पुस्तक समीक्षा / आत्मकथ्य – ग़ुलामी की कहानी – श्री सुरेश पटवा 

आत्मकथ्य – ग़ुलामी की कहानी – श्री सुरेश पटवा 

(‘गुलामी की कहानी’  श्री सुरेश पटवा की प्रसिद्ध पुस्तकों में से एक है। आपका जन्म देनवा नदी के किनारे उनके नाना के गाँव ढाना, मटक़ुली में हुआ था। उनका बचपन सतपुड़ा की गोद में बसे सोहागपुर में बीता। प्रकृति से विशेष लगाव के कारण जल, जंगल और ज़मीन से उनका नज़दीकी रिश्ता रहा है। पंचमढ़ी की खोज के प्रयास स्वरूप जो किताबी और वास्तविक अनुभव हुआ उसे आपके साथ बाँटना एक सुखद अनुभूति है। 

श्री सुरेश पटवा, ज़िंदगी की कठिन पाठशाला में दीक्षित हैं। मेहनत मज़दूरी करते हुए पढ़ाई करके सागर विश्वविद्यालय से बी.काम. 1973 परीक्षा में स्वर्ण पदक विजेता रहे हैं और कुश्ती में विश्व विद्यालय स्तरीय चैम्पीयन रहे हैं। भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत सहायक महाप्रबंधक हैं, पठन-पाठन और पर्यटन के शौक़ीन हैं। वर्तमान में वे भोपाल में निवास करते हैं। आप अभी अपनी नई पुस्तक ‘पलक गाथा’ पर काम कर रहे हैं। प्रस्तुत है उनकी पुस्तक गुलामी की कहानी पर उनका आत्मकथ्य।)


यह किताब  भारत के उन संघर्षशील सौ सालों का दस्तावेज़ है जिसमें दर्ज हैं मुग़लों, मराठों, सिक्खों, अंग्रेज़ों और असंख्य हिंदुस्तानियों की बहादुरी, कूटनीति, धोखाधड़ी, कपट, सन्धियाँ और रोमांचक बहादुरी व रोमांस की अनेकों कहानियाँ। यह किताब उपन्यास के अन्दाज़ में इतिहास की प्रस्तुति है इसमें इतिहास का बोझिलपन और तारीख़ों का रूखापन नहीं है। गहन अध्ययन और खोजबीन के  बाद  हिंदी में उनके लिए रोचक अन्दाज़ में लिखी गई है जो कौतुहल वश हमारी ग़ुलामी की दास्तान को एक किताब में पढ़ना चाहते हैं और प्रतियोगी परीक्षाओं में हिंदी माध्यम से आधुनिक इतिहास लेकर शामिल होना चाहते हैं।

आदिम युग से मध्ययुग तक ग़ुलामी पूरी पृथ्वी पर एक सशक्त संस्था के रूप में विकसित हुई है वह किसी न किसी रूप में आज भी मौजूद है। जिज्ञासुओं के लिए इसमें इस प्रश्न के उत्तर का ख़ुलासा होगा कि आख़िर हमारा भारत ग़ुलाम क्यों हुआ? ताकि इतिहास की ग़लतियों को दुहराने की फिर ग़लती न करें। कहावत है कि जो इतिहास नहीं जानते वे उसकी ग़लतियों को दोहराने को अभिसप्त होते हैं।

भारत की ग़ुलामी को दो  भाग में बाँटा जा सकता है। 1757-1857 के एक सौ एक साल जिनमे ईस्ट इंडिया कम्पनी ने हमें ग़ुलाम बनाया और 1858-1947 के नब्बे साल ब्रिटिश सरकार ने हमारे ऊपर राज्य किया।

ग़ुलामी मानवता के प्रति  सबसे बड़ा अभिशाप है। ग़ुलामी लादने और ग़ुलामी ओढ़ने वाले दोनों ही खलनायक हैं। ऐसे ही खलनायकों की दास्तान है यह किताब।

ग़ुलामी की कहानी से…….

