(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “वसंत के बहाने…“।)
अभी अभी # 284 ⇒ वसंत के बहाने… श्री प्रदीप शर्मा
सबसे पहले बचपन की एक कविता, जो आज भी हम सबकी जबान पर सरस्वती की तरह मौजूद है ;
आया वसंत, आया वसंत।
खिल गए फूल, लद गई डाल।
भौंरों ने गुनगुनाना शुरू किया
पत्ते दे रहे ताल।।
तब हम कहां जानते थे, कौन निराला है, कौन पंत है और कौन प्रसाद है।
कितनी सरल भाषा है, फिर भी लदने और ताल देने की अभिव्यक्ति कितनी सहज और सुंदर है।
हम तो अपनी उम्र को भी वसंत से ही गिनते हैं, कितने वसंत पूरे हुए।
जिस भी कन्या अथवा बालक का जन्म वसंत पंचमी को हुआ, उसका नामकरण तत्काल बसंत अथवा बसंती हो जाता था। वसंत में जब थोड़ा रंग मिल जाता है, तो वह रंग बसंती हो जाता है। रंग बसंती आ गया, मस्ताना मौसम छा गया।।
अंगड़ाई शब्द में ही मस्ती है। यही वह समय है, जब मौसम भी अंगड़ाई लेने लगता है। अंगड़ाई का कोई मुहूर्त भले ही ना होता हो, लेकिन समय जरूर होता है। सबसे पहले इसका असर सूर्य नारायण पर पड़ता है। ठंड में ठिठुरते हुए, सात बजे के बाद खिड़की खोलने वाले आदित्य नारायण इस मौसम में जल्द ही आंगन में पसर जाते हैं। ओस से ढंकी पत्तों और फूलों की बूंदें, गायब होनी नजर आने लगती है। सूरज की अंगड़ाई के बहुत पहले ही पक्षी अपना बसेरा छोड़ चुके होते हैं। वे शायद दोपहर की थकान के बाद अगड़ाई लेते हों क्योंकि सुबह तो उन्हें सांस लेने की भी फुर्सत नहीं मिलती।
मकर सक्रांति से यह मौसम की क्रांति शुरू होती है। पहले तिल गुड़ खाकर हमने ठंड भगाई और अब केसरिया चावल खा रहे हैं। हो सकता है, आगे गुड़ी पाड़वा तक हम पूरण पोळी से भी आगे निकल ठंडे श्रीखंड पर अटक जाएं। मस्ती में सराबोर यह अंगड़ाई जब होली के रंग में भीगेगी, तब केवल बनारस वाले पान से कहां काम चलने वाला है।।
वसंत की इस मस्ती में सरस्वती की साधना का समय भी बड़ा अनुकूल है। आज के इस शुभ मुहूर्त पर क्यों न देवी सरस्वती से ही वर मांगा जाए ;
(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन)हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं। इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है आपका रेडियो दिवस पर एक आलेख ‘रेडियो की शताब्दी, दुनिया को ग्लोबल गांव बना दिया…’।)
☆ आलेख – रेडियो की शताब्दी, दुनिया ग्लोबल गांव बना… ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆
16 फ़रवरी, हिसार। दुनिया में रेडियो स्टेशन बनने की शुरुआत 1920 के दशक में हुई थी और पिछले सौ साल में रेडियो ने बिखरी दुनिया को इस तरह जोड़ा कि लोग कहने लगे कि आज दुनिया ग्लोबल विलेज यानि एक वैश्विक गांव जैसी बन गई है।
13 फरवरी, विश्व रेडियो दिवस पर आकाशवाणी हिसार के स्टूडियो में आयोजित एक श्रोता गोष्ठी में यह बात आकाशवाणी के विभिन्न केंद्रों पर संवाददाता, संपादक व निदेशक के रूप में काम कर चुके दूरदर्शन के पूर्व समाचार निदेशक अजीत सिंह ने कही। इस बार के रेडियो दिवस का ध्येय वाक्य है: सूचना, शिक्षा एवम मनोरंजन की रेडियो की एक शताब्दी।
संचार और संवाद से दूरियां कम होती हैं, समझ बढ़ती है, एकता बनती है , विश्व शांति पनपती है और मानव समुदायों की तरक्की होती है। रेडियो तरंगें राष्ट्रीय सरहदों को नहीं मानती। अधिनायकवादी देशों में आज़ादी और मानवाधिकारों के संदेश ले जाती हैं और सोवियत संघ जैसे देश टूट जाते हैं, अरब राष्ट्रों में कई बादशाहों के सिंहासन डोलते हैं।
जन संचार के माध्यम के रूप में रेडियो ने विभिन्न देशों और क्षेत्रों में ऐसा ही बहुत कुछ पिछले 100 साल में करके दिखाया है।
नई तकनीक के साथ रेडियो का स्वरूप भी बदला है। अब यह सर्वव्यापी, सशक्त पर ऐसा सस्ता माध्यम है जो उस जगह भी काम आता है जहां टेलीविजन और सोशल मीडिया भी काम नहीं कर पाते।
जम्मू कश्मीर में आतंकवाद के दौरान अपने अनुभव सांझा करते हुए अजीत सिंह ने बताया कि बिजली सप्लाई जैसी व्यवस्था बिगड़ जाने पर आम लोगों के पास जानकारी का एकमात्र साधन रेडियो ही रहता था जिसकी विश्वसनीयता पर उन्हें यकीन था। बाढ़ और युद्ध के समय भी रेडियो ही काम आता है जो अब स्मार्टफोन में भी चलता है।
खेलों का आंखों देखा हाल रेडियो से ही शुरू हुआ। कृषि क्रांति को बढ़ावा रेडियो ने दिया जब किसान हाइब्रिड बीजों को रेडियो बीज कह कर ही पुकारते थे।
