पुस्तक विमर्श – स्त्रियां घर लौटती हैं 

श्री विवेक चतुर्वेदी 

( हाल ही में संस्कारधानी जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी का कालजयी काव्य संग्रह  स्त्रियां घर लौटती हैं ” का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में संपन्न हुआ।  यह काव्य संग्रह लोकार्पित होते ही चर्चित हो गया और वरिष्ठ साहित्यकारों के आशीर्वचन से लेकर पाठकों के स्नेह का सिलसिला प्रारम्भ हो गया। काव्य जगत श्री विवेक जी में अनंत संभावनाओं को पल्लवित होते देख रहा है। ई-अभिव्यक्ति  की ओर से यह श्री विवेक जी को प्राप्त स्नेह /प्रतिसाद को श्रृंखलाबद्ध कर अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास है।  इस श्रृंखला की प्रथम कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं सुप्रतिष्ठित  वरिष्ठ साहित्यकार श्री निरंजन श्रोत्रिय जी के आशीर्वचन “क्या यह जरूरी है कि स्त्री विमर्श की कविता कोई कवयित्री ही रचे?“।)

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☆ पुस्तक विमर्श #1 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “क्या यह जरूरी है कि स्त्री विमर्श की कविता कोई कवयित्री ही रचे?” – श्री निरंजन श्रोत्रिय ☆

(‘स्त्रियां घर लौटती हैं” की कुछ कविताओं पर वरिष्ठ कवि, लेखक,आलोचक,सम्पादक-समावर्तन आदरणीय श्री निरंजन श्रोत्रिय जी की  दृष्टि में … जो निःसंदेह कवि का पाथेय है।)

“क्या यह जरूरी है कि स्त्री विमर्श की कविता कोई कवयित्री ही रचे? क्या कोई पुरुष कवि स्त्री- संवेदनों की थाह नहीं ले सकता? कहने को हमारा समाज कितना ही पुरुष प्रधान क्यों ना हो लेकिन क्या हम हर वक्त स्त्रियों से घिरे नहीं हैं! युवा कवि विवेक चतुर्वेदी ने स्त्री को लेकर कई नायाब कविताएं लिखी हैं। ये कविताएं इसका स्पष्ट और पुख्ता प्रमाण हैं कि-  कोई संवेदनशील मन बगैर किसी जेंडर कारक के स्त्री को पूरी शिद्दत के साथ अभिव्यक्त कर सकता है। पहली ही कविता ‘औरत की बात’ स्त्री की क्रियाशीलता का काव्य- रूपक है। अपने उद्मम और जिजीविषा से वह लौकिक और अलौकिक को ऊर्जस्वित कर रही है- लड़की दौड़ती है /तो थोड़ी तेज हो जाती है /धरती की चाल।

‘डोरी पर घर’ कविता एक भारतीय घर का दृश्य है जो कविता होकर अनूठा हो गया है। इस अद्भुत शब्द चित्र के माध्यम से विवेक ने भारतीय स्त्री की सीमाओं और टैबू को रेखांकित किया है। शर्म,लज्जा और परंपरा की कथित बेड़ियों में स्त्री को इस कदर जकड़ दिया गया है कि उसके अंतर्वस्त्रों को एक हाइजेनिक धूप का टुकड़ा भी नसीब नहीं है। पुरुष के अंतर्वस्त्र ‘लहराते’ हुए अलगनी पर पूरी चौड़ाई पाते हैं जबकि साड़ी सलवटों में सिमटी हुई है।

‘स्त्रियों का घर लौटना पुरुषों का घर लौटना नहीं है/ पुरुष लौटते हैं बैठक में फिर गुसलखाने में/फिर नींद के कमरे में/ स्त्री एक साथ पूरे घर में लौटती है’ (स्त्रियां घर लौटती हैं) इस कविता में ‘लौटना’ शब्द की अनेक पुनरावृत्तियां हैं लेकिन हर बार एक नई अर्थवत्ता के साथ! साथ ही स्त्री विमर्श को जब तक पुरुष के साथ तुलनात्मक दृष्टि से नहीं देखा जाएगा तब तक वह विमर्श अधूरा रहेगा। विवेक इस कविता में वह जरूरी काम करते हैं इस अद्भुत क्लाईमेक्स में के साथ कि- दरअसल एक स्त्री का घर लौटना/ धरती का अपनी धुरी पर लौटना है’।