आम भारतीय आज़ादी के बारे में बहुत कुछ जानता है कि कैसे भारत में राष्ट्रीयता की भावना का उदय हुआ? हिंसक और अहिंसक कार्यवाही और आंदोलन हुए? कांग्रेस का गठन, फिर गरम-दल, नरम-दल, साईमन कमीशन,  जालियाँवाला बाग़ में बर्बरता, स्वदेशी आंदोलन, नमक सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन और अंत में आज़ादी। इसकी ज़रूरत क्यों पड़ी, क्योंकि 1858 से 1947 तक हम  90 साल  अंग्रेज़ी हुकूमत के शासन में पूरी तरह ग़ुलाम रहे  थे। जिसकी प्रक्रिया 1757 में  एक सौ एक साल पहले शुरू हो चुकी थी। उसके बारे में हम कितना जानते हैं?

इतिहासकारों और विद्वानों को छोड़ दें तो भारत का आम आदमी यह नहीं जानता कि अंग्रेज़ों ने भारत को किस प्रक्रिया से और कैसे ग़ुलाम बनाया था? वे सब चीज़ें इतिहास की बड़ी-बड़ी किताबों में बिखरी हुई मिलती हैं। बहुत ढूँढने पर भी न तो अंग्रेज़ी में और न ही हिंदी में या अन्य किसी भारतीय भाषा में एक जगह ग़ुलामी की कहानी पढ़ने को नहीं मिलती है।

1757 से 1857 के एक सौ एक साल भारत के इतिहास का वह कालखंड हैं जिसमें भारत दुनिया के दूसरे देशों से दो सौ साल पिछड़ गया था। जबकि छलाँग लगा के सौ साल आगे निकल सकता था।  अंग्रेज़ों का कहना है कि उन्होंने हमें प्रशासन, सेना, संचार, शिक्षा और संस्थाएँ दीं ये ठीक वैसा ही है कि पेट की भूख तो बढ़ा दी और भोजन छीन लिया। उन्होंने हमारा भयानक शोषण किया और शोषण का ढाँचा खड़ा करने में स्वमेव कुछ विकसित हुआ, उसे वे देना कहते हैं। हमें अपने हाल पर रहने देते जैसे उनके बग़ैर जापान और चीन रास्ते तलाश कर विज्ञान टेक्नॉलोजी विकसित करके आगे निकल  विकसित देशों की क़तार में खड़े हैं।

ब्रिटेन के ही आर्थिक इतिहासकार ऐंगस मैडिसॉन ने गहन अध्ययन से दुनिया के सामने एक चौंकाने वाली बात रखी है कि जब 1757 में भारत में ग़ुलामी की शुरुआत हो रही थी। उस समय अकेले भारत का दुनिया के सकल उत्पाद में हिस्सा 27% था,  जो कि यूरोप के कुल उत्पाद के बराबर था। जबकि इंग्लैंड का दुनिया के सकल उत्पाद में 3% हिस्सा था। 1947 में जब अंग्रेज़ भारत को  छोड़कर गए उस समय भारत का दुनिया के सकल उत्पाद में 3%  अंशदान बचा था और इंग्लैंड का बढ़कर 23% हो गया था। इसका सीधा अर्थ निकलता है कि भारत को निचोड़कर इंग्लैंड धनाढ़्य हुआ था। यह ग़ुलामी का परिणाम था।