विश्व रेडियो दिवस पर स्मृति चिन्ह ।
ड्राइवर हरकिशन केंद्र निदेशक पवनकुमार को स्मृति चिन्ह भेंट करते हुए।
गोष्ठी में भाग लेने वाले चयनित श्रोता आकाशवाणी हिसार में।
श्रोता गोष्ठी में कुछ ऐसे लोगों को आमंत्रित किया गया था जो लंबे समय से रेडियो सुनते आ रहे हैं। इनमें से कुछ तो रेडियो के इतने दीवाने हैं कि रेडियो के बिना रह नहीं सकते। मुंबई और श्रीनगर तक 40 साल तक ट्रक चलाते रहे 66 वर्षीय हरिकिशन ने कहा कि ड्राइवरों के लंबे एकांत में दिन रात के सफ़र का सहारा तो रेडियो ही होता है। आभार स्वरूप उन्होंने मुंबई, दिल्ली और हिसार के आकाशवाणी केंद्रों पर जाकर अपने हाथों से तैयार मोमेंटो उपहार भेंट किए।
लेखिका उर्मिला श्योकंद ने कहा कि आकाशवाणी रोहतक के कार्यक्रम सुनकर वे इतनी प्रभावित थी कि वे रेडियो एनाउंसर बनना चाहती थी। शादी के बाद हिसार आने के कारण उनकी यह इच्छा अधूरी रही क्योंकि उस समय हिसार में आकाशवाणी का केंद्र नहीं था। पर बाद में यह इच्छा कुछ यूं पूरी हुई कि उनकी बेटी जनसंचार की डिग्री लेकर हिसार में कैजुअल एनाउंसर बन गई। उन्होंने रेडियो दिवस पर एक कविता भी सुनाई।
रेडियो के ही कर्मचारी राजीव शर्मा ने कहा कि रेडियो ने संगीत का अपार प्रसार कर इसे अमर कर दिया है । उन्होंने एक गीत भी पेश किया।
एक और श्रोता रमेश वर्मा ने कहा कि जो काम रेडियो के माध्यम से फिल्म संगीत के प्रसार का रेडियो सीलोन पर कभी अमीन सयानी करते थे, वही काम आज विविध भारती चैनल पर युनुस खान कर रहे हैं।
श्रोता सोनू का कहना था कि रेडियो किसानों के लिए स्थानीय भाषा में गागर में सागर भर कर जानकारी देता है।
उन्होंने कहा कि इंटरनेट के ज़रिए अब दुनिया के किसी भी रेडियो स्टेशन को कहीं भी सुना जा सकता है।
निहाल सिंह सैनी ने कहा कि रेडियो तो मन का रंगमंच, थिएटर ऑफ माइंड है, यह श्रोता की कल्पना शक्ति को उड़ान देता है।
उन्होंने कहा कि रेडियो का महत्व इस बात से भी समझा जा सकता है कि सैनिक या अन्य क्रांति के समय सत्ता हथियाने वाले सबसे पहले रेडियो स्टेशन पर कब्ज़ा करते हैं।
प्रगतिशील किसान दलबीर सिंह आर्य का कहना था कि हरित क्रांति का प्रसार रेडियो के माध्यम से हुआ और यह प्रक्रिया आज भी जारी है।
आकाशवाणी हिसार के केंद्र निदेशक पवनकुमार ने कहा यह धारणा गलत है कि रेडियो के श्रोता कम हो रहे हैं। आकाशवाणी हिसार के फोन-इन जैसे कार्यक्रमों में श्रोताओं को नंबर ही नहीं मिल पाता। कुछ तो पक्षपात का आरोप लगाते हुए केंद्र तक पहुंच जाते हैं और हम उन्हे संतुष्ट करने का प्रयास करते हैं। उन्होंने बताया कि हिसार केंद्र को ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, इंग्लैंड और अन्य देशों से श्रोताओं के लगातार फोन आते हैं। श्रोता इतने दीवाने हैं कि उन्होंने रेडियो श्रोता क्लब बनाए हुए हैं। वे अपनी पत्रिकाएं निकालते हैं और वार्षिक सम्मेलन करते हैं।
व्हाट्सएप और ईमेल की सुविधा के कारण संपर्क आसान हो गया है। कुछ श्रोता इतने सजग हैं कि किसी कार्यक्रम में छोटी सी भी गलती पकड़ लेते हैं और उसकी शिकायत करते हैं। हम स्वीकार करते हुए उनका धन्यवाद करते हैं।
सभी ने रेडियो की पिछली शताब्दी पर बधाई दी और आगामी शताब्दी के लिए शुभ कामनाएं अर्पित की।
रेडियो की वरिष्ठ एनाउंसर ऋतु कौशिक ने श्रोता गोष्ठी का संचालन किया।
गोष्ठी में भाग लेने वाले सभी श्रोताओं को केंद्र निदेशक पवन कुमार ने स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया।
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख अनुभव और निर्णय…। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 219 ☆
☆ अनुभव और निर्णय... ☆
अगर आप सही अनुभव नहीं करते, तो निश्चित् है कि आप ग़लत निर्णय लेंगे–हेज़लिट की यह उक्ति अपने भीतर गहन अर्थ समेटे है। अनुभव व निर्णय का अन्योन्याश्रित संबंध है। यदि विषम परिस्थितियों में हमारा अनुभव अच्छा नहीं है, तो हम उसे शाश्वत् सत्य स्वीकार उसी के अनुकूल निर्णय लेते रहेंगे। उस स्थिति में हमारे हृदय में एक ही भाव होता है कि हम आँखिन देखी पर विश्वास रखते हैं और यह हमारा व्यक्तिगत अनुभव है–सो! यह ग़लत कैसे हो सकता है? निर्णय लेते हुए न हम चिन्तन-मनन करना चाहते हैं; ना ही पुनरावलोकन, क्योंकि हम आत्मानुभव को नहीं नकार सकते हैं?
