हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #163 ☆ प्रार्थना और प्रयास ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख प्रार्थना और प्रयास। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 163 ☆

☆ प्रार्थना और प्रयास ☆

प्रार्थना ऐसे करो, जैसे सब कुछ भगवान पर निर्भर है और प्रयास ऐसे करो कि जैसे सब कुछ आप पर निर्भर है–यही है लक्ष्य-प्राप्ति का प्रमुख साधन व सोपान। प्रभु में आस्था व आत्मविश्वास के द्वारा मानव विषम परिस्थितियों में कठिन से कठिन आपदाओं का सामना भी कर सकता है…जिसके लिए आवश्यकता है संघर्ष की। यदि आप में कर्म करने का मादा है, जज़्बा है, तो कोई भी बाधा आपकी राह में अवरोध उत्पन्न नहीं कर सकती। आप आत्मविश्वास के सहारे निरंतर बढ़ते चले जाते हैं। परिश्रम सफलता की कुंजी है। दूसरे शब्दों में इसे कर्म की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। इसलिए कहा जाता है कि ‘संघर्ष नन्हे बीज से सीखिए, जो ज़मीन में दफ़न होकर भी लड़ाई लड़ता है और तब तक लड़ता रहता है, जब तक धरती का सीना चीरकर वह अपने अस्तित्व को साबित नहीं कर देता’– यह है जिजीविषा का सजीव उदाहरण। तुलसीदास जी ने कहा है कि यदि आप धरती में उलटे-सीधे बीज भी बोते हैं, तो वे शीघ्रता व देरी से अंकुरित अवश्य हो जाते हैं। सो! मानव को कर्म करते समय फल की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि कर्म का फल मानव को अवश्य प्राप्त होता है।

कर्म का थप्पड़ इतना भारी और भयंकर होता है कि जमा किया हुआ पुण्य कब खत्म हो जाए, पता ही नहीं चलता। पुण्य खत्म होने पर समर्थ राजा को भी भीख मांगने पड़ सकती है। इसलिए कभी भी किसी के साथ छल-कपट करके उसकी आत्मा को दु:खी मत करें, क्योंकि बद्दुआ से बड़ी कोई कोई तलवार नहीं होती। इस तथ्य में सत्-कर्मों पर बल दिया गया है, क्योंकि सत्-कर्मों का फल सदैव उत्तम होता है। सो! मानव को छल-कपट से सदैव दूर रहना चाहिए, क्योंकि पुण्य कर्म समाप्त हो जाने पर राजा भी रंक बन जाता है। वैसे मानव को किसी की बद्दुआ नहीं लेनी चाहिए, बल्कि प्रभु का शुक्रगुज़ार रहना चाहिए, क्योंकि प्रभु जानते हैं कि हमारा हित किस स्थिति में है? प्रभु हमारे सबसे बड़े हितैषी होते हैं। इसलिए हमें सदैव सुख में प्रभु का सिमरन करना चाहिए, क्योंकि परमात्मा का नाम ही हमें भवसागर से पार उतारता है। सो! हमें प्रभु का स्मरण करते हुए सर्वस्व समर्पण कर देना चाहिए, क्योंकि वही आपका भाग्य-विधाता है। उसकी करुणा-कृपा के बिना तो एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। दूसरी ओर मानव को आत्मविश्वास रखते हुए अपनी मंज़िल तक पहुंचने का हर संभव प्रयास करना चाहिए। इस स्थिति में मानव को यह सोचना चाहिए कि वह अपने भाग्य का विधाता स्वयं है तथा उसमें असीम शक्तियां संचित हैं।  अभ्यास के द्वारा जड़मति अर्थात् मूढ़ व्यक्ति भी बुद्धिमान बन सकता है, जिसके अनेक उदाहरण हमारे समक्ष हैं। कालिदास के जीवन-चरित से तो सब परिचित हैं। वे जिस डाली पर बैठे थे, उसी को काट रहे थे। परंतु प्रभुकृपा प्राप्त होने के पश्चात् उन्होंने संस्कृत में अनेक महाकाव्यों व नाटकों की रचना कर सबको स्तब्ध कर दिया। तुलसीदास को भी रत्नावली के एक वाक्य ने दिव्य दृष्टि प्रदान की और उन्होंने उसी पल गृहस्थ को त्याग दिया। वे परमात्म-खोज में लीन हो गए, जिसका प्रमाण है रामचरितमानस  महाकाव्य। ऐसे अनगिनत उदाहरण आपके समक्ष हैं। ‘तुम कर सकते हो’– मानव असीम शक्तियों का पुंज है। यदि वह दृढ़-निश्चय कर ले, तो वह सब कुछ कर सकता है, जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी। सो! हमारे हृदय में शंका भाव का पदार्पण नहीं होना चाहिए। संशय उन्नति के पथ का अवरोधक है और हमारा सबसे बड़ा शत्रु है। हमें संदेह, संशय व शंका को अपने हृदय में प्रवेश नहीं करने देना चाहिए।