एक और मापदंड है भारत में ग़ुलामी की भयावहता को मापने का। अंग्रेज़ों के आने के बाद 1770 से 1943 तक भारत में आर्थिक शोषण की नीतियों के कारण 17 अकाल पड़े जिनमें कुल 3 करोड़ 50 लाख लोग काल-कवलित हुए थे। जबकि उसी समयावधि में दुनिया के युद्धों में कुल 50 लाख लोग ही मारे गए थे। इसको तानाशाही से मारे गए मानवों से तुलना करें तो पाते हैं कि रूस में स्टालिन की तानाशाही से 2 करोड़ 50 लाख, चीन में माओ के अत्याचार से 4 करोड़ 50 लाख और द्वितीय विश्वयुद्ध में 5 करोड़ 50 लाख लोग मारे गए थे।  भारत में अंग्रेज़ों के शोषण  दुश्चक्र के ये प्रमाण ख़ुद अंग्रेज़ विद्वानों ने दुनिया के सामने रखे हैं। भयावहता इससे कहीं भयानक थी। उसके लिए आपको बिना खाए-पिए चार दिन भूखा प्यासा रहना होगा तब समझ आएगी भूख से तड़पती मौतें कैसी हुई होंगी। उस समय भारत की जनसंख्या 20 करोड़ थी 3.50 करोड़ लोगों का भूख से तड़फ कर मर  जाना याने 17.50% जनसंख्या का सफ़ाया।

सहज ही इस विषय को अध्ययन का केंद्रबिंदु बनाकर पढ़ना शुरू किया तो लिखने की इच्छा हुई और नतीजा आपके सामने है। अक्सर कहानी में नायक और खलनायक होते हैं लेकिन इस कहानी की विशेषता है कि इसमें नायक कोई नहीं, सब खलनायक हैं, जो ग़ुलाम बना रहे हैं वो भी और जो ग़ुलाम बन रहें हैं वो भी क्योंकि दोनो मानवता का ख़ून कर रहे हैं। जो ग़ुलाम बना रहे हैं वो भलाई के नाम पर इंसानियत का ख़ून कर रहे हैं और जो ग़ुलाम बन रहे हैं वो आपस में एक दूसरे को नीचा दिखाने के उपक्रम में ख़ुद अपनी बर्बादी के दोषी हैं। इसमें मुख्य नायिका “सत्ता की देवी” है। जो एक अदृश्य पात्र है। जिसका आहार मनुष्य का ख़ून है। उसके अस्त्र काम, क्रोध, लोभ और मोह हैं। उसके मुकुट में अहंकार और द्वेष के माणिक लगे हैं जिनकी चकाचौंध में वह रिश्तों का ख़ून करने से नहीं चूकती है। वह नृशंसता में किसी सीमा को नहीं मानती। सत्ता की देवी के पुजारी राजा-महाराजा या शाह-बादशाह हैं।  वह उनके माध्यम से ही बलि का प्रसाद ग्रहण करती है। मध्ययुग में मनुष्यता उसके पैरों के नीचे दबी कराह रही थी। ऐसी है हमारी ग़ुलामी की कहानी।

© सुरेश पटवा

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पुस्तक समीक्षा / आत्मकथ्य – इंतज़ार (कहानी संग्रह) – सुश्री मालती मिश्रा

इंतज़ार (कहानी संग्रह)

लेखिका : सुश्री मालती मिश्रा

प्रकाशन : समदर्शी प्रकाशन, हरियाणा

संस्करण : प्रथम, जून – 2018

मूल्य : रुपये 175/- मात्र

(लेखक मित्रों के सुझावों के अनुरूप यह एक नवीन प्रयास है। इसमें लेखक मित्रों की चुनिन्दा पुस्तकों की समीक्षा/आत्मकथ्य प्रकाशित करना प्रारम्भ कर रहे हैं। इस कड़ी में हम सर्वप्रथम सुश्री मालती मिश्रा जी के कथा संग्रह इंतज़ार की समीक्षा प्रस्तुत कर रहे हैं। समीक्षा श्री अवधेश कुमार ‘अवध’ जी ने लिखी है। हम कल इस कथा संग्रह की एक चुनिन्दा कहानी ‘इंतजार का सिलसिला’ प्रकाशित करेंगे। 

अवधेश कुमार ‘अवध’