मानव मस्तिष्क ठीक एक पैराशूट की भांति है, जब तक खुला रहता है, कार्यशील रहता है–लार्ड डेवन का यह कथन मस्तिष्क की क्रियाशीलता पर प्रकाश डालता है और उसके अधिकाधिक प्रयोग करने का संदेश देता है। कबीरदास जी भी ‘दान देत धन न घटै, कह गये भक्त कबीर’ संदेश प्रेषित करते हैं कि दान देते ने से धन घटता नहीं और विद्या रूपी धन बाँटने से सदैव बढ़ता है। महात्मा बुद्ध भी जो हम देते हैं; उसका कई गुणा लौटकर हमारे पास आता है–संदेश प्रेषित करते हैं। भगवान महाबीर भी त्याग करने का संदेश देते हैं और प्रकृति का भी यही चिरंतन व शाश्वत् सत्य है।
मनुष्य तभी तक सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम, सर्वगुण-सम्पन्न व सर्वपूज्य बना रहता है, जब तक वह दूसरों से याचना नहीं करता–ब्रह्मपुराण का भाव, कबीर की वाणी में इस प्रकार अभिव्यक्त हुआ है ‘मांगन मरण एक समान।’ मानव को उसके सम्मुख हाथ पसारने चाहिए, जो सृष्टि-नियंता व जगपालक है और दान देते हुए उसकी नज़रें सदैव झुकी रहनी चाहिए, क्योंकि देने वाला तो कोई और…वह तो केवल मात्र माध्यम है। संसार में अपना कुछ भी नहीं है। यह नश्वर मानव देह भी पंचतत्वों से निर्मित है और अंतकाल उसे उनमें विलीन हो जाना है। मेरी स्वरचित पंक्तियाँ उक्त भाव को व्यक्त करती हैं…’यह किराये का मकान है/ जाने कौन कब तक ठहरेगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ तू जाएगा’ और ‘प्रभु नाम तू जप ले रे बंदे!/ वही तेरे साथ जाएगा’ यही है जीवन का शाश्वत् सत्य।
मानव अहंनिष्ठता के कारण निर्णय लेने से पूर्व औचित्य- अनौचित्य व लाभ-हानि पर सोच-विचार नहीं करता और उसके पश्चात् उसे पत्थर की लकीर मान बैठता है, जबकि उसके विभिन्न पहलुओं पर दृष्टिपात करना आवश्यक होता है। अंततः यह उसके जीवन की त्रासदी बन जाती है। अक्सर निर्णय हमारी मन:स्थिति से प्रभावित होते है, क्योंकि प्रसन्नता में हमें ओस की बूंदें मोतियों सम भासती हैं और अवसाद में आँसुओं सम प्रतिभासित होती हैं। सौंदर्य वस्तु में नहीं, दृष्टा के नेत्रों में होता है। इसलिए कहा जाता है ‘जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि।’ सो! चेहरे पर हमारे मनोभाव प्रकट होते हैं। इसलिए ‘तोरा मन दर्पण कहलाए’ गीत की पंक्तियाँ आज भी सार्थक हैं।
दोषारोपण करना मानव का स्वभाव है, क्योंकि हम स्वयं को बुद्धिमान व दूसरों को मूर्ख समझते हैं। परिणामत: हम सत्यान्वेषण नहीं कर पाते। ‘बहुत कमियाँ निकालते हैं/ हम दूसरों में अक्सर/ आओ! एक मुलाकात/ ज़रा आईने से भी कर लें।’ परंतु मानव अपने अंतर्मन में झाँकना ही नहीं चाहता, क्योंकि वह आश्वस्त होता है कि वह गुणों की खान है और कोई ग़लती कर ही नहीं सकता। परंतु अपने ही अपने बनकर अपनों को प्रताड़ित करते हैं। इतना ही नहीं, ‘ज़िन्दगी कहाँ रुलाती है/ रुलाते तो वे लोग हैं/ जिन्हें हम अपनी ज़िन्दगी समझ बैठते हैं’ और हमारे सबसे प्रिय लोग ही सर्वाधिक कष्ट देते हैं। ढूंढो तो सुक़ून ख़ुद में है/ दूसरों में तो बस उलझनें मिलेंगी। आनंद तो हमारे मन में है। यदि वह मन में नहीं है, तो दुनिया में कहीं नहीं है, क्योंकि दूसरों से अपेक्षा करने से तो उलझनें प्राप्त होती हैं। सो! ‘उलझनें बहुत हैं, सुलझा लीजिए/ बेवजह ही न किसी से ग़िला कीजिए’ स्वरचित गीत की पंक्तियाँ उलझनों को शीघ्र सुलझाने व शिक़ायत न करने की सीख देती हैं।
उत्तम काम के दो सूत्र हैं…जो मुझे आता है कर लूंगा/ जो मुझे नहीं आता सीख लूंगा। यह है स्वीकार्यता भाव, जो सत्य है और यथार्थ है उसे स्वीकार लेना। जो व्यक्ति अपनी ग़लती को स्वीकार लेता है, उसके जीवन पथ में कोई अवरोध नहीं आता और वह निरंतर सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ता जाता है। ‘दो पल की है ज़िन्दगी/ इसे जीने के दो उसूल बनाओ/ महको तो फूलों की तरह/ बिखरो तो सुगंध की तरह ‘ मानव को सिद्धांतवादी होने के साथ-साथ हर स्थिति में खुशी से जीना बेहतर विकल्प व सर्वोत्तम उपाय है।
