हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 287 ☆ व्यंग्य – हमारे कार्यालय ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय व्यंग्य – ‘हमारे कार्यालय‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 287 ☆

☆ व्यंग्य ☆ हमारे कार्यालय

साढ़े  दस बजे कार्यालय खुलते हैं। खुलने का मतलब यह नहीं कि कर्मचारी अपनी सीटों पर आ जाते हों। खुलने का मतलब सिर्फ यह है कि साढ़े दस के बाद कभी भी दफ्तर के पट खुल जाते हैं। चपरासी मेज़ों पर कपड़ा मारने लगता है। जहां झाड़ू लगाने का रिवाज़ है वहां झाड़ू लगने लगती है। जो लोग साढ़े दस को साढ़े दस समझ कर आ जाते हैं वे झाड़ू से उठे गर्द-ग़ुबार से बचने के लिए बाहर भीतर परेड करते हैं।

ग्यारह बजे के आसपास कर्मचारी दफ्तर के कंपाउंड में घुसने लगते हैं। कंपाउंड में प्रवेश करते ही ड्यूटी शुरू हो जाती है। अपनी मेज़ पर पहुंचना ज़रूरी नहीं होता। बाहर ही सहयोगी, मित्र मिल जाते हैं। दो घड़ी बात करने का, पारिवारिक हाल-चाल लेने का, डी.ए. और बोनस के बारे में पूछने का मन होता है। इसके बाद  बरामदे के किसी कोने में गुटखा थूक कर कर्मक्षेत्र में प्रवेश किया जाता है। कार्यालय का कोई कोना असिंचित नहीं होता। लोग आते-जाते, सीढ़ियों से उतरते-चढ़ते निष्ठा से कोनों को सींचते हैं।

सवा ग्यारह बजे भी आधी मेज़ें खाली होती हैं। पूछने पर सहयोगी सच्चा सहयोगी-धर्म निबाहते हैं— ‘अभी आ जाएंगे’। फिर जोड़ देते हैं —‘अगर छुट्टी पर नहीं हुए तो।’ ज़्यादा पूछताछ करने वाले को डपट दिया जाता है— ‘अभी ग्यारह ही तो बजे हैं, थोड़ा घूमघाम कर आ जाओ।’ अगर चुस्ती और नियमितता का आदी कोई आदमी किसी काम का मारा दफ्तरों में आ जाता है तो यहां की चाल देखकर सकते में आ जाता है।

दफ्तर में प्रवेश करने पर कुछ मेज़ें खाली मिलती हैं, लेकिन कुछ मेज़ों के इर्द-गिर्द पूरा दफ्तर मिल जाता है। इन्हीं मेज़ों पर दो-चार लोग बैठे होंगे, बाकी इनके आसपास कुर्सियों पर होंगे। अबाध चर्चा चलती है— घोटालों की, क्रिकेट टेस्ट की, संभावित ट्रांसफरों की, नेताओं द्वारा साहब की रगड़ाई की। इसी बीच अगर काम का मारा कोई दफ्तर में आ जाता है तो वह कभी खाली  मेज़ को और कभी गप्पों में मशगूल इस गुच्छे को देखता है। बातचीत में बाधा डालने और रंगभंग करने की उसकी हिम्मत नहीं होती क्योंकि कर्मचारी पर काम करने की बाध्यता नहीं होती। ज़्यादा अकड़ दिखाओगे तो इतने चक्कर लगाने पड़ेंगे कि अंजर- पंजर ढीला हो जाएगा। क्या करोगे? शिकायत करोगे? जाओ, जहां जाना हो चले जाओ। अब तुम खड़े रहो, हम जा रहे हैं चाय पीने। लौट कर आने तक खड़े रहोगे तो सोचेंगे।

कर्मचारी-नेताओं की कुर्सियां हमेशा खाली रहती हैं। जन-सेवा में लगे रहते हैं, काम की फुरसत कहां? अफसर की हिम्मत कहां जो ज़बान हिलाए। नेता सुबह से शाम तक व्यस्त रहते हैं— मंहगाई, बोनस, भत्तों के लिए लड़ने में, अखबारों में विज्ञप्तियां देने में। एक ही काम वे नहीं कर सकते —कर्मचारियों को काम करने और उत्पादन बढ़ाने के लिए कहना। जो नेता कर्मचारियों को काम करने के लिए कहता है वह लोकप्रिय नहीं होता। इसलिए नेता ज़माने की नब्ज़ देखकर काम करते हैं।

कोई कर्मचारी मजबूरी में मेज़ पर सिर रखे झपकी लेता दिखता है। बीच-बीच में सिर उठाता है, अधखुली आंखों से इधर-उधर देखता है, फिर पूरा मुंह फाड़कर उबासी लेता है। लगता है गाल की खाल फट जाएगी। इसके बाद धीरे-धीरे फिर सिर को मेज़ पर टिका देता है। एकाध बार बीच में बुदबुदाता है— ‘बोर हो गए। कोई काम नहीं है।’

एक और मेज़ के पीछे एक ज़्यादा समझदार युवक है। वह काम के अभाव में कर्नल रंजीत या अमिताभ या कामिनी का उपन्यास पढ़ रहा है। बीच में कोई फाइल आकर उसके अध्ययन में बाधा डालती है। उसे फुर्ती से निपटा कर वह अगली मेज़ की तरफ धकेल देता है और फिर उपन्यास में डूब जाता है।

