(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय व्यंग्य – ‘हमारे कार्यालय‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 287 ☆
☆ व्यंग्य ☆ हमारे कार्यालय ☆
साढ़े दस बजे कार्यालय खुलते हैं। खुलने का मतलब यह नहीं कि कर्मचारी अपनी सीटों पर आ जाते हों। खुलने का मतलब सिर्फ यह है कि साढ़े दस के बाद कभी भी दफ्तर के पट खुल जाते हैं। चपरासी मेज़ों पर कपड़ा मारने लगता है। जहां झाड़ू लगाने का रिवाज़ है वहां झाड़ू लगने लगती है। जो लोग साढ़े दस को साढ़े दस समझ कर आ जाते हैं वे झाड़ू से उठे गर्द-ग़ुबार से बचने के लिए बाहर भीतर परेड करते हैं।
ग्यारह बजे के आसपास कर्मचारी दफ्तर के कंपाउंड में घुसने लगते हैं। कंपाउंड में प्रवेश करते ही ड्यूटी शुरू हो जाती है। अपनी मेज़ पर पहुंचना ज़रूरी नहीं होता। बाहर ही सहयोगी, मित्र मिल जाते हैं। दो घड़ी बात करने का, पारिवारिक हाल-चाल लेने का, डी.ए. और बोनस के बारे में पूछने का मन होता है। इसके बाद बरामदे के किसी कोने में गुटखा थूक कर कर्मक्षेत्र में प्रवेश किया जाता है। कार्यालय का कोई कोना असिंचित नहीं होता। लोग आते-जाते, सीढ़ियों से उतरते-चढ़ते निष्ठा से कोनों को सींचते हैं।
सवा ग्यारह बजे भी आधी मेज़ें खाली होती हैं। पूछने पर सहयोगी सच्चा सहयोगी-धर्म निबाहते हैं— ‘अभी आ जाएंगे’। फिर जोड़ देते हैं —‘अगर छुट्टी पर नहीं हुए तो।’ ज़्यादा पूछताछ करने वाले को डपट दिया जाता है— ‘अभी ग्यारह ही तो बजे हैं, थोड़ा घूमघाम कर आ जाओ।’ अगर चुस्ती और नियमितता का आदी कोई आदमी किसी काम का मारा दफ्तरों में आ जाता है तो यहां की चाल देखकर सकते में आ जाता है।
दफ्तर में प्रवेश करने पर कुछ मेज़ें खाली मिलती हैं, लेकिन कुछ मेज़ों के इर्द-गिर्द पूरा दफ्तर मिल जाता है। इन्हीं मेज़ों पर दो-चार लोग बैठे होंगे, बाकी इनके आसपास कुर्सियों पर होंगे। अबाध चर्चा चलती है— घोटालों की, क्रिकेट टेस्ट की, संभावित ट्रांसफरों की, नेताओं द्वारा साहब की रगड़ाई की। इसी बीच अगर काम का मारा कोई दफ्तर में आ जाता है तो वह कभी खाली मेज़ को और कभी गप्पों में मशगूल इस गुच्छे को देखता है। बातचीत में बाधा डालने और रंगभंग करने की उसकी हिम्मत नहीं होती क्योंकि कर्मचारी पर काम करने की बाध्यता नहीं होती। ज़्यादा अकड़ दिखाओगे तो इतने चक्कर लगाने पड़ेंगे कि अंजर- पंजर ढीला हो जाएगा। क्या करोगे? शिकायत करोगे? जाओ, जहां जाना हो चले जाओ। अब तुम खड़े रहो, हम जा रहे हैं चाय पीने। लौट कर आने तक खड़े रहोगे तो सोचेंगे।