बहुत क़रीब से अंजान बनके निकला है/ जो कभी दूर से पहचान लिया करता था–गुलज़ार का यह कथन जीवन की त्रासदी को इंगित करता है। इस संसार म़े हर व्यक्ति स्वार्थी है और उसकी फ़ितरत को समझना अत्यंत कठिन है। ज़िन्दगी समझ में आ गयी तो अकेले में मेला/ न समझ में आयी तो भीड़ में अकेला…यही जीवन का शाश्वत् सत्य व सार है। हम अपनी मनस्थिति के अनुकूल ही व्यथित होते हैं और यथासमय भरपूर सुक़ून पाते हैं।
तराशिए ख़ुद को इस क़दर जहान में/ पाने वालों को नाज़ व खोने वाले को अफ़सोस रहे। वजूद ऐसा बनाएं कि कोई तुम्हें छोड़ तो सके, पर भुला न सके। परंतु यह तभी संभव है, जब आप इस तथ्य से अवगत हों कि रिश्ते एक-दूसरे का ख्याल रखने के लिए होते हैं, इस्तेमाल करने के लिए नहीं। हमें त्याग व समर्पण भाव से इनका निर्वहन करना चाहिए। सो! श्रेष्ठ वही है, जिसमें दृढ़ता हो; ज़िद्द नहीं, दया हो; कमज़ोरी नहीं, ज्ञान हो; अहंकार नहीं। जिसमें इन गुणों का समुच्चय होता है, सर्वश्रेष्ठ कहलाता है। समय और समझ दोनों एक साथ किस्मत वालों को मिलती है, क्योंकि अक्सर समय पर समझ नहीं आती और समझ आने पर समय निकल जाता है। प्राय: जिनमें समझ होती है, वे अहंनिष्ठता के कारण दूसरों को हेय समझते हैं और उनके अस्तित्व को नकार देते हैं। उन्हें किसी का साथ ग़वारा नहीं होता और एक अंतराल के पश्चात् वे स्वयं को कटघरे में खड़ा पाते हैं। न कोई उनके साथ रहना पसंद करता है और न ही किसी को उनकी दरक़ार होती है।
वैसे दो तरह से चीज़ें नज़र आती हैं, एक दूर से; दूसरा ग़ुरूर से। ग़ुरूर से दूरियां बढ़ती जाती हैं, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। दुनिया में तीन प्रकार के लोग होते हैं–प्रथम दूसरों के अनुभव से सीखते हैं, द्वितीय अपने अनुभव से और तृतीय अपने ग़ुरूर के कारण सीखते ही नहीं और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। बुद्धिमान लोगो में जन्मजात प्रतिभा होती है, कुछ लोग शास्त्राध्ययन से तथा अन्य अभ्यास अर्थात् अपने अनुभव से सीखते हैं। ‘करत- करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान’ कबीरदास जी भी इस तथ्य को स्वीकारते हैं कि हमारा अनुभव ही हमारा निर्णय होता है। इनका चोली-दामन का साथ है और ये अन्योन्याश्रित है।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “प्रेम-पर्वत…“।)
अभी अभी # 283 ⇒ प्रेम-पर्वत… श्री प्रदीप शर्मा
प्रेम में अगर पर्वत जितनी ऊंचाइयां हैं, तो समंदर जितनी गहराइयां भी। मेरा प्यार है, इतना ऊँचा, जैसे राम रहीमा। कविता और प्यार का चोली-दामन का साथ है ! मैं कहीं कवि ना बन जाऊँ, तेरे प्यार में ऐ कविता।
अंग्रेज़ी नाटककार शेक्सपियर एक कवि भी थे, इसलिए कॉमेडी और ट्रेजेडी दोनों लिख पाए ! अपनी कविता true love में वे कहते हैं ;
Let me not to the marriage of true minds,
Admit impediments.
बहुत से शायरों ने प्यार को जिस्म से ऊपर माना है।
तुम अगर भूल भी जाओ, तो ये हक है तुमको, मेरी बात और है, मैंने तो मोहब्बत की है।।
साहिर और अमृता प्रीतम का जितना बड़ा संसार सृजन और शायरी का है, उतना ही बड़ा संसार प्रेम का। विरह और मिलन, प्रेम के दो अलौकिक बिंदु हैं, जहाँ एक ओर अगर कृष्ण हैं, तो दूसरी ओर मीरा और राधा। मिलने की खुशी ना बिछड़ने का ग़म। सारे ये रिश्ते खो जाएँ।
मैं, मैं ना रहूँ, तू, तू ना रहे।
इक दूजे में खो जाएँ।
क्या खोना ही पाना है ?
तुझे खो दिया हमने पाने के बाद तेरी याद आए।
और याद भी कैसी !