हमारे दफ्तरों की एक विशेषता यह है कि वहां काम न रहने पर भी किसी को बात करने की फुरसत नहीं होती। काम से आये आदमी को कर्मचारी बबर शेर की नज़र से देखता है। उसकी नज़र पढ़ते ही आदमी झुलस कर सिकुड़ जाता है। एक बार बाबू की नज़र पड़ने के बाद वह गिन गिन कर कदम रखता, दबे पांव मेज़ की तरफ बढ़ता है। दफ्तर के दरवाज़े में घुसते ही आदमी का मनोबल नीचे की तरफ गिरता है। आवाज़ धीमी हो जाती है। बहुत से लोग हकलाने लगते हैं। यहां सिर्फ छात्र-नेताओं और स्थानीय नेताओं की आवाज़ ही बुलन्द रह पाती है, बाकी लोग ज़्यादातर मिमियाते,चिरौरी करते दिखते हैं। अगर बाबू का मूड ठीक हुआ और टाइम हुआ तो काम कर देता है।

झपकी लेने वाले बाबू के सामने बड़ी देर से एक आदमी खड़ा अपनी उंगलियां मरोड़ रहा है। कुछ देर पहले उसने बाबू से कुछ पूछा था। सहमी हुई आवाज़ में दो-तीन बार दोहराने के बाद बाबू ने अपना सिर उठाया था और कुछ जवाब दिया था। जवाब इस तरह दिया गया था कि आदमी कुछ समझ नहीं पाया। बाबू ने फिर अपना सिर  मेज़ पर रख दिया था। आदमी ने फिर से बाबू से पूछा था। अब की बार बाबू ने सिर उठा कर भौंहें चढ़ाकर गुर्रा कर इस तरह जवाब दिया कि आदमी घबरा गया। जवाब फिर भी उसके पल्ले नहीं पड़ा। बाबू ने सिर वापस मेज़ पर टिका दिया।

आदमी अब पांव घसीटता बाबुओं के गुच्छे के पास पहुंच गया है। बातचीत में थोड़ा विराम होते ही वह अपना सवाल दोहराता है। एक बाबू गुटखा चबाते, कोई दो शब्दों का जवाब उसकी तरफ फेंक कर मुंह घुमा लेता है। गुटखे के उस पार से आया हुआ यह जवाब भी आदमी की पकड़ में नहीं आता। बाबू  फिर गप्पों में मशगूल हो गया है। अब उसकी सवाल पूछने की हिम्मत नहीं पड़ती।

ढीले पांवों से वह उपन्यास वाले बाबू की मेज़ पर पहुंचता है। भिनभिन करके अपना सवाल पूछता है। बाबू शायद सस्पेंस या रोमांस के शिखर पर है। वह बिना किताब से सिर उठाये कोई जवाब टपका देता है। जवाब फिर आदमी के सिर के ऊपर से गुज़र जाता है। हिम्मत बटोर कर वह फिर सवाल दोहराता है। अब बाबू उपन्यास से सिर उठाता है और ज़बान का कुछ बेहतर उपयोग करके कहता है, ‘सोहन बाबू के पास जाओ।’ ‘जाओ’ के साथ ही वह वापस सस्पेंस या रोमांस की दुनिया में उतर जाता है।

अब आदमी में यह हिम्मत नहीं कि पूछे कि सोहन बाबू कौन से हैं और कहां बिराजते हैं। हार कर वह बाहर बेंच पर एक टांग ऊपर रखकर बैठे चपरासी के पास पहुंचता है, बड़ी  शिष्टता से पूछता है, ‘सोहन बाबू कौन से हैं?’

चपरासी भी दुर्वासा के वंश का है। भृकुटि  तान कर मेज़ पर सोये बाबू की तरफ इशारा करता है, कहता है, ‘वह तो रहे। और कौन से हैं?’

आदमी वापस लौट कर मेज़ पर निद्रामग्न बाबू के सामने पहुंचता है। बाबू की नींद में खलल डालने के लिए उसका मन अपराधबोध से ग्रस्त है। वह फिर पुकार कर बाबू को इस नश्वर संसार में वापस बुलाता है। बाबू का सिर बांहों के ऊपर से धीरे-धीरे उठता है। आदमी कुछ दांत ज़्यादा निकालकर कहता है, ‘मेरी फाइल शायद आपके पास है।’

सोहन बाबू फिर  जबड़ा-तोड़ उबासी लेते हैं, फिर कहते हैं, ‘है न। हम तो आपसे दो-दो बार कहे कि हमारे पास है। आप सुने नहीं क्या?’

