हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 41 – अंश कला देवी ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण  एवं  ज्ञानवर्धक आलेख  “अंश कला देवी । )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 41 ☆

☆ अंश कला देवी 

स्त्री ऊर्जा के कई आंशिक रूप हैं जो वास्तव में प्रकृति के विभिन्न रूप में से हैं और कुछ लोग उनकी प्रार्थना करते हैं कि वे हमें हमारे जीवन को शांतिपूर्वक चलाने में सहायता करें, जबकि अन्य कुछ रूपों से लोग डरते हैं ऊर्जा के इन आंशिक रूपों की देवियों को ‘अंश कला देवी’ कहा जाता है । अंशकला देवी दोनों प्रकार की होती हैं जो हमारे जीवन को शांतिपूर्ण बनाती हैं और जिनसे हम डरते हैं । स्त्री ऊर्जा के आंशिक चरणों की मुख्य 26 अंशकला देवी है :

1) स्वाहा देवी (अर्थ : माध्यम की देवी) :  स्वाहा देवी वो माध्यम है जिससे अग्नि में डाली गयी वस्तु भस्म होकर शुद्ध होती है । वह अग्नि की पत्नी है । स्वाहा की दुनिया भर में पूजा की जाती है । यदि हव्य (oblation) उनके नाम को दोहराए बिना अर्पण किया जाता है, तो देवता इसे स्वीकार नहीं करते हैं ।

2) दक्षिणा देवी (अर्थ : दान की देवी) : ये यज्ञ के पूरा होने के बाद धन के रूप में पुरोहित को दिए जाने वाले दान की देवी है । वह यज्ञ देव (बलिदान के देवता) की पत्नी है इस देवी के बिना, दुनिया के सभी कर्म व्यर्थ हो जाएंगे ।

3) दीक्षा देवी (अर्थ : यज्ञ के अनुसार संकल्प पूर्ण दान की देवी) :  भोजन या कपड़े आदि के रूप में दान की देवी, जिसे उनके द्वारा यज्ञ पूरा करने के बाद पुजारी को दिया जाता है । वह यज्ञ देव की पत्नी है, यह देवी शुद्ध ज्ञान प्रदान करती है ।

4) स्वधा देवी (अर्थ : पितरों के निमित्त दिया जानेवाला अन्न या भोजन की देवी) : आत्म-शक्ति, शासन, अपनी जगह या घर की देवी । ये प्रथा, प्रचलन या आदत अदि को संदर्भित करती है । यह देवी पितृ (मृतक पूर्वजों) की पत्नी है, जिनकी मनुष्यों द्वारा पूजा की जाती है । इस देवी का सम्मान किए बिना पितरों को दिया गया चढ़ावा व्यर्थ साबित होता है ।

5) स्वेच्छा देवी (अर्थ : अपनी इच्छा की देवी) :  यह इच्छा की देवी है जो अच्छा करती है । यह वायु की पत्नी है । अगर स्वेच्छा से उपहार नहीं दिया जाता है तो उपहारों का कोई फायदा नहीं होता ।

6) पुष्टि देवी (अर्थ : पोषण की देवी) : यह पोषण या अनुमोदन की देवी है और गणपति की पत्नी है । यदि यह देवी अस्तित्व में ना हो, तो पुरुष और स्त्री कमजोर हो जाएँगे, क्योंकि वह सभी ताकतों का स्रोत है ।

7) तुष्टि देवी (अर्थ : तुष्ट होने की अवस्था की देवी) : शांति या खुशी की देवी । यह अनंत की पत्नी है । अगर यह देवी अस्तित्व में ना हो तो दुनिया में कोई खुशी नहीं होगी ।

8) संपत्ति देवी (अर्थ : धन दौलत जायदाद आदि जो किसी के अधिकार में हो और खरीदी या बेची जा सकती हो की देवी) : संपत्ति की देवी । यह इशाना (अमीर) की पत्नी है । अगर यह देवी अस्तित्व में नहीं रहती तो पूरी दुनिया गरीब और स्वदेशी हो जाएगी ।

9) धरती देवी (अर्थ : भूमि की देवी) : यह दृढ़ संकल्प की देवी एवं कपिल (अर्थ : लाल भूरे रंग) की पत्नी है । अगर यह देवी अस्तित्व में नहीं रहती है तो पूरी दुनिया भयानक और डरपोक हो जायेंगी ।

10) सती देवी (अर्थ : सत की देवी) : सत्त्व की देवी जो मानव में सभी अच्छी गुणवत्ता के लिए जिम्मेदार है । वह सत्य (सत्य) की पत्नी है । अगर यह देवी अस्तित्व में नहीं रहती है तो लोगों के बीच कोई मित्रता और शांति नहीं होगी ।

11) दया देवी (अर्थ : करुणा और सहानुभूति की देवी) : करुणा और सहानुभूति की देवी । यह मोह (भ्रम, सुस्तता) की पत्नी है । यदि यह देवी अस्तित्व में नहीं रहती है तो दुनिया नरक हो जाएगी और एक भयंकर युद्ध क्षेत्र बन जाएगी ।

12) प्रतिष्ठा देवी (अर्थ : ख्याति की देवी) : प्रतिष्ठा की देवी । यह पुण्य (दान, इनाम) की पत्नी है । अगर यह देवी अस्तित्व में नहीं रहती है तो दुनिया ख़त्म हो जाएगी ।

13) सिद्ध देवी (अर्थ : परिपूर्ण करने वाली देवी), और कीर्ति देवी (अर्थ : प्रसिद्धि की देवी) : ये दोनों सुकर्मा (अर्थ : अच्छा स्वभाव) की पत्नियां हैं । अगर वे अस्तित्व में ना रहें तो पूरी दुनिया प्रतिष्ठा से बेकार हो जाएगी और मृत शरीर की तरह निर्जीव हो जाएगी ।

