हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – साथी हाथ बढ़ाना ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

मकर संक्रांति रविवार 15 जनवरी को है। इस दिन सूर्योपासना अवश्य करें। साथ ही यथासंभव दान भी करें।

💥 माँ सरस्वती साधना संपन्न हुई। अगली साधना की जानकारी से हम आपको शीघ्र ही अवगत कराएँगे। 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – साथी हाथ बढ़ाना ??

सात वर्ष पूर्व की बात है। गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर गण की रक्षा के लिए कश्मीर के गांदरबल में भारी हिमपात के बीच आतंकियों से जूझते सैनिकों के चित्र देखे थे।

विचार उठा, चौबीस घंटे पल-पल चौकन्ना सुरक्षातंत्र और उनकी कीमत पर राष्ट्रीय पर्व की छुट्टी मनाता गण अर्थात आप और हम।

विचार का विस्तार हुआ कि क्यों न राष्ट्रीय पर्वो की छुट्टी रद्द कर उन्हें सामूहिक योगदान से जोड़ें!

बुजुर्गों तथा बच्चों को छोड़कर देश की आधी जनसंख्या लगभग पैंसठ करोड़ लोगों के एक सौ तीस करोड़ हाथ एक ही समय एक साथ आएँ तो कायाकल्प हो सकता है।

देश की सामूहिकता केवल डेढ़ घंटे में एक सौ तीस करोड़ पौधे लगा सकती है, लाखों टन कचरा हटा सकती है, कृषकों के साथ मिलकर अन्न उगाने में हाथ बँटा सकती है।

हो तो बहुत कुछ सकता है। ‘या क्रियावान स पंडितः’..।  पूरे मन से साथी साथ आएँ तो ‘असंभव’ से ‘अ’ भी हटाया जा सकता है।

इन पंक्तियों को लिखनेवाला यानी मैं एवं पढ़नेवाले यानी आप, हम अपने स्तर पर ही पहला पग उठा लें तो यह शुभारंभ होगा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 192 ☆ आलेख – गणतंत्र के संदेश ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय   आलेखगणतंत्र के संदेश

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 192 ☆  

? आलेख  – गणतंत्र के संदेश ?

गणतंत्र दिवस सामूहिकता में व्यक्ति की शक्ति का प्रतीक है। आज अपना देश दुनियां में प्रत्येक क्षेत्र में यश अर्चन कर रहा है । ऐसे समय में देश में हमारा परस्पर सहयोग तथा व्यवहार विश्व देखता है और उसकी व्यापक स्तर पर चर्चा होती है । भारतीय रुपए की ही नहीं, योग, ज्योतिष, ज्ञान, विज्ञान और जीवन मूल्यों की वैश्विक स्थापना हेतु हमारी पीढ़ी की सजग लोकचेतना जरूरी है।

गणतंत्र दिवस पर यही कामना है कि भारतीय जन मानस की मूल राष्ट्र प्रेमी जीवन शैली और आपसी सद्भाव देश की ताकत बने। संकुचित मानसिकता का प्रदर्शन, धर्म के नाम पर राजनैतिक ध्रुवीकरण देश हित में नहीं है। देश संविधान से चलते हैं, संविधान का राष्ट्रीय पर्व ही गणतंत्र दिवस है। भारतीय संविधान दुनिया भर के संविधानो का श्रेष्ठ मिलाकर निर्मित किया गया है। समय के साथ इसमें आवश्यक संशोधन किए गए है।

वर्तमान वैश्विक परिस्तिथियो के अनुरूप भारतीय नागरिकों के सम्मान की सुरक्षा का वादा हमारा संविधान देता है। हमने देखा है कि यूक्रेन की लड़ाई सहित कई अवसरों पर देश के तिरंगे ने भारतीयों की ही नहीं अन्य देशों के नागरिकों को भी दिशा दर्शन करवाया है, यह ताकत ही गणतंत्र की शक्ति है।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

न्यूजर्सी , यू एस ए

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 191 ☆ आलेख – वैश्विक वितरण का ई कामर्स ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय   आलेख – वैश्विक वितरण का ई कामर्स।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 191 ☆  

? आलेख  – वैश्विक वितरण का ई कामर्स ?