संशय मित्रता में सेंध लगा देता है और हंसते-खेलते परिवारों के विनाश का कारण बनता है। इससे निर्दोषों पर गाज़ गिर पड़ती है। सो! मानव को कानों-सुनी पर नहीं; आंखिन- देखी पर विश्वास करना चाहिए, क्योंकि अतीत में जीने से उदासी और भविष्य में जीने से तनाव आता है। परंतु वर्तमान में जीने से आनंद की प्राप्ति होती है। कल अर्थात् बीता हुआ कल हमें अतीत की स्मृतियों में जकड़ कर रखता है और आने वाला कल भविष्य की चिंताओं में उलझा लेता है और उस व्यूह से हम चाह कर भी मुक्त नहीं हो सकते। ऐसी स्थिति में मानव सदैव इसी उधेड़बुन में उलझा रहता है कि उसका अंजाम क्या होगा और इस प्रकार वह अपना वर्तमान भी नष्ट कर लेता है। सो! वर्तमान वह स्वर्णिम काल है, जिसमें जीना सर्वोत्तम है। वर्तमान आनंद- प्रदाता है, जो हमें संधर्ष व परिश्रम करने को प्रेरित करता है। संघर्ष ही जीवन है और जो मनुष्य कभी बीच राह से लौटता नहीं; वह धन्य है। सफलता सदैव उसके कदम चूमती है और वह कभी भी अवसाद के घेरे में नहीं आता। वह हर पल को जीता है और हर वस्तु में अच्छाई की तलाशता है। फलत: उसकी सोच सदैव सकारात्मक रहती है। हमारी सोच ही हमारा आईना होती है और वह आप पर निर्भर करता है कि आप गिलास को आधा भरा देखते हैं या खाली समझ कर परेशान होते हैं। रहीम जी का यह दोहा ‘जै आवहिं संतोष धन, सब धन धूरि समान’ आज भी समसामयिक व सार्थक है। जब जीवन में संतोष रूपी धन आ जाता है, तो उसे धन-संपत्ति की लालसा नहीं रहती और वह उसे धूलि समान भासता है। शेक्सपीयर का यह कथन ‘सुंदरता व्यक्ति में नहीं, दृष्टा की आंखों में होती है’ अर्थात् सौंदर्य हमारी नज़र में नहीं, नज़रिए में होता है इसलिए जीवन में नज़रिया व सोच को बदलने की शिक्षा दी जाती है।

जीवन में कठिनाइयां हमें बर्बाद करने के लिए नहीं आतीं, बल्कि हमारी छुपी हुई सामर्थ्य व  शक्तियों को बाहर निकालने में हमारी मदद करती हैं। ‘कठिनाइयों को जान लेने दो कि आप उनसे भी कठिन हैं। कठिनाइयां हमारे अंतर्मन में संचित सामर्थ्य व शक्तियों को उजागर करती हैं;  हमें सुदृढ़ बनाती हैं तथा हमारे मनोबल को बढ़ाती हैं।’ इसलिए हमें उनके सम्मुख पराजय नहीं स्वीकार नहीं चाहिए। वे हमें भगवद्गीता की कर्मशीलता का संदेश देती हैं। ‘उम्र ज़ाया कर दी लोगों ने/ औरों के वजूद में नुक्स निकालते- निकालते/ इतना ख़ुद को तराशा होता/ तो फ़रिश्ते बन जाते।’ गुलज़ार की ये पंक्तियां मानव को आत्मावलोकन करने का संदेश देती हैं। परंतु मानव दूसरों पर अकारण दोषारोपण करने में प्रसन्नता का अनुभव करता है और निंदा करने में उसे अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है। इस प्रकार वह पथ-विचलित हो जाता है। इसलिए कहा जाता है कि ‘अगर ज़िन्दगी में सुक़ून चाहते हो, तो फोकस काम पर रखो; लोगों की बातों पर नहीं। इसलिए मानव को अपने कर्म की ओर ध्यान देना चाहिए; व्यर्थ की बातों पर नहीं।’ यदि आप ख़ुद को तराशते हैं, तो लोग आपको तलाशने लगते हैं। यदि आप अच्छे कर्म करके ऊंचे मुक़ाम को हासिल कर लेते हैं, तो लोग आपको जान जाते हैं और आप का अनुसरण करते हैं; आप को सलाम करते हैं। वास्तव में लोग समय व स्थिति को प्रणाम करते हैं; आपको नहीं। इसलिए आप अहं को जीवन में पदार्पण मत करने दीजिए। सम भाव से जीएं तथा प्रभु-सत्ता के सम्मुख समर्पण करें। लोगों का काम है दूसरों की आलोचना व निंदा करना। परंतु आप उनकी बातों की ओर ध्यान मत दीजिए; अपने काम की ओर ध्यान दीजिए। ‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती/ लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती।’ सो!  निरंतर प्रयासरत रहिए– मंज़िल आपकी राहों में प्रतीक्षारत रहेगी। प्रभु-सत्ता में विश्वास बनाए रखिए तथा सत्कर्म करते रहिए…यही जीवन जीने का सही सलीका है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गुरु ही सर्वोपरि है… ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