14) क्रिया देवी : कार्य की देवी वह उद्योग (अर्थ : व्यापार) की पत्नी है । अगर वह अस्तित्व में नहीं रहती है तो पूरी दुनिया निष्क्रिय हो जाएगी और कार्य करना बंद कर देगी ।

15) मिथ्या देवी (अर्थ : झूठी मान्यताओं की देवी) : वह अधर्म (अप्राकृतिकता, गलतता) की पत्नी है । हठी और चरित्रहीन लोग इस देवी की पूजा करते हैं । अगर यह देवी पूरी दुनिया में अस्तित्व में नहीं रहती है तो ब्राह्मण ही अस्तित्व में नहीं रहेगा । सत युग के दौरान दुनिया में कहीं भी यह देवी दिखाई नहीं देती थी । वह त्रेता युग के दौरान यहाँ और वहाँ एक सूक्ष्म रूप में दिखाई देने लगी थी । द्वापार युग में उन्होंने अधिक विकास प्राप्त किया और फिर उनके अंग और मजबूत हो गए । कलियुग में वह अपने पूर्ण स्तर और विकास के रूप में विकसित हुई और अपने भाई कपट (अर्थ :धोखा) के साथ हर जगह चली आयी ।

16) शांति देवी (अर्थ  : शांति की देवी) और लज्जा देवी (अर्थ  : विनम्रता की देवी) : ये दो देवी अच्छी प्रकृति की हैं । अगर वे अस्तित्व में ना रहे तो दुनिया सुस्त और आलसी हो जाएगी ।

17) बुद्धि देवी (अर्थ  : समझने और जानने की इच्छा की देवी), मेधा देवी (अर्थ  : ज्ञान की देवी) और धृत देवी (अर्थ  : संभाले रखने की देवी) : यह तीनों देवियाँ ज्ञान की पत्नियां है । अगर ये देवियाँ अस्तित्व में ना रहे तो दुनिया अज्ञानता और मूर्खता में डूब जाएगी ।

18) मूर्ति (अर्थ  : रूपों की देवी) : वह धर्म (सही कर्तव्य) की पत्नी है । उनकी अनुपस्थिति में सार्वभौमिक आत्मा जीवन शक्ति से विरक्त, असहाय और अर्थहीन हो जाएगी ।

19) श्रीदेवी : यह सौंदर्य और समृद्धि की देवी है । वह माली की पत्नी है । इनकी अनुपस्थिति दुनिया को निर्जीव बना देगी ।

20) निन्द्रा देवी : यह नींद की देवी है । यह कालाग्नि (समय की अग्नि ) की पत्नी है । ये देवी रात्रि के दौरान दुनिया में हर किसी को प्रभावित करती है और उनकी चेतना को खो कर उन्हें नींद में डाल देती है । इस देवी की अनुपस्थिति में दुनिया एक पागलों की शरण स्थली बन जाएगी ।

21) रात्री (अर्थ  : रात्रि  की देवी), संध्या (अर्थ  : शाम की देवी) और दिवस (अर्थ  : दिन की देवी) : ये तीनों काल (अर्थ : समय) की पत्नियां हैं । उनकी अनुपस्थिति में किसी को भी समय की कोई समझ नहीं होगी और कोई भी समय की गणना और निर्धारण करने में सक्षम नहीं होगा ।

22) विसापू (अर्थ  : यह भूख की देवी है) और दहम (अर्थ  : यह प्यास की देवी है) : ये दो देवियाँ लोभ (अर्थ  : लालच) की पत्नियाँ हैं, वे दुनिया को प्रभावित करती हैं और इस तरह उन्हें चिंतित और दुखी बनाती हैं ।

23) प्रभा देवी (अर्थ  : प्रकाश की देवी) और दहक देवी (अर्थ  : अग्नि से उत्पन्न प्रकाश और गर्मी की देवी) : ये दोनों तेजस की पत्नियां हैं इनके बिना भगवान को सृष्टि के कार्य को जारी रखना असंभव हो जायेगा ।

24) मृत्यु देवी (अर्थ : मृत्यु की देवी) और जरा देवी (अर्थ : मातृत्व की देवी) : ये दोनों प्रकृस्ताजवारा (अर्थ  : अनिर्मित भगवान), और काल (अर्थ : समय) की  पुत्री हैं । और यदि ये अस्तित्व में रहना बंद कर देती हैं, तो ब्रह्मा नयी रचना नहीं बना सकते हैं । क्योंकि मृत्यु  सृजन, जन्म की पूर्व शर्त है । यदि कोई मृत्यु नहीं है तो जन्म भी नहीं है ।

25) तन्द्रा देवी (अर्थ : नींद की झपकी) और प्रीति (अर्थ : खुशी की देवी जो प्रेम से आती है) : ये दोनों निद्रा (अर्थ : नींद) की पुत्रियाँ हैं और सुख (अर्थ : खुशी) की पत्नियाँ हैं । ये देवी ब्रह्मा के आदेश पर दुनिया भर में घूमती रहती हैं ।

26) श्रद्धा देवी (अर्थ : भक्ति के विश्वास) और भक्ति देवी (अर्थ : वैराग्य की देवी) : ये देवी सांसारिक सुखों के प्रति उलझन और दुनिया के लोगों की आत्माओं को मोक्ष देती हैं ।

