हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – रंगोत्सव ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – रंगोत्सव ??

होली अर्थात विभिन्न रंगों का साथ आना। साथ आना, एकात्म होना। रंग लगाना अर्थात अपने रंग या अपनी सोच अथवा विचार में किसी को रँगना। विभिन्न रंगों से रँगा व्यक्ति जानता है कि उसका विचार ही अंतिम नहीं है। रंग लगानेवाला स्वयं भी सामासिकता और एकात्मता के रंग में रँगता चला जाता है। रँगना भी ऐसा कि रँगा सियार भी हृदय परिवर्तन के लिए विवश हो जाए। अपनी एक कविता स्मरण हो आती है,

सारे विरोध उनके तिरोहित हुए,

भाव मेरे मन के पुरोहित हुए,

मतभेदों की समिधा,

संवाद के यज्ञ में,

सद्भाव के घृत से,

सत्य के पावक में होम हुई,

आर-पार अब

एक ही परिदृश्य बसता है,

मेरे मन के भावों का

उनके ह्रदय में,

उनके विचार का

मेरे मानसपटल पर

प्रतिबिंब दिखता है…!

होली या फाग हमारी सामासिकता का इंद्रधनुषी प्रतीक है। यही कारण है कि होली क्षमापना का भी पर्व है। क्षमापना अर्थात वर्षभर की ईर्ष्या मत्सर, शत्रुता को भूलकर सहयोग- समन्वय का नया पर्व आरंभ करना।

जाने-अनजाने विगत वर्षभर में किसी कृत्य से किसी का मन दुखा हो तो हृदय से क्षमायाचना। आइए, शेष जीवन में हिल-मिलकर अशेष रंगों का आनंद उठाएँ, होली मनाएँ।

? शुभ धूलिवंदन ?

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से आरम्भ होगी। यह श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च को विराम लेगी।

💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग – 24 – मित्रता की स्वर्ण जयंती ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 24 – मित्रता की स्वर्ण जयंती ☆ श्री राकेश कुमार ☆

सन ’72 में गोविंद राम सक्सेरिया महाविद्यालय, जबलपुर में अध्यन के लिए प्रवेश लिया, तो कक्षा के सभी सहपाठी अनजान थे, क्योंकि पाठशाला में विज्ञान से उत्तीर्ण होकर वाणिज्य विषय चयनित किया था।

विगत दिनों जबलपुर के पुराने सहपाठी से विदेश में पचास घंटे साथ व्यतीत करने का अवसर प्राप्त हुआ। ये संयोग ही था कि मित्रता को भी पचास वर्ष पूरे हुए हैं।

महाविद्यालय में साथ बिताए हुए पांच वर्ष की स्मृतियों को मानस पटल पर आने में कुछ क्षण ही लगे। मानव प्रवृत्ति ऐसी ही होती हैं, जब कोई पुराना मित्र या पुराने स्थान से संबंधित कोई भी वस्तु सामने होती है, तो मन के विचार प्रकाश की गति से भी तीव्र गति से दिमाग में आकर स्फूर्ति प्रदान कर देते हैं। हम अपने आप को उस समय की आयु का समझ कर हाव भाव व्यक्त करते हैं। पुरानी यादें, पुराने मित्र या पुरानी शराब का नशा कुछ अलग प्रकार का होता है।

हम दोनों मित्रों ने अगस्त 88 में जबलपुर से विदा ली थी। मित्र अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में जीवकोपार्जन के लिए निकल गए थे, और हमें पदोन्नत होने पर इस्पात नगरी, भिलाई जाना पड़ा था।

मित्र के साथ बिताए हुए समय का केंद्र बिंदु तो जबलपुर ही था, परंतु उनके वर्तमान देश अमेरिका के बारे में भी चर्चाएं होना भी स्वाभाविक है। बातचीत में मित्र ने बताया कि- “US is land full of Golden opportunities and they want each and every one in US शुड 1. Be a homeowner and 2. Be a business owner.”

क्योंकि ये देश ही तो विश्व में पूंजीवाद का सिरमौर है।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 178 ☆ शिवोऽहम्… (3) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 178 शिवोऽहम्… (3) ?

