अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – अष्टदशोऽध्याय: अध्याय (36-37) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय 18  

(सन्यास   योग)

(तीनों गुणों के अनुसार ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि, धृति और सुख के पृथक-पृथक भेद)

 

सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ।

अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति।।36।।

 

यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्‌।

तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्‌।।37।।

 

सुख के तीन प्रकार हैं, भेद समझ के जान

रमता मन अभ्यास से, दुख से निकल प्रधान ।।36।।

जो पहले विष सा  लगे, अमृत सा परिणाम

मन को करे प्रसन्न उस ,सुख का सात्विक नाम ।।37।।

भावार्थ :  हे भरतश्रेष्ठ! अब तीन प्रकार के सुख को भी तू मुझसे सुन। जिस सुख में साधक मनुष्य भजन, ध्यान और सेवादि के अभ्यास से रमण करता है और जिससे दुःखों के अंत को प्राप्त हो जाता है, जो ऐसा सुख है, वह आरंभकाल में यद्यपि विष के तुल्य प्रतीत (जैसे खेल में आसक्ति वाले बालक को विद्या का अभ्यास मूढ़ता के कारण प्रथम विष के तुल्य भासता है वैसे ही विषयों में आसक्ति वाले पुरुष को भगवद्भजन, ध्यान, सेवा आदि साधनाओं का अभ्यास मर्म न जानने के कारण प्रथम ‘विष के तुल्य प्रतीत होता’ है) होता है, परन्तु परिणाम में अमृत के तुल्य है, इसलिए वह परमात्मविषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला सुख सात्त्विक कहा गया है॥36-37॥

  1. Now hear  from  Me,  O  Arjuna,  of  the  threefold  pleasure,  in  which  one  rejoices  by practice and surely comes to the end of pain!
  1. That which is like poison at first but in the end like nectar-that pleasure is declared to be Sattwic, born of the purity of one’s own mind due to Self-realisation.

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’  

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

[email protected] मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – अष्टदशोऽध्याय: अध्याय (32) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय 18  

(सन्यास   योग)

(कर्मों के होने में सांख्यसिद्धांत का कथन)

(तीनों गुणों के अनुसार ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि, धृति और सुख के पृथक-पृथक भेद)

अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।

सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी॥

 

जो अज्ञानी अधर्म को ,भी कहते हैं धर्म

वह है तामस बुद्धि जो ,करती उलटा अर्थ।।32।।

 

भावार्थ :  हे अर्जुन! जो तमोगुण से घिरी हुई बुद्धि अधर्म को भी ‘यह धर्म है’ ऐसा मान लेती है तथा इसी प्रकार अन्य संपूर्ण पदार्थों को भी विपरीत मान लेती है, वह बुद्धि तामसी है॥32॥

  1. That which,  enveloped  in  darkness,  views  Adharma  as  Dharma  and  all  things

perverted-that intellect, O Arjuna, is called Tamasic!

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ जीवन गाणे -3 ☆ सौ. अंजली गोखले

☆ मनमंजुषेतून ☆  जीवन गाणे -3 ☆ सौ. अंजली गोखले ☆

आपल्याला वाटेल लहान जीवांना कसला आलाय कठीण प्रसंग?लहान मुलं म्हणजे देवाघरची फुलं.  आई बाबा, आजी आजोबा यांच्या प्रेमाच्या  मऊ उबे मध्ये वाढत असताना त्यांना कशाचा होणार त्रास?पण आलीकडे ही प्रेमाची मऊ दुलई फार लवकर काढली जाते आणि पाळणाघर नावाच्या वेगळ्याच शिस्तीच्या धगे ला त्यांना सामोरे जावे लागते, इच्छा असो वा नसो, ही परिस्थिती ते वाढणारे मूल बदलू शकत नाही. त्या नवीन वातावरणामध्ये ते रमले तर ठीक, नाहीतर अशाही फुलपाखराचे सुरवंट व्हायला वेळ लागत नाही.

तीच परिस्थिती शालेय जीवनामध्ये.  खरेतर लहान मुलांना शिकायला खूपच आवडते.  त्यांची इवलीशी नजर बघा, नव्याचा शोध घेत असते. एखादी गोष्ट त्यांना आवडली की त्यांच्या डोळ्यांमध्ये आपल्याला ती चमक दिसते. त्यांचा मेंदू विलक्षण तजेलदार असतो.  स्पंज जशा पाणी शोषून घेतो, तसा त्यांचा मेंदू नवनवीन गोष्टी स्वीकारायला आसुसलेला असतो. अशावेळी या मेंदूला योग्य ते खाद्य मिळाले तर ठीक. पण जर का कु संगत लाभली तर आयुष्याचा सुरवंट झालाच म्हणून समजा. अशावेळी त्याला त्यामधून बाहेर काढण्याची जबाबदारी सर्वस्वी पालकांची, आजूबाजूच्या लोकांची आणि त्याच्या शिक्षकांची असते.