आप इन देवी-देवताओं के महत्व को समझ सकते हैं । मैं आपको इनमें से 3-4 के विषय में बता देता हूँ । सबसे पहले ‘स्वाहा देवी’ को ले लो, जो हमारी भेंट को अग्नि को देती है। इसे अन्यथा लें, जब हम भोजन खाते हैं तो यह हमारे पेट में पहुँचता है जहाँ जठारग्नि (पेट में भोजन के पाचन के लिए जिम्मेदार अग्नि) इसे पचती है । तो क्या ‘स्वाहा देवी’ से ये प्रार्थना करना गलत है, की ‘कृपया देवी मेरे द्वारा खाया हुआ भोजन पचाकर मुझे स्वस्थ बनाएं’। इसी प्रकार यदि हम अग्नि को कुछ भी देते हैं तो हम स्वाहा देवी’ से प्रार्थना करते हैं ताकि यह जलने के बाद एक या दूसरे रूप में उपयोगी हो सके ।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 44 ☆ पेंशन ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  आज के सामाजिक परिवेश में जीवन के सत्य को उजागर करती एक लघुकथा  “पेंशन”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 44 – साहित्य निकुंज ☆

☆ पेंशन ☆

“क्या हुआ तुम क्यों अम्मा को चिल्ला रही हो ?”

“अरे तुम तो ड्यूटी चले जाते हो अम्मा सुनती नहीं हैं, चलते बनता नहीं है फिर भी बर्तन मांजने बैठ जाती हैं. एक पल भी बैठने नहीं देती .”

“देखो तुमसे कितनी बार कहा अम्मा का ध्यान रखा करो. उन्हें कुछ करने नहीं दिया करो .”

वहां से अम्मा की कराहने की आवाज़  आती है ….”वे कहती है बेटा अब ऐसे जीने से अच्छा है भगवान् हमें उठा ले कितना जियेगे .”

“नहीं अम्मा ऐसा नहीं कहते आप आराम करो हम अभी आते हैं “

इतने में बहू आती है ..” कहती है क्यों अम्मा क्या शिकायत कर रही थी इनसे .”

“ नहीं हमने कुछ नहीं कहा ..”

इतने में बहू अम्मा का हाथ मरोड़ती और दबी आवाज में कहती है..” तुम्हें सिर्फ इसलिए खिला पिला रहे हैं,  क्योंकि  हर महीने तुम्हारी पेंशन जो आती है.”

अम्मा ने अपना हाथ बहू के सिर पर रख दिया।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 28 ☆ लघुकथा – मन के हारे हार है, मन के जीते जीत ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक लघुकथा  “मन के हारे हार है, मन के जीते जीत”। हमने अपने जीवन  में यह देखा है कि यदि मनुष्य कोई बात मन में ठान ले और उसे पूरी करने पर उतर आये तो उसे  पूरी अवश्य कर लेता है   जैसा शीर्षक है वैसी ही कहानी है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस हृदयस्पर्शी लघुकथा को सहजता से रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 28 ☆

☆ लघुकथा – मन के हारे हार है, मन के जीते जीत

अम्माँ देखो ये क्या है तुम्हारे बक्से में? दो थैलें रखे हैं, इन पर लिखा है-  विश्वास और संतुष्टि. किसने लिखा ये ? तुमने कि बापू ने? क्यों लिखा था अम्माँ बोलो ना –

वह बक्से में पुराने कपडे देख रही थी कि बेटी की नजर सूती कपडों के बने दो थैलों पर पडी. उसने ही सहेज कर रखे थे,  सोचने लगी –  कितने रंग दिखाती है ये जिंदगी? एक पल के लिए लगता है कि सब कुछ खत्म और कभी वहीं से जीवन में नई कोपलें फूट पडती हैं . उन थैलों को हाथ में लेते ही  ऐसा लगा मानों किताब के कई पन्ने एक साथ फडफडा कर पीछे पलट गए हों.

सन् 2020 की बात है. नया साल शुरु हुआ ही था. शुभकामनाओं के संदेश अभी फीके भी नहीं पडे थे. खबर सुनाई पड रही थी कि विदेश में कोरोना नाम की बीमारी आई है हजारों लोग हर दिन मर रहे हैं. चीन, इटली, स्पेन में बीमारी की खबर सुनते – सुनते  अपने देश में भी फैल गई. और फिर एक दिन घोषणा हुई कि पूरे देश में कामकाज बंद. सबसे बडी मुसीबत पडी मजदूरों पर, कमाएं ना तो खाएं क्या बेचारे? भूखों मरने की नौबत आ गई थी. बस, ट्रेन सब अचानक बंद करवा दी गई. बडे- बडे शहरों में आसपास के गांवों से ना जाने कितने मजदूर आते हैं काम करने, सब परेशान थे.

हम और तुम्हारे बाबू ने भी सोचा कि गांव जाना ही ठीक रहेगा. बीमारी हारी में अपनों के पास रहना ही ठीक होता है. तुम दोनों बहुत छोटे रहे, उसी समय हमने दो बडे थैले बनाए – एक पर लिखा विश्वास दूसरे पर संतुष्टि. जरूरत का सामान साथ रख हम पैदल चल दिए गांव की ओर. मन में विश्वास था कि हम अपने गांव पहुँच जाएंगे, संतोष इस बात का था कि हमारे पास जो कुछ है,  बहुत है. रास्ते में बहुत लोग खाने – पीने का सामान बाँट रहे थे पर हम मना कर दिए लेने से. तुम्हारे बाबू बोले जिन लोगों के पास खाने को कुछ नहीं है आप उनको दें.  हम कई दिन चलते रहे, थक जाते तो कहीं सडक किनारे रुक जाते, अपने विश्वास के सहारे गांव पहुँच ही गए बिटिया.

बिटिया की आँखें आश्चर्य से फैल गईं – अपना गांव तो दिल्ली से बहुत दूर है अम्माँ,इतना चले कैसे हम दोनों को गोद में उठाकर?