जब से मानव ने कुटुम्ब में रहना सीखा तब से परिजनों में छोटे – बड़े और बच्चे – वृद्ध की भावना आई और साथ ही आई प्राय: बड़ों द्वारा छोटों को कहानियाँ सुनाने का सिलसिला। प्रकारान्तर में वही कहानियाँ चमत्कारों, अप्सराओं और अदृश्य शक्तियों से होती हुईं धरातल पर उतरीं जिनमें समाज का प्रतिबिम्ब देखा जा सकता है और प्रेरित होकर समाज को उचित दिशा भी दिया जा सकता है।

लेखिका सुश्री मालती मिश्रा ‘अन्तर्ध्वनि’ काव्य संग्रह के उपरान्त 13 कहानियों का संग्रह  ‘इंतज़ार’ लेकर कथा की दुनियाँ में पदार्पण कर रही हैं। इनकी समग्र कहानियाँ युवा असंतोष या दूसरे शब्दों में कहें तो युवा उलझन के परित: घूमती हैं जिनमें कभी युवा पीढ़ी इंतज़ार करती है तो कभी युवा पीढ़ी का इंतज़ार होता है। कोई कहानी इंतज़ार से शुरु होकर मिलन पर पूर्ण होती है तो किसी का मिलन अन्तहीन इंतज़ार में दम तोड़ देता है। इंतज़ार के कई रूपों को लेखिका ने कथावस्तु के रूप में पल्लवित किया है। कभी अभिभावक अपनी युवा संतान का इंतज़ार कर रहा होता है तो कहीं प्रेमी जोड़ा एक – दूजे का। तकरीबन सभी कहानियाँ दो पीढ़ियों के ताने – बाने से जुड़ी हैं। कहीं बच्चे और युवा हैं तो कहीं युवा और वृद्ध अर्थात् दो पीढ़ियों के अन्तराल का द्वन्द है इनमें। जहाँ एक ओर अतिरेक संस्कार की भट्ठी में अस्तित्व को जलते देखा गया है तो दूसरी ओर स्वच्छंद परिवेश में संस्कार को दम तोड़ते हुए भी। इंतज़ार के पात्र एक हाथ से व्यष्टि को थामें हुए हैं तो दूसरे हाथ से समष्टि को छूने की चेष्टा करते हैं। विवाह एक विवशता के रूप में भी परिलक्षित है जिसे तोड़कर पति/पत्नी की बजाय प्रेमी/प्रेमिका की भावना प्रबल हो जाती है। लेखिका के इंतज़ार की सारी कहानियाँ आज के परिवेश की हैं जिनका कथानक दहेज, बालविवाह, रिश्तों में भ्रम, ज़िंदगी की कश्मकश, अत्यधिक महत्वाकांक्षा, कैशोर्य आकर्षण, परम्परागत वैवाहिक संस्था में कमजोरी, प्रेम विवाह का अनिश्चित भविष्य, अशिक्षा, जातिवाद और अन्तहीन संघर्ष को अपने आँचल में समेटे हुए है। कहानियों का ताना – बाना लेखिका ने इस प्रकार बुना है कि बिल्कुल सच्ची लगती हैं। कथोपकथन को पात्रानुरूप रखने में सफलता मिली है।

