हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.५॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.५॥ ☆

 

यस्यां यक्षाः सितमणिमयान्य एत्य हर्म्यस्थलानि

ज्योतिश्चायाकुसुमरचितान्य उत्तमस्त्रीसहायाः

आसेवन्ते मधु रतिफलं कल्पवृक्षप्रसूतं

त्वद्गम्भीरध्वनिषु शनकैः पुष्करेष्व आहतेषु॥२.५॥

 

जहाँ के भवन उच्च मणिमय प्रभा से

नक्षत्र छाया कुसुम से सुहावन

जहाँ सुन्दरी के सहायक सभी यक्ष

तुम सम कुशल नाद कर चित्त भावन

बजाते समय वाद्य रतिफल सुरा स्वाद

का ले चषक मोद आल्हादकारी

रतिफल  रसास्वाद जो कल्पद्रुम से

सदा प्राप्त करते सभी रस बिहारी

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry (भावानुवाद) ☆ Eternal Silence…/चिरशांति… ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present his mesmerizing poem  Eternal Silence…”. We also present the Hindi version of this poem चिरशांति… translated by himself.

We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit,  English and Urdu languages) for this awesome translation.)

Pen broke free, yet again…!

☆ Eternal Silence… ☆

Meaningful intent of  life,

Epicenter of battle for the existence

What is the explanation thereof,

What is the complementarity…

But, yet again

the same perennial

silence only…

 

Escape from the truth,

Rules of foreordination,

Proximity to the destination,

Encounter with the rigours of destiny…

 

Accounts of the Karmas,

Desire of the deathlessness, immortality or eternity…

The cycle of ‘Birth-and-Death’

Or merging with the finality…

Infiniteness of the universe

Unanswered questions

yet again,

The same eternal

silence…!

 

 –Pravin Raghuvanshi

चिरशांति…

क्या है जीवन की सार्थकता

क्या है अस्तित्व का महासंग्राम

क्या है इसका स्पष्टीकरण

क्या है इसकी पूरकता

परंतु निरंतर मिलती है

निरुत्तरता ही निरुत्तरता…

 

सत्य से पलायन सम्भव नहीं

प्रारब्ध के नियम रहते सतत गतिमान

गंतव्य की निकटता हो

या नियति से भेंट,

परंतु यहाँ भी वही अवरोध:

कर्मफलों का लेखा-जोखा

फिर भी निरंतर चाह

अजरता, अमरता और अमृत्व की…

चिरकालिक प्रश्न:

जन्म-मृत्यु चक्र का फेर

या सम्पूर्णता में विलीनता

या ब्रह्मांड की अनंतता

रहते हमेशा ही अनुत्तरित…

चाहे कितना भी रहो प्रयासरत

अंततः

फिर वही चिरशांति…

–  प्रवीण रघुवंशी

 © Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संख्यारेखा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – संख्यारेखा ☆

बाईं ओर

ऋण संख्या होती है,

दाहिनी ओर

धन संख्या होती है,

संख्यारेखा का सूत्र

गणित पढ़ा रहा था,

दोनों ओर

एक-सा निहारता हूँ

बीचों-बीच आकर

शून्य हो जाता हूँ,

अध्यात्म में

अद्वैत मंत्र कहलाता हूँ,

शासन में

लोकतंत्र हो जाता हूँ!

 

©  संजय भारद्वाज

(संध्या 5:49 बजे, 5.3.2021)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 32 ☆ सब को सदा सद्बुद्धि दो ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  एक भावप्रवण कविता  “सब को सदा सद्बुद्धि दो“।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

? हमारे मार्गदर्शक एवं प्रेरणादायी गुरुवर प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी को हिंदी अकादमी, मुंबई द्वारा साहित्य भूषण सम्मान द्वारा सम्मानित किये जाने के लिए ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें? 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 32 ☆