याद में तेरी जाग जाग के हम,
रात भर करवटें बदलते हैं।
गुलज़ार तो प्यार को और कोई नाम ही नहीं देना चाहते।।
क्या धरती और क्या आकाश !सबको प्यार की प्यास। जब तक जीव और ब्रह्म अलग हैं, यह प्यार का सिलसिला चलता ही रहेगा। नदी सागर में मिलकर नदी नहीं रह जाती। सागर की लहरें फिर भी किनारे की ओर जाती हैं, और फिर लौट आती हैं। एक तड़प है प्यार में, कई अफ़साने हैं।
किसी से मिलन है, किसी से जुदाई। नये रिश्तों ने तोड़ा नाता पुराना, मैं तो दीवाना, दीवाना, दीवाना। हाँ ! दीवाना हूँ मैं, ग़म का मारा हूँ मैं। माँगी खुशियाँ मगर, ग़म मिला प्यार में। आज कोई नहीं मेरा, इस संसार में।।
प्यार अगर बाँटने की चीज है, तो सहेजने की भी। प्रेम, इश्क, प्यार सबमें ढाई आखर ही हैं। हमें पंडित बनकर क्या करना। वफ़ा, बेवफ़ा तो ठीक है, बस आपस में नफ़रत पैदा न हो। किसे मालूम था कि राजनीति भी नफ़रत पैदा कर सकती है। इतने साल हम खुशहाल थे, क्योंकि हमारे दिलों में नफ़रत नहीं थी।
वे आए हैं, तोहफ़ों का टोकरा साथ लाए हैं। अपनों के लिए मोहब्बत है, परायों के लिए नफ़रत। फ़लसफा प्यार का तुम क्या जानो ! तुमने कभी प्यार ना किया। तुमने इंतज़ार ना किया।।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सुरभित सुंदर सुखद सुमन…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 182 ☆ सुरभित सुंदर सुखद सुमन… ☆
कोई भी कार्य करो सामने दो विकल्प रहते हैं, जो सही है वो किया जाय या जिस पर सर्व सहमति हो वो किया जाए। अधिकांश लोग सबके साथ जाने में ही भलाई समझते हैं क्योंकि इससे हार का खतरा नहीं रहता साथ ही कम परिश्रम में अधिक उपलब्धि भी मिल जाती है। आजकल जिस तेजी से लोग दलबदल कर रहें हैं,ऐसा लगता है मानो वैचारिक मूल्यों का कोई मूल्य ही नहीं रह गया है।
कीचड़ में धसा हुआ व्यक्ति बहुत जोर लगाने पर भी ऊपर नहीं आ पाता है। दलदल में डुबकी लगाना कोई मज़ाक की बात नहीं है लेकिन बिना मेहनत सब पाने की चाहत रखने वाला बिना दिमाग़ लगाए कुछ भी करेगा। सब मिल जायेगा पर नया सीखने व करने को नहीं मिलेगा यदि पूरी हिम्मत के साथ सच को स्वीकार करने की क्षमता आप में नहीं है तो आपकी जीत सुनिश्चित नहीं हो सकती।
रोज – रोज का कलह आपको भटकने के लिए कई रास्ते देगा। जब जहाँ मन पड़े चल दीजिए, आपके समर्थक आपका पीछा करेंगे, यदि कोई अच्छी जगह दिखी तो कुछ वहीं रुक कर अपना आशियाना बना लेंगे। मिलने – बिछड़ने का यह सफर दिनोदिन अनोखे रंग में रंगने लगा है। शिखर तक पहुँचने का रास्ता आसान नहीं होता किन्तु इतना कठिन भी नहीं होता कि आप दृढ़संकल्प करें और जीत न सकें। तो बस, जो सही है वही करें; उचित मार्गदर्शन लेकर, पूर्ण योजना के साथ।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अलौकिक प्रेम…“।)
अभी अभी # 282 ⇒ अलौकिक प्रेम… श्री प्रदीप शर्मा
इस लोक में रहकर किसी और लोक की बात, और वह भी वैलेंटाइन वीक और वसंत ऋतु में ! क्या इस लोक में बहार की कमी है। l आया वसंत, आया वसंत और बहारों की तो समझिए, बारात ही निकलती रहती है इस मौसम में।
क्या इसे महज अतिशयोक्ति कहें अथवा हमारी लौकिकता का दिवालियापन, कि हमें सौंदर्य और प्रेम की तुलना भी अलौकिक प्रेम और सौंदर्य से करनी पड़ रही है। ऐसे कितने अलौकिक रिटर्न प्रेमी और सौंदर्यशास्त्री हमारे बीच मौजूद हैं, जो अन्य लोकों की भी जानकारी रखते हैं। अद्भुत और अलौकिक तो आजकल हमारा, एक तरह से, तकिया कलाम हो गया है।।
सप्तर्षि, सप्त सागर और सात रंगों की तरह ही सात लोकों का भी वर्णन आता है। ॐ भु:, भुव:, स्व:, तप:, मन:, जन: और सत्यम्, लो जी, हो गए सातों लोक। और खूबी यह कि ये सभी लोक भी हमारे अंतस् में ही समाए हुए हैं। बस इनकी अनुभूति इतनी आसान नहीं। और शायद इसीलिए देव और असुर दोनों अमृतपान कर अमर हो जाना चाहते हैं। अमृतपान से स्वर्ग का सुख प्राप्त होता है। सत्ता का सुख ही देवासुर संग्राम है।