भारतीय तथा एशियन डायसपोरा सारी दुनिया में फैला हुआ है । पिछले लंबे समय से मैं अमेरिका में हूं , मैने पाया है की यहां अनेक लोग भारत में मिलने वाली वस्तुएं लेना चाहते हैं पर वे चीजें अमेजन यू एस में उपलब्ध नहीं हैं । अमेजन द्वारा या अन्य किसी के द्वारा वैश्विक वितरण का ई कामर्स शुरू हो सकता है , लोग फ्राइट चार्ज सहज ही दे सकते हैं । इस तरह की सेवा शुरू हो तो लोगों की जिंदगी आसान हो सकेगी । अभी भी ये वस्तुएं अमेरिका में मिल तो जाती हैं पर उसके लिए किसी इंडियन या पाकिस्तानी , बांग्लादेशी स्टोर्स में जाना होता है । अमेजन का अमेरिका सहित प्रायः विभिन्न देशों में बड़ा वितरण , तथा वेयर हाउस नेटवर्क है ही , केवल उन्हे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर डिलीवरी प्रारंभ करनी है ।

मुझे स्मरण है की पिछले कोरोना काल में मैने अपने बच्चों को बड़े बड़े पार्सल सामान्य घरेलू खाने पीने के सामानों की भेजी थी , जिसमे मकर संक्रांति पर तिल के लड्डू भी थे । सात दिन में पार्सल हांगकांग , अमेरिका , लंदन , दुबई पहुंच गए थे ।

नए स्टार्ट अप हेतु भी मेरा यह सुझाव एक बड़ा अंतर्राष्ट्रीय व्यवसाय बन सकता है , जो अच्छा खासा निर्यात कर सकता है ।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

न्यूजर्सी , यू एस ए

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग – 18 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 18 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

परदेश: बेतार के तार

विगत दिन यहां विदेश में एक समुद्र तट पर जाना हुआ जिसका नाम “मारकोनी” हैं। मानस पटल पर पच्चास वर्ष पुरानी यादें ताज़ा हो गई।

बात सन अस्सी से पूर्व की है, भोपाल सर्कल में एक प्रोबेशनरी अधिकारी श्री विजय मोहन तिवारी जी ने बैंक की नौकरी से त्यागपत्र देकर कोचिंग कक्षा केंद्र आरंभ किया था।

प्रथम दिन उन्होंने बताया की किसी पुरानी बात को याद रखने के लिए उसको किसी अन्य वस्तु / स्थान आदि से जोड़ कर याद रखा जा सकता हैं। उद्धरण देते हुए उनका प्रश्न था कि “रेडियो” का अविष्कार किसने किया था? हमने  उत्तर में “मारकोनी” बताने पर उनका अगला प्रश्न था, कि इसको कैसे लिंक करेंगें? जवाब में हमने बताया की घर में रेडियो अधिकतर “कोने” में रखे जाते है, जोकि मारकोनी से मिलता हुआ सा हैं।

बोस्टन शहर से करीब एक सौ मील की दूरी पर मारकोनी बीच (चौपाटी) के नामकरण के लिए भी एक महत्वपूर्ण कारण था। इसी स्थान से अटलांटिक महासागर पार यूरोप में पहला “बेतार का तार” भेजा गया था। जिसका अविष्कार मारकोनी द्वारा ही किया गया था। विश्व प्रसिद्ध टाइटैनिक समुद्री जहाज़ ने भी इसी प्रणाली का प्रयोग कर बहुत सारे यात्रियों की जान बचाई थी।

संचार क्रांति के पश्चात “तार” (टेलीग्राम) का युग अब अवश्य समाप्त हो गया हैं, परंतु मारकोनी के रेडियो का उपयोग अभी भी जारी हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 172 ☆ शारदीयता ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

मकर संक्रांति रविवार 15 जनवरी को है। इस दिन सूर्योपासना अवश्य करें। साथ ही यथासंभव दान भी करें।

💥 माँ सरस्वती साधना 💥

सोमवार 16 जनवरी से माँ सरस्वती साधना आरंभ होगी। इसका बीज मंत्र है,

।। ॐ सरस्वत्यै नम:।।

यह साधना गुरुवार 26 जनवरी तक चलेगी। इस साधना के साथ साधक प्रतिदिन कम से कम एक बार शारदा वंदना भी करें। यह इस प्रकार है,

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता।
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता।
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा॥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 172 शारदीयता ?