रमिया की आँखों के सामने उस सफर  का हरेक पल साकार हो रहा था, आँखें भर आईं. बडे प्यार से बेटी के सिर पर हाथ फेरते हुए इतना ही बोली –  मन के हारे हार है मन के जीते जीत.

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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कथा-कहानी
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 46 – बता ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक शिक्षाप्रद लघुकथा  “बता। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 46 ☆

☆ लघुकथा –  बता ☆

“माना कि मानव ने वृक्षों का भरपूर उपयोग कर इमारतों के जंगल सजा लिया, मगर तू तो आरी है और यह भी जानती है कि हम सभी वृक्ष जीते जी भी काम आते है और मरने के बाद भी.“

“हाँ, यह निर्विवाद सत्य है .”

“मगर तू यह बता कि मरने के बाद मानव क्या काम आता है ?”

यह सुन कर आरी के साथ-साथ मानव की हंसी भी गायब हो चुकी थी.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

०१/०५/२०१५

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 5 ☆ नींव के पत्थर ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी लघुकथा “विश्व में कविता समाहित या कविता में विश्व?”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 5 ☆ 

☆  नींव के पत्थर ☆ 

महल के कलश कितने भव्य हैं… मीनारें तो देखो कितनी सुंदर हैं…. दीवारों पर की गई पच्चीकारी अद्वितीय है…. छतों पर अद्भुत चित्रकारी है… वातायनों और गवाक्षों पर कैसी मनोहर बेलें हैं… दर्शक भावविभोर रहकर प्रशंसा कर रहे थे।

किसी ने एक भी शब्द नहीं कहा उन सीढ़ियों के लिए जो पूर्ण समर्पण के साथ मौन रहकर उठाये थीं उन सबका भार और अदेखे रह गये महल का असहनीय भार पल-पल अपने सिर पर उठाये नींव के पत्थर।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

३-४-२०२०

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पथराई आंखों का सपना भाग -2 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  दो भागों में एक लम्बी कहानी  “पथराई  आँखों के सपने ”।   

श्री सूबेदार पाण्डेय जी का आग्रह –  इस बार पढ़े पढ़ायें एक नई कहानी “पथराई आंखों का सपना” की अंतिम कड़ी और अपनी अनमोल राय से अवगत करायें। हम आपके आभारी रहेंगे। पथराई आंखों का सपना न्यायिक व्यवस्था की लेट लतीफी पर एक व्यंग्य है जो किंचित आज की न्यायिक व्यवस्था में दिखाई देता है। अगर त्वरित निस्तारण होता तो वादी को न्याय की आस में प्रतिपल न्याय के नैसर्गिक सिद्धांतों का दंश न झेलना पड़ता। रचनाकार  न्यायिक व्यवस्था की इन्ही खामियों की तरफ अपनी रचना से ध्यान आकर्षित करना चाहता है।आशा है आपको पूर्व की भांति इस रचना को भी आपका प्यार समालोचना के रूप में प्राप्त होगा, जो मुझे एक नई ऊर्जा से ओतप्रोत कर सकेगा।)

? धारावाहिक कहानी – पथराई आंखों का सपना  ? 

(आपने पढा़—-किस प्रकार मंगरी चकरघिन्नी बनी कभी वकील की चौकी कभी न्यायालय के दफ्तर कभी पुलिस थाने का चक्कर काटती न्याय की आस में भटक रही थी, उसकी आंखों में न्याय पाने की आस तथा सबका उपेक्षित व्यवहार ही उसके साथ होता।  अब आगे पढ़े——)  

दुख जब ज्यादा होता धैर्य जब छूट जाता तो किसी कोने में बैठ चुपचाप रो लेती।  फिर चुप हो जाती इस उम्मीद में अपने दिल को दिलासा दे लेती कि एक न एक दिन सत्य की जीत अवश्य होगी।

इन्ही उम्मीद के सहारे तो उसने अपने बेटे का नाम सत्यजीत रखा था। लेकिन तब उसे कहाँ पता था कि सत्य के पीछे चलती हुई वह एक दिन खुद इस जहाँ से चली जायेगी, और फिर वह सत्य को विजेता होते कभी भी नहीं देख पायेगी।

इन्ही आशा और निराशा के बीच झूलती मंगरी को उत्साह जनक खबर मिली कि उसके मुकदमे की सुनवाई पूरी हो गई है।  न्यायधीश ने फैसला सुरक्षित रख लिया है। फैसले की तारीख नियत हो गई है।  इस सुखद खबर ने एक बार फिर मंगरी के टूटते हौसले को सहारा दिया।  जिसने उसके दिल में जोत तथा आंखों में भविष्य के सपनें सजा दिये थे।  उसके फड़कते बायें अंग तथा दिल की धड़कन से अपनी विजय का शंखनाद स्पष्ट सुनाई दे रहा था।

लेकिन इंतजार की घड़ियाँ लंबी हो चली थी।  उसके एक एक दिन एक एक युग के समान बीत रहे थे। इस बीच बड़ी मुश्किल से मंगरी ने अपने श्रम तथा घर में रखे अन्न बेच कर ही वकील के फीस का इंतजाम किया था। फिर भी गाँव से शहर के न्यायालय आने के लिए बस के किराये के पैसे कम पड़ रहे थे।

आज फैसले का दिन था, वह सुबह सबेरे बिना कुछ खाये पिये मारे खुशी के खाली पेट ही घर से चल पडी़ थी, गाँव के चौक की तरफ जंहा से बसें जाती है शहर को।  उसने रास्ते के लिए चार मोटी रोटियां तथा अचार के कुछ टुकड़े भर लिए थे अपने झोले में और बस स्टैंड तक पहुँच शहर जाने वाली बस में बैठ गई थी।