कर्मचारी-नेताओं की कुर्सियां हमेशा खाली रहती हैं। जन-सेवा में लगे रहते हैं, काम की फुरसत कहां? अफसर की हिम्मत कहां जो ज़बान हिलाए। नेता सुबह से शाम तक व्यस्त रहते हैं— मंहगाई, बोनस, भत्तों के लिए लड़ने में, अखबारों में विज्ञप्तियां देने में। एक ही काम वे नहीं कर सकते —कर्मचारियों को काम करने और उत्पादन बढ़ाने के लिए कहना। जो नेता कर्मचारियों को काम करने के लिए कहता है वह लोकप्रिय नहीं होता। इसलिए नेता ज़माने की नब्ज़ देखकर काम करते हैं।
कोई कर्मचारी मजबूरी में मेज़ पर सिर रखे झपकी लेता दिखता है। बीच-बीच में सिर उठाता है, अधखुली आंखों से इधर-उधर देखता है, फिर पूरा मुंह फाड़कर उबासी लेता है। लगता है गाल की खाल फट जाएगी। इसके बाद धीरे-धीरे फिर सिर को मेज़ पर टिका देता है। एकाध बार बीच में बुदबुदाता है— ‘बोर हो गए। कोई काम नहीं है।’
एक और मेज़ के पीछे एक ज़्यादा समझदार युवक है। वह काम के अभाव में कर्नल रंजीत या अमिताभ या कामिनी का उपन्यास पढ़ रहा है। बीच में कोई फाइल आकर उसके अध्ययन में बाधा डालती है। उसे फुर्ती से निपटा कर वह अगली मेज़ की तरफ धकेल देता है और फिर उपन्यास में डूब जाता है।
हमारे दफ्तरों की एक विशेषता यह है कि वहां काम न रहने पर भी किसी को बात करने की फुरसत नहीं होती। काम से आये आदमी को कर्मचारी बबर शेर की नज़र से देखता है। उसकी नज़र पढ़ते ही आदमी झुलस कर सिकुड़ जाता है। एक बार बाबू की नज़र पड़ने के बाद वह गिन गिन कर कदम रखता, दबे पांव मेज़ की तरफ बढ़ता है। दफ्तर के दरवाज़े में घुसते ही आदमी का मनोबल नीचे की तरफ गिरता है। आवाज़ धीमी हो जाती है। बहुत से लोग हकलाने लगते हैं। यहां सिर्फ छात्र-नेताओं और स्थानीय नेताओं की आवाज़ ही बुलन्द रह पाती है, बाकी लोग ज़्यादातर मिमियाते,चिरौरी करते दिखते हैं। अगर बाबू का मूड ठीक हुआ और टाइम हुआ तो काम कर देता है।
झपकी लेने वाले बाबू के सामने बड़ी देर से एक आदमी खड़ा अपनी उंगलियां मरोड़ रहा है। कुछ देर पहले उसने बाबू से कुछ पूछा था। सहमी हुई आवाज़ में दो-तीन बार दोहराने के बाद बाबू ने अपना सिर उठाया था और कुछ जवाब दिया था। जवाब इस तरह दिया गया था कि आदमी कुछ समझ नहीं पाया। बाबू ने फिर अपना सिर मेज़ पर रख दिया था। आदमी ने फिर से बाबू से पूछा था। अब की बार बाबू ने सिर उठा कर भौंहें चढ़ाकर गुर्रा कर इस तरह जवाब दिया कि आदमी घबरा गया। जवाब फिर भी उसके पल्ले नहीं पड़ा। बाबू ने सिर वापस मेज़ पर टिका दिया।
आदमी अब पांव घसीटता बाबुओं के गुच्छे के पास पहुंच गया है। बातचीत में थोड़ा विराम होते ही वह अपना सवाल दोहराता है। एक बाबू गुटखा चबाते, कोई दो शब्दों का जवाब उसकी तरफ फेंक कर मुंह घुमा लेता है। गुटखे के उस पार से आया हुआ यह जवाब भी आदमी की पकड़ में नहीं आता। बाबू फिर गप्पों में मशगूल हो गया है। अब उसकी सवाल पूछने की हिम्मत नहीं पड़ती।