शाळेच्या इयत्ता जसजशा वाढत जातात, तस-तशी त्यांची निरीक्षणशक्ती वाढते. त्या निरीक्षणाचे अनुकरण करण्याचे ते निरागस वय. घरी घरी आई बाबा जसे वागतात, बोलतात, ते ही मुले बरोबर टिपतात आणि त्याप्रमाणे त्यांचे वागणे असते.  एखादेवेळी आईने एखादा खोटा शब्द बोललेला त्यांच्या लक्षात आले, तर ते नेमकेपणाने लक्षात ठेवतात. आणि आपल्या सोयीसाठी खोटे कसे बोलावे, वागावे हे हेरतात आणि मोठ्यांच्या नकळत त्यांच्या गाडीचा ट्रॅक बदलत जातो.  हे असे न होण्यासाठी योग्य आणि सचोटीने वागण्याची जबाबदारी असते, ती घरातील आजूबाजूच्या वयाने मोठे असलेल्या थोरांची !

उमलत्या वयातील मुला-मुलींची आयुष्याकडे बघण्याची उत्सुकता पराकोटीची वाढलेली असते.  आत्तापर्यंतचा मित्र किंवा काल पर्यंत ची मैत्रीण यांच्या वागण्या-बोलण्यात झाले ला बदलत्यांना फार लवकर समजतो.  पण कारण समजत नाही.  मैत्री तर हवीहवीशी असते, पण अचानक निर्माण झालेली दरी कासावीस करते.  शाळेमध्ये अभ्यासाचा ताण वाढत जातो, अनेक नवनवीन गोष्टी समजायला लागतात.  समाजा मधल्या गोष्टींची जाणीव व्हायला लागते.  भोवताली घडते ते सारेच चांगले वाटायला लागते.  एखादी चुकीची गोष्ट आई-बाबांनी, शिक्षकांनी दाखवून दिली, समजवण्याचा प्रयत्न केला तर तो अपमान वाटतो.  त्यांच्याशी बोलणेच नको इथपर्यंत मजल जाते.  त्यांचा  सहवास टाळावा असा वाटतो.  अशा या संवेदनशील वयामध्ये सच्चे मित्र मैत्रिणी खूप उपयोगाचे अन महत्त्वाचे ठरतात.

© सौ. अंजली गोखले

मो ८४८२९३९०११

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 65 ☆ ख़ुद से जीतने की ज़िद्द ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख ख़ुद से जीतने की ज़िद्द।  यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 65 ☆

☆ ख़ुद से जीतने की ज़िद्द ☆

‘खुद से जीतने की ज़िद्द है मुझे/ मुझे ख़ुद को ही हराना है। मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ वाट्सएप का यह संदेश मुझे अंतरात्मा की आवाज़ प्रतीत हुआ और ऐसा लगा कि यह मेरे जीवन का अनुभूत सत्य है, मनोभावों की मनोरम अभिव्यक्ति है। ख़ुद से जीतने की ज़िद अर्थात् निरंतर आगे बढ़ने का जज़्बा, इंसान को उस मुक़ाम पर ले जाता है, जो कल्पनातीत है। यह झरोखा है, मानव के आत्मविश्वास का; लेखा-जोखा है… अहसास व जज़्बात का; भाव और संवेदनाओं का– जो साहस, उत्साह व धैर्य का दामन थामे, हमें उस निश्चित मुक़ाम पर पहुंचाते हैं, जिससे आगे कोई राह नहीं…केवल शून्य है। परंतु संसार रूपी सागर के अथाह जल में गोते खाता मन, अथक परिश्रम व अदम्य साहस के साथ आंतरिक ऊर्जा को संचित कर, हमें साहिल तक पहुंचाता है…जो हमारी मंज़िल है।

‘अगर देखना चाहते हो/ मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊंचा कर दो / आसमान को’ प्रकट करता है मानव के जज़्बे, आत्मविश्वास व ऊर्जा को..जहां पहुंचने के पश्चात् भी उसे संतोष का अनुभव नहीं होता। वह नये मुक़ाम हासिल कर, मील के पत्थर स्थापित करना चाहता है, जो आगामी पीढ़ियों में उत्साह, ऊर्जा व प्रेरणा का संचरण कर सके। इसके साथ ही मुझे याद आ रही हैं, 2007 में प्रकाशित ‘अस्मिता’ की वे पंक्तियां ‘मुझ मेंं साहस ‘औ’/ आत्मविश्वास है इतना/ छू सकती हूं/ मैं आकाश की बुलंदियां’ अर्थात् युवा पीढ़ी से अपेक्षा है कि वे अपनी मंज़िल पर पहुंचने से पूर्व बीच राह में थक कर न बैठें और उसे पाने के पश्चात् भी निरंतर कर्मशील रहें, क्योंकि इस जहान से आगे जहान और भी हैं। सो! संतुष्ट होकर बैठ जाना प्रगति के पथ का अवरोधक है…दूसरे शब्दों में यह पलायनवादिता है। मानव अपने अदम्य साहस व उत्साह के बल पर नये व अनछुए मुक़ाम हासिल कर सकता है।

‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती/ लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती’…अनुकरणीय संदेश है… एक गोताखोर, जिसके लिए हीरे, रत्न, मोती आदि पाने के निमित्त सागर के गहरे जल में उतरना अनिवार्य होता है। सो! कोशिश करने वालों को कभी पराजय का सामना नहीं करना पड़ता। दीपा मलिक भले ही दिव्यांग महिला हैं, परंतु उनके जज़्बे को सलाम है। ऐसे अनेक दिव्यांगों व लोगों के उदाहरण हमारे समक्ष हैं, जो हमें ऊर्जा प्रदान करते हैं। के•बी• सी• में हर सप्ताह एक न एक कर्मवीर से मिलने का अवसर प्राप्त होता है, जिसे देख कर अंतर्मन में अलौकिक ऊर्जा संचरित होती है, जो हमें शुभ कर्म करने को प्रेरित करती है।

‘मैं अकेला चला था जानिब!/ लोग मिलते गये/ और कारवां बनता गया।’ यदि आपके कर्म शुभ व अच्छे हैं, तो काफ़िला स्वयं ही आपके साथ हो लेता है। ऐसे सज्जन पुरुषों का साथ देकर आप अपने भाग्य को सराहते हैं और भविष्य में लोग आपका अनुकरण करने लग जाते हैं…आप सबके प्रेरणा- स्त्रोत बन जाते हैं। टैगोर का ‘एकला चलो रे’ में निहित भावना हमें प्रेरित ही नहीं, ऊर्जस्वित करती है और राह में आने वाली बाधाओं-आपदाओं का सामना करने का संदेश देती है। यदि मानव का निश्चय दृढ़ व अटल है, तो लाख प्रयास करने पर, कोई भी आपको पथ-विचलित नहीं कर सकता। इसी प्रकार सही व सत्य मार्ग पर चलते हुए, आपका त्याग कभी व्यर्थ नहीं जाता। लोग पगडंडियों पर चलकर, अपने भाग्य को सराहते हैं तथा अधूरे कार्यों को संपन्न कर, सपनों को साकार कर लेना चाहते हैं।

‘सपने देखो, ज़िद करो’ कथन भी मानव को प्रेरित करता है कि उसे अथवा विशेष रूप से युवा-पीढ़ी को उस राह पर अग्रसर होना चाहिए। सपने देखना व उन्हें साकार करने की ज़िद, उनके लिए मार्ग- दर्शक का कार्य करती है। ग़लत बात पर अड़े रहना व ज़बर्दस्ती अपनी बात मनवाना भी एक प्रकार की ज़िद है, जुनून है…जो उपयोगी नहीं, उन्नति के पथ में अवरोधक है। सो! हमें सपने देखते हुए, संभावना पर अवश्य दृष्टिपात करना चाहिए। दूसरी ओर मार्ग दिखाई पड़े या न पड़े… वहां से लौटने का निर्णय लेना अत्यंत हानिकारक है। एडिसन जब बिजली के बल्ब का आविष्कार कर रहे थे, तो उनके एक हज़ार प्रयास विफल हुए और तब उनके एक मित्र ने उनसे विफलता की बात कही, तो उन्होंने उन प्रयोगों की उपादेयता को स्वीकारते हुए कहा… अब मुझे यह प्रयोग दोबारा नहीं करने पड़ेंगे। यह मेरे पथ-प्रदर्शक हैं…इसलिए मैं निराश नहीं हूं, बल्कि अपने लक्ष्य के निकट पहुंच गया हूं। अंततः उन्होंने आत्म-विश्वास के बल पर सफलता अर्जित की।

आजकल अपने बनाए रिकॉर्ड तोड़ कर, नए रिकॉर्ड स्थापित करने के कितने उदाहरण देखने को मिल जाते हैं। कितनी सुखद अनुभूति के होते होंगे वे क्षण …कल्पनातीत है। यह इस तथ्य पर प्रकाश डालता है कि ‘वे भीड़ का हिस्सा नहीं हैं तथा अपने अंतर्मन की इच्छाओं को पूर्ण कर सुक़ून पाना चाहते हैं।’ यह उन महान् व्यक्तियों के लक्षण हैं, जो अंतर्मन में निहित शक्तियों को पहचान कर, अपनी विलक्षण प्रतिभा के बल पर, नये मील के पत्थर स्थापित करना चाहते हैं। बीता हुआ कल अतीत है, आने वाला कल भविष्य तथा वही आने वाला कल वर्तमान होगा। सो! गुज़रा हुआ कल और आने वाला कल दोनों व्यर्थ हैं, महत्वहीन हैं। इसलिए मानव को वर्तमान में जीना चाहिए, क्योंकि वर्तमान ही सार्थक है… अतीत के लिए आंसू बहाना और भविष्य के स्वर्णिम सपनों के प्रति शंका भाव रखना, हमारे वर्तमान को भी दु:खमय बना देता है। सो! मानव के लिए अपने सपनों को साकार करके, वर्तमान को सुखद बनाने का हर संभव प्रयास करना श्रेष्ठ है। इसलिए अपनी क्षमताओं को पहचानो तथा धीर, वीर, गंभीर बन कर समाज को  रोशन करो… यही जीवन की उपादेयता है।