☆ सब को सदा सद्बुद्धि दो 

हे जगत की नियंता सब को सदा सद्बुद्धि दो

सब सदाचारी बनें पारस्परिक सद्भाव हो

मन में रुचि हो धर्म के प्रति सबके प्रति सद्भावना

जगत के कल्याण हित पनपे हृदय में कामना

हो न वैर विरोध कोई किसी से न दुराव हो

प्राणियों और निसर्ग के प्रति सदा पावन भाव हो

जिंदगी निर्मल रहे हो आप की आराधना

बन सके जितना हो संभव सभी के हित साधना

जगत में हर एक से निश्चल सुखद व्यवहार हो

मन में सबके लिए हो करुणा और पावन प्यार हो

उचित अनुचित क्या है करना इसका तो अनुमान हो

हर एक को दो शुभ बुद्धि इतनी सबको इतना ज्ञान दो

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.४॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.४॥ ☆

 

आनन्दोत्थं नयनसलिलम्यत्र नान्यैर निमित्तैर

नान्यस तापं कुसुमशरजाद इष्टसंयोगसाध्यात

नाप्य अन्यस्मात प्रणयकलहाद विप्रयोगोपपत्तिर

वित्तेशानां न च खलु वयो यौवनाद अन्यद अस्ति॥२.४॥

 

जहाँ यक्ष जन के नयन मात्र प्रेमाश्रु

को छोड़ आँसू नहीं जानते हैं

प्रिया का मिलन शमन उपचार जिसका

उसी ताप को ताप पहचानते हैं

जहाँ रति कलह के सिवा अन्य कोई

विरह दुख किसी को नहीं व्यापता है

जहाँ और सबकी उमर की अवधि को

अभय एक यौवन सतत नापता है

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 84 ☆ माहिया ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  कविता “माहिया । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 84 – साहित्य निकुंज ☆

☆ माहिया ☆

खामोशी गुनती है

क्या कहना है वो

शब्दों को चुनती है।

 

खामोशी कहती है

पिया तुम तो मेरे

रग रग में बहती हो।

 

खामोशी प्यारी है

चुप चुप रहकर वो

दुनिया में न्यारी है।

 

खामोशी क्या कहती

तेरे दिल में जो

आंखें ही वो पढ़ती।।

 

जन्मों की  कहानी है

माहिया तु है तो

हर रुत सुहानी है।

 

यादों का दरिया है

माहिया तु ही तो

मिलने का जरिया है।

 

फुर्सत है कहां तुम्हें

आए तुम तो नहीं

अब तुमसे क्या कहें

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 74 ☆ संतोष के दोहे☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 74 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆

फसल मिले वैसी हमें, जैसा बोया बीज

जग में कर्म प्रधान है, कर्म बड़ी है चीज

 

जो खेतों में रात दिन, करते हैं श्रम दान

अपने हक को लड़ रहा, पोषक वही किसान

 

गाँवों से अब निकल कर, चले शहर की ओर

श्रमिक खेत को छोड़के, खोज रहे नव ठोर

 

माटी से उपजे सभी, माटी की यह देह

माटी में ही सब मिले, करें ईश से नेह

 

सूने सारे हो गए, खेत और खलिहान

सड़कों पर निकले सभी, हक के लिए किसान

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संतृप्त ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – संतृप्त ☆

दुनिया को जितना देखोगे

दुनिया को जितना समझोगे,

दुनिया को जितना जानोगे

दुनिया को उतना पाओगे,

अशेष लिप्सा है दुनिया,

जितना कंठ तर करेगी

तृष्णा उतनी ही बढ़ेगी,

मैं अपवाद रहा

या शायद असफल,

दुनिया को जितना देखा

दुनिया को जितना समझा

दुनिया में जितना उतरा,

तृष्णा का कद घटता गया,

भीतर ही भीतर एक

संतृप्त जगत बनता गया।

©  संजय भारद्वाज

(रात्रि 12:25 बजे, 16.6.2019)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 64 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – तृतीय अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है तृतीय अध्याय

फ्लिपकार्ट लिंक >> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 64 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – तृतीय अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो श्रीकृष्ण कृपा से सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा दोहों में किया गया है। आज आप पढ़िए द्वितीय अध्याय का सार। आनन्द उठाएँ।

 डॉ राकेश चक्र

अध्याय 3

कर्मयोग क्या है ?  भगवान कृष्ण का  अर्जुन से कुछ इस तरह संवाद हुआ

अर्जुन ने भगवान कृष्ण से कर्मयोग के बारे में कहा –

केशव!कहते आप जो, बुद्धि सदा है ज्येष्ठ।

कर्म सकामी क्यों करूँ, युद्ध नहीं कुलश्रेष्ठ।।1

 