ढीले पांवों से वह उपन्यास वाले बाबू की मेज़ पर पहुंचता है। भिनभिन करके अपना सवाल पूछता है। बाबू शायद सस्पेंस या रोमांस के शिखर पर है। वह बिना किताब से सिर उठाये कोई जवाब टपका देता है। जवाब फिर आदमी के सिर के ऊपर से गुज़र जाता है। हिम्मत बटोर कर वह फिर सवाल दोहराता है। अब बाबू उपन्यास से सिर उठाता है और ज़बान का कुछ बेहतर उपयोग करके कहता है, ‘सोहन बाबू के पास जाओ।’ ‘जाओ’ के साथ ही वह वापस सस्पेंस या रोमांस की दुनिया में उतर जाता है।
अब आदमी में यह हिम्मत नहीं कि पूछे कि सोहन बाबू कौन से हैं और कहां बिराजते हैं। हार कर वह बाहर बेंच पर एक टांग ऊपर रखकर बैठे चपरासी के पास पहुंचता है, बड़ी शिष्टता से पूछता है, ‘सोहन बाबू कौन से हैं?’
चपरासी भी दुर्वासा के वंश का है। भृकुटि तान कर मेज़ पर सोये बाबू की तरफ इशारा करता है, कहता है, ‘वह तो रहे। और कौन से हैं?’
आदमी वापस लौट कर मेज़ पर निद्रामग्न बाबू के सामने पहुंचता है। बाबू की नींद में खलल डालने के लिए उसका मन अपराधबोध से ग्रस्त है। वह फिर पुकार कर बाबू को इस नश्वर संसार में वापस बुलाता है। बाबू का सिर बांहों के ऊपर से धीरे-धीरे उठता है। आदमी कुछ दांत ज़्यादा निकालकर कहता है, ‘मेरी फाइल शायद आपके पास है।’
सोहन बाबू फिर जबड़ा-तोड़ उबासी लेते हैं, फिर कहते हैं, ‘है न। हम तो आपसे दो-दो बार कहे कि हमारे पास है। आप सुने नहीं क्या?’
आदमी राहत की सांस लेता है, कहता है, ‘तो फिर कष्ट करके निकाल दीजिए न।’
सोहन बाबू कष्ट करके अपना बायां हाथ उठाकर घड़ी देखते हैं, कहते हैं, ‘आधा घंटा में लंच होने वाला है। तीन बजे आइए, तभी देखेंगे।’
उनका सिर फिर मंज़िले-मक्सूद की तरफ झुकने लगता है और आदमी कुछ देर तक उनकी छवि निहारने के बाद पांव घसीटता दरवाज़े की तरफ बढ़ जाता है। चलते-चलते वह देखता है कि गुच्छे वाले बाबुओं ने अब ताश निकाल लिये हैं और उपन्यास वाला बाबू किताब पर झुका मन्द मन्द मुस्करा रहा है। लगता है हीरो हीरोइन का इश्क परवान चढ़ गया।
☆ “What a level of confidence!” ☆ श्री सुधीर करंदीकर ☆
What a level of confidence !
माझ्या स्कुटरचा हेड लाईट ७ – ८ दिवसांपासून बिघडला होता. रोज बावधनहून घरी परत येतांना अंधार झालेला असतो, त्यामुळे हेड लाईट शिवाय गाडी चालवणे, जरा किंवा चांगलेच रिस्की वाटायचे. आळस केंव्हातरी अंगाशी येतोच – येतो, असं आपण मानतो. कल करे सो आज कर, वगैरे, अशा सगळ्या म्हणी मला पाठ आहेत. तरीही रिपेअर करायला मुहूर्त लागत नव्हता. आणि टाळाटाळ करण्याचं शुल्लक कारण होतं, आणि, ते म्हणजे, माझ्या नेहेमीच्या मेकॅनिकचे दुकान, माझ्या रोजच्या जाण्या – येण्याच्या रस्त्याच्या विरुद्ध बाजूला होते.