आदमी राहत  की सांस लेता है, कहता है, ‘तो फिर कष्ट करके निकाल दीजिए न।’

सोहन बाबू कष्ट करके अपना बायां हाथ उठाकर घड़ी देखते हैं, कहते हैं, ‘आधा घंटा में लंच होने वाला है। तीन बजे आइए, तभी देखेंगे।’

उनका सिर फिर मंज़िले-मक्सूद की तरफ झुकने लगता है और आदमी कुछ देर तक उनकी छवि निहारने के बाद पांव घसीटता दरवाज़े की तरफ बढ़ जाता है। चलते-चलते वह देखता है कि गुच्छे वाले बाबुओं ने अब ताश निकाल लिये हैं और उपन्यास वाला बाबू किताब पर झुका मन्द मन्द मुस्करा रहा है। लगता है हीरो हीरोइन का इश्क परवान चढ़ गया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – कविता ☆‘ग़ज़ल – आसमान बन सकूँ’ ☆ डॉ० दुर्गा सिन्हा ‘उदार‘ ☆

डॉ. दुर्गा सिन्हा ‘उदार‘

☆ ‘ग़ज़ल – आसमान बन सकूँ’ ☆ डॉ० दुर्गा सिन्हा ‘उदार‘ ☆

बेघर के लिए छत और मकान बन सकूँ

दिल चाहता है मैं भी, आसमान बन सकूँ ।।

*

बरसाऊँ नेह इतना, बादल में छुप के मैं

बस प्रेम-प्यार की मैं, दास्तान बन सकूँ।।

*

जुगनू सी चमक से करूँ, हर घर में मैं उजाला

ग़म की न रहे रात,बस विहान बन सकूँ।।

*

जीने की ख़्वाहिशों के,मैं रंग भरूँ इतने

पलकों में ख़्वाब, ख़ुशियों का जहान बन सकूँ।।

*

मुस्कान हो हर लब पर, अरमान यही है

है जुस्तजू कि,जश्न का सामान बन सकूँ।।

*

हर हाल में बेहाल, आज ज़िन्दगी यहाँ

क्या लिक्खूं कि,हर लब की मुस्कान बन सकूँ।।

*

हमने ‘उदार ‘ रह कर, सबको गले लगाया

सबके दिलों में, प्रेम की पहचान बन सकूँ।।

© डॉ० दुर्गा सिन्हा ‘उदार‘

कैलीफ़ॉर्नियां, अमेरिका

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 233 – मुक्तक सलिला ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक कविता – मुक्तक सलिला)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 233 ☆

☆ मुक्तक सलिला ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

बोल जब भी जबान से निकले,

पान ज्यों पानदान से निकले।

कान में घोल दे गुलकंद ‘सलिल-

ज्यों उजाला विहान से निकले।।

*

जो मिला उससे है संतोष नहीं,

छोड़ता है कुबेर कोष नहीं।

नाग पी दूध ज़हर देता है-

यही फितरत है, कहीं दोष नहीं।।

*

बाग़ पुष्पा है, महकती क्यारी,

गंध में गंध घुल रही न्यारी।

मन्त्र पढ़ते हैं भ्रमर पंडित जी-

तितलियाँ ला रही हैं अग्यारी।।

*

आज प्रियदर्शी बना है अम्बर,

शिव लपेटे हैं नाग- बाघम्बर।

नेह की भेंट आप लाई हैं-

चुप उमा छोड़ सकल आडम्बर।।

*

ये प्रभाकर ही योगराज रहा,

स्नेह-सलिला के साथ मौन बहा।

ऊषा-संध्या के साथ रास रचा-

हाथ रजनी का खुले-आम गहा।।

करी कल्पना सत्य हो रही,

कालिख कपड़े श्वेत धो रही।

कांति न कांता के चहरे पर-

कलिका पथ में शूल बो रही।।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१८-४-२०१४

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 242 ☆ आत्म चिंतन – आत्म जाग्रति… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना आत्म चिंतन – आत्म जाग्रति। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 242 ☆ आत्म चिंतन – आत्म जाग्रति

आनन्द की खोज में डूबते हुए व्यक्ति अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करता है । सब कुछ भुला केवल वर्तमान को सुधारने की कोशिश में लगे रहना। जल, जंगल, जमीन से जुड़कर जनचेतना को जाग्रत करना । इस कड़ी में मौन साधना का प्रमुख स्थान है । जितना ज्यादा हम जमीन से जुड़े हुए होते हैं उतना ही सफलता का ग्राफ बढ़ता जाता है।कहते हैं आत्मा में परमात्मा का निवास होता है। अहंकार और क्रोध दोनों हमें ऊर्जा देते हैं किन्तु इसका असर नकारात्मक होता है इससे हमारी बृद्धि क्रमशः रुकने लगती है । अलग- थलग विचारों से घिरा व्यक्ति न तो स्वयं कुछ कर पाता है न ही समाज की उन्नति में सहायक होता है । अधिकांश लोग एक ही तरह का जीवन चाहते हैं जिसमें भरपूर सुख सुविधा हो, नवीनता हो, प्रकृति का अधिक से अधिक सानिध्य हो । यही कारण है कि हम नदियों, पहाड़ों व बगीचों की सैर पर जाना चाहते हैं । वहाँ अधिक से अधिक समय बिताकर अपने को तरोताजा करते हैं और नयी चुनौतियों के लिए पूरी ऊर्जा के साथ तैयार हो जाते हैं ।

अपने आसपास जो भी दर्शनीय स्थान हैं वहाँ जाइये, नदियों, तालाबों, झरनों का न सिर्फ आनन्द उठाइए वरन उन्हें कैसे साफ और सुरक्षित रखें इसका भी ध्यान रखें । भारत तो कृषि प्रधान देश है यहाँ चारों ओर हरियाली है ,इससे जुड़ें, फसलों को उगाने में कितना परिश्रम लगता है इस पर भी विचार करें ।

अंतर्मन जब- जब झूमेगा, नाद अनाहद होगा…।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ || चैत्रपालवी || ☆ सौ. शुभदा भा. कुलकर्णी (विभावरी) ☆

सौ. शुभदा भास्कर कुलकर्णी (विभावरी)

? कवितेचा उत्सव ?