क्या सत्ता का सुख, अथवा स्वर्ग का सुख प्रेम से बड़ा है। अगर वाकई ऐसा होता, तो शायद प्रेम का संदेश देने के लिए कृष्ण को मथुरा में जन्म ही नहीं लेना पड़ता। वैकुंठ का सुख छोड़ कोई क्यों ग्वाला बनकर गैया चराएगा, मटकी फोड़ेगा और माखन चोर कहलाएगा और गोपियों संग रास रचाएगा, इंद्र को पानी पिलाएगा और फिर भी चैन की बंसी बजाएगा।।
क्या यह सब अलौकिक नहीं ! इसी लोक में शबरी के जूठे बेर प्रभु श्री राम ने खाए हैं। यहीं, इसी धरती पर मीरा और सूरदास ने प्रेम और भक्ति के पद गुनगुनाए हैं। सभी कुछ तो इसी पृथ्वी लोक पर घटित होता चला आ रहा है। फिर और कौन सा प्रेम अलौकिक होता है, हमारी समझ से परे है।
प्रेम में दिव्यता होती है, भव्यता नहीं। प्रेम दर्शन की वस्तु है, प्रदर्शन की नहीं। प्रेम की बुनियाद त्याग और बलिदान पर टिकी है, जहां सब कुछ लुटाया ही जाता है। कितनी आसानी से कह जाते हैं जगजीत ;
तुम हार के दिल अपना
मेरी जीत अमर कर दो।
साधारण शब्दों में सांसारिक प्रेम लौकिक प्रेम है और ईश्वरीय प्रेम अलौकिक। जब प्रेम भक्ति का आधार बनता है तो वह निष्काम और अनासक्त हो जाता है। ईश्वर से प्रेम, अनासक्त प्रेम की पराकाष्ठा है ;
जब प्रेम ह्रदय में उमड़ पड़ा
आनंद ही है, आनंद ही है।
अब जग की चिंता कौन करे
आनंद ही है, आनंद ही है।।
जब ईश्वर की प्रतीति प्रकृति में होने लगती है, तो प्रकृति भी प्रेममय हो जाती है। जर्रे जर्रे में जब उसका एहसास होता है तो वही अलौकिक प्रेम सभी प्राणियों पर भी प्रकट होने लगता है। अपने पराए की प्रतीति नष्ट होने लगती है।
प्रेम का रंग ही कुछ ऐसा है कि यहां बारहों माह वसंत ही रहता है। लौकिक कहें, अलौकिक कहें, गुलजार तो प्यार को कोई नाम ही नहीं देना चाहते।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हग हग हगीज़…“।)
अभी अभी # 281 ⇒ हग हग हगीज़… श्री प्रदीप शर्मा
चौंकिए मत, यह एक विशुद्ध अंग्रेजी शीर्षक है। हम भी ऐसे ही चौंके थे, जब हमने मनोहर श्याम जोशी का हरिया हरक्युलिस की हैरानी जैसा शीर्षक वाला उपन्यास, देखा था। एक बहुत पुराना बच्चों का गीत है, गोरी जरा हंस दे तू, हंस दे तू, हंस दे जरा। और गीत के आखिर में एक बच्ची के हंसने की आवाज आती है।
कोई बच्चा हंसे, और उसे गले से लगाने की इच्छा ना हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। बाल लीला बड़ी मनोहर होती है। आपने सुना होगा,
“सूरदास तब विहंसि यशीदा, ले उर कंठ लगायो”।।
बच्चा तो खैर बच्चा ही होता है, और हर बच्चा सुंदर होता है। हम भी जब छोटे थे, तो आजकल की भाषा में बड़े क्यूट थे। बेचारे क्यूट बच्चे के गोरे गोरे गाल नोंचने से लोगों को क्या मिल जाता है। कभी तो उनका चेहरा और लाल हो जाता है, तो कभी कभी तो वे बेचारे दर्द के मारे रो देते हैं। हद होती है, चुम्मा चाटी की भी। बस, इसी को आजकल की भाषा में hug कहते हैं।
समझदार माताएं हमारे जमाने में छोटे बच्चों को नैपीज पहनाती थी, जिसे हम हमारी भाषा में लंगोट कहते थे। घर में इतने भाई बहन थे, कि सबको बच्चे को लंगोट पहनाना आ जाता था। बच्चा लाड़ प्यार का भूखा होता है, और हंसते बच्चे को तो कोई भी गोद में उठा लेता है। क्या भरोसा कब बच्चा गीला कर दे। गीला करते ही बच्चा थोड़ी झेंप के साथ वापस माता को सुपुर्द कर दिया जाता था, लगता है इसने गीला कर दिया है।।
वही बच्चे की लंगोट, नैप्पीज से कब डायपर हो गई, कुछ पता ही नहीं चला। हमें भी आटे दाल के भाव पते चल गए, जब अपने नवासी के लिए डायपर खरीदने निकले।
उस जमाने में दस रुपए का एक था। हम ध्यान डायपर के भाव पर रहता, और बच्चा डायपर की राह देखता। शंका लघु हो अथवा दीर्घ, डायपर लगाते ही, दूर हो जाती थी।
आपको शायद विचित्र लगे, बच्चों को सू सू कराने का भी तरीका होता है। अनुभवी माताएं आज की तरह हगीज के भरोसे नहीं रहती थी। बच्चे को खड़ा करके संगीत के साथ सू सू कराती थी। जब सा सा एक संगीत प्रेमी को मुग्ध कर सकता है, तो क्या सिर्फ मुंह से निकाली गई सू सू जैसी ध्वनि बच्चे की छोटी सी समस्या का निवारण नहीं कर सकती।।