रोटी, कपड़ा और मकान, मनुष्य की स्थूल अथवा प्रत्यक्ष मूलभूत आवश्यकताएँ हैं। अभिव्यक्ति सूक्ष्म या परोक्ष आवश्यकता है। जिस प्रकार सूक्ष्म देह के बिना स्थूल का अस्तित्व नहीं होता, उसी प्रकार अभिव्यक्ति या मानसिक विरेचन के बिना मनुष्य जी नहीं सकता। अक्षर की इकाई को शब्द, वाक्य एवं भाषा के माध्यम से अभिव्यक्ति का, सूक्ष्म का सर्वाधिक सशक्त साधन बनाने वाली वागीश्वरी हैं माँ सरस्वती।

वसंतपंचमी सन्निकट है। यह माँ सरस्वती का अवतरण दिवस है। पौराणिक आख्यान है कि ब्रह्मा जी सृष्टि की रचना तो कर चुके थे पर सर्वव्यापी मौन का कोई हल ब्रह्मा जी के पास नहीं था। तब माँ शारदा प्रकट हुईं। निनाद, वाणी एवं कलाओं का जन्म हुआ। जल के प्रवाह और पवन के बहाव में स्वर प्रस्फुटित हुआ। मौन की अनुगूँज भी सुनाई देने लगी। आहद एवं अनहद नाद गुंजायमान हुए। चराचर ‘नादब्रह्म’ है।

अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतवायदक्षरम् ।

विवर्तते अर्थभावेन प्रक्रिया जगतोयतः॥

अर्थात् शब्द रूपी ब्रह्म अनादि, विनाश रहित और अक्षर है तथा उसकी विवर्त प्रक्रिया से ही यह जगत भासित होता है।

शब्द और रस का अबाध संचार ही सरस्वती है। शब्द और रस के प्रभाव का एकात्म भाव से अनन्य संबंध है। इसका एक उदाहरण संगीत है। आत्म और परमात्म का एकात्म रूप संगीत है। संगीत को मोक्ष की सीढ़ियाँ माना गया है। महर्षि याज्ञवल्क्य इसकी पुष्टि करते हैं-

वीणावादनतत्वज्ञः श्रुतिजातिविशारदः।तालश्रह्नाप्रयासेन मोक्षमार्ग च गच्छति।

वैदिक संस्कृति के नेत्रों में समग्रता का भाव है। कोई पक्ष उपेक्षित नहीं है। यही कारण है कि  वसंतपंचमी, रति और कामदेव का उत्सव भी है। इस ऋतु में सर्वत्र विशेषकर खिली सरसों का पीला रंग दृष्टिगोचर होता है। प्रकृति का चटक पीला रंग आकर्षित करता है पुरुष को। प्रकृति और पुरुष का एकात्म होना मदनोत्सव है।

इस संदर्भ में अपनी एक कविता का स्मरण हो आया,

मौसम तो वही था,

यह बात अलग है;

तुमने एकटक निहारा

स्याह पतझड़,

मेरी आँखों ने चितेरे

रंग-बिरंगे वसंत,

बुजुर्ग कहते हैं-

देखने में और

दृष्टि में

अंतर होता है..!

माँ सरस्वती का अनुग्रह, हम सबमें देखने को दृष्टि में बदलने वाली शारदीयता सदा जाग्रत रखे।

शारदा पूजन एवं वसंतपंचमी की स्वस्तिकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #166 ☆ अपेक्षा व उपेक्षा ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख अपेक्षा व उपेक्षा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 166 ☆