☆ || चैत्रपालवी || ☆ सौ. शुभदा भा. कुलकर्णी (विभावरी) 

साद देतसे चैत्राला, बहरातला वसंत.

गुढी उभारून करु नववर्षाचे स्वागत..

*

जिर्ण पर्णे टाकुनिया वृक्ष नव्याने नटले

मोहक चैत्रपालवी फांदी-फांदीवर डोले..

*

विविध रंगी फुलांचा सुगंध दरवळला

छत्र घेऊनी उन्हाचे गुलमोहर फुलला..

*

आम्रतरु मोहरला बाळकै-या खुणावती

हर्षभरे फांदीवरी राघू-मैना गाणी गाती..

*

रसभ-या फळांतुनी अमृतरस पाझरे..

गोड -आंबट द्राक्षांचे वेल दिसती साजरे…

*

वळिवाची एक सर तप्त ऊनं शमविते..

थंडगार वा-यावर हिरवाई डोलविते…

*

निसर्ग हा खुलेपणी भरभरुन देतसे..

मनी ‘चैत्रपालवी ‘ जपण्यास सांगतसे…

💦🌨️.

©  शुभदा भा.कुलकर्णी (विभावरी)

कोथरूड-पुणे.३८.

   मो.९५९५५५७९०८ 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “What a level of confidence!” ☆ श्री सुधीर करंदीकर ☆

श्री सुधीर करंदीकर

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☆ “What a level of confidence!” ☆ श्री सुधीर करंदीकर ☆

What a level of confidence !

माझ्या स्कुटरचा हेड लाईट ७ – ८ दिवसांपासून बिघडला होता. रोज बावधनहून घरी परत येतांना अंधार झालेला असतो, त्यामुळे हेड लाईट शिवाय गाडी चालवणे, जरा किंवा चांगलेच रिस्की वाटायचे. आळस केंव्हातरी अंगाशी येतोच – येतो, असं आपण मानतो. कल करे सो आज कर, वगैरे, अशा सगळ्या म्हणी मला पाठ आहेत. तरीही रिपेअर करायला मुहूर्त लागत नव्हता. आणि टाळाटाळ करण्याचं शुल्लक कारण होतं, आणि, ते म्हणजे, माझ्या नेहेमीच्या मेकॅनिकचे दुकान, माझ्या रोजच्या जाण्या – येण्याच्या रस्त्याच्या विरुद्ध बाजूला होते.  

त्यामुळे, लाईट दुरुस्त करायचा, म्हणजे सकाळी त्याच्याकडे गाडी न्यायची, तो म्हणणार, साहेब तासाभरानी या, करून ठेवतो. चालत घरी यायचं. तो वेळेत करून ठेवेल, यावर आपला कधीच विश्वास नसतो. म्हणून आपण त्याला फोन करणार, ‘झालीय का’.  मग चालत जाणार आणि गाडी आणणार.  दिव्यासारख्या किरकोळ कामाकरता इतके सोपस्कार नकोत, म्हणून, ‘आज करे सो कल कर, आणि कल करे सो परसो कर ’ असा माझा उलटा प्रवास सुरु होता.

काल रविवार होता. दुपारी आमचे युरोप मित्र श्री नेरकर यांच्याकडे गेलो होतो. घरी परत येतांना लक्षात आलं, की, मेकॅनिकचे दुकान याच रस्त्यावर आहे. विचार केला, की, गाडी त्याच्याकडे टाकू, रिपेअर होईपर्यंत इकडे -तिकडे बघू, टाईम पास करू. बायको घरी चालत जाईल.  ‘कल करे सो आज कर, आणि आज करे सो अभी’, असा  विचार पक्का झाला. कार्पोरेशन बॅंकेजवळ पोहोचलो आणि लक्षात आलं, की, इथे एक स्पेअर पार्टचं दुकान आहे आणि तिथे मेकॅनिक पण असतो. विचार बदलला. इथेच गाडी टाकली तर काम लवकर होणार, हे नक्की. 

बायको चालत घराकडे निघाली, मेकॅनिकला लाईटबद्दल सांगितले. त्यानी चेक केले आणि म्हणाला स्विच बदलावा लागेल. मी पैसे विचारले आणि दुकानात पैसे देईपर्यंत, यानी स्विच काढला – नवीन बसवला, म्हणाला साहेब गाडी झाली, घेऊन जा. जुना स्विच त्यानी माझ्या हातात दिला. 

मी : (सवयीप्रमाणे विचारलं) गाडी चालू करून लाईट लागतो, हे चेक केले ना ? 

मेकॅनिक : साहेब, त्याची काही गरज नाही. गाडी चालवतांना अंधार पडला, की, बटन ऑन करा. लाईट लागणार 

मी : एकदा चेक तर करून घ्या 

मेकॅनिक : साहेब, दुकानात सगळा  माल ओरिजिनल असतो. त्यामुळे मालावर माझा पूर्ण विश्वास आहे. काम करतांना, काम आणि मी, यामध्ये इतर काहीही  विचार मी कधीच मनात आणत नाही. त्यामुळे Always do it right, first time हा माझा मोटो आहे. काम चुकायची गुंजाईश – झिरो. 