बस तय समय पर अपने गंतव्य पथ की तरफ चली, लेकिन किराया न चुकाने के कारण कंडक्टर ने भुनभुनाते हुये मंगरी को बस से नीचे उतार दिया था।
। उसने हाथ पांव जोड़े लाख अनुनय विनय किया गिड़गिडा़यी लेकिन कंडक्टर ने उसकी एक भी नहीं सुनी।  असहाय मंगरी जाती हुई बस को आंखों से ओझल होने तक हसरत भरे नेत्रों से देखती रही।

मई माह का मध्य महीना भगवान भाष्कर अपने प्रचंड तापवेग से तप रहे थे, ऐसे में तेज पछुआ हवा के थपेड़े गर्म लू का अहसास करा रहे थे, क्या पशु क्या पंछी क्या जानवर क्या इंसान सभी गर्मी के प्रचंड ताप वेग से छांव की ठांव ले बैठे थे।  सहसा मंगरी की तंद्रा भंग हुई।  उन विपरीत परिस्थितियों की परवाह न करके अपने छोटे बच्चे का हाथ थामे लगभग दौड़ने वाले अंदाज में पैदल ही धूप में जलती चलती जा रही थी अपने लक्ष्य की ओर।  न्याय पाने की खुशी में लू की गर्मी तथा तेज धूप की जलन का अहसास ही नहीं था उसे।  उसे जल्दी पडी़ थी कि कहीं उसे न्यायालय पहुचने मे देर न हो जाये और वह अपने भाग्य का फैसला सुनने से वंचित न रह जाय।

वह तेज चाल से लगभग दौडती हुई बच्चे के साथपहुंच न्यायालय के दरवाजे के खंभे के पास खडी़ हांफ रही थीं तथा अपनी उखड़ी सांसों पर नियंत्रण करने का प्रयास कर रही थी कि तभी न्यायिक परिसर में उसके नाम की आवाज गूंजी और वह सुनते ही दौड़ पडी़ न्यायधीश के कक्ष की तरफ। वह न्यायिक कुर्सी के सामने  पंहुची ही थी कि वहीं पर भहरा कर गिर पडी़ उसकी आखें पथरा गईं, मुंह खुला रह गया। न्याय पाने के पहले ही न्याय की आस लिए उसके प्राण पखेरू इस नश्वर संसार से अनंत की ओर उड़ चले।  उसके झोले से बाहर बिखरी रोटियां उसके भूख पीडा़ बेबसी की दास्ताँ बयां कर रहे थे  और न्याय कक्ष में उपस्थित वादी प्रति वादी गण उसकी  आंखों में झांक अपने न्याय का भविष्य तलाश रहे थे। क्योंकि  लगभग उन्ही परिस्थितियों से वे भी दो चार हो रहे थे।  उसकी पथराई आंखों में अब भी अपने बेटे के लिए न्याय पाने का सपना मचल रहा था।

न्याय कक्ष में स्थापित न्याय की देवी के आंखों में बधी पट्टी के नीचे गीलापन मांनो मंगरी की विवशता पर संवेदनायें व्यक्त कर रही थी।  वहीं पर न्यायालय के छत पर टंगे पंखे की खटर पटर की आ रही आवाजों के बीच पंखे के हवा के झोकों  से न्याय की देवी के हाथ में थमें तराजू के पलड़े उपर नीचे होते हुये न्यायिक देरी से हुये वादी के प्रति अन्याय की दुविधा को प्रकट करते जान पडे़ थे और न्यायधीश महोदय अपने माथे पर हाथ धरे सिर नीचे किये चिंतित मुद्रा में कुछ सोच रहे थे।  उनके माथे पर चुहचुहा आई पसीने की बूंदें सबेरे की ओस का आभास करा रही थी।

उनके ठीक सामने दीवार पर उत्कीर्ण सूत्र वाक्य (सत्यमेव जयते) मानों हवा के झोकों से उड़ रहे कानून की किताब के पन्नों को मुंह चिढा़ रहे थे। आज के दिन पहली बार  किसी वादी को मिलने वाला न्यायिक फैसला पढ़ा नहीं जा सका और अन्याय से लड़ने का उसका हौसला समूची कानूनी प्रक्रिया के  सामने यक्ष प्रश्न बन मुंह बाये खडा़ था। जो पुलिसिया तंत्र जीते जी मंगरी को गुजारा भत्ता तथा न्याय नहीं दिलवा सका वही तंत्र आज चाक चौबंद हो पोस्ट मार्टम प्रक्रिया हेतु पांच गज मारकीन  के कपड़े में लिपटी मंगरी की लाश को उठाते हुये संवेदना प्रकट कर रहा था। न्यायिक कक्ष के बाहर खड़े सत्यजीत का हाथ थामे मंगरी का पिता उस अनाथ को परिसर से बाहर ले श्मशान घाट की तरफ बढ़ चला था। मंगरी की चिता को अग्नि का दान करने।

न्यायिक कक्ष में छाई खामोशी अब भी कुछ यक्ष प्रश्न लिए खडी़ थी।

मंगरी की मौत का जिम्मेदार कोन???????