त्यामुळे, लाईट दुरुस्त करायचा, म्हणजे सकाळी त्याच्याकडे गाडी न्यायची, तो म्हणणार, साहेब तासाभरानी या, करून ठेवतो. चालत घरी यायचं. तो वेळेत करून ठेवेल, यावर आपला कधीच विश्वास नसतो. म्हणून आपण त्याला फोन करणार, ‘झालीय का’. मग चालत जाणार आणि गाडी आणणार. दिव्यासारख्या किरकोळ कामाकरता इतके सोपस्कार नकोत, म्हणून, ‘आज करे सो कल कर, आणि कल करे सो परसो कर ’ असा माझा उलटा प्रवास सुरु होता.
काल रविवार होता. दुपारी आमचे युरोप मित्र श्री नेरकर यांच्याकडे गेलो होतो. घरी परत येतांना लक्षात आलं, की, मेकॅनिकचे दुकान याच रस्त्यावर आहे. विचार केला, की, गाडी त्याच्याकडे टाकू, रिपेअर होईपर्यंत इकडे -तिकडे बघू, टाईम पास करू. बायको घरी चालत जाईल. ‘कल करे सो आज कर, आणि आज करे सो अभी’, असा विचार पक्का झाला. कार्पोरेशन बॅंकेजवळ पोहोचलो आणि लक्षात आलं, की, इथे एक स्पेअर पार्टचं दुकान आहे आणि तिथे मेकॅनिक पण असतो. विचार बदलला. इथेच गाडी टाकली तर काम लवकर होणार, हे नक्की.
बायको चालत घराकडे निघाली, मेकॅनिकला लाईटबद्दल सांगितले. त्यानी चेक केले आणि म्हणाला स्विच बदलावा लागेल. मी पैसे विचारले आणि दुकानात पैसे देईपर्यंत, यानी स्विच काढला – नवीन बसवला, म्हणाला साहेब गाडी झाली, घेऊन जा. जुना स्विच त्यानी माझ्या हातात दिला.
मी : (सवयीप्रमाणे विचारलं) गाडी चालू करून लाईट लागतो, हे चेक केले ना ?
मेकॅनिक : साहेब, त्याची काही गरज नाही. गाडी चालवतांना अंधार पडला, की, बटन ऑन करा. लाईट लागणार
मी : एकदा चेक तर करून घ्या
मेकॅनिक : साहेब, दुकानात सगळा माल ओरिजिनल असतो. त्यामुळे मालावर माझा पूर्ण विश्वास आहे. काम करतांना, काम आणि मी, यामध्ये इतर काहीही विचार मी कधीच मनात आणत नाही. त्यामुळे Always do it right, first time हा माझा मोटो आहे. काम चुकायची गुंजाईश – झिरो.
मी (मनांत) : हा माणूस आपल्यापेक्षा खूपच वर पोहोचलेला दिसतोय.
मी मेकॅनिक ला थँक्स म्हणालो आणि गाडी सुरु केली. अजून लख्ख उजेड होता, पण सवयीप्रमाणे, माझा अंगठा लाईटच्या बटनावर गेला, की, निघण्यापूर्वी लाईट लावून बघावा म्हणून. पण लगेच विचार आला, की, मेकॅनिक ला बटणाच्या क्वालिटीवर आणि स्वतःच्या कामावर इतका विश्वास आहे, तर मला त्याच्या कामावर विश्वास ठेवायला काय हरकत आहे. माझा अंगठा आपोआप मागे आला. तेवढ्यात एका जवळच राहणाऱ्या मित्राचा फोन आला, थोडावेळ घरी येऊन जा, एक स्पेशल डिश आहे.