लेकिन आज के व्यस्त जीवन में परिवारों में कहां इतने फुरसती जीव। हमने बच्चे को हगीज पहना दी है, जिसको जितना hug करना है, बच्चे को, प्रेम से करें। झेंपने और शरमाने जैसी कोई स्थिति ही नहीं। बच्चा भी खुश, आप भी खुश।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अनन्य भाव…“।)
अभी अभी # 280 ⇒ अनन्य भाव … श्री प्रदीप शर्मा
अब मेरा तेरे सिवा
मेरे प्रभु कोई नहीं।
यार तू, दिलदार तू
तेरे सिवा कोई नहीं। ।
सरिता के जल की तरह ही तो होता है, भाव का भी प्रवाह, एक आया, एक गया। एक भाव से ना तो दुनियादारी चलती है और ना ही हमारा अपना संसार। भाव हमारे चित्त की एक अवस्था है। चित्त में ऐसा कोई RO अथवा प्यूरीफायर नहीं लगा, जो हमारे भावों को सतत शुद्ध करता चले। भक्ति से चित्त शुद्ध और मन निर्मल होता है। फिर यह अनन्य भाव अथवा भक्ति क्या है।
तू नहीं और सही, और नहीं, और सही, किसी भक्त के नहीं, विभक्त के लक्षण हैं। नारद भक्ति सूत्र में भी जिस नवधा भक्ति का वर्णन किया है, उसमें कहीं भी अनन्य भाव का उल्लेख नहीं है।
कीर्तन, स्मरण, पाद सेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि भक्ति के इन प्रकारों का अनन्य भाव से कोई लेना देना नहीं है। ।
आप चाहे कीर्तन करें, स्मरण, अर्चन, वंदन अथवा आत्म निवेदन करें, अनन्य भाव भक्ति की पहली शर्त है। दास्य और सख्य भाव तो अनन्य भाव की पराकाष्ठा है। जितनी अनन्य भक्ति गोस्वामी तुलसीदास जी की अपने आराध्य मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम के प्रति थी, उतना ही अनन्य भाव वानर श्रेष्ठ हनुमान जी महाराज का प्रभु श्री राम के प्रति था। यही तो होता है अनन्य दास्य भाव।
मेरे तो गिरधर गोपाल,
दूसरो न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट
मेरो पति सोई।।
बस यही तो है मीरा की अनन्य भक्ति और अनन्य भाव। अनन्य यानी अन्य कोई नहीं। अगर परमेश्वर सखा हो सकता है तो क्या पति नहीं हो सकता। अनन्य भक्ति में कैसी कुल की मर्यादा और कैसी लोक लाज। उधर हमारे संत सूरदास तो अपने आराध्य बालकृष्ण की बाल लीलाओं में ही खोये हुए हैं। मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो। पूरा सूर सागर ही श्रीकृष्ण की अनन्य भक्ति का महासागर है। ।
अनन्य भाव कभी एक तरफा नहीं होता। पहल उधर से भी होती है, तब ही अनन्य भक्ति का मार्ग पुष्ट होता है। जब प्रभु श्री राम शबरी के जूठे बेर खाते हैं, केवट की नाव पर चढ़ते हैं, तब ही अनन्य भक्ति की परिणति होती है।
सुदामा के मुट्ठी भर चावल हो, विदुर का साग हो अथवा अर्जुन के रथ की डोर सारथी के रूप में थामने की लीला हो, बिना अनन्य भक्ति और प्रेम के यह सब संभव नहीं।।
एक नन्हा बालक मां के शरीर से ही अलग होकर इस संसार में आता है। फिर भी मां बेटे कहां जुदा होते हैं। दोनों की एक दूसरे में जान बसी रहती है। ईश्वर से भी हमारा भी तो यही रिश्ता है। हम भी तो उसके बालक ही हैं।
बस हमारी डोर सदा उसके हाथ में रहे, यही तो अनन्य भाव है। कृष्ण भी अर्जुन को गीता में यही संदेश देते हैं ; मामेकं शरणं व्रज ;
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 70 ☆ देश-परदेश – हवाई यात्रा ☆ श्री राकेश कुमार ☆
यूरोप के देश फिनलैंड में अब हवाई यात्रा से पूर्व, यात्री का भी वजन लिया जाएगा, ताकि हवाई जहाज की कुल भार वाहक क्षमता से कुल वजन अधिक ना हो जाए।
वर्तमान में तो सिर्फ यात्री के सामान का ही वजन किया जाता हैं। उसमें भी इतनी परेशानी होती है। यात्रा से पूर्व सूटकेस के वजन को अनेकों बार चेक किया जाता है, कि कहीं तय वजन से अधिक तो नहीं हो गया हैं।
हमारे देश के लोग तो कपड़ों की कई लेयर पहनकर यात्रा करते है, ताकि सामान का वजन निर्धारित सीमा में रहें। यदि ठंडे स्थान पर जा रहे हैं, तो ओवरकोट/ शाल इत्यादि हाथ में पकड़े रहते हैं।
विदेश अध्ययन करने के लिए चयनित बच्चे तो कोर्स की सबसे मोटी पुस्तक भी हाथ में रखते है, ये कहते हुए यात्रा के समय अध्यन करना हैं।