मी (मनांत)  : हा माणूस आपल्यापेक्षा खूपच वर पोहोचलेला दिसतोय. 

मी मेकॅनिक ला थँक्स म्हणालो आणि गाडी सुरु केली. अजून लख्ख उजेड होता, पण सवयीप्रमाणे, माझा अंगठा लाईटच्या बटनावर गेला, की, निघण्यापूर्वी लाईट लावून बघावा म्हणून. पण लगेच विचार आला, की, मेकॅनिक ला बटणाच्या क्वालिटीवर आणि स्वतःच्या कामावर इतका विश्वास आहे, तर मला त्याच्या कामावर विश्वास ठेवायला काय हरकत आहे. माझा अंगठा आपोआप मागे आला. तेवढ्यात एका जवळच राहणाऱ्या मित्राचा फोन आला, थोडावेळ घरी येऊन जा, एक स्पेशल डिश आहे. 

मित्राकडून निघतांना चांगलाच अंधार पडला होता. गाडी सुरु केली. लाईट चे काम झाले आहे, हे माहित होते. बटन सुरु केलं आणि लाईट सुरु. मेकॅनिक बद्दल तोंडातून आपोआप शब्द आले – What a level of confidence !

घरी आल्यानंतर, मेकॅनिकचे, “काम करतांना, काम आणि मी, यामध्ये इतर काहीही  विचार मी मनात आणत नाही”, “Always do it right, first time हा माझा मोटो आहे. त्यामुळे काम चुकायची गुंजाईश – झिरो”, हे शब्द मनात घुमायला लागले. आणि मी भूतकाळात गेलो —

* कुणाच्या खात्यात बँकेत चेक भरायचा असेल, तर चेक लिहिल्यानंतर मी २-३ वेळा सगळे बरोबर आहे ना ! हे चेक करतो आणि बँकेत चेक बॉक्स मध्ये टाकण्यापूर्वी पुन्हा बघतो, कि, काही चुकले तर नाही ना !

* घराला कुलूप लावून बाहेरगावी जायचे असेल, तर ५-६ वेळा तरी कुलूप ओढून बघतो. नंतर गाडीत बसल्यानंतर काही वेळा मनात रुख-रुख राहते, की, कुलूप बरोबर लागलय ना, कार्पोरेशन चा पाण्याचा नळ बघायचा राहिला आहे – सुरु राहिला असेल तर काय होणार 

* कार लॉक करून आपण घरात येतो आणि मनात पाल चुकचुकते कि पार्किंग लाईट ऑन तर नसतील 

* एकदा आम्ही मित्र कारनी बाहेरगावी निघालो. थोडं पुढे गेलो आणि एक जण म्हणाला, गाडी मागे घे. दाराला बाहेरून कुलूप लावले आहे का नाही, आठवत नाही. संध्या चोऱ्या खूप होतायत. एक जण म्हणाला, बाहेरून एक्स्ट्रा कुलूप लावणे जास्त अनसेफ आहे. चोरांना खात्री असते, की, आत कुणी नाही आणि आपला मार्ग मोकळा आहे. लॅच चे कुलूप जास्त सेफ आहे, काळजी करू नको. पण मित्राला ते पटले नाही. आम्ही कार वळवली. घरी गेलो. कुलूप व्यवस्थित होते. तरी मित्रानी २-३ दा ओढून बघितले आणि आम्ही निघालो. 

* बऱ्याच वेळा आपण छोटा मोठा प्रवास करून, एखाद्या जागृत देवस्थानाला जातो. आत जातांना काहीतरी इच्छा घेऊनच आत जातो. मुद्दाम पूजेचे साहित्य विकत घेतो, फुलं घेतो. आत गेल्यावर व्यवस्थित दर्शन होतं. प्रसन्न मनानी आपण बाहेर पडतो. आणि मंदिराच्या बाहेर पडल्यावर लक्षात येतं, की, अरे, देवाकडे जे मागण्याकरता आपण इथपर्यंत आलो होतो, ते तर मागायचंच राहीलं .  

अशी भली मोठी यादी नजरेसमोरून जायला लागली. माझ्यासारखे अजून बरेच ‘मी’ नक्कीच असतील. आणि सगळ्यांचे असेच वेगळे वेगळे अनुभव पण असतील. या आपल्या अशा सवयीमुळे, वेळ तर वाया जातोच जातो आणि ताणतणाव पण वाढतात. जेवतांना कधी जोरदार ठसका लागतो, कधी पाय घसरून पडायला होतं, कधी भाजी चिरतांना चाकू हाताला लागतो, अपघात होतात, तब्येत बिघडते वगैरे, वगैरे.  