डॉ निशा अग्रवाल

☆ आलेख ☆ गुरु ही सर्वोपरि है… ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

महान कोई नही बनना चाहता? लेकिन महान बनने के लिए हर इंसान को ज्ञान की आवश्यकता होती है, जो हमें मिलता है गुरु से। हर सफल इंसान के जीवन में गुरु का अति विशिष्ट स्थान  होता है। भगवान से भी ऊंचा दर्ज़ा होता है गुरु का। ज्ञान प्राप्ति का कोई भी मार्ग हो, कोई भी क्षेत्र हो,हर जगह से ज्ञान बटोर लेने में कोई हर्ज नही है। ज्ञान देने वाला उम्र में छोटा हो या बड़ा, वह हमारा गुरु ही होता है। गुरु किसी भी रूप में हमको ज्ञान अर्जित करने के रास्ते दिखाता है, जैसे माता- पिता, भाई- बहन, दोस्त, छोटा बच्चा,  अजनबी, राहगीर आदि।

गुरु ही सर्वोपरि, होता है। भविष्य का निर्माता होता है। समाज की नींव होता है।

 जिसके प्रति भी मन में सम्मान होता है,

जिसकी डांट में भी एक अद्धभुत ज्ञान होता है,

जिसके पास हर मुश्किल का समाधान होता है,

जन्म देता है कई महान शख्सियतों को, वो गुरु तो सचमुच बहुत महान होता है।

शुरू होती है माँ के गर्भ से, सीखने की अभिलाषा।

प्रथम गुरु है मेरी माता,

जिसने मुझे चलना सिखलाया

अँगुली पकड़ कर ,मुश्किल राह पर ,

आगे बढ़ना है सिखलाया।

कैसे करूँ बखान गुरु का,

गुरु तो असीमित भंडार होता है ज्ञान का।

ऐसा कोई कागज़ नही,जिसमे वो शब्द समाए,

ऐसी कोई  स्याही नहीं,

जिससे सारे गुरु गुण लिखे जाएं।

मेरी बाणी क्या बोलेगी,

कितनी कलम चलाऊँ मैं।

दूर -दूर तक सोचूँ जितना भी,

गुरु गुण लिख ना पाऊं मैं।

गुरु ने ही अन्धेरी राहों में,

रोशनी की किरण दिखलाई है।

जीवन के सारे दुख हर कर,

खुशियों की फसल उगाई है।

निस्वार्थ भाव की सेवा देकर,

अच्छे गुण सिखलाये है।

कठिन राह में हिम्मत देकर,

आगे वही बढ़ाये हैं।

मैं थी अज्ञानी -अनजानी,

ज्ञान राग सिखलाई है।

दुनियां के अनजान सफर में ,

मेरी पहचान बनाई है।

अक्षर – अक्षर मुझे सिखाकर,

शब्द – शब्द का अर्थ बताकर,

सही -गलत का ज्ञान कराकर,

मुश्किल सवाल का हल बताकर,

जीवन के हर मूल्य बताकर,

 कभी प्यार कर, कभी डाँटकर,

बेड़ा पार लगाई है।

 गुरु को मेरा प्रथम अभिनंदनं,

जीवन बना दिया मेरा चंदन।

©  डॉ निशा अग्रवाल

(ब्यूरो चीफ ऑफ जयपुर ‘सच की दस्तक’ मासिक पत्रिका)

एजुकेशनिस्ट, स्क्रिप्ट राइटर, लेखिका, गायिका, कवियत्री

जयपुर ,राजस्थान

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 62 – राजनीति… भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय  आलेख  “राजनीति…“।)   

☆ आलेख # 62 – राजनीति  – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

राजनीति अपने शैशवकाल में सामाजिक मुद्दों और स्वाभाविक नेतृत्व के संयोग से आगे बढ़ती है. अपना समय और अपनी जमापूँजी को देकर इसमें ऐसे लोग आते हैं जिन्हें अपनी आर्थिक सुरक्षा और निश्चिंत भविष्य से ज्यादा परवाह समाज और देश- दुनिया के वर्तमान को सुधार कर और कुछ मायनों में बदलकर भी उनके बेहतर भविष्य को सुनिश्चित करने की होती है. इन्हें सोशल इंजीनियरिंग के अभियंता भी कहा जा सकता है और सामाजिक अस्वस्थता का इलाज करने वाले डॉक्टर भी. ये उन्हें भी ठीक करने की कोशिश करते हैं जो हमेशा इस भ्रम में बने रहना चाहते हैं कि “हमें तो कुछ हुआ ही नहीं है, हम तो पूरी तरह ठीक हैं तो डॉक्टर साहब या इंजीनियर साहब, आपकी इलाज रूपी मुफ्त सलाहों की हमें जरूरत ही नहीं है, निश्चिंत रहिए कि हम आपके बहकावे में आने वाले नहीं हैं.”