☆ अपेक्षा व उपेक्षा ☆

‘अत्यधिक अपेक्षा मानव के जीवन को वास्तविक लक्ष्य से भ्रमित कर मानसिक रूप से दरिद्र बना देती है।’ महात्मा बुद्ध मन में पलने वाली अत्यधिक अपेक्षा की कामना को इच्छा की परिभाषा देते हैं। विलियम शेक्सपीयर के मतानुसार ‘अधिकतर लोगों के दु:ख एवं मानसिक अवसाद का कारण दूसरों से अत्यधिक अपेक्षा करना है। यह पारस्परिक रिश्तों में दरार पैदा कर देती है।’ वास्तव में हमारे दु:ख व मानसिक तनाव हमारी ग़लत अपेक्षाओं के परिणाम होते हैं। सो! दूसरों से अपेक्षा करना हमारे दु:खों का मूल कारण होता है, जब हम दूसरों की सोच को अपने अनुसार बदलना चाहते हैं। यदि वे उससे सहमत नहीं होते, तो हम तनाव में आ जाते हैं और हमारा मानसिक संतुलन बिगड़ सकता है; जो हमारे विघटन का मूल कारण बनता है। इससे पारिवारिक संबंधों में खटास आ जाती है और हमारे जीवन से शांति व आनंद सदा के लिए नदारद हो जाते हैं। सो! मानव को अपेक्षा दूसरों से नहीं; ख़ुद से रखनी चाहिए।

अपेक्षा व उपेक्षा एक सिक्के के दो पहलू हैं। यह दोनों हमें अवसाद के गहरे सागर में भटकने को छोड़ देते हैं और मानव उसमें डूबता-उतराता व हिचकोले खाता रहता है। उपेक्षा अर्थात् प्रतिपक्ष की भावनाओं की अवहेलना करना; उसकी ओर तवज्जो व अपेक्षित ध्यान न देना दिलों में दरार पैदा करने के लिए काफी है। यह सभी दु:खों का कारण है। अहंनिष्ठ मानव को अपने सम्मुख सब हेय नज़र आते हैं और  इसीलिए पूरा समाज विखंडित हो जाता है।

मनुष्य इच्छाओं, अपेक्षाओं व कामनाओं का दास है तथा इनके इर्द-गिर्द चक्कर लगाता रहता है। अक्सर हम दूसरों से अधिक अपेक्षा व उम्मीद रखकर अपने मन की शांति व सुक़ून उनके आधीन कर देते हैं। अपेक्षा भिक्षाटन का दूसरा रूप है। हम उसके लिए कुछ करने के बदले में प्रतिदान की अपेक्षा रखते हैं और बदले में अपेक्षित उपहार न मिलने पर उसके चक्रव्यूह में फंस कर रह जाते हैं। वास्तव में यह एक सौदा है, जो हम भगवान से करने में भी संकोच नहीं करते। यदि मेरा अमुक कार्य सम्पन्न हो गया, तो मैं प्रसाद चढ़ाऊंगा या तीर्थ-यात्रा कर उनके दर्शन करने जाऊंगा। उस स्थिति में हम भूल जाते हैं कि वह सृष्टि-नियंता सबका पालनहार है; उसे हमसे किसी वस्तु की दरक़ार नहीं। हम पारिवारिक संबंधों से अपेक्षा कर उनकी बलि चढ़ा देते हैं, जिसका प्रमाण हम अलगाव अथवा तलाक़ों की बढ़ती संख्या को देखकर लगा सकते हैं। पति-पत्नी की एक-दूसरे से अपेक्षाओं की पूर्ति ना होने के कारण उनमें अजनबीपन का एहसास इस क़दर हावी हो जाता है कि वे एक-दूसरे का चेहरा तक देखना पसंद नहीं करते और तलाक़ ले लेते हैं। परिणामत: बच्चों को एकांत की त्रासदी को झेलना पड़ता है। सब अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हुए अपने-अपने हिस्से का दर्द महसूसते हैं, जो धीरे-धीरे लाइलाज हो जाता है। इसका मूल कारण अपेक्षा के साथ-साथ हमारा अहं है, जो हमें झुकने नहीं देता। एक अंतराल के पश्चात् हमारी मानसिक शांति समाप्त हो जाती है और हम अवसाद के शिकार हो जाते हैं।