आणि या सगळ्याचं कारण काय? तर, कहींपे निगाहे – कहींपे निशाना आणि  Not doing things Right, at first time. ‘जहापे निगाहे – वहींपे निशाना’ हे जर जमवलं, तर काहीच कठीण नसतं. ह्याच आधारावर  स्वयंवर जिंकल्याचं महाभारतामधलं उदाहरण आहेच. आणि त्याकरता गरज आहे – मन लावून काम करण्याची – हातातले काम आणि मी यामध्ये इतर विचार न आणण्याची. असं म्हणतात, आंघोळ करत असाल तर – फक्त मी आणि आंघोळ यावर लक्ष ठेवा, जेवत असाल तर – समोरचे चविष्ट अन्न चावून खाणे आणि  मिळणारा आनंद यावर लक्ष केंद्रित करा. टीव्ही बघत असाल तर फक्त टीव्ही एन्जॉय करा. टॉयलेट ला गेला असाल तर फक्त तेच – फोन नाही / फेस बुक नाही.  एका वेळेस एकच काम आणि ते पण मन झोकून. 

मी मनात खूणगाठ बांधली, की, या क्षणापासून Do it right – First time चा अवलंब करायचा. रोज सकाळी उठल्यावर मेकॅनिकचे विचार, श्लोक म्हटल्यासारखे १० वेळा म्हणायचे. रोज रात्री झोपण्यापूर्वी मेकॅनिकचे विचार, श्लोक म्हटल्यासारखे १० वेळा म्हणायचे, म्हणजे ते अंतर्मनात रुजतील. असं सांगतात, की, एखादी गोष्ट सतत ३० दिवस केली, तर ती सवय लागते आणि ६० दिवस केली, तर तो स्वभाव बनतो. 

आणि मग एक दिवस, आपलेच अंतर्मन, आपल्या कामाकडे बघून म्हणेल – What a level of confidence!

© श्री सुधीर करंदीकर

मो. 9225631100 – ईमेल – srkarandikar@gmail. com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ “का??…” ☆ श्री मंगेश मधुकर ☆

श्री मंगेश मधुकर

🔆 जीवनरंग 🔆

☆ “का??…” ☆ श्री मंगेश मधुकर

“ का? ”

रात्रीचे साडे अकरा वाजले तरी श्रीकांत लॅपटॉपवर काम करत होता. रूमचा लाइट पाहून आईनं दार वाजवलं.

“आई, काय काम आहे. झोप ना”नेहमीप्रमाणे श्रीकांत खेकसला.

“ए, विनाकारण ओरडू नकोस”

“सॉरी!! मातोश्री. प्रोजेक्टचं काम चालूयं. ते झालं की झोपतो”

“आधी दार उघड”

“काय कटकट ये”चडफडत श्रीकांतनं दार उघडलं.

“प्रोजेक्ट किती अर्जंट आहे”

“विशेष नाही”

“मग लवकर झोप”

“का?”

“सकाळी लवकर उठायचं आहे”

“सुट्टी आहे. मी निवांत उठणार”

“उद्या गुढीपाडवा पण आहे”

“सो व्हॉट…”

“सकाळी तुला गुढी उभारून पूजा करायचीय.”

“हे कधी ठरलं”श्रीकांत वैतागला.

“आत्ताच”

“गप ना. उगीच छळू नकोस.”

“आठ वाजेपर्यंत गुढी उभारु.”

“इतक्या सकाळी? ”जांभई देत श्रीकांत म्हणाला.

“खरंतर सात वाजताच उभारली पाहिजे पण उशीर झालाय म्हणून तुला सवलत. ओके!!”

“नॉट ओके, मला एक कळत नाही जर संध्याकाळी काढूनच टाकायची तर गुढी उभारायची कशाला?”

“शास्त्र असते ते! ! ”आई हसत हसत म्हणाली.

“बघ. तुझ्याकडे उत्तर नाहीये आणि हसलीस म्हणजे माझं म्हणणं तुला पटलं.”

“अजिबात नाही. आपला सण परांपरेनुसारच साजरा करायचा.”

“गुढी उभरण्या मागंच लॉजिक काय?”

“तू नवीन पिढीतला आजच्या भाषेत बोलायचं तर झेड जनरेशन मधला ना..”

“त्याचं इथं काय संबंध?”

“तुम्ही लोक खूप हुशाssssssर. मग गुढीचं उभरण्यामागचं लॉजिक गुगल कर. चॅट जीपीटी ला विचार.”

“ते तर करणारच आहे. सकाळी तुला सांगतो!!” श्रीकांत.

“चला त्यानिमित्तान तुला सणांची माहिती होईल.”

“येस. माहिती असणं केव्हाही चांगलं ना. नवीन पद्धतींचा स्वीकार करावा. स्वतःला अपडेट करावं”

“शंभर टक्के मान्य पण हा सिलेटीव्ह अप्रोच नको.”

“म्हणजे”

“सोकोल्ड मॉडर्न आणि झेड जनरेशनमध्ये भारतीय सणांना नावं ठेवण्याचा ट्रेंड आहे. प्रत्येक सणाविषयी काही ना काही तक्रारी असतातच. हे कशाला? असंच कशाला? हेच का करायचं? वगैरे वगैरे…” 

“अच्छा म्हणजे प्रश्न विचारायचे नाहीत. ”श्रीकांत.

“जरूर विचारा परंतु १४ फेब्रुवारी, ३१ डिसेंबर, वर्षभर साजरे केले जाणारे ‘डे’, त्याच त्या पार्ट्या आणि अजून काही.. साजरे करताना चकारही शब्द तोंडातून निघत नाही मात्र भारतीय सणांमध्येच लॉजिक शोधता. माझा आक्षेप त्यावर आहे.”