ऐसे लोग मनोरोगियों के समान ही व्यवहार करते हैं कि उनसे ज्यादा तो उनके परामर्शदाता को खुद के इलाज की जरूरत है. बहुतायत में पाये जानेवाले इन लोगों के नज़रिये से तो वैचारिक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से बेहतर तो पराधीनता की सौगात के साथ मिली आर्थिक निश्चिंतता और शान शौकत, रौब दाब पाना ज्यादा व्यवहारिक और सुरक्षित होता है. ये वही लोग होते हैं जिनके लिये राजनीति तो अपना घर फूंककर तमाशा देखने जैसा है.

अतः इस दौर की राजनीति और ऐसे नेतृत्व गुण से संपन्न लोग बहुत दुर्लभ हुआ करते थे और “नेताजी” जैसा उपनाम और उपाधि “नेताजी सुभाषचंद्र बोस” जैसे महान और उच्चतम कद वाले ही पाते थे. ये दौर राजनीति का स्वर्णिम दौर था जो नैतिक मूल्य, त्याग, साहस और बलिदान के शाश्वत स्तंभों पर सुदृढ़ता के साथ खड़ा था. इस दौर में उनका साथ देने वाले भी उनके लक्ष्यों के प्रति समर्पित हुआ करते थे और इस यात्रा में नेतृत्व के प्रति निष्ठा और विश्वास भी बहुत बड़ी भूमिका का निर्वहन किया करता था. नेता और अनुयायी निज स्वार्थ से परे हुआ करते थे और बहुजन हिताय बहुजन सुखाय के लिये काम करते थे.

राजनीति के बदलते दौरों की समीक्षा अगले भाग में  

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 183 ☆ आलेख– स्त्री विमर्श  ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित एक विचारणीय  आलेख– स्त्री विमर्श ।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 183 ☆  

? आलेख– स्त्री विमर्श ?

स्त्री पुरुष समानता आज समय की आवश्यकता है। नारी के प्रति समाज की कुत्सित दृष्टि के चलते ही लाल किले की प्राचीर से , स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने भाषण में यह अपील करनी पड़ी की समाज स्त्री के प्रति अपना नजरिया बदले , पर आए दिन नई नई घटनाएं , प्यार के नाम पर धोखा , क्रूर हत्या जैसी घटनाएं बढ़ रही हैं।

साहित्य में इस विषय पर चर्चा और रचनायें हो रही हैं । “नारी के अधिकार “, “नारी वस्तु नही व्यक्ति है” ,वह केवल “भोग्या नही समाज में बराबरी की भागीदार है” , जैसे वैचारिक मुद्दो पर लेखन और सृजन हो रहा है, पर फिर भी नारी के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण में वांछित सकारात्मक बदलाव का अभाव है .

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता

अर्थात जहाँ नारियो की पूजा होती है वहां देवताओ का वास होता है यह उद्घोष , समाज से कन्या भ्रूण हत्या ही नही , नारी के प्रति समस्त अपराधो को समूल समाप्त करने की क्षमता रखता है , जरूरत है कि इस उद्घोष में व्यापक आस्था पैदा हो . नौ दुर्गा उत्सवो पर कन्या पूजन , हवन हेतु अग्नि प्रदान करने वाली कन्या का पूजन हमारी संस्कृति में कन्या के महत्व को रेखांकित करता है , आज पुनः इस भावना को बलवती बनाने की आवश्यकता है .

एक संवेदन शील रचनाकार या स्त्री लेखिका जब स्वयं स्त्री विमर्श की रचना लिखती है तो वह भोगा हुआ यथार्थ , सही गई पीड़ा को शब्द देती हैं। निश्चित ही ऐसी कवितायें बेहद संवेदनशील संदेश देती हैं।

प्रेम स्त्री की मौलिकता है, वह स्थितप्रज्ञ बनी रहकर अंतिम संभव पल तक अपने कर्तव्य का परिपालन करती है, इसी से प्रकृति संचालित है।

जिस तरह विद्योत्तमा ने कालिदास के बंद मुक्के की व्यापक व्याख्या कर दी थी , वैसे ही स्त्री विमर्श के इस मुद्दे की गूढ़ लंबी विवेचना की जा सकती है, जरूरत है कि समाज पर साहित्य का प्रभाव हो और स्त्री पर अपराध रुकें ।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

न्यूजर्सी , यू एस ए

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग – 14 – मनोरंजन ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 14 – मनोरंजन ☆ श्री राकेश कुमार ☆

पुराने समय में नाटक मंडली या गायन कला में निपुण लोग एक स्थान से दूसरे स्थान बैलगाड़ी या इसी प्रकार के उपलब्ध अन्य यातायात के साधन का उपयोग कर घुमंतुओं सा जीवन यापन करते थे। समय चक्र के बदलाव के साथ ये लोग अपनी बस या छोटे ट्रक में अपनी कला को गांव-गांव में परोस कर न केवल अपनी आजीविका चलाते है, वरन लोक कला को भी जीवित रखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। संचार के नित नए साधनों के विकास से पुराने साधन अनुपयोगी हो जाते हैं।