मित्राकडून निघतांना चांगलाच अंधार पडला होता. गाडी सुरु केली. लाईट चे काम झाले आहे, हे माहित होते. बटन सुरु केलं आणि लाईट सुरु. मेकॅनिक बद्दल तोंडातून आपोआप शब्द आले – What a level of confidence !
घरी आल्यानंतर, मेकॅनिकचे, “काम करतांना, काम आणि मी, यामध्ये इतर काहीही विचार मी मनात आणत नाही”, “Always do it right, first time हा माझा मोटो आहे. त्यामुळे काम चुकायची गुंजाईश – झिरो”, हे शब्द मनात घुमायला लागले. आणि मी भूतकाळात गेलो —
* कुणाच्या खात्यात बँकेत चेक भरायचा असेल, तर चेक लिहिल्यानंतर मी २-३ वेळा सगळे बरोबर आहे ना ! हे चेक करतो आणि बँकेत चेक बॉक्स मध्ये टाकण्यापूर्वी पुन्हा बघतो, कि, काही चुकले तर नाही ना !
* घराला कुलूप लावून बाहेरगावी जायचे असेल, तर ५-६ वेळा तरी कुलूप ओढून बघतो. नंतर गाडीत बसल्यानंतर काही वेळा मनात रुख-रुख राहते, की, कुलूप बरोबर लागलय ना, कार्पोरेशन चा पाण्याचा नळ बघायचा राहिला आहे – सुरु राहिला असेल तर काय होणार
* कार लॉक करून आपण घरात येतो आणि मनात पाल चुकचुकते कि पार्किंग लाईट ऑन तर नसतील
* एकदा आम्ही मित्र कारनी बाहेरगावी निघालो. थोडं पुढे गेलो आणि एक जण म्हणाला, गाडी मागे घे. दाराला बाहेरून कुलूप लावले आहे का नाही, आठवत नाही. संध्या चोऱ्या खूप होतायत. एक जण म्हणाला, बाहेरून एक्स्ट्रा कुलूप लावणे जास्त अनसेफ आहे. चोरांना खात्री असते, की, आत कुणी नाही आणि आपला मार्ग मोकळा आहे. लॅच चे कुलूप जास्त सेफ आहे, काळजी करू नको. पण मित्राला ते पटले नाही. आम्ही कार वळवली. घरी गेलो. कुलूप व्यवस्थित होते. तरी मित्रानी २-३ दा ओढून बघितले आणि आम्ही निघालो.
* बऱ्याच वेळा आपण छोटा मोठा प्रवास करून, एखाद्या जागृत देवस्थानाला जातो. आत जातांना काहीतरी इच्छा घेऊनच आत जातो. मुद्दाम पूजेचे साहित्य विकत घेतो, फुलं घेतो. आत गेल्यावर व्यवस्थित दर्शन होतं. प्रसन्न मनानी आपण बाहेर पडतो. आणि मंदिराच्या बाहेर पडल्यावर लक्षात येतं, की, अरे, देवाकडे जे मागण्याकरता आपण इथपर्यंत आलो होतो, ते तर मागायचंच राहीलं .
अशी भली मोठी यादी नजरेसमोरून जायला लागली. माझ्यासारखे अजून बरेच ‘मी’ नक्कीच असतील. आणि सगळ्यांचे असेच वेगळे वेगळे अनुभव पण असतील. या आपल्या अशा सवयीमुळे, वेळ तर वाया जातोच जातो आणि ताणतणाव पण वाढतात. जेवतांना कधी जोरदार ठसका लागतो, कधी पाय घसरून पडायला होतं, कधी भाजी चिरतांना चाकू हाताला लागतो, अपघात होतात, तब्येत बिघडते वगैरे, वगैरे.