‘जहां खुद से लड़ना वरदान है, वहीं दूसरे से लड़ना अभिशाप।’ सो! हमें प्रतिपक्षी को कमज़ोर समझ कर, कभी भी ललकारना नहीं चाहिए, क्योंकि आधुनिक युग में हर इंसान अहंवादी है और अहं का संघर्ष, जहां घर-परिवार व अन्य रिश्तों में सेंध लगा रहा है; दीमक की भांति चाट रहा है, वहीं समाज व देश में फूट डालकर युद्ध की स्थिति तक उत्पन्न कर रहा है। मुझे याद आ आ रहा है, एक प्रेरक प्रसंग… बोधिसत्व, बटेर का जन्म लेकर उनके साथ रहने लगे। शिकारी बटेर की आवाज़ निकाल कर, मछलियों को जाल में फंसा कर अपनी आजीविका चलाता था। बोधि ने बटेर के बच्चों को, अपनी जाति की रक्षा के लिए, जाल की गांठों को कस कर पकड़ कर, जाल को लेकर उड़ने का संदेश दिया…और उनकी एकता रंग लाई। वे जाल को लेकर उड़ गये और शिकारी हाथ मलता रह गया। खाली हाथ घर लौटने पर उसकी पत्नी ने, उनमें फूट डालने की डालने के निमित्त दाना डालने को कहा। परिणामत: उनमें संघर्ष उत्पन्न हुआ और दो गुट बनने के कारण वे शिकारी की गिरफ़्त में आ गए और वह अपने मिशन में कामयाब हो गया। ‘फूट डालो और राज्य करो’ के आधार पर अंग्रेज़ों का हमारे देश पर अनेक वर्षों तक आधिपत्य रहा। ‘एकता में बल है तथा बंद मुट्ठी लाख की, खुली तो खाक़ की’ एकजुटता का संदेश देती है। अनुशासन से एकता को बल मिलता है, जिसके आधार पर हम बाहरी शत्रुओं व शक्तियों से तो लोहा ले सकते हैं, परंतु मन के शत्रुओं को पराजित करन अत्यंत कठिन है। काम, क्रोध, लोभ, मोह पर तो इंसान किसी प्रकार विजय प्राप्त कर सकता है, परंतु अहं को पराजित करना आसान नहीं है।

मानव में ख़ुद को जीतने की ज़िद होनी चाहिए, जिस के आधार पर मानव उस मुक़ाम पर आसानी से पहुंच सकता है, क्योंकि उसका प्रति-पक्षी वह स्वयं होता है और उसका सामना भी ख़ुद से होता है। इस मन:स्थिति में ईर्ष्या-द्वेष का भाव नदारद रहता है… मानव का हृदय अलौकिक आनन्दोल्लास से आप्लावित हो जाता है और उसे ऐसी दिव्यानुभूति होती है, जैसी उसे अपने बच्चों से पराजित होने पर होती है। ‘चाइल्ड इज़ दी फॉदर ऑफ मैन’ के अंतर्गत माता-पिता, बच्चों को अपने से ऊंचे पदों पर आसीन देख कर फूले नहीं समाते और अपने भाग्य को सराहते नहीं थकते। सो! ख़ुद को हराने के लिए दरक़ार है…स्व-पर, राग-द्वेष से ऊपर उठ कर, जीव- जगत् में परमात्म-सत्ता अनुभव करने की; दूसरों के हितों का ख्याल रखते हुए उन्हें दु:ख, तकलीफ़ व कष्ट न पहुंचाने की; नि:स्वार्थ भाव से सेवा करने की … यही वे माध्यम हैं, जिनके द्वारा हम दूसरों को पराजित कर, उनके हृदय में प्रतिष्ठापित होने के पश्चात्, मील के नवीन पत्थर स्थापित कर सकते हैं। इस स्थिति में मानव इस तथ्य से अवगत होता है कि उस के अंतर्मन में अदृश्य व अलौकिक शक्तियों का खज़ाना छिपा है, जिन्हें जाग्रत कर हम विषम परिस्थितियों का बखूबी सामना कर, अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकते हैं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ पूर्णांक ☆ सौ. शशी नाईक-नाडकर्णी