‘इंतज़ार एक सिलसिला’ कहानी में वृद्ध पिता अपने उस पुत्र का इंतज़ार करते हुए प्राण त्याग देता है जो पहले ही परलोकवासी हो गया है। किशोरवय का प्यार एक छोटे से भ्रम के कारण ज़ुदा हो जाता है और फिर मिलता है प्रौढ़ावस्था में भ्रम से पर्दा हटने के बाद। परिधि के प्यार में विरह – मिलन पर आधारित कहानी है ‘शिकवे – गिले’। परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है जिसको जीवन्त करती है कहानी ‘परिवर्तन’। ‘वापसी की ओर’ कहानी समाज की उस घृणित मानसिकता का परिणाम है जहाँ दो घरों के हमउम्र जवान होते बच्चों की नज़दीकी को बिना सोचे – समझे अनैतिकत सम्बंध और चरित्र पतन जैसे गंदे आरोपों से तोड़ दिया जाता है। ‘दासता के भाव’ उस स्कूली छात्रा की कहानी है जो खुद खड़े होकर आवारा लड़कों द्वारा पालित दासता को चुनौती देती है और धीरे – धीरे सबको जाग्रत भी करने में सफल हो जाती है। पति – पत्नी के मध्य जीवन की कश्मकश से घबराकर लिए गए फैसले बाद में स्वयं को ही कच्चे महसूस होने लगते हैं और उन्हें बदलना भी पड़ता है, इस कथानक पर आधारित है कहानी ‘फैसले’। दो सहेलियाँ मीरा और मुन्नी आर्थिक और सामाजिक विभेद को मिटाती हैं किन्तु एक द्वारा स्वयं की गलतियों को दूसरे पर आरोपित करने से पुन: विभेद सशक्त हो जाता है, इसको जीवन्त करती है कहानी ‘मीरा’। बालविवाह को न स्वीकारते हुए पलायन करने और बाद में पुन: घर से रिश्ता जोड़ते हुए एक नारी की स्थिति ‘अपराध….’ कहानी की विषयवस्तु है। संयुक्त परिवार में प्राय: बहू को यंत्रणा झेलनी पड़ती है जिसका परिणाम अक्सर रिश्तों में खटास या विद्रोह बनकर उभरता है, इसी प्रसंग के ताने – बाने पर रची गई है कहानी ‘क़सम….’। ‘संदूक में बंद रिश्ते’ राखी के कमजोर पड़ने की कहानी है जिसमें एक बहन के लिए भाई उसकी अपेक्षा के विपरीत हो जाता है। बदलते जमाने की महिला न सिर्फ एक लाचार लड़की की इज़्जत की रक्षा करती है बल्कि अपने चरित्रहीन पति को जेल तक भिजवाती है। ऐसी ही सजग और गौरवशालिनी महिला की कहानी है ‘शराफ़त के नक़ाब’। शहरी साज़िश में एक युवती अनायास फँस जाती है और वर्षों बाद उसकी ‘अधूरी कहानी’ पूर्णता को प्राप्त होती है। ‘मेरी दादी’ एक दादी – पोती के लगाव पर आधारित कहानी है। पोती की शादी और मायके में बँटवारे के उपरान्त दादी – पोती के रिश्ते की अहमियत परिजनों के लिए मात्र औपचारिकता बनकर रह जाती है। ‘अपराध….’ कहानी में नायिका ‘धरा’ और रिक्शे वाले काका के बीच कथोपकथन में कानपुर के कस्बे की आबोहवा सामने अपस्थित दिखती है। ‘इंतज़ार’ कहानी संग्रह की समस्त कहानियाँ हमारे आज के समाज की दर्पण हैं। किशोर- युवा पीढ़ी की संवेदनात्मक सोच, असंतोष, त्वरित फैसले और परिणाम पर आधारित है इंतज़ार। इसके समस्त पात्रों में पाठक स्वयं को या स्वयं के आस – पास के लोगों को देख सकता है, पहचान सकता है, अपने घर या पड़ोस में घटित मान सकता है। लेखिका ने किसी पात्र विशेष के साथ पक्षपात रहित रहने का सर्वदा प्रयास किया है। हर वय और लिंग के पात्रों को यथोचित मनोभाव व परिवेश के साथ हाज़िर किया है।

हम आश्वासन ही नहीं अपितु विश्वास दिलाना चाहते हैं कि सुश्री मालती मिश्रा जी का ‘इंतज़ार’ आपके हाथों में अपना ही लगेगा। लगेगा कि समस्त कहानियों में मुख्य अथवा गौड़ पात्र के रूप में आप स्वयं है।

अवधेश कुमार ‘अवध’

समीक्षक, संपादक, साहित्यकार व अभियंता

मो० नं० 8787573644

[email protected]

ग्राम व पोस्ट – मैढ़ी (धरौली रोड)

जिला – चन्दौली

उत्तर प्रदेश – 232104

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