‘ताले रास्ता देखते हैं’ हमारे समय के अलगाते रिश्तों की कविता है जिसे ताले और चाबी के अनिवार्य संबंधों के रूपक के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है। यहां दो कारकों की अंतर्निर्भरता को बहुत मार्मिकता से कवि ने दिखाया है विवेक चतुर्वेदी के रोजमर्रा के उपेक्षित- से प्रेक्षण को कविता के केंद्र में ले आते हैं- एक बाकायदा कविता बनाते हुए।’चाबियों को याद करते हैं ताले/ वे रास्ता देखते हैं’ क्या यह पंक्ति ताला खुलने के बाद एक संसार को नए सिरे से देखने के लिए पाठकों को आमंत्रित नहीं करती?

‘उनकी प्रार्थना में’ एक छोटी मगर मार्मिक कविता है। इसमें प्रार्थना का सत्व है जो किसी आस्था को महिमामंडित ना करते हुए उसके मर्म को और सदाशयी भाव को अभिव्यक्त करता है।

‘मां को खत’ जैसी बहुत छोटी कविता में भी धूप की खीर, अक्टूबर का महीना, सुबह, पंजा ठंड की बिल्ली जैसे शब्दों से मां की चिंता का अनूठा काव्य रचा गया है।

इस युवा कवि को रिश्तों और उनकी उदात्तता की गहरी समझ है ‘पिता की याद’ एक ऐसी ही कविता है जिसमें पिता के दायित्व और दाय को बहुत ही मार्मिकता से चित्रित किया गया है ।कटोरदान में बच गई आखरी रोटी की अधूरी भूख एक ऐसा समर्पण है जिसे इस तरह के काव्य संवेदन ही व्यक्त कर सकते हैं ।

हर सच्चा कवि लोग मंगल का भी अभिलाषी होता है। ‘शिवेतरक्षतये’ यह काव्य- प्रतिज्ञा क्या मूल भाव होता है।

ऐसी ही कामनाएं हैं ‘दुनिया के लिए जरूरी है’ कविता में। एक ओर वह गौरैया, कुनकुनी धूप बचपन और तारों का संरक्षण चाहता है वहीं दूसरी ओर मिसाइल और दानवीय मशीनों को इंसानियत के विरुद्ध मानता है।

‘पसीने से भीगी कविता’ कवि और कविता का मूल प्रयोजन व्यक्त करती है। इस कविता में अनूठे बिम्बों द्वारा कवि की अभीप्सा को व्यक्त किया गया है। यह मनुष्य और मानवता के पक्ष में कविता की सार्थक भूमिका का बयान है।

‘सभा’ कविता एक दृश्य- बंध है जिसमें मछलियों और मगर के जरिए समकालीन राजनीतिक परिदृश्य का इकोसिस्टम रचा गया है इसमें कवि की प्रतिबद्धता स्पष्ट परिलक्षित होती है सच की बूढ़ी माई के सभा में ना पाने की विवशता  पूरी कविता को एक प्रभावी क्लाइमैक्स में घटित करती है।

युवा कवि विवेक चतुर्वेदी की कविताएं गहन संवेदनों और कम शब्दों में अधिक बोलती कविताएं हैं। उनकी काव्य पंक्तियां छोटी लेकिन अर्थ और अर्थ से परे तक का विस्तार हैं।जब कविता खलिहान से मंडी तक बैलगाड़ी में रतजगा करे तो उस पर उसी तरह भरोसा किया जा सकता है जैसे कि हम प्रार्थना पर करते हैं”।

  – निरंजन श्रोत्रिय

 

© विवेक चतुर्वेदी, जबलपुर ( म प्र ) 

 

ई-अभिव्यक्ति  की ओर से  युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी को इस प्रतिसाद के लिए हार्दिक शुभकामनायें  एवं बधाई।

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