हमे तो लग रहा है, आने वाले समय में व्यक्ति और सामान के वजन अनुसार किराया शुल्क तय होगा। इस प्रावधान से यात्री, यात्रा से कुछ समय पूर्व भोजन और जल भी नही ग्रहण करेंगे, ताकि किराया कम लगें।
हमारे जैसे यात्री जिनको एयरपोर्ट लाउंज में प्रायः निशुल्क भर पेट खाने की सुविधा प्राप्त है। जम कर मुफ्त की रोटियां तोड़ेंगे। ये भी हो सकता है, वजन हवाई जहाज में ही लिया जाय, ताकि हेरा फेरी की संभावना नगण्य रहे।
जिम वाले भी हवाई यात्रा के लिए बहुत कम समय में वजन को कम करने के विशेष पैकेज परोसने लगेंगे। कार्यालय में कम वजन वालों को ही कार्यालय से संबंधित यात्रा में भेजा जाने लगेगा।
अब समय आ गया है, हम सब अपना वजन कम करें। खाने पीने पर नियंत्रण तो रखें साथ ही साथ मोबाईल के इस्तेमाल पर भी अंकुश रखें, क्योंकि मोबाईल के अधिक उपयोग से भी वजन बढ़ना तय होता हैं।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अस्मिता…“।)
अभी अभी # 280 ⇒ अस्मिता… श्री प्रदीप शर्मा
अहंकार, आसक्ति और अस्मिता तीनों एक ही परिवार के सदस्य हैं। वे हमेशा आपस में मिल जुलकर रहते हैं। अस्मिता सबसे बड़ी है, और अहंकार और आसक्ति जुड़वा भाई बहन हैं। वैसे तो जुड़वा में कोई बड़ा छोटा नहीं होता, फिर भी अहंकार अपने आपको आसक्ति से बड़ा ही मानता है। अहंकार को अपने भाई होने का घमंड है, जब कि आसक्ति अहंकार से बहुत प्रेम करती है, और उसके बिना रह नहीं सकती।
अहंकार आसक्ति को अकेले कहीं नहीं जाने देता। अहंकार जहां जाता है, हमेशा आसक्ति को अपने साथ ही रखता है।
अहंकार की बिना इजाजत के आसक्ति कहीं आ जा भी नहीं सकती।
अस्मिता को याद नहीं उसका जन्म कब हुआ।
कहते हैं अस्मिता की मां उसे जन्म देते समय ही गुजर गई थी। अस्मिता के पिता यह सदमा बर्दाश्त नहीं कर सके और तीनों बच्चों यानी अस्मिता, अहंकार और आसक्ति को अकेला छोड़ कहीं चले गए। बड़ी बहन होने के नाते, अस्मिता ने ही अहंकार और आसक्ति का पालन पोषण किया।।
अब अस्मिता ही दोनों जुड़वा भाई बहनों की माता भी है और पिता भी। अहंकार स्वभाव का बहुत घमंडी भी है और क्रोधी भी। जब भी लोग उसे अनाथ कहते हैं उसकी अस्मिता और स्वाभिमान को चोट पहुंचती है और वह और अधिक उग्र और क्रोधित हो जाता है, जब कि आसक्ति स्वभाव से बहुत ही विनम्र और मिलनसार है। वह सबसे प्रेम करती है और अस्मिता और अहंकार के बिना नहीं रह सकती।
कभी कभी अहंकार छोटा होते हुए भी अस्मिता पर हावी हो जाता है। उसे अपने पुरुष होने पर भी गर्व होता है। रोज सुबह होते ही वह अस्मिता और आसक्ति को घर में अकेला छोड़ काम पर निकल जाता है। एक तरह से देखा जाए तो अहंकार ही अस्मिता और आसक्ति का पालन पोषण कर रहा है।।
अहंकार को अपनी बड़ी बहन अस्मिता और जुड़वा बहन आसक्ति की बहुत चिंता है। बड़ी बहन होने के नाते अस्मिता चाहती है अहंकार शादी कर ले और अपनी गृहस्थी बना ले, लेकिन अस्मिता और आसक्ति दोनों अहंकार की जिम्मेदारी है, वह इतना स्वार्थी और खुदगर्ज भी नहीं। वह चाहता है अस्मिता और आसक्ति के एक बार हाथ पीले कर दे, तो बाद में वह अपने बारे में भी कुछ सोचे।
लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर होता है। अचानक अस्मिता के जीवन में विवेक नामक व्यक्ति का प्रवेश होता है, और वह बिना किसी को बताए, चुपचाप, अहंकार और आसक्ति को छोड़कर विवेक का हाथ थाम लेती है। एक रात अस्मिता विवेक के साथ ऐसी गायब हुई, कि उसका आज तक पता नहीं चला।।
बस तब से ही आज तक अहंकार और आसक्ति अपनी अस्मिता को तलाश रहे हैं, लेकिन ना तो अस्मिता ही का पता चला है और ना ही विवेक का।
अस्मिता का बहुत मन है कि विवेक के साथ वापस अहंकार और आसक्ति के पास चलकर रहा जाए। लेकिन विवेक अस्मिता को अहंकार और आसक्ति से दूर ही रखना चाहता है। बेचारी अस्मिता भी मजबूर है।
उधर अस्मिता के वियोग में अहंकार बुरी तरह टूट गया और बेचारी आसक्ति ने तो रो रोकर मानो वैराग्य ही धारण कर लिया है।
अगर किसी को अस्मिता और विवेक का पता चले, तो कृपया सूचित करें।।