यहां विदेश में प्रत्येक बृहस्पतिवार और शुक्रवार को एक खुले स्थान में संगीत का मंच सजाया जाता हैं, जिसमें स्थानीय और आस पास के क्षेत्रों से आए हुए संगीत साधक विभिन्न यंत्रों (जैसे गिटार आदि) की सहायता से समा बांध कर दर्शकों को मंत्र मुग्ध कर देने में जी जान लगा देते हैं।

चार हजार से अधिक लोग मय परिवार अपने घर से कुर्सी और दरी इत्यादि लगा कर ग्रामीण सा मोहाल बना देते हैं। कार्यक्रम सभी के लिए निशुल्क रहता है। आस पास स्थित खाद्य सामग्री विक्रय करने वाली दुकानें यहां के स्थानीय खाद्य पदार्थ हॉटडॉग, पिज्जा और बीयर की उपलब्धता पूरे कार्यक्रम के दौरान बनाए रखते हैं। कुछ अचंभा भी लगा। बड़े शहर के लोग जो बड़ी-बड़ी गाड़ियों में बैठते हैं, और अब जमीन पर बैठ कर संगीत का आनंद ले कर झूम रहे थे।

ठीक रात्रि के साढ़े नौ बजे पटाखे और मनमोहक आतिशबाजी का दौर आरंभ हो जाता हैं। कंप्यूटर से संचालित रोशनी और ध्वनि आधारित पटाखे प्रदूषण अत्यंत कम करते हैं। पंद्रह मिनट के कार्यक्रम ने मानस पटल पर एक अमिट छाप छोड़ दी है।

यहां आतिशबाजी के नियम राज्य तय करते है, इस राज्य में सार्वजनिक रूप से अनुमति है, परंतु निजी रूप से प्रतिबंधित हैं। हमें तो आम खाने से मतलब है, पेड़ क्यों गिने।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 167 ☆ चिंतन – “ऐसे भी बदलता है नाम” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर, विचारणीय एवं चिंतनीय  – चिंतन – “ऐसे भी बदलता है नाम”)

☆ आलेख # 167 ☆ चिंतन – “ऐसे भी बदलता है नाम” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

सन् 1971 भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय लगभग एक लाख पाकिस्तानी सेना ने भारतीय सेना के सामने घुटने टेकते हुए आत्मसमर्पण किया था, उन युद्ध बंदियों को सामरिक दृष्टि से सबसे सुरक्षित  स्थान होने के कारण जबलपुर में रखा गया था और उन्हें बाद में जरपाल गेट (ग्रेनेडियर रेजिमेंट) ग्वारीघाट रोड  से रिहा किया गया था।

इसी पर से तिराहे को ‘बंदी रिहा तिराहा’ कहा गया, जो बाद में अपभ्रंश होकर ‘बंदरिया तिराहा’ कहा जाने लगा, तो भैया नाम की माया अपरंपार‌ है।

कोई नाम बिगाड़ता है, कोई नाम बनाता है, कोई नाम बदलता है, कहीं नाम बदलने पर दंगल होता है, तो कहीं नाम डूबा देता है। सब राम नाम की माया है, तभी तो कहते हैं राम नाम सत्य है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 168 ☆ कबिरा संगत साधु की… (2) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

श्री भास्कर साधना आरम्भ हो गई है। इसमें जाग्रत देवता सूर्यनारायण के मंत्र का पाठ होगा। मंत्र इस प्रकार है-

💥 ।। ॐ भास्कराय नमः।। 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 168 ☆ कबिरा संगत साधु की…(2) ?

गतांक में हमने सत्संगति के आनंद पर चर्चा की थी। आज इस विषय को आगे जारी रखेंगे।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है, ‘बिनु सत्संग विवेक न होई।’ सरल शब्दों में समझें तो भले- बुरे में, सही-गलत में, उचित-अनुचित में अंतर कर सकने की क्षमता अर्थात विवेक। इस संदर्भ में प्राय: ‘नीर क्षीर विवेक’ का प्रयोग किया जाता है। प्रकृति में हंस एकमात्र जीव है जो नीर और क्षीर अर्थात जल और दूध को अलग कर सकता है।

एक श्लोक है –

हंस: श्वेतो बक: श्वेतो को भेदो बकहंसयो: |

नीरक्षीरविवेके तु हंस: हंसो बको बक: ||

अर्थात हंस भी सफ़ेद है, बगुला भी सफ़ेद है तो फिर हंस और बगुले में अंतर क्या है? दूध और पानी के मिश्रण में से दोनों घटकों को अलग करने का प्रश्न आता है तब हंस और बगुले में अंतर पता चलता है।

नीर-क्षीर विवेक उपजता है ज्ञान से। ज्ञान प्राप्ति के अनेक स्रोत हैं। इनमें अध्ययन और अनुभव प्रमुख हैं। अध्ययन किये हुए और अनुभवी, दोनों तरह के लोग सत्संग में होते हैं। सत्संग का एक आयाम वैचारिक विमर्श में सम्मिलित होना है, विचारों के विनिमय में सहभागी होना है। अतः सत्संग को ज्ञान का अविरल स्रोत कहा गया है।   