आणि या सगळ्याचं कारण काय? तर, कहींपे निगाहे – कहींपे निशाना आणि Not doing things Right, at first time. ‘जहापे निगाहे – वहींपे निशाना’ हे जर जमवलं, तर काहीच कठीण नसतं. ह्याच आधारावर स्वयंवर जिंकल्याचं महाभारतामधलं उदाहरण आहेच. आणि त्याकरता गरज आहे – मन लावून काम करण्याची – हातातले काम आणि मी यामध्ये इतर विचार न आणण्याची. असं म्हणतात, आंघोळ करत असाल तर – फक्त मी आणि आंघोळ यावर लक्ष ठेवा, जेवत असाल तर – समोरचे चविष्ट अन्न चावून खाणे आणि मिळणारा आनंद यावर लक्ष केंद्रित करा. टीव्ही बघत असाल तर फक्त टीव्ही एन्जॉय करा. टॉयलेट ला गेला असाल तर फक्त तेच – फोन नाही / फेस बुक नाही. एका वेळेस एकच काम आणि ते पण मन झोकून.
मी मनात खूणगाठ बांधली, की, या क्षणापासून Do it right – First time चा अवलंब करायचा. रोज सकाळी उठल्यावर मेकॅनिकचे विचार, श्लोक म्हटल्यासारखे १० वेळा म्हणायचे. रोज रात्री झोपण्यापूर्वी मेकॅनिकचे विचार, श्लोक म्हटल्यासारखे १० वेळा म्हणायचे, म्हणजे ते अंतर्मनात रुजतील. असं सांगतात, की, एखादी गोष्ट सतत ३० दिवस केली, तर ती सवय लागते आणि ६० दिवस केली, तर तो स्वभाव बनतो.
आणि मग एक दिवस, आपलेच अंतर्मन, आपल्या कामाकडे बघून म्हणेल – What a level of confidence!
सुमारे तीस – पस्तीस वर्षांपूर्वीची घटना आहे ही. आता मी जनसामान्यांबरोबरच साहित्यिकांमध्ये देखील प्रथितयश कवी म्हणून ओळखला जाऊ लागलो होतो. तरीही आपल्यापेक्षा ज्येष्ठ आणि श्रेष्ठ हे थोरच नाही का !
पुण्याच्या टिळक स्मारक मंदिरात भरलेल्या कवी संमेलनात मी माझी ‘शब्दांची वादळं’ ही कविता सादर करायला व्यासपीठावर उभा होतो. हे सुनीत आहे. मी पहिलाच चरण म्हटला,
‘शब्दांची अनेक वादळं आली, कधी तसा डगमगलो नाही ‘.
आणि अचानक माझ्या मागून, व्यासपीठाच्या मागील भागातून ‘वाः! सुंदर’ अशी दाद मिळाली. मी चमकून, तरीही कृतज्ञतेने मागे वळून पाहिले; आणि काय सांगू तुम्हाला, ही दाद मिळाली होती विंदा करंदीकर आणि मंगेश पाडगावकर या दोन ज्येष्ठ आणि श्रेष्ठ कविवर्यांकडून ! माझ्या अंगावर शहारे आले आणि मोठ्या उत्साहात मी ती संपूर्ण कविता सादर केली. कवितेला टाळ्यांच्या कडकडाटाचा प्रतिसाद तर मिळालाच; शिवाय मेनका प्रकाशनच्या पु. वि. बेहेरे यांनी माझा दुसरा काव्यसंग्रह प्रकाशित करण्याची इच्छा प्रकट केली. साहजिकच या काव्यसंग्रहाचे नाव आहे ‘ शब्दांची वादळं ‘!