सारे प्रश्न अनुत्तरित।

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिव्यक्ति # 16 ☆ व्यंग्य – स्विच ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा।  आज प्रस्तुत है मेरी एक समसामयिक व्यंग्य  “स्विच ”।  कल रात्रि लिखी यह रचना आप अवश्य पढ़िएगा । आखिर वह स्विच कौन सा है ? अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दीजिये और पसंद आये तो मित्रों से शेयर भी कीजियेगा । अच्छा लगेगा ।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 16

☆ व्यंग्य – स्विच ☆

आज के अखबार की हेडलाइन्स ने चौंका दिया ….. देश के सभी धार्मिक स्थल के भक्त-निवासों को अस्पताल के वार्ड में तब्दील करने का निर्णय ……  तालों में बंद ईश्वर की मौन अनुमति  ….. सभी देवी देवताओं और नेताओं की बड़ी-बड़ी मूर्तियों के दानदाताओं द्वारा उतनी ही या उससे अधिक राशि अस्पताल और जनसेवाओं के लिए दान में देने का निर्णय ……

बड़ा अजीब माहौल है …… कोई मेरी ओर देख ही नहीं रहा …… सब अपने आप में मशगूल हैं। मैं सोसायटी गेट से बाहर निकल रहा हूँ …… गार्ड रोकना चाह रहा है…… किन्तु, मैं अपने में ही मशगूल हूँ …… बाहर निकल गया हूँ …… सब कुछ शांत …… पूरी सड़क सुनसान …… सिर्फ दूध और दवा की दुकान खुली है और दारू की बन्द है ….. मुझे चिंता होने लगी है कि सरकार के आय का बड़ा स्रोत बन्द है तो जनता पर व्यय कैसे होगा ? ….. शायद दान से….. वेतन में कटौती से…… महंगाई भत्ते पर रोक से …… पर पेंशनरों का तो सहारा ही यही है ….. कम से कम पेंशनरों को तो बख्श देते ….. बुढ़ापे में ….. पेंशनरों की वित्तीय समस्या का निर्णय वो लोग क्यों लेते हैं जो स्वयं का वेतन स्वयं निर्धारित करते हैं …… पेंशनरों की समस्या का हल करने की समिति में कोई पेंशनर ही नहीं है …… समस्या कटौती की नहीं है  …… समस्या भविष्य की योजना की है …… कहते हैं बीमा करा लो …… राष्ट्र का बीमा क्यों नहीं ? …… सभी का स्वास्थ्य बीमा क्यों नहीं ?…… राष्ट्र का स्वास्थ्य बीमा क्यों नहीं ? …… हमारा पेंशन फंड है ……  राष्ट्र का पेंशन फंड क्यों नहीं?  ……

मैं दुबारा देखता हूँ …… मैंने सही देखा है दारू की दुकान बन्द है ……  सड़क के किनारे फिल्मों के पोस्टर गायब हैं ….. सारे शहर में डॉक्टर, नर्सों, सफाई कर्मियों, पुलिसवालों के मुस्कराते चेहरों वाले पोस्टर लगे हैं। बड़े बड़े नेताओं के पोस्टर लगे हैं ….. सब में एक कॉमन बात दिखाई दे रही है, सब पोस्टर में बड़े अक्षरों में लिखा है COVID-19 और सबने मास्क पहन रखा है…….

सारी की सारी सड़क साफ हो गई है …….. कहीं कोई कचरा नहीं ….. कोई प्लास्टिक बैग / पन्नियाँ नहीं ….. गैर पालतू जानवर आराम से घूम रहे हैं …… जरा भूखे जरूर लग रहे हैं ……  किन्तु, काटने नहीं दौड़ रहे ….. आज तालाब के किनारे वॉकिंग ट्रैक पर कोई वाक नहीं कर रहा ….. तालाब का पानी शीशे की तरह साफ कैसे हो गया?  …… कहीं धूल नहीं ….. हवा में प्रदूषण नहीं ….. ये क्या तालाब के किनारे मंदिर में बहुत बड़ा ताला लगा है ….. पुजारी का अता-पता नहीं है ….. तो पूजा कौन करता है? आगे अस्पताल खुला है ….. सब मुझे शक की नज़र से देख रहे हैं ….. जैसे गेट पर मेरी प्रतीक्षा के लिए हाथ में लेजर से बुखार नापने का यंत्र  लिए नर्स खड़ी है और कुछ नर्सिंग स्टाफ ….. उन्हें लगा मैं अंदर जाऊंगा ….. उन्हें अनदेखा कर आगे बढ़ता हूँ ….. तिरछी नजर से देखता हूँ ….. शायद वे निराश हो गए …..

आगे मॉल में एक मल्टीप्लेक्स है ….. बाहर बहुत बड़ा पोस्टर लगा है ….. पूरे पोस्टर पर लिखा है COVID-19 ….  शायद साइंटिफिक फंतासी फिल्म हो ….. सोचता हूँ देख ही लूँ …… मॉल में इक्का दुक्का लोग घूम रहे हैं ….. दुकानें बन्द हैं ….. मल्टीप्लेक्स खुले हैं ….. सीधे सिनेमा हाल के गेट तक पहुँच जाता हूँ ….. कोई रोकता क्यों नहीं ? ….. सिनेमा हाल में चला जाता हूँ ….. शायद फिल्म शुरू हो गई है….. अंधेरे में खाली सीट टटोलते हुए एक किनारे की खाली सीट पर बैठ जाता हूँ ….. फिल्म शुरू हो चुकी है ….. विदेश का कोई शहर है ….. अफरा तफरी मची हुई है ….. शायद कोई महामारी फैल रही है….. बीच बीच में कोई वाइरस पूरे स्क्रीन पर उछल कूद मचाते रहता है ….. लोग एक दूसरे से हाथ मिला रहे हैं ….. गले लग रहे हैं ….. फ्लाइट पकड़ कर दूसरे देश जा रहे हैं ….. खुद भी बीमार हो रहे हैं ….. औरों को भी बीमार कर रहे हैं ….. अब तो मौतें भी हो रही हैं …..

अचानक स्क्रीन पर आंकड़े आने लग गए …..पहले विदेशों के ….. फिर अपने देश के ….. आंकड़े बढ़ते ही जा रहे हैं ….. अचानक जाना माना टी वी एंकर स्क्रीन पर आ गया ….. एक एक कर वक्ता आने लगे ….. बहस चालू हो गई ….. अरे! ये फिल्म में टी वी एंकर कैसे घुस गया ….. यहाँ भी टी आर पी ….. हाल में रोशनी बढ़ने लगी ….. सबने मास्क लगा रखा था ….. दस्ताने पहन रखे थे …..