मानव को अपेक्षा अथवा उम्मीद ख़ुद से करनी चाहिए, दूसरों से नहीं। यदि हम उम्मीद ख़ुद से रखते हैं, तो हम निरंतर प्रयासरत रहते हैं और स्वयं को लक्ष्य की पूर्ति हेतू झोंक देते हैं। हम असफलता प्राप्त होने पर भी निराश नहीं होते, बल्कि उसे सफलता की सीढ़ी स्वीकारते हैं। विवेकशील पुरुष अपेक्षा की उपेक्षा करके अपना जीवन जीता है। अपेक्षाओं का गुलाम होकर दूसरों से उम्मीद ना रखकर आत्मविश्वास से अपने लक्ष्य की प्राप्ति करना चाहता है। वास्तव में आत्मविश्वास आत्मनिर्भरता का सोपान है।

क्षमा से बढ़ कर और किसी बात में पाप को पुण्य बनाने की शक्ति नहीं है। ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात्’ अर्थात् क्षमा सबसे बड़ा धन है, जो पाप को पुण्य में परिवर्तित करने की क्षमता रखता है। क्षमा अपेक्षा और उपेक्षा दोनों से बहुत ऊपर होती है। यह जीने का सर्वोत्तम अंदाज़ है। हमारे संतजन व सद्ग्रंथ इच्छाओं पर अंकुश लगाने की बात कहते हैं। जब हम अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण कर लेंगे, तो हमें किसी से अपेक्षा भी नहीं रहेगी और ना ही नकारात्मकता का हमारे जीवन में कोई स्थान होगा। नकारात्मकता का भाव हमारे मन में निराशा व दु:ख का सबब जगाता है और सकारात्मक दृष्टिकोण हमारे जीवन को सुख-शांति व आनंद से आप्लावित करता है। सो! हमें इन दोनों मन:स्थितियों से ऊपर उठना होगा, क्योंकि हम अपना सारा जीवन लगा कर भी आशाओं का पेट नहीं भर सकते। इसलिए हमें अपने दृष्टिकोण व नज़रिए को बदलना होगा; चिंतन-मनन ही नहीं, मंथन करना होगा। वर्तमान स्थिति पर विभिन्न आयामों से दृष्टिपात करना होगा, ताकि हम अपनी संकीर्ण मनोवृत्तियों से ऊपर उठ सकें तथा अपेक्षा उपेक्षा के जंजाल से मुक्ति प्राप्त कर सकें। हर परिस्थिति में प्रसन्न रहें तथा निराशा को अपने हृदय मंदिर में प्रवेश ने पाने दें तथा प्रभु कृपा की प्रतीक्षा नहीं, समीक्षा करें, क्योंकि परमात्मा हमें वह देता है, जो हमारे लिए हितकर होता है। सो! हमें उसकी रज़ा में अपनी रज़ा मिला देनी चाहिए और सदा उसका शुक्रगुज़ार होना चाहिए। हमें हर घटना को एक नई सीख के रूप में लेना चाहिए, तभी हम मुक्तावस्था में रहते हुए जीते जी मुक्ति प्राप्त कर सकेंगे। इस स्थिति में हम केवल अपने ही नहीं, दूसरों के जीवन को भी सुख-शांति व अलौकिक आनंद से भर सकेंगे। ‘संत पुरुष दूसरों को दु:खों से बचाने के लिए दु:ख सहते हैं और दुष्ट लोग दूसरों को दु:ख में डालने का हर उपक्रम करते हैं।’ बाल्मीकि जी का यह कथन अत्यंत सार्थक है। सो! अपेक्षा व उपेक्षा का त्याग कर जीवन जीएं। आपके जीवन में दु:ख भूले से भी दस्तक नहीं देगा। आपका मन सदा प्रभु नाम की मस्ती में खोया रहेगा–मैं और तुम का भेद समाप्त हो जाएगा और जीवन उत्सव बन जाएगा।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 190 ☆ आलेख – जोशी मठ की पुकार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय   आलेख – जोशी मठ की पुकार।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 190 ☆  

? आलेख  – जोशी मठ की पुकार ?