व्यामिश्रित उपदेश से, बुद्धि भ्रमित व्यामोह।।

मन का संशय दूर हो, दूर करें अवरोह।।2

 

श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा

अर्जुन तुम निष्पाप हो, दो जीवन उपहार।

एक ज्ञान का योग है, दूज भक्ति मनुहार।।3

 

कर्म जरूरी है सखा, मिटे न फल का योग।

सिद्धि नहीं संन्यास से, कर्म नहीं संयोग।।4

 

आत्म सदा सक्रिय रहे, कर्म करे हर याम।

शुभ-शुभ करते कर्म जो, मिलें सुखद परिणाम।।5

 

करे दिखावा भक्ति का,औ’ विषयों का ध्यान।

अधम भक्ति ऐसी समझ, करती मिथ्यापान।। 6

 

 

कर्मयोग कर्मेंद्रि से, अनासक्त हो भाव।

कर्म करें कर्मेंद्रियां , पावन श्रेष्ठ स्वभाव।।7

 

कर्म करे शास्त्रज्ञ विधि, कर ले शुभ-शुभ कर्म।

कर्म मनुज जो ना करें , उसको कहें अकर्म।।8

 

कर्मों का मत त्याग कर, मनासक्ति को छोड़।

प्रभु को श्रेयस मानकर,भक्ति-भाव उर मोड़।।9

 

ब्रह्मा कहते कल्प में, करना सब जन यज्ञ।

इच्छित फल तुमको मिले, जीवन हो धर्मज्ञ।।10

 

यज्ञ मनुज जो भी करें, रहते देव प्रसन्न।

इच्छित फल दें देवता, रहें सदा संपन्न।।11

 

बिन माँगे, दें देवता, वस्तु, अन्न सब भोग।

हवन सदा करते रहो, नहीं सताएं रोग।।12

 

जो खाते यज्ञ कर, अन्न मनुज वे श्रेष्ठ।

पाप-शाप सब छूटते, है जीवन गति कुलश्रेष्ठ ।।13

 

जनोत्पत्ति है यज्ञ से,यज्ञ वृष्टि का हेत

कर्मों से ही यज्ञ हों,मिलता सुख अभिप्रेत ।।14

 

जन्म-कर्म ही वेद है, ईश्वर वेद विधान।

सर्वव्याप परमात्मा,रहते यज्ञ प्रधान।।15

 

सृष्टि चक्र इस लोक में, कर्म वेद अनुसार।

कर्म करें सुख भोग को, है वह पापाचार।।16

 

करें आत्मा प्रेम जो, रहें आत्म संतुष्ट।

यही उचित कर्तव्य है, कभी न हों वे रुष्ट ।।17

 

आत्म ज्ञान में लीन जो, रहे सदा निष्पाप।

ऐसे मानव लोक में, कभी न पाएँ ताप।। 18

 

अनासक्त हो, कर्म कर, रख लें शील स्वभाव।

ईश्वर को अति प्रिय लगे , अंतर्मन- सद्भाव।।19

 

जनकादिक ज्ञानी पुरुष, अनासक्ति कृत कर्म।

परम् सिद्धि पाए सभी, किए लोक हित धर्म।।20

 

श्रेष्ठ मनुज जैसा करें, करते वैसा लोग।

देते सभी प्रमाण हैं, लोक और परलोक।।21

 

अर्जुन सुन लो बात तुम, मैं ही सबका ईश।

फिर भी करता कर्म मैं, होकर के जगदीश।।22

 

मैं जैसा हूँ कर रहा, देख करें बर्ताव।

जन्मा हूँ कल्याण हित, बाँटूँ सुंदर भाव।। 23

 

नहीं करूँ यदि कर्म मैं, लोग भ्रष्ट हो जाँय।

कर्म करूँ कल्याण के, भक्त सदा सुख पाँय।। 24

 

हे अर्जुन तू कर्म कर, अनासक्त ले भाव।

ज्ञानी जन ज्यों लोक में, बाँट रहे सद्भाव।।25

 