एंकर चीख चीख कर कह रहा था ….. अपनी सुरक्षा स्वयं करें ….. सार्वजनिक स्थानों पर मत जाएँ ….. मास्क पहन कर रहें ….. घर से बाहर न निकलें ….. घबरा कर उठ खड़ा होता हूँ ….. और अपने आपको बीच सड़क पर पाता हूँ …..आवाज एंकर की नहीं थी ….. पुलिसवाले अपनी गाड़ी में माइक पर चीख चीख कर कह रहे थे ….. लॉक डाउन में घर से बाहर न निकलें ….. सरकारी नियमों का कड़ाई से पालन करें …..अचानक पुलिस मुझे घेर लेती है ….. मैं बेतहाशा भागने लगता हूँ ….. तेज …..और तेज …..इतना तेज कि जिंदगी में नहीं दौड़ा …..पुलिस के बूटों की आवाज कम होने लगती है ….. पलट कर देखता हूँ ….. कोई भी नहीं ….. चैन की सांस लेता हूँ जैसे ही पलटता हूँ ….. ये क्या? ….. एक इंस्पेक्टर खड़ा है और कुछ पुलिस वाले….. पुलिस वाले जैसे ही डंडा उठाते हैं…..इंस्पेक्टर रोक देता है….. उम्र का लिहाज कर रहा हूँ ….. दुबारा नहीं छोडूंगा ….. हाथ जोड़ माफी मांग कर घर लौट आता हूँ …..

घर पर कोई नहीं दिखते ….. बाबूजी बहुत याद आ रहे हैं ….. सीधे उनके कमरे में जाता हूँ ….. बाबूजी खिड़की के किनारे अपनी कुर्सी पर बैठकर अपनी डायरी लिख रहे हैं ….. वे मेरी ओर नाराजगी से देखते हैं ….. शायद उन्हें मेरा बाहर जाना अच्छा नहीं लगा ….. उनके कदमों में बैठ कर पाँव पकड़ कर माफी मांगने लगता हूँ …..अरे ये क्या? बाबूजी तो हैं ही नहीं….. बाबूजी तो वास्तव में हैं ही नहीं….. तो वो कौन थे …..उठ कर देखता हूँ बाबूजी की डायरी वैसे ही खुली पड़ी है ….. बाजू में उनका चश्मा ….. और डायरी में कलम ….. पढ़ने की कोशिश करता हूँ ….. अपनी आदत के अनुसार एक लाइन छोड़ कर सुंदर हस्तलिपि में एक एक पंक्तियाँ ….. पढ़ने की कोशिश करता हूँ ….. उनकी सर्वाधिक प्रिय पुराने फिल्मी गानों की एक-एक पंक्तियाँ ….. सब पंक्तियों के अंत में  आँसुओं की कुछ बूंदें …..

गांधीजी के जन्म के 150वें वर्ष पर ………..  

आज है दो अक्तूबर का दिन, आज का दिन है बड़ा महान…….

नन्हें मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है ……

नन्हा मुन्ना राही हूँ देश का सिपाही हूँ …….

आओ बच्चो तुम्हें दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान की  …….

सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा  …….

ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आँख में भर लो पानी …….

हम लाये हैं तूफान से कश्ती निकाल के, इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के ……..

तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा ……

डायरी उठाने के लिए जैसे ही हाथ आगे बढ़ाता हूँ तो सब कुछ गायब …… डायरी …… चश्मा …… कलम ……  सब कुछ …… आँखें भर आती हैं …… गला रुँध जाता है ….. रोने की कोशिश करता हूँ …… गले से आवाज ही नहीं निकलती …… गले से सिसकियाँ निकलने लगती हैं ……

सुनिये …… सुनिये …… श्रीमति जी मुझे हिला कर नींद से उठा रही हैं …… पूछ रही हैं …… क्या हुआ? इतनी देर से क्यों रो रहे हैं? श्रीमति से लिपट कर रो पड़ता हूँ ……

सोच रहा हूँ …… आखिर यह स्वप्न है या दुःस्वप्न?  ईश्वर ने इस जटिल मस्तिष्क की रचना भी कितने जतन से की होगी। लोग कहते हैं कि सोचना बंद कर दो। अरे भाई! आपको सारे शरीर में कहीं कोई ऐसा स्विच दिख रहा है क्या कि- ऑफ कर दूँ और सोचना बंद हो जाए? यह तो मस्तिष्क में ही कहीं होगा तो होगा । यदि होगा तो जाते समय अपने आप ऑफ हो जाएगा….

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 27 ☆ लघुकथा – जिद ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक लघुकथा  “जिद ”। हमने  अपने जीवन  में यह देखा है कि यदि मनुष्य कोई बात मन में ठान ले और उसे पूरी करने पर उतर आये तो उसे सच होने में देर नहीं लगाती। हाँ समय जरूर लग सकता है, लोग जरूर उस पर हंस सकते हैं। किन्तु, अपनी जिद पूर्ण करने वाले मनुष्य भी बिरले ही होते हैं जिनका हम उदहारण बनाने के बजाय उदहारण देते नहीं थकते। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस कथानक को सहजता से रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 27 ☆

☆ लघुकथा – जिद

सबकी तरह उन दोनों के लिए भी लॉकडाउन में समय काटना कठिन हो रहा था. अब तक सारा दिन  मजूरी – हारी में निकल जाता था. हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने का तो कभी वक्त ही नहीं मिला. रात होते – होते थककर चूर हो जाते थे दोनों.  कभी- कभी  सोचता था वह, अच्छा हुआ  भगवान ने रात तो बनाई वरना—-कोल्हू का बैल . खुद पर हँस पडा,  खाली बैठे – बैठे कुछ भी आता है दिमाग में.  घर में भी क्या कम काम हैं ? पानी लाने के लिए कोसों दूर जाना पडता है, गाँव में कोई कुआँ नहीं है . कुआँ  ? अचानक उसके मन में विचार आया और  उसने पत्नी को बुलाया– अरे  मनिया सुन ना.