सौ. शशी नाईक-नाडकर्णी 

☆ विविधा ☆ पूर्णांक ☆ सौ. शशी नाईक-नाडकर्णी ☆ 

फेब्रुवारी महिना उजाडला. 29फेब्रुवारीला 40वर्षे सर्व्हिस करून मी बँकेतून  निवृत्त होणार होतो,  म्हणून मी माझ्या रजा  संपवत होतो.आम्ही दोघेच इकडे. मी आणि सौ. दोन वर्षांपूर्वी माझ्या  मातोश्रीचं निधन झालं.  मुलगा आणि सून अमेरिकेत. सून  पहीलटकरीण.तिचे दिवस भरत आले होते. मार्च मध्ये ड्यू होती.आमच्या सौभाग्यवती शेवटच्या आठवड्यात  तिकडे जाणार होत्या. आणि निवृत्ती नंतरची कामे आटपून मी एक महिन्याने जाणार होतो.

म्हटलं, चला रजा घेतली आहे, तर  व्यवहारी अपूर्णांकाचा पूर्णांक करु या. व्यवहारी अपूर्णांक मी मजेने सौ.ला ठेवलेले नाव आहे.कोणत्या तरी दिवाळी अंकात वाचनात आलेलं, मला आवडलेलं  नाव.खरं म्हणजे ती  सुशिक्षित, हुशार. एक तारखेला तिच्या हातात ठराविक रक्कम ठेवली,  की  माझी जबाबदारी संपली.सगळं कसं व्यवस्थित आखणार आणि पार पाडणार.आला-गेला,पै-पाहुणा, सणवार, औषधपाणी.मला काही बघायला लागत नाही.पण बाईसाहेब कधी मोठ्या व्यवहारात  लक्ष म्हणून घालणार नाहीत.डिपाॅझिट्स,एल.आय्.सी,गावच्या जमिनीचे व्यवहार…..ती  अजिबात बघायची  नाही.”मला काय करायचंय तुम्ही आहात ना खंबीर.”म्हणून मी तिला व्यवहारी अपूर्णांक म्हणायचो.

आज तिला बसवलं. माझी डायरी दाखवली. समजावून सांगितलं. म्हटलं, “तो जाऊन तिकडे अमेरिकेत  बसला आहे. त्याला ह्यात काही रस नाही; पण तुला माहीत असायला पाहिजे. कोणी उद्या तुला  फसवायला नको.”  तिने देखल्या देवा दंडवत केलं.

चला. सौ. ठरल्याप्रमाणे अमेरिकेला गेली. जाताना दक्ष गृहिणीप्रमाणे माझी सोय करून गेली.

“लोणचे, मुरांबा, चटण्या…. बघून ठेवा हो. लक्ष द्या हो. एखाद्या दिवशी मंगल (स्वयंपाकीणबाई) नाही आली तर पंचाईत नको”.

“अगदी मंगल नाही आली तर सुमन (कामवाली) आहे की ती करुन देईल आणि अगदी दोघीही नाहीच आल्या, तर मुंबई आहे ही. हाॅटेल्सची काय कमी? मी काही उपाशी मरणार नाही. तू अजिबात माझी काळजी करू नकोस”. कारण मला चहा व्यतिरिक्त काही येत नव्हतं, हे तिला माहीत होतं. खरं तर, हे तिचं दुःख होतं. जेव्हा जेव्हा ती मला स्वयंपाकातलं काही शिकवायला जायची, तेव्हा तेव्हा आमच्या मातोश्रीचं लेक्चर ऐकून गप्प बसायची, “आमच्याकडे नाही हो पुरुषांना सवय स्वयंपाकाची. अशोक काय बँक  सोडून तुला स्वयंपाकात मदत करत बसणार? ती बायकांची कामं. ” बिचारी गप्प बसायची. माझ्यातला पुरुष सुखावायचा तेव्हा. पण सौ. ने आमच्या  चिरंजीवाला मात्र हळूहळू जरुरीपुरता  स्वयंपाक शिकवला. म्हणून तर तिकडे त्याचं  आज काही अडत नाही.

झालं. सौ. तिकडे गेली. इकडे मी निवृत्त झालो.आता मज्जाच मज्जा. खूप मोकळा वेळ. आरामात उठायचं, मंगलच्या हातचा गरमागरम नाश्ता  खायचा, पेपर वाचन, देवपूजा, खाली फेरफटका, टीव्ही बघणं, जेवणं, दुपारी आराम, मधल्या वेळात बँकेची  कामं, मित्र मंडळी, फोन. मस्त दिवस जात होते. काॅलेज लाईफ परत  जगत होतो. नो टेन्शन, नो घाई गडबड.