“कुठचा विषय कुठं नेतेयेस”

“बरोबर बोलतेय. सणवार आले की हे कशासाठी? का? असं तुझ्या तोंडून बऱ्याचदा ऐकलयं.”

“परत तेच. यात काहीच चुकीचं नाही. तुझ्याकडे उत्तर असेल तर कनव्हीन्स मी.”

“मला एवढचं सांगायचं की सरसकट नावं ठेवणं सोप्पंयं त्याऐवजी आपले सण, ते साजरा करण्याच्या वेगवेगळ्या पद्धती याविषयी नीट माहिती घे. मग बोल. खात्रीने सांगते की प्रत्येक ठिकाणी लॉजिक सापडेल. ” श्रीकांत विचारात पडला.

“आई, यावर नंतर बोलू. आता रात्र खूप झालीय. तू म्हणशील तसं करतो. सकाळी सातला गुढी उभारू हॅपी!! ”

“ठीकयं पण आधी माहिती घे आणि मनापासून वाटलं तर कर उगीचच जुलमाचा रामराम नको.” आई 

“दोन्ही बाजूनं कसं काय बोलतेस”

“बोलाव लागतं. विनाकारण सणांना टार्गेट केल्यावर राग येणारच.”

“आय एम सॉरी! ! तुला दुखवायचं नव्हतं”

“प्रश्न माझ्या दुखवण्याचा नाहीये. झपाट्यानं बदलणाऱ्या जगात सगळंच तात्पुरतं झालेलं असताना वर्षानुवर्षे हे सण, परंपरा आजही उत्साहात, जल्लोषात, आनंदात साजरे केले जातात. ही बाब खरंच अभिमानाची आणि कौतुकास्पद आहे. एवढंच माझं म्हणणं आहे. ठीक आहे झोप आता, बाकी उद्या बोलू. गुड नाइट”.

बरोब्बर सात वाजता अत्यंत उत्साहात श्रीकांतनं गुढी उभारली तेव्हा आईच्या चेहऱ्यावर प्रचंड कौतुक होतं. श्रीकांतनं कडुलिंबाचं एक कोवळ पान खाल्लं अन एकेक आई-बाबांना दिलं.

“अरे वा, गुढीपाडव्याचा अभ्यास केलेला दिसतोय.” आई 

“हो, थॅंकयू आई”

“तुलासुद्धा थॅंकयू”

“का?”

“माझं ऐकलं म्हणून”आई.

“तुझं ऐकल्यानं माझाच फायदा झाला. पाडवा म्हणजे गुढी अन गोड पदार्थाचं जेवण आणि सुट्टी एवढचं माहिती होतं. आपलं बोलणं झाल्यावर इंटरनेटवर गुढीपाडव्याविषयी चांगली, नवीन आणि इंटरेस्टिंग माहिती मिळाली आणि आपल्या प्रत्येक सण का? आणि विशिष्ट पद्धतीनेच साजरा करण्यामागचं लॉजिक समजलं.”

“म्हणूनच तर पिढ्या बदलल्या तरी सण दिमाखात साजरे होतायेत. ”आई.

“मी ठरवलयं की माहिती नसताना किवा अर्धवट माहितीच्या आधारे व्यक्त होणाऱ्या जमान्यात यापुढे प्रत्येक सण का? साजरा करायचा याविषयी सोशल मिडियावर लिहिणार. याची सुरुवात आजपासून…”

“चांगल्या उपक्रमासाठी खूप खूप शुभेच्छा!! आता नवीन परंपरेचे पालन करू” आई.

“म्हणजे”

“गुढीसोबत सेल्फी तर पाहिजेच ना” लगेचच आई, बाबा, श्रीकांत तिघांनीही गुढीसोबत फोटो काढले.

© श्री मंगेश मधुकर

मो. 98228 50034

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 244 – गझल – आकाश भावनांचे…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 244 – विजय साहित्य ?

☆ गझल – आकाश भावनांचे…! ☆

आकाश भावनांचे गझले तुझ्याचसाठी,

हे विश्व आठवांचे मतले तुझ्याचसाठी…! 

  *         

आकाश बोलणारे जमले तुझ्याचसाठी,

हे पंख, ही भरारी, इमले तुझ्याचसाठी…!

 *   

माणूस वाचताना, टाळून पान गेलो.

काळीज आसवांचे, तरले तुझ्याचसाठी..!

*

सारे ऋतू शराबी, देऊन झींग गेले

प्याले पुन्हा नव्याने, भरले तुझ्याचसाठी..! 

*

हा नाद वंचनांचा , झाला मनी प्रवाही

वाहतो कुठे कसा मी?, रमलो तुझ्याच साठी..!       

*

जखमा नी वेदनांची,आभूषणे मिळाली

लेऊन  साज सारा, नटलो तुझ्याचसाठी..!

*

काव्यात प्राण माझा, शब्दांत अर्थ काही

प्रेमात प्रेम गात्री, वसले तुझ्याचसाठी..!

*

आयुष्य सांधताना,जाग्या  अनेक घटना

हे देह भान माझे हरले तुझ्याचसाठी…!

*

कविराज रंगवीतो, रंगातल्या क्षणांना

चित्रात भाव माझे, उरले तुझ्याचसाठी..!