मनिया दौडी – दौडी आई – क्या हुआ ?

सुन मनिया! हमारे गाँव में एक भी कुआँ नहीं है, कितनी दूर जाना पडता है पानी लेने के लिए.अरे! तो ये कौन सी नई बात बता रहे हो, रोज तो  जाते हैं पानी लेने,  दो घंटा लग जाता है.  अगर हम दोनों मिलकर अपने घर में ही कुआँ खोद लें तो ? वह मुस्कुराया.

क्या ?? वह चिल्ला पडी  – कुआँ खोदना कोई गुडिया का खेल है का, कुआँ खोदने चले हैं.

मालूम है हमें इतना आसान काम नहीं है पर कोशिश तो कर सकते हैं ना ? सारा दिन बैठे बैठे क्या करते हैं ? ये सोचो अगर  कुआँ में पानी निकल आया तो पूरा जीवन आराम से कट जाएगा.  अपना ही नहीं, अपने बच्चों और गाँववालों का भी दुख हमेशा के लिए दूर हो जायेगा.

हाँ ये बात तो है,उसकी आँखों में चमक आ गई – उसके आँगन  में कुआँ ?  हो सकता है क्या ऐसा ?

सब सपना ही लग रहा था, पर वह भी मुस्कुरा दी.

फिर शुरु हुआ  एक अनोखा सफर, गाँव में जिसने सुना बोले – पागल हो गये हैं मियां- बीबी, दो आदमी कहीं कुआँ खोद सकते हैं उसमें से एक औरत जात ?

पर उन्होंने किसी की ना सुनी. एक ही धुन थी कि अपने गाँव में कुआँ होना ही चाहिए. गाँव वाले बोले- इतनी जल्दी पानी नहीं निकलता, मशीन मंगवानी पडती है.

अब तो अपने सपने को पूरा करने की जिद थी बस.  कुआँ खोदते हुए बीस दिन हो गये थे, लगभग बाईस फीट की गहराई तक खुदाई कर चुके थे, दोनों बच्चे माता पिता को ऊपर से ही देखते रहते थे, रात का समय था अचानक बच्चे खुशी से चिल्ला उठे – अम्माँ देखो कुएँ में तारे उतर आए.

कुएँ में पानी उनके पैरों को चूम रहा था. वे दोनों कुएँ की गहराई में खडे आकाश के तारों को  देख रहे थे, ये तारे उनके दिल में चमक रहे थे.

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 45 – निडरता ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक शिक्षाप्रद लघुकथा  “ निडरता । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 45 ☆

☆ लघुकथा –  निडरता ☆

रघु दादा ने सीमा का रास्ता रोका और सीमा को अपनी सहेली – मीना की शारीरिक और मानसिक यातना की याद आ गई जो गुंडे और समाज के कारण आज भी मीना भुगत रही थी, “ कोई है ! बचाओं ! मार डाला !” कहते हुए उस ने अपना माथा वेन से टकराया और जमीन पर गिर पड़ी.

“ अरे दौड़ो !” एक साथ कई आवाजें महाविद्यालय परिसर गूंजी  .

रघु दादा के लिए यह अप्रत्याशित था. वह डर कर चिल्लाया , “ भागो !”

कुछ ही देर में नजारा बदल गया था. लड़की के साथ गुंडागर्दी करने वाले गुंडे की निडरता का बलात्कार हो चुका का था. वही सीमा अपने साथियों के घेरे में खुशी से चीखते हुए रो पड़ी.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

२४/०७/२०१५

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 44 – लघुकथा – पतंग की डोर ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी  दो  छोटे भाइयों के संबंधों  के ताने बाने और पिता की भूमिका पर आधारित एक शिक्षाप्रद लघुकथा  “पतंग की डोर ।  इस सर्वोत्कृष्ट विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 44 ☆

☆ लघुकथा  – पतंग की डोर

 

छत में पतंग बाजी चल रही थी। सभी बच्चें, युवा अपने अपने पतंग का मांझा और पतंग संभालकर ऊंचे आकाश में पतंग उड़ा रहे थे। पवन मंद गति से सभी का साथ निभाते हुए  पतंग आगे बढ़ने में सहायक हो रही थी।

रंग-बिरंगे पतंग चारों तरफ दिखाई दे रही थी। दो भाई रोशन और रोहित भी पतंग उड़ा रहे थे। उनके पापा  धीरे-धीरे टहल रहे थे

अचानक हवा तेज हो गई। छोटे भाई रोहित ने आवाज़ लगाई.. भैया मेरी पतंग कटने वाली है, जरा संभाल लेना, शायद डोर उलझ गई है।

बड़े भाई रोशन ने तुरंत अपनी पतंग संभाल, छोटे भाई की भी उलझी हुई मांझा सुधारने लगा।

उसी समय उनके पापा धीरे धीरे चलते आकर कहने लगे.. बेटा तुम दोनों अपनी पतंग का ध्यान रखो। मैं डोर सुलझा कर दोनों का मांझा चरखा संभाल रहा हूं। तुम पतंग गिरने नहीं देना।

दोनों भाई रोशन, रोहित पतंग की डोर संभाले पापा से  जाकर लिपट  गए। उंचाई पर  पतंग हवा के साथ अठखेलियाँ कर रही थीं।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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