जोशी मठ की जियोग्राफी बता रही है कि प्रकृति का अंधाधुंध दोहन , जल जंगल जमीन को अपनी बपौती समझने की इंसानी फितरत पर नियंत्रण की जरूरत है । हिमालय के पहाड़ों की उम्र, प्रकृति के माप दंड पर कम है । इन क्षेत्रों में अभी जमीन के कोंसालिडेशन, पहाड़ों के कटाव, जमीन के भीतर जल प्रवाह के चलते भू क्षरण की घटनाएं होती रहेंगी ।

जोशीमठ जैसे हिमालय की तराई के क्षेत्रों में पक्के कंक्रीट के जंगल उगाना मानवीय भूल है, इस गलती का खामियाजा बड़ा हो सकता है । यदि ऐसे क्षेत्रों में किंचित नगरीय विकास किया जाना है तो उसे कृत्रिमता की जगह नैसर्गिक स्वरूप से किया जाना चाहिए । अमेरिका में बहुमंजिला भवन भी पाइन तथा इस तरह के हल्के वुड वर्क से बनाए जाते हैं । ऐसी वैश्विक तकनीक अपनाई जा सकती हैं जिससे परस्तिथी जन्य नैसर्गिक सामंजस्य के साथ विकास हो , न कि प्रकृति का दोहन किया जाए। हमे अगली पीढ़ियों के लिए उदाहरण प्रस्तुत करते हुए विरासत बढ़ानी चाहिये । आधुनिकता के नाम पर वर्तमान में जोशीमठ जैसे इलाकों में धरती से की जा रही छेड़छाड़ हेतु हमारी कल की पीढ़ी हमें कभी क्षमा नहीं करेगी ।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

न्यूजर्सी , यू एस ए

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 189 ☆ आलेख – ब्रेन ड्रेन बुरा भी नही रहा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय   आलेख – ब्रेन ड्रेन बुरा भी नही रहा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 189 ☆  

? आलेख  – ब्रेन ड्रेन बुरा भी नही रहा ?

हमारे देश की सबसे बड़ी शक्ति हमारे युवा हैं। अक्सर ब्रेन ड्रेन की शिकायत हमारे सुशिक्षित युवाओं से की जाती है, किंतु सच तो यह है कि आज यदि विदेशों में भारतीय डायसपोरा अपनी सकारात्मक पहचान दर्ज कर रहा है तो इसकी क्रेडिट देश की इन्ही विदेशो में बसी युवा शक्ति को है। आज अमेरिका की सिलिकन वैली की पहचान भारतीय साफ्ट वेयर इंजीनियर्स से ही है। अनेक देशों के राजनेता, बिजनेस टायकून भारत मूल के हैं, ये सब इसलिए क्योंकि समय पर इन युवाओं ने विदेश की राह पकड़ी और वहां अपना सकारात्मक योगदान दिया है।

दूसरी ओर देश के भीतर देश के नव निर्माण में, संस्कारों को पुनर्स्थापित करते युवा महत्वपूर्ण हैं। फिल्में, वेब सीरीज प्लेटफार्म हमारे युवाओं को प्रभावित करते हैं, किंतु गलती से इन के निर्माण का उद्योग उन पूंजीपति प्रोड्यूसरस के हाथों में  चला गया है जो वैचारिक रूप से  दिग्भ्रमित हैं। वे भारतीय सांस्कतिक मूल्यों की उपेक्षा कर  निहित उद्देश्य के लिए इस माध्यम का उपयोग कर रहे हैं। ज्यादातर वेब सीरीज सेक्स, हिंसा, युवाओं के नैतिक पतन, अश्लीलता के गिर्द बनती दिख रही है। तुर्रा यह कि इसे यथार्थ कहा जाता है। हमारी युवा शक्ति को इस क्षेत्र में

सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित डिजिटल फिल्मों के प्रोडक्शन पर ध्यान देना होगा, क्योंकि ये फिल्में, विश्व में भारत का समय सापेक्ष अभिलेख भी बनती हैं, जो युवा इन फिल्मों में अपना नायक ढूंढते हैं उन्हे अनुकरणीय कथा दिखाना आवश्यक है।

कभी आजादी का प्रतीक रही खादी आज फैशन का सिंबॉल बन चुकी है फैशन उद्योग ने खादी को उत्साह से अपनाया है इसी के चलते अब हमारे बुनकरों के द्वारा खादी का वस्त्र चटकीले रंगों में भी उपलब्ध किया जा रहा है वस्त्र उद्योग के कुछ बड़े ब्रांड खादी को विदेशों में मार्केट करने में जुटे हुए हैं तो दूसरी ओर अनेक भारतीय डिजाइनर खादी फैब्रिक से विवाह परिधानों की पूरी रेंज ही उपलब्ध करवा रहे हैं . युवा इस क्षेत्र में भी अपने लिए महत्वपूर्ण भूमिका बना सकते हैं।