माझं हे सुख फार दिवस नाही  टिकलं आणि तो दिवस उजाडला. लाॅकडाऊन.  सोसायटीच्या  समितीने निर्णय घेतला. कामवाली बाई बंद. फोन करून बाहेरुन मागवावे तर हाॅटेल्स बंद. आजूबाजूला कोणाशी माझे विशेष संबंध नाहीत. आता आली का अडचण?

सौ. ला अपूर्णांक म्हणून मिरवणारा मी.

आईचे लाड आणि तिने सौ. ला दिलेलं  लेक्चर,यांनी हुरळून गेलेलो मी…सारं आठवलं, डोळ्यांसमोर उभं  राहिलं.

मग दूध, साखर, पोहे खाल्ले. चला, नाश्ता तर झाला. मग नेहमीच्या वाण्याला फोन केला. ब्रेड मागवला. दुपारी जेवणाला  ब्रेड जाम खाल्ला. रात्री दूध ब्रेड. दुस-या दिवशी खाकरा लोणच्यावर दिवस भागवला. पण हे असं किती दिवस चालणार? मग संशोधनाला सुरुवात. कपाटातून सौ. ची अन्नपूर्णा, रुचिरा बाहेर काढली. पण मला  फोडणीच काय, साधा कांदा कसा  चिरायचा, हेपण  माहीत नाही. मग वरण, भात, तूपपासून सुरवात  केली.  हळूहळू मटार सोल,फ्लाॅवर तोड, ते  फोडणीला घाल. मीठ मिरची पावडर, हाताला येतील ते एव्हरेस्ट् मसाले घाल आणि छोट्या कुकरात शिजव. कधी यूट्यूबचा आधार घे,  तर कधी सौ. ला व्हीडीओ काॅल करून विचार. तेही वेळी-अवेळी. कारण दोघांची घड्याळे वेगळी.मी विचारायचो तेव्हा  सौ.अर्धवट झोपेत.

कधी पिठात पाणी जास्त,तर कधी कुकर करपायचा.पण मग नेटाने त्याच्या मागे पडलो. हळूहळू रडतखडत मला जमू लागलं. पदार्थाचे फोटो सौ. ला पाठवायला लागलो.  आणि चार महिन्यांत स्वतः अपूर्णांकाचा पूर्णांक  झालो. स्वयंपाक, भांडी घासणे, लादी पुसण्यापर्यंत सगळ्यात एक्सपर्ट झालो.

आता इतका एक्सपर्ट झालो,  की  नवीन मुलामुलींना व्यवस्थित मार्गदर्शन करून तयार करीन. त्यांना आणि त्यांच्या पालकांना बजावून सांगेन की  प्रत्येकाला बाकीच्या गोष्टींबरोबर जरूरीपुरता तरी स्वयंपाक बनवता आलाच पाहिजे. मग तो मुलगा असो वा मुलगी. कितीही नोकरचाकर ठेवण्याची ऐपत असली, तरीही स्वयंपाक येत नसेल तर ती व्यक्ती  अपूर्णांकच.

 

© सौ. शशी नाईक-नाडकर्णी

फोन  नं. 8425933533

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 39 ☆ कविता – लिख देना ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर रचना  लिख देना । श्रीमती कृष्णा जी की लेखनी को  इस अतिसुन्दर रचना के लिए  नमन । 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 39 ☆

☆ सजल – लिख देना ☆

कलम से इस हथेली पर

समर्पण त्याग लिख देना

मिलने सेउस  हवेली पर

मेरा पैगाम  लिख देना।

 

गुजरे है कई दिन रात

हवाओं ने है समझाया

सूरज की धूप का कहर

उसने जी भर  बरसाया

दी है चाँदनी  ने दुआ

कोई  न श्राप  लिख देना ।

 

जिल्लतों की जी जिन्दगी

उफ भी नहीं किया हमने

गलत थे कभी  भी  ना हम

उठाए फिरे नाज नखरे

माला है आज  ये मौके

दर्पण  साफ लिख देना

 

निकल आया वहाँ  से जो

कभी  न जाना  होगा अब

हवेली  ने सताया है

गले गमों को लगाया है

मिला अब छुटकारा  हमें

राम  मनाया लिख  देना ।

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 15 – व्ही शांताराम-2 ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी  अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के कलाकार  : व्ही शांताराम पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 15 ☆ 

☆ व्ही शांताराम…2 ☆

इन परिस्थितियों में शांताराम और जयश्री के सम्बंध इतने बिगड़ गए कि उनका 13 नवम्बर 1956  को तलाक़ हो गया और शांताराम ने संध्या से 22 दिसम्बर 1957 को शादी कर ली।