नीर-क्षीर विवेक जगने पर मनुष्य की समझ में आ जाता है कि भोजन, शयन, मैथुन तो हर योनि के जीव करते हैं। पेट भरने के लिए आवश्यक श्रम भी सब करते हैं। कम या अधिक बुद्धि भी हरेक के पास है पर ज्ञान प्राप्ति का, जागृति का अवसर केवल मानुष देह के माध्यम से ही संभव है।

स्मरण रखना चाहिए कि संग आने से संघ बनता है। संघ अर्थात समान विचार वालों का समूह। समान विचार वालों का साथ मिलना जीवन की बड़ी उपलब्धि है। संग से, संघ से विरेचन होता है। मानसिक तनाव ढहना शुरू हो जाता है। जहाँ कहीं अंधकार दिखता था, वहाँ राह दिखने लगती है। विवेक का चरम देखिए कि लक्ष्य पता होने पर भी सत्संगी यात्रा तो करता है पर लक्ष्य साधे बिना लौट आता है क्योंकि उसे सुख नहीं आनंद चाहिए। आनंद सज्जनों की संगति का, ज्ञानपिपासा की तृप्ति का, आनंद मुक्ति नहीं सृष्टि का। अपनी रचना ‘निर्वाण से आगे’ स्मरण हो आती है,

असीम को जानने की

अथाह प्यास लिए,

मैं पार करता रहा

द्वार पर द्वार,

अनेक द्वार,

अनंत द्वार,

अंतत: आ पहुँचा

मुक्तिद्वार…,

प्यास की उपज

मिटते नहीं देख सकता मैं,

चिरंजीव जिज्ञासा लिए

उल्टे कदम लौट पड़ा मैं,

मुक्ति नहीं तृप्ति चाहिए मुझे,

निर्वाण नहीं सृष्टि चाहिए मुझे!

ज्ञान की अपरिमित सृष्टि का साधन है सत्संग। इस सृष्टि  का वासी होने का लाभ प्रत्येक को उठाना चाहिए।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #162 ☆ जुनून बनाम नफ़रत ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख जुनून बनाम नफ़रत। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 162 ☆

☆ जुनून बनाम नफ़रत ☆

‘जुनून जैसी कोई आग नहीं/ नफ़रत जैसा कोई दरिंदा नहीं/ मूर्खता जैसा कोई जाल नहीं/  लालच जैसी कोई धार नहीं’ महात्मा बुद्ध की यह उक्ति अत्यंत कारग़र है, जिसमें संपूर्ण जीवन-दर्शन निहित है। जुनून वह आग है, जो मानव को चैन से बैठने नहीं देती; निरंतर गतिशीलता प्रदान कर अथवा कुछ कर गुज़रने का संदेश देती है। यदि मानव ठीक दिशा की ओर अग्रसर होता है, तो वह अपनी मंज़िल पर पहुंच कर ही सुक़ून पाता है; रास्ते में आने वाली बाधाओं का साहस-पूर्वक सामना करता है। इसके विपरीत यदि व्यक्ति घृणा भाव से ग्रस्त है, तो वह मूर्खतापूर्ण व्यवहार करता है तथा स्वयं को विश्व का सबसे अधिक बुद्धिमान इंसान समझता है।

नफ़रत वह दरिंदा है, जो पलभर में मानव के मनोमस्तिष्क को दूषित कर परिंदे की भांति उड़ जाता है और उस स्थिति में वह सोचने-समझने की शक्ति खो बैठता है। वह राह में आने वाली आगामी बाधाओं, आपदाओं व दुष्वारियों का सामना नहीं कर पाता। वह मूर्ख उस जाल में फंस कर रह जाता है। वह औचित्य-अनौचित्य व सही-गलत का भेद नहीं कर पाता और उसे अपने अतिरिक्त सब निपट बुद्धिहीन नज़र आते हैं। वह और अधिक धन-संपदा पाने के चक्कर में उलझ कर रह जाता है और उसकी लालसा व हवस का कभी भी अंत नहीं होता। जब व्यक्ति उसके व्यूह अर्थात् मायाजाल में उलझ कर रह जाता है और सब संबंधों को नकारता हुआ चला जाता है। उस स्थिति में दूसरों की पद-प्रतिष्ठा उसके लिए मायने नहीं रखती। अपने सपनों को साकार करने के लिए वह रास्ते में आने वाले व्यक्ति व बाधाओं को हटाने व समूल नष्ट करने में लेशमात्र भी संकोच नहीं करता।

