्थ और अर्थ से परे तक का विस्तार हैं।जब कविता खलिहान से मंडी तक बैलगाड़ी में रतजगा करे तो उस पर उसी तरह भरोसा किया जा सकता है जैसे कि हम प्रार्थना पर करते हैं”।
( हाल ही में संस्कारधानी जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी का कालजयी काव्य संग्रह “स्त्रियां घर लौटती हैं ” का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में संपन्न हुआ। यह काव्य संग्रह लोकार्पित होते ही चर्चित हो गया औरवरिष्ठ साहित्यकारों के आशीर्वचन से लेकर पाठकों के स्नेह का सिलसिला प्रारम्भ हो गया।काव्य जगत श्री विवेक जी में अनंत संभावनाओं को पल्लवित होते देख रहा है। ई-अभिव्यक्ति की ओर से यह श्री विवेक जी को प्राप्त स्नेह /प्रतिसाद को श्रृंखलाबद्ध कर अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास है। इस श्रृंखला की प्रथम कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं सुप्रतिष्ठित वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कमल जी के आशीर्वचन “विवेक की कविताएं एक मानसिक अभयारण्य बनाती है “।)
☆ पुस्तक विमर्श #1 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “विवेक की कविताएं एक मानसिक अभयारण्य बनाती है” – श्री अरुण कमल ☆
विवेक चतुर्वेदी की कविताओं में सघन स्मृतियां हैं, भोगे हुए अनुभव हैं और विराट कल्पना है इस प्रकार वे भूत, वर्तमान और भविष्य का समाहार कर पाते हैं, और यहीं से जीवन के वैभव से संपन्न समवेत गान की कविता उत्पन्न होती है कविता एक वृंदगान है पर उसे एक ही व्यक्ति गाता है।
अपनी कविता में विवेक, भाषा और बोली बानी के निरंतर चल रहे विराट प्रीतिभोज में से गिरे हुए टुकड़े भी उठाकर माथे पर लगाते हैं उनकी कविता में बासमती के साथ सावां कोदो भी है वे बुंदेली के, अवधी के, और लोक बोलियों के शब्द ज्यों का त्यों उठा रहे हैं यहां पंक्ति की जगह पांत है, मसहरी है, कबेलू है, बिरवा है, सितोलिया है जीमना है वे भाषा के नए स्वर में बरत रहे हैं रच रहे हैं हालांकि अभी उन्हें अपनी एक निज भाषा खोजनी है और वे उस यात्रा में हैं।
वे लिखने की ऐसी प्रविधि का प्रयोग करने में सक्षम कवि हैं, जिसमें अधिक से अधिक को कम से कम में कहा जाता है।
विवेक की कविताएं एक मानसिक अभयारण्य बनाती है उनके लिए जिनका कोई नहीं है उनमें स्त्रियां भी हैं बूढ़े भी बच्चे भी,और हमारे चारों ओर फैली हुई यह धरती भी।
हिन्दी कविता के गांव में विवेक चतुर्वेदी की आमद भविष्य के लिए गहरी आश्वस्ति देती है मुझे भरोसा है कि वे यहां नंगे पांव घूमते हुए इस धरती की पवित्रता का मान रखेंगे।