आजीविका के लिए शासन का मुंह देखने की अपेक्षा आत्म विश्वास के साथ, स्वाबलंबन को अपना हथियार बनाए तो युवा शक्ति जिस क्षेत्र में चाहे अपनी पहचान स्थापित कर सकती है। सरकारें हर संभव मदद हेतु अनेकानेक योजनाओं के साथ सहयोग के लिए तत्पर हैं।

हमेशा युवा पीढ़ी को कोसने से बेहतर है की जनरेशन गैप को समझ कर युवाओं का साथ दिया जावे, उनकी हर संभव मदद, दिशा दर्शन किया जाए। नई पीढ़ी बहुत कुछ क्षमता रखती है, उसका सही दोहन हो।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

न्यूजर्सी , यू एस ए

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग – 17 – गैरेज/ गैराज ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 17 – गैरेज/ गैराज ☆ श्री राकेश कुमार ☆

साठ के दशक में जब हमारे देश में फिएट और एंबेसडर जैसी कारों ने अपने कदम रखे तो अधिकतर अमीर लोग बड़े मकान जिसको कोठी, बंगला, हवेली आदि की संज्ञा से जाना जाता है, में निवास करते थे।

कुछ बड़े सेठ/ लाला/ शाह प्रकार के लोग तो देश को स्वतंत्रता मिलने के पश्चात भी निजी घोड़ा-गाड़ी के उपयोग से ही आवागमन करते थे। हमारे स्वर्गीय दादाश्री ने भी देश विभाजन के समय पाकिस्तान से दिल्ली आकर सबसे पहले लुटेरों से छुपा कर लाई गई अपनी पूरी पूंजी से घोड़ा-गाड़ी क्रय कर ली थी, वो बात अलग है, एक वर्ष में ही जब घोड़े को घास खिलाने के लिए “पैसे के लाले पड़” गए तो शेष जीवन पैदल चल कर ही व्यतीत किया था।                                  

कार को सुरक्षित और संभाल कर रखने के लिए घर में उपलब्ध रिक्त स्थान पर एक कमरा बनाये जाने की प्रथा आरंभ हुई थी, उसी को आंग्ल भाषा में गैरेज कहा जाता है। जिनके घर में कार का गैरेज होता था, तो उस क्षेत्र के निवासी उसको “लैंड मार्क” के रूप में भी प्रयोग करते थे, फलां का घर गैरेज से तीसरा है, आदि। समय बदला अब तो कार सड़कों या घर के बाहर खुली देखने को ही मिलती हैं।

यहां विदेश में ज़मीन की बहुतायत होने के कारण अधिकतर घरों की चारों दिशाओं में खुली ज़मीन रहती है। सभी घरों में दो जुड़े हुए गैरेज होते हैं, जिसमें कारों के अलावा बागवानी का समान आदि रखा जाता हैं। आधुनिक तकनीक से कार में बैठे हुए भी इसके दरवाज़े “खुल जा सिम सिम” तिलस्म की भांति खुल जाते हैं।

अपने घर की अनुपयोगी हो चुकी वस्तुएं भी “गैरेज सेल” के नाम से विक्रय किए जाने की परम्परा अभी भी विद्यमान है। क्योंकि यहां पुराने समान को खरीदने वाले “कबाड़ी” जो नहीं होते हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 171 ☆ चक्षो सूर्यो जायत ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

मकर संक्रांति रविवार 15 जनवरी को है। इस दिन सूर्योपासना अवश्य करें। साथ ही यथासंभव दान भी करें।

💥 माँ सरस्वती साधना 💥

सोमवार 16 जनवरी से माँ सरस्वती साधना आरंभ होगी। इसका बीज मंत्र है,

।। ॐ सरस्वत्यै नम:।।

यह साधना गुरुवार 26 जनवरी तक चलेगी। इस साधना के साथ साधक प्रतिदिन कम से कम एक बार शारदा वंदना भी करें। यह इस प्रकार है,

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता।
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता।
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा॥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 171 ☆ चक्षो सूर्यो जायत ?