ज्ञानी जन करते रहे, सदा लोक कल्याण।

वैसे ही तू कर्म कर, कर्म बिना  निष्प्राण।। 26

 

सभी काम हैं प्रकृति के, अहम करे प्रतिकार।

कर्ता मानव बन रहा, मन में ले कुविचार।। 27

 

त्रिगुणी माया ज्ञान की, ज्ञानी को दे सीख।

ऐसा ज्ञानी जगत में, बाहर-भीतर दीख।। 28

 

त्रयी प्रकृति के गुणों से, होते जो आसक्त।

मर्म न प्रभु का जानते, जानें ज्ञानी भक्त।। 29

 

अर्जुन तू सुन ध्यान से, मुझमें चित लवलीन।

कर्म समर्पण भाव से,करो ईश्वराधीन।।30

 

दोष बुद्धि से जो रहित, वे ही मेरे भक्त।

मुझको पाते हैं वही, जो श्रद्धा संपृक्त।।31

 

दोष दृष्टि जो जन रखें, उसे मूर्ख तू जान।

ऐसे मनुजों का कभी, नहीं हुआ कल्यान।। 32

 

हर प्राणी ही प्रकृति के, रहता सदा अधीन।

करता कर्म स्वभाव वश, हठ हो जाता क्षीण।। 33

 

रखो इंद्रियों को प्रिये, अपने सदा अधीन।

ये ही अपनी शत्रु हैं, पथ से करें विहीन।। 34

 

करो आचरण धर्मयुत, चिंतन धर्माचार।

धर्म स्वयं का श्रेष्ठ है, खुले मुक्ति का द्वार।। 35

 

अर्जुन उवाच

अर्जुन कहते कृष्ण से, मनुज करे क्यों पाप।

बिन चाहे फिर भी विवश , झेल रहा संताप।। 36

 

श्री भगवान उवाच

हे अर्जुन प्रिय वचन सुन, रजोगुणी है काम।

भोग, क्रोध ही दे रहे, इसको बैरी नाम।। 37

 

धुआँ अग्नि को ढाँकता, रज दर्पण ढँक जाय।

गर्भ ढँका ज्यों जेर से, काम, ज्ञान भरमाय।। 38

 

काम, अग्नि सादृश्य है, जिसमें सब जल जाँय।

विषय वासना शत्रु है, ज्ञान ध्यान बिलगाँय।।39

 

मनोबुद्धि सब इन्द्रियाँ, यही काम स्थान।

ज्ञान ढकें ये स्वयं का , देते दुख औ’ त्राण।। 40

 

रखो इन्द्रियों को सदा , हे प्रिय निज आधीन।

ज्ञान, बुद्धि, बल फिर बढ़े, जीवन हो स्वाधीन।। 41

 

तन से इन्द्री श्रेष्ठ हैं, इन्द्री से मन श्रेष्ठ।

मन से बुधिबल श्रेष्ठ है, आत्म बुद्धि से श्रेष्ठ।। 42

 

सदा आत्म की बात सुन, विषय वासना मार।

मन को रख वश में सदा, है जीवन का सार।। 43

 

इस प्रकार श्रीमद्भगवतगीता के तृतीय अध्याय ” कर्मयोग” का भक्तिवेदांत तात्पर्य पूर्ण हुआ (समाप्त)।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.२॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.२॥ ☆

हस्ते लीलाकमलम अलके बालकुन्दानुविद्धं

नीता लोध्रप्रसवरजसा पाण्डुताम आनने श्रीः

चूडापाशे नवकुरवकं चारु कर्णे शिरीषं

सीमन्ते च त्वदुपगमजं यत्र नीपं वधूनाम॥२.२॥

 

लिये हाथ लीला कमल औ” अलक में

सजे कुन्द के पुष्प की कान्त माला

जहाँ लोध्र के पुष्प की रज लगाकर

स्वमुख श्री प्रवर्धन निरत नित्य बाला

कुरबक कुसुम से जहाँ वेणि कवरी

तथा कर्ण सजती सिरस के सुमन से

 सीमान्त शोभित कदम पुष्प से

जो प्रफुल्लित सखे ! तुम्हारे आगमन से

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

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