इसीलिए मानव को सकारात्मक सोच रखते हुए लक्ष्य निर्धारित करने तथा उसे प्राप्त करने के लिए जी-जान से जुट जाने की सीख दी गयी है। अब्दुल कलाम जी ने मानव को जागती आंखों से स्वप्न देखने व बीच राह थक कर न बैठने का संदेश दिया है; जब तक उसे लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो जाती। इसलिए महात्मा बुद्ध मानव को करुणा व प्रेम का संदेश देते हुए नफ़रत करने वालों से सचेत रहने की सीख देते हैं, क्योंकि नफ़रत वह चिंगारी है, जो व्यक्ति, परिवार, समाज व पूरे देश में तहलक़ा मचा देती है। धार्मिक उन्माद इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। सो! मानव हृदय में सबके प्रति स्नेह, सौहार्द व प्रेम का भाव होना चाहिए, क्योंकि जहां प्रेम होगा, नफ़रत वहां से नदारद होगी। इंसान को सावन के अंधे की भांति सब ओर हरा ही हरा दिखाई पड़ता है। इसलिए उसे उसके साए से भी दूर रहना चाहिए, क्योंकि वह उसे कभी भी कटघरे में खड़ा कर सकता है।

लालच बुरी बला है और उस भाव के जीवन में प्रकट होते ही मानव का अध:पतन प्रारंभ हो जाता है। लालची व्यक्ति किसी भी सीमा तक नीचे जा सकता है और उसकी लालसा का कभी अंत नहीं होता। पैसा इंसान को बिस्तर दे सकता है, नींद नहीं; भोजन दे सकता है, भूख नहीं; अच्छे वस्त्र दे सकता है’ सौंदर्य नहीं; ऐशो-आराम के साधन दे सकता है, सुक़ून नहीं। इसलिए मानव का आचार-व्यवहार सदैव पवित्र होना चाहिए, क्योंकि ग़लत ढंग से कमाया हुआ धन मानव को सदैव अशांत रखता है। उसका हृदय सदैव आकुल- व्याकुल व आतुर रहता है। सो! मानव को सत्य की राह पर चलते हुए ग़लत लोगों की संगति का परित्याग कर सबसे प्रेम के साथ रहना चाहिए। संत पुरुषों ने भी मानव को हक़-हलाल की कमाई पर जीवन-यापन करने का उपदेश दिया है, क्योंकि ग़लत ढंग से कमाया हुआ धन जहां बच्चों को दुष्प्रवृत्तियों की ओर धकेलता है, वहीं उन्हें कुसंस्कारित व पथ-विचलित करता है। जुनून वह आग है, जो चिराग बनकर जहां घर को रोशन कर सकती है; वहीं उसे जला कर राख भी कर सकती हैं। उस स्थिति में शेष कुछ भी नहीं बचता। इसलिए कभी ग़लत मत सोचो, न ही ग़लत करो, क्योंकि दोनों स्थितियां मानव को संपूर्णता प्रदान करती हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग -13 – उल्टा पुल्टा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – परदेश की अगली कड़ी  “उल्टा पुल्टा।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 13 – उल्टा पुल्टा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

स्वर्गीय जसपाल जी भट्टी का एक कार्यक्रम “उल्टा पुल्टा” टीवी शो बहुत प्रसिद्ध हुआ था। यहां विदेश आने पर भी आरंभ में दैनिक जीवन यापन में बहुत कुछ ऐसा ही लगा, जिसे देख कर भट्टी जी की याद आ गई। ये भी हो सकता है, उनको भी अपने उल्टा पुल्टा कार्यक्रम की प्रेरणा यहीं से प्राप्त हुई हो।

विदेश आगमन पर जब कार की आगे की सीट के बाएं भाग में स्थान ग्रहण कर रहे थे, तो देखा वहां तो स्टेयरिंग लगा हुआ है, तब मेजबान ने बताया हमारे देश में दाएं तरफ स्टेयरिंग होता है, लेकिन यहां उल्टा बाएं तरफ होता है। कार चलते ही हमें लगा गलत दिशा में चल रही है, लेकिन सभी कारें दाहिनी तरफ चल रही थी। इसी प्रकार से पैदल चलने वाले भी दाएं तरफ चल रहे थे। हमें तो पाठशाला के दिनो से ही “बायें चल” शब्द कंठस्थ करवाया गया था। कहीं, पैंसठ वर्ष तक का जीवन गलत निर्वाह तो नहीं हो गया?

रास्ते में जब गैस स्टेशन (पेट्रोल पम्प) से पेट्रोल भरवाने के लिए रुके तो बहुत ही अजीब लगा, कोई विक्रेता पूछने नहीं आया कि कितने का करना है? स्वयं ही पाइप से भरने के पश्चात कार्ड से भुगतान वो भी बिना ओ टी पी मैसेज। क्या यहां कार्ड का दुरुपयोग/ फ्रॉड नहीं होते है? या यहां की व्यवस्था राम राज्य की कल्पना को साकार कर रहा हैं।

मेज़बान से जानकारी मिली की यहां तरल पदार्थ गैलन में मापे जाते हैं। हमारे देश में तो मैट्रिक प्राणली लागू हुए कई दशक बीत गए। ये अभी दर्जन, ग्रुस, पाउंड और गैलन में ही कार्य कर रहे हैं। सब्जी और अन्य ठोस पदार्थ को वजन पाउंड में  मापा जाता हैं। हमारे देश में अभी भी कुछ पुराने लोग नए पैदा हुए बच्चे या केक का वज़न पाउंड में ही पूछते हैं।

घरों में लगे हुए बिजली के बटन (स्विच) भी उल्टे कार्य करते है, ऊपर रखने से बिजली प्रवाह रुक जाता है, और नीचे करने से घर रोशन हो जाता हैं।

जैसा चल रहा है, चलने दे, हमें क्या? हम तो ठहरे परदेशी।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 167 ☆ बिखराव… ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीष साधना सम्पन्न हो गई है। 🌻

अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी  

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं । यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है। ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 167 ☆ बिखराव… ☆?