वैदिक दर्शन सूर्य को ईश्वर का चक्षु निरूपित करता है। हमारे ग्रंथों में सूर्यदेव को जगत की आत्मा भी कहा गया है। विश्व की प्राचीन सभ्यताओं द्वारा सूर्योपासना के प्रमाण हैं। ज्ञानदा भारतीय संस्कृति में तो सूर्यदेव को अनन्य महत्व है। एतदर्थ भारत में अनेक प्राचीन और अर्वाचीन सूर्य मंदिर हैं।

भारतीय मीमांसा में प्रकाश, जाग्रत देवता है।  प्रकाश आंतरिक हो या वाह्य, उसके बिना जीवन असंभव है। एक-दूसरे के सामने खड़ी गगनचुंबी अट्टालिकाओं के महानगरों में प्रकाश के अभाव में विटामिन डी की कमी विकराल समस्या हो चुकी है।  केवल मनुष्य ही नहीं, सम्पूर्ण सजीव सृष्टि और वनस्पतियों के लिए प्राण का पर्यायवाची है सूर्य। वनस्पतियों में प्रकाश संश्लेषण या फोटो सिंथेसिस के लिए प्रकाश आवश्यक घटक है।

सूर्यचक्र के अनुसार ही हमारे पूर्वजों का जीवनचक्र भी चलता था। भोर को उठना, सूर्यास्त होते-होते भोजन कर सोने चले जाना। सूर्यकिरणें भोजन की पौष्टिकता बनाए रखने में उपयोगी होती हैं।

वस्तुतः जीवन की धुरी है सूर्य। सूर्य से ही दिन है, सूर्य से ही रात है। सूर्य है तो मिनट है, सेकंड है। सूर्य है तो उदय है, सूर्य है तो अस्त है। सूर्य ही है कि अस्त की आशंका में पुनः उदय का विश्वास है। सूर्य कालगणना का आधार है, सूर्य ऊर्जा का अपरिमित  विस्तार है। सूर्यदेव तपते हैं ताकि जगत को प्रकाश मिल सके‌। तपना भी ऐसा प्रचंड कि लगभग 15 करोड़ किलोमीटर दूर होकर भी पृथ्वीवासियों को पसीना ला दे।   

सूर्य सतत कर्मशीलता का अनन्य आयाम है, सूर्य नमस्कार अद्भुत व्यायाम है। शरीर को ऊर्जस्वित, जाग्रत और चैतन्य रखने का अनुष्ठान है सूर्य नमस्कार। ऊर्जा, जागृति और चैतन्य का अखंड समन्वय है सूर्य।

‘सविता वा देवानां प्रसविता’…सविता अर्थात सूर्य से ही सभी देवों का जन्म हुआ है। शतपथ ब्राह्मण का यह उद्घोष अन्यान्य शास्त्रों की विवेचनाओं के भी निकट है। गायत्री महामंत्र के अधिष्ठाता भी सूर्यदेव ही हैं।

सूर्यदेव अर्थात सृष्टि में अद्भुत, अनन्य का आँखों से दिखता प्रमाणित सत्य। सूर्यदेव का मकर राशि में प्रवेश अथवा मकर संक्रमण खगोलशास्त्र, भूगोल, अध्यात्म, दर्शन  सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण है।

इस दिव्य प्रकाश पुंज का उत्तरी गोलार्ध से निकट आना उत्तरायण है। उत्तरायण अंधकार के आकुंचन और प्रकाश के प्रसरण का कालखंड है। स्वाभाविक है कि इस कालखंड में दिन बड़े और रातें छोटी होंगी।

दिन बड़े होने का अर्थ है प्रकाश के अधिक अवसर, अधिक चैतन्य, अधिक कर्मशीलता।

अधिक कर्मशीलता के संकल्प का प्रतिनिधि है तिल और गुड़ से बने पदार्थों का सेवन।

निहितार्थ है कि तिल की ऊर्जा और गुड़ की मिठास हमारे मनन, वचन और आचरण तीनों में देदीप्यमान रहे।

मकर संक्रांति/ उत्तरायण/ भोगाली बिहू / माघी/ पोंगल/ खिचड़ी की अनंत शुभकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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