संध्या से शादी के पहले शांताराम ने परिवार नियोजन ऑपरेशन करा लिया था और यह बात संध्या को बता दी थी, इसके बावजूद भी संध्या ने शांताराम की दूसरी पत्नी बनना स्वीकार किया था। वह शांताराम के पहली दो बीबियों से उत्पन्न सात बच्चों को सगी माँ सा प्यार करती थी और राजश्री को फ़िल्मों में केरियर बनाने में मदद करती रहीं। विमला बाई भी संध्या को छोटी बहन सा प्यार देती थी।

‘दो आंखें, बारह हाथ’ वी. शांताराम द्वारा निर्देशित 1957 की हिंदी फिल्म है, जिसमें उन्होंने अभिनय भी किया। उसे हिंदी सिनेमा के क्लासिक्स में से एक माना जाता है और यह मानवतावादी मनोविज्ञान पर आधारित है। इसने 8वें बर्लिन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में गोल्डन बीयर और संयुक्त राज्य अमेरिका के बाहर निर्मित सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए नई श्रेणी सैमुअल गोल्डविन इंटरनेशनल फिल्म अवार्ड में गोल्डन ग्लोब अवार्ड जीता।  यह फिल्म लता मंगेशकर द्वारा गाए और भरत व्यास द्वारा लिखित गीत “ऐ मल्लिक तेरे बंदे हम” के लिए भी याद की जाती है।

फिल्म ” ओपन जेल ” प्रयोग की कहानी से प्रेरित थी। सतारा के साथ औंध की रियासत में स्वतंत्रपुर सांगली जिले में अटपदी तहसील का हिस्सा है। इसे पटकथा लेखक जीडी मडगुलकर ने वी शांताराम को सुनाया था। 2005 में, इंडिया टाइम्स मूवीज ने फिल्म को बॉलीवुड की शीर्ष 25 फिल्मों में रखा था।  फिल्मांकन के दौरान वी शांताराम ने एक बैल के साथ लड़ाई में  एक आँख में चोट आई, लेकिन उसकी रोशनी बच गई।

उन्होंने फिल्म में एक युवा जेल वार्डन आदिनाथ का किरदार निभाया है, जो सदाचार के लोगों को पैरोल पर रिहा किए गए छह खतरनाक कैदियों का पुनर्वास करता है। वह इन कुख्यात, अक्सर सर्जिकल हत्यारों को ले जाता है और उन्हें एक जीर्ण देश के खेत पर उनके साथ कड़ी मेहनत करता है, उन्हें कड़ी मेहनत और दयालु मार्गदर्शन के माध्यम से पुनर्वास करता है क्योंकि वे अंततः एक महान फसल पैदा करते हैं। फिल्म एक भ्रष्ट शत्रु के गुर्गों के हाथों वार्डन की मौत के साथ समाप्त होती है, जो उस लाभदायक बाजार में कोई प्रतिस्पर्धा नहीं चाहता है जिसे वह नियंत्रित करता है।

यह फिल्म दर्शकों को कई दृश्यों के माध्यम से ऐसी दुनिया में ले जाती है जहाँ दर्शक मजबूत नैतिक सबक निर्धारित करते हैं कि कड़ी मेहनत, समर्पण और एकाग्रता के माध्यम से एक व्यक्ति कुछ भी पूरा कर सकता है। साथ ही, यह फिल्म बताती है कि यदि लोग अपनी ऊर्जा को एक योग्य कारण पर केंद्रित करते हैं, तो सफलता की गारंटी होती है।

 

उन्हें झनक-झनक पायल बाजे के लिए 1957 में बेस्ट फ़िल्म, 1958 में दो आँखे बारह हाथ के लिए बेस्ट फ़िल्म अवार्ड मिला था। 1985 में दादा साहब फाल्के अवार्ड और 1992 में मृत्यु उपरांत पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया था। उनकी स्मृति में 2001 में डाक टिकट जारी किया गया था। भारत सरकार और महाराष्ट्र सरकार ने मिलकर  V. Shantaram Motion Picture Scientific Research and Cultural Foundation स्थापित किया है जो प्रतिवर्ष 18 नवम्बर को व्ही शांताराम अवार्ड देता है। शांताराम की मृत्यु 30 अप्रेल 1990 को बम्बई में हुई। वे अंतिम समय में कोल्हापुर के निकट पनहला में बस गए थे। वे जिस घर में रहते थे उसे उनकी बेटी सरोज ने अब होटल में तब्दील कर दिया है।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश




मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ उत्सव कवितेचा # 10 – ही रैना ☆ श्रीमति उज्ज्वला केळकर

श्रीमति उज्ज्वला केळकर

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके कई साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आपने कुछ हिंदी साहित्य का मराठी अनुवाद भी किया है। आप कई पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी अब तक 60 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें बाल वाङ्गमय -30 से अधिक, कथा संग्रह – 4, कविता संग्रह-2, संकीर्ण -2 ( मराठी )।  इनके अतिरिक्त  हिंदी से अनुवादित कथा संग्रह – 16, उपन्यास – 6,  लघुकथा संग्रह – 6, तत्वज्ञान पर – 6 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  हम श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी के हृदय से आभारी हैं कि उन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा के माध्यम से अपनी रचनाएँ साझा करने की सहमति प्रदान की है। आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता  ‘ही रैना ’ 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – उत्सव कवितेचा – # 10 ☆ 