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 118 ☆ देश-परदेश – मत चूको चौहान ☆ श्री राकेश कुमार ☆
मौके पर चौका लगाना चाहिए। ये सब दशकों से सुनते आ रहे हैं। विगत वर्ष ” राष्ट्रीय आडंबर विवाह ” सम्पन्न हुआ था। हमने उक्त परिवार के एक खास से पूछा, हमें बुलाना भूल गए थे। उसने तत्परता से बताया यदि हम उसको अपनी दिल की बात पहले बता देते तो इटली से लेकर जामनगर सभी कार्यक्रम में शिरकत कर चुके होते। दिल की बात बताने में हम हमेशा लेट लतीफ़ ही रहते हैं। युवा अवस्था में अपने पहले प्यार का इज़हार करने में भी चूक गए थे। खैर छोड़िए “अब पछताए होत क्या जब चिड़िया ही दूसरे के साथ उड़ गई”
उक्त विवाह में भाग ना ले सकने का दुःख के लिए बस इतना ही कह सकते हैं, कि ” जिस तन लागे, वो तन जाने”
इस बार हमने मत चूको चौहान को अपना अड़ियल मानते हुए, दूसरे घराने के परिवार के विवाह के निमंत्रण प्राप्त करने के लिए ” सारे घोड़े खोल दिए” थे। अपने मुम्बई की पोस्टिंग्स के कॉन्टैक्ट्स हो या, दिल्ली की सत्ता के गलियारे वाले संबंध हो। यहां ये स्पष्ट कर देवे, इसी मौके के लिए विगत वर्ष हमने दस दिन का गुजरात दौरा भी किया था।
लाखों जतन कर लो पर होता वही है, जो लिखा होता है। दूसरे परिवार ने तो इतनी सादगी से विवाह किया, कि पड़ोसियों को भी नहीं बुलाया हैं, फिर हम किस खेत की मूली हैं।
इस सादगी पूर्ण विवाह के लिए दूसरे परिवार का साधुवाद।
आयुष्याची सुरावट ”सा रे ग म प ध नी सा’ या सप्तसुरातून साकार होत असते किंवा केली जाते. हे सूर जितके सच्चे, तितके त्यातून निर्माण होणारे गीत सुरेल निघते. सप्तसुरांच्या संगतीने आपले आयुष्य सुंदर सुरमयी बनते कारण यातील प्रत्येक सूर हा त्याच्या विचाराशी किंवा आशयाशी सच्चा राहतो.
*सा.. *आयुष्याचा प्रारंभ हाच ‘सा’ मधून होतो त्यामध्ये जीवनाचे सातत्य समाविष्ट आहे.
रे… रेंगाळणे.. आयुष्याची वाटचाल चालू असताना आपण अधून मधून थांबतो किंबहुना रेंगाळतो..
ही वाटचाल जेव्हा शांतपणे सुरू असते, तेव्हा ‘रे’ सुराची निर्मिती होते.
ग.. विचारांना ‘ग’गती देतो. तर कधी
‘ग’ हा गमावल्याची भावनाही निर्माण करतो.
म… मानून घेणे, हे ‘म’ चे वैशिष्ट्य आहे.. जे आहे त्यात समाधान मानून आपल्या आयुष्याची वाटचाल आपण सुखद करतो.
प.. मनाची व्याप्ती वाढवणे किंवा पसरवणे हे ‘प’ चे वैशिष्ट्य! सप्तसुरांतील ‘प’हा चढती कमान दाखवतो. !
ध.. ‘ध’धारण करणे.. मनाची शांतता धारण करणे हे शिकवणारा
हा ‘ध’ आहे. ‘ध-‘ धारयती हा पुढे
‘नि’ मध्ये जातो.
नि – निवृत्ती कडे वाटचाल..
जगण्यातून निवृत्ती घेता येणे हे बोलणे सोपे पण आचरण्यास अवघड असे तत्व!ही निवृत्ती ज्याला साधली त्याला ‘सा’ची सायुज्यता साधणे कठीण जात नाही..
सायुज्यता – मोक्षाच्या चार अवस्थांपैकी चौथी सायुज्यता!
ही साधली तर वरच्या ‘सा’च्याजवळ आपण पोचू शकतो असे म्हणायला हरकत नाही..
आयुष्याच्या सरगमातील हे ‘सारेगमपधनीसा’ चे सूर विचार केला तर किती वेगळे अस्तित्व दाखवतात ना?