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ शब्दांची वादळं… ☆ डॉ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डॉ. निशिकांत श्रोत्री

? मनमंजुषेतून ?

☆ शब्दांची वादळं… ☆ डॉ. निशिकांत श्रोत्री ☆

सुमारे तीस – पस्तीस वर्षांपूर्वीची घटना आहे ही. आता मी जनसामान्यांबरोबरच साहित्यिकांमध्ये देखील प्रथितयश कवी म्हणून ओळखला जाऊ लागलो होतो. तरीही आपल्यापेक्षा ज्येष्ठ आणि श्रेष्ठ हे थोरच नाही का !

पुण्याच्या टिळक स्मारक मंदिरात भरलेल्या कवी संमेलनात मी माझी ‘शब्दांची वादळं’ ही कविता सादर करायला व्यासपीठावर उभा होतो. हे सुनीत आहे. मी पहिलाच चरण म्हटला,

‘शब्दांची अनेक वादळं आली, कधी तसा डगमगलो नाही ‘.

आणि अचानक माझ्या मागून, व्यासपीठाच्या मागील भागातून ‘वाः! सुंदर’ अशी दाद मिळाली. मी चमकून, तरीही कृतज्ञतेने मागे वळून पाहिले; आणि काय सांगू तुम्हाला, ही दाद मिळाली होती विंदा करंदीकर आणि मंगेश पाडगावकर या दोन ज्येष्ठ आणि श्रेष्ठ कविवर्यांकडून ! माझ्या अंगावर शहारे आले आणि मोठ्या उत्साहात मी ती संपूर्ण कविता सादर केली. कवितेला टाळ्यांच्या कडकडाटाचा प्रतिसाद तर मिळालाच; शिवाय मेनका प्रकाशनच्या पु. वि. बेहेरे यांनी माझा दुसरा काव्यसंग्रह प्रकाशित करण्याची इच्छा प्रकट केली. साहजिकच या काव्यसंग्रहाचे नाव आहे ‘ शब्दांची वादळं ‘!

आज घेऊन आलो आहे ही शब्दांची वादळं कविता: – – 

☆ शब्दांची वादळं ☆

शब्दांची अनेक वादळं आली कधी तसा डगमगलो नाही 

नजरांचे कुत्सित झेलले बाण विचलित असा झालोच नाही

आपण बरे आपले बरे ही वृत्ती कधी सोडली नाही

मार्ग आपला शोधत राहिलो कानावरचं मनावर घेतलंच नाही

नजर माझी वाईट म्हणत त्यांच्या वाटे गेलोच नाही 

नजरेसमोर आले त्यांना मात्र कधी टाळले नाही 

बोलणाराची वृत्तीच वाईट त्याचा बाऊ केलाच नाही

अनुभवाचे बसले चटके दुर्लक्ष करता आलं नाही 

*

अपयशाचा धनी झालो माझ्या, त्यांच्या खोटं नाही

सावली माझी वैरीण झाली, शुभ तिला ठाऊक नाही 

नजर माझी अशुभ म्हणता सत्याला या पडदा नाही

दृष्टी माझी टाळून जाता मांगल्याला अडचण नाही 

भीती आता माझी मलाच अपयशाला वाण नाही 

नको आरसा म्हणून मला असली दृष्ट सोसवत नाही

© डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम. डी. , डी. जी. ओ.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 118 – देश-परदेश – मत चूको चौहान ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 118 ☆ देश-परदेश –  मत चूको चौहान ☆ श्री राकेश कुमार ☆

मौके पर चौका लगाना चाहिए। ये सब दशकों से सुनते आ रहे हैं। विगत वर्ष ” राष्ट्रीय आडंबर विवाह ” सम्पन्न हुआ था। हमने उक्त परिवार के एक खास से पूछा, हमें बुलाना भूल गए थे। उसने तत्परता से बताया यदि हम उसको अपनी दिल की बात पहले बता देते तो इटली से लेकर जामनगर सभी कार्यक्रम में शिरकत कर चुके होते। दिल की बात बताने में हम हमेशा लेट लतीफ़ ही रहते हैं। युवा अवस्था में अपने पहले प्यार का इज़हार करने में भी चूक गए थे। खैर छोड़िए “अब पछताए होत क्या जब चिड़िया ही दूसरे के साथ उड़ गई”

 उक्त विवाह में भाग ना ले सकने का दुःख के लिए बस इतना ही कह सकते हैं, कि ” जिस तन लागे, वो तन जाने”

इस बार हमने मत चूको चौहान को अपना अड़ियल मानते हुए, दूसरे घराने के  परिवार के विवाह के निमंत्रण प्राप्त करने के लिए ” सारे घोड़े खोल दिए” थे। अपने मुम्बई की पोस्टिंग्स के कॉन्टैक्ट्स हो या, दिल्ली की सत्ता के गलियारे वाले संबंध हो। यहां ये स्पष्ट कर देवे, इसी मौके के लिए विगत वर्ष हमने दस दिन का गुजरात दौरा भी किया था।

लाखों जतन कर लो पर होता वही है, जो लिखा होता है। दूसरे परिवार ने तो इतनी सादगी से विवाह किया, कि पड़ोसियों को भी नहीं बुलाया हैं, फिर हम किस खेत की मूली हैं।

इस सादगी पूर्ण विवाह के लिए दूसरे परिवार का साधुवाद।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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