☆ ही रैना 

 

ही रैना

नवी नवेली

छैलछबिली

नखरेवाली

अलगद खाली

उतरून आली

तरल पाउली

चरचरावर

टाकीत आपुले

विलोल विभ्रम

मांडित अवघा

रंगरूपाचा

अपूर्व उत्सव

नाचनाचली

रंगरंगली

झिंगझिंगली

झुलत राहिली

 

बापुडवाणी

होऊन

पडली

क्षितीज कडेला

पुन्हा सकाळी

ही रैना

 

© श्रीमति उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री ‘ प्लॉट नं12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ , सांगली 416416 मो.-  9403310170



हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ सुशांत स्मृति सन्दर्भ – मैं वहां आ रहा …. ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। आज प्रस्तुत है  स्व सुशांत सिंह राजपूत जी की स्मृति में लिखी गई भावप्रवण कविता “ मैं वहां आ रहा …. । युवा पीढ़ी के चर्चित चेहरे ने कल अंतिम सांस ली । कारण कुछ भी रहा हो किन्तु , अंतिम निर्णय कदापि सकारात्मक नहीं था। जब जीवन में इतना संघर्ष किया तो जीवन से संघर्ष में क्यों हार गए ? विनम्र श्रद्धांजलि !)

☆ सुशांत स्मृति सन्दर्भ – मैं वहां आ रहा …. ☆ 

दम घुटता कसी हवाओं से

ज़हरीली फ़िज़ाओं से

एक फंदा सा लहराता

सजीली लताओं से

 

मेरे देश में प्यार

कम हो रहा

हर दिल में

ग़म रो रहा

 

तू कहाँ है माँ

कुच रुचता नहीं

चले जा रहे सब

कोई रुकता नहीं

 

मुझसे रहा जाता नहीं

मैं कहाँ जा रहा

मुझसे सहा जाता नहीं

मैं वहाँ आ रहा

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #51 ☆ लॉकडाउन  ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # लॉकडाउन ☆

ढाई महीने हो गए। लॉकडाउन चल रहा है। घर से बाहर ही नहीं निकले। किसी परिचित या अपरिचित से आमने-सामने बैठकर बतियाए नहीं। न कहीं आना, न कहीं जाना। कोई हाट-बाज़ार नहीं। होटल, सिनेमा, पार्टी नहीं। शादी, ब्याह नहीं। यहाँ तक कि मंदिर भी नहीं।. ..पचास साल की ज़िंदगी बीत गई।  कभी इस तरह का वक्त नहीं भोगा। यह भी कोई जीवन है? लगता है जैसे पागल हो जाऊँगा।

बात तो सही कह रहे हो तुम।…सुनो, एक बात बताना। घर में कोई बुज़ुर्ग है? याद करो, कितने महीने या साल हो गए उन्हें घर से बाहर निकले? किसी परिचित या अपरिचित से आमने-सामने बैठकर बतियाए? न कहीं आना, न कहीं जाना। कोई हाट-बाज़ार नहीं। होटल, सिनेमा, पार्टी नहीं। शादी, ब्याह नहीं। यहाँ तक कि मंदिर भी नहीं।…. उन्हें भी लगता होगा कि  यह भी कोई जीवन है? उन्हें भी लगता होगा जैसे पागल ही हो जाएँगे।

…लेकिन उनकी उम्र हो गई है। जाने की बेला है।… तुम्हें कैसे पता कि उनके जाने की बेला है। हो सकता है कि उनके पास पाँच साल बचे हों और तुम्हारे पास केवल दो साल।…बड़ी उम्र में शारीरिक गतिविधियों की कुछ सीमाएँ हो सकती हैं पर इनके चलते मृत्यु से पहले कोई जीना छोड़ दे क्या?

वे अनंत समय से लॉकडाउन में हैं। उन्हें ले जाओ बाहर, जीने दो उन्हें।…सुनो, यह चैरिटी नहीं है, तुम्हारा प्राकृतिक कर्तव्य है। उनके प्रति दृष्टिकोण बदलो। उनके लिए न सही, अपने स्वार्थ के लिए बदलो।

जीवनचक्र हरेक को धूप, छाँव, बारिश सब दिखाता है। स्मरण रहे, घात लगाकर बैठा जीवन का यह लॉकडाउन धीरे-धीरे  तुम्हारी ओर भी बढ़ रहा है।

©  संजय भारद्वाज

प्रात: 4:35 बजे, 6.6.2020

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]