आगे दुकान, पीछे मकान वाली शैली की एक फुटकर दुकान से सामान खरीद रहा हूँ। दुकानदार सामूहिक परिवार में रहते हैं। पीछे उनके मकान से कुछ आवाज़ें आ रही हैं। कोई युवा परिचित या रिश्तेदार परिवार आया हुआ है। आगे के घटनाक्रम से स्पष्ट हुआ कि आगंतुक एकल परिवार है।

आगंतुक परिवार की किसी बच्ची का प्रश्न कानों में पिघले सीसे की तरह पड़ा, ‘दादी मीन्स?’ इस परिवार की बच्ची बता रही है कि दादी मीन्स मेरे पप्पा की मॉम। मेरे पप्पा की मॉम मेरी दादी है।… ‘शी इज वेरी नाइस।’

कानों में अविराम गूँजता रहा प्रश्न ‘दादी मीन्स?’ ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की संस्कृति में कुटुम्ब कितना सिमट गया है! बच्चों के सबसे निकट का दादी- नानी जैसा रिश्ता समझाना पड़ रहा है।

सामूहिक परिवार व्यवस्था के ढहने के कारणों में ‘पर्सनल स्पेस’ की चाहत के साथ-साथ ‘एक्चुअल स्पेस’ का कम होता जाना भी है। ‘वन या टू बीएचके फ्लैट, पति-पत्नी, बड़े होते बच्चे, ऐसे में अपने ही माँ-बाप अप्रासंगिक दिखने लगें तो क्या किया जाए? यूँ देखें तो जगह छोटी-बड़ी नहीं होती, भावना संकीर्ण या उदार होती है। मेरे वयोवृद्ध ससुर जी बताया करते हैं कि अपने गाँव जाते समय दिल्ली होकर जाना पड़ता था। दिल्ली में जो रिश्तेदार थे, रात को उनके घर पर रुकते। घर के नाम पर कमरा भर था पर कमरे में भरा-पूरा घर था। सारे सदस्य रात को उसी कमरे में सोते तो करवट लेने की गुंज़ाइश भी नहीं रहती तथापि आपसी बातचीत और ठहाकों से असीम आनंद उसी कमरे में हिलोरे लेता।

कालांतर में समय ने करवट ली। पैसों की गुंज़ाइश बनी पर मन संकीर्ण हुए। संकीर्णता ने दादा-दादी के लिए घर के बाहर ‘नो एंट्री’ का बोर्ड टांक दिया। दादी-नानी की कहानियों का स्थान वीडियो गेम्स ने ले लिया। हाथ में बंदूक लिए शत्रु को शूट करने के ‘गेम’, कारों के टकराने के गेम, किसी नीति,.नियम के बिना सबसे आगे निकलने की मनोवृत्ति सिखाते गेम। दादी- नानी की लोककथाओं में परिवार था, प्रकृति थी, वन्यजीव थे, पंछी थे, सबका मानवीकरण था। बच्चा तुरंत उनके साथ जुड़ जाता। प्रसिद्ध साहित्यकार निर्मल वर्मा ने कहा था, “बचपन में मैं जब पढ़ता था ‘एक शेर था’, सबकुछ छोड़कर मैं शेर के पीछे चल देता।”

शेर के बहाने जंगल की सैर करने के बजाय हमने इर्द-गिर्द और मन के भीतर काँक्रीट के जंगल उगा लिए हैं। प्राकृतिक जंगल हरियाली फैलाता है, काँक्रीट का जंगल रिश्ते खाता है। बुआ, मौसी, के विस्थापन से शुरू हुआ संकट दादी-नानी को भी निगलने लगा है।

मनुष्य के भविष्य को अतीत से जोड़ने का सेतु हैं दादी, नानी। अतीत अर्थात अपनी जड़। ‘हरा वही रहा जो जड़ से जुड़ा रहा।’ जड़ से कटे समाज के सामने ‘दादी मीन्स’ जैसे प्रश्न आना स्वाभाविक हैं।

अपनी कविता स्मरण आ रही है,

मेरा विस्तार तुम नहीं देख पाए,

अब बिखराव भी हाथ नहीं लगेगा,

मैं बिखरा ज़रूर हूँ, सिमटा अब भी नहीं…!

प्रयास किया जाए कि बिखरे हुए को समय रहते फिर से जोड़ लिया जाए। रक्त संबंध, संजीवनी की प्रतीक्षा में हैं। बजरंग बली को नमन कर क्या हम संजीवनी उपलब्ध कराने का बीड़ा उठा सकेंगे?

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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