निर्वाण षटकम् का हर शब्द मनुष्य के अस्तित्व पर हुए सारे अनुसंधानों से आगे की यात्रा कराता है। इसका सार मनुष्य को स्थूल और सूक्ष्म की अवधारणा के परे ले जाकर ऐसे स्थान पर खड़ा कर देता है जहाँ ओर से छोर तक केवल शुद्ध चैतन्य है। वस्तुत: लौकिक अनुभूति की सीमाएँ जहाँ समाप्त होती हैं, वहाँ से निर्वाण षटकम् जन्म लेता है।

तृतीय श्लोक के रूप में जगद्गुरु आदि शंकराचार्य का परिचय और विस्तृत होता है,

न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहौ

मदो नैव मे नैव मात्सर्यभाव:

न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्ष:

चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्।।3।।

अर्थात न मुझे द्वेष है, न ही अनुराग। न मुझे लोभ है, न ही मोह। न मुझे अहंकार है, न ही मत्सर या ईर्ष्या की भावना। मैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से परे हूँ। मैं सदा शुद्ध आनंदमय चेतन हूँ, मैं शिव हूँ , मैं शिव हूँ।

राग मनुष्य को बाँधता है जबकि द्वेष दूरियाँ उत्पन्न करता है। राग-द्वेष चुंबक के दो विपरीत ध्रुव हैं। चुंबक का अपना चुंबकीय क्षेत्र है। अनेक लोग, समान और विपरीत ध्रुवों के निकट आने से उपजने वाले क्रमश: विकर्षण और आकर्षण तक ही अपना जीवन सीमित कर लेते हैं। यह मनुष्य की क्षमताओं की शोकांतिका है।

इसी तरह मोह ऐसा खूँटा होता है जिससे मनुष्य पहले स्वयं को बाँधता है और फिर मोह मनुष्य को बाँध लेता है। लोभ मनुष्य को सीढ़ी दर सीढ़ी मनुष्यता से नीचे उतारता जाता है। इनसे मुक्त हो पाना लौकिक से अलौकिक होने, तमो गुण से वाया रजो गुण, वाया सतो गुण, गुणातीत होने की यात्रा है।

एक दृष्टांत स्मरण हो आ रहा है। संन्यासी गुरुजी का एक नया-नया शिष्य बना। गुरुजी दैनिक भ्रमण पर निकलते तो उसे भी साथ रखते। कोई न कोई शिक्षा भी देते। आज भी मार्ग में गुरुजी शिष्य को अपरिग्रह की शिक्षा देते चल रहे थे। संन्यास और संचय का विरोधाभास समझा रहे थे। तभी शिष्य ने देखा कि गुरुजी एक छोटे-से गड्ढे के पास रुक गये, मानो गड्ढे में कुछ देख लिया हो। अब गुरुजी ने हाथ से मिट्टी उठा-उठाकर उस गड्ढे को भरना शुरू कर दिया। शिष्य ने झाँककर देखा तो पाया कि गड्ढे में कुछ स्वर्णमुद्राएँ पड़ी हैं और गुरुजी उन्हें मिट्टी से दबा रहे हैं। शिष्य के मन में विचार उठा कि अपरिग्रह की शिक्षा देनेवाले गुरुजी के मन में स्वर्णमुद्राओं को सुरक्षित रखने का विचार क्यों उठा? शिष्य का प्रश्न गुरुजी पढ़ चुके थे। हँसकर बोले, “पीछे आनेवाले किसी पथिक का मन न डोल जाए, इसलिए मैं मिट्टी पर मिट्टी डाल रहा हूँ।”  

मिट्टी पर मिट्टी डालने की लौकिक गतिविधि में निहितार्थ गुणातीत होने की अलौकिकता है।

गतिविधि के संदर्भ में देखें तो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष जीवन के चार पुरुषार्थ हैं। इनमें से हर पुरुषार्थ की विवेचना अनेक खंडों के कम से कम एक ग्रंथ की मांग करती है। यदि इनके प्रचलित सामान्य अर्थ तक ही सीमित रहकर भी विचार करें तो धर्म, अर्थ,  काम या मोक्ष की लालसा न करना याने इन सब से ऊपर उठकर भीतर विशुद्ध भाव जगना। ‘विशुद्ध’, शब्द  लिखना क्षण भर का काम है, विशुद्ध होना जन्म-जन्मांतर की तपस्या का परिणाम है।

परिणाम कहता है कि तुम अनादि हो पर आदि होकर रह जाते हो। तुम अनंत हो पर अपने अंत का साधन स्वयं जुटाते हो। तुम असीम हो पर तन और मन की सीमाओं में बँधे रहना चाहते हो। तुम असंतोष और क्षोभ ओढ़ते हो जबकि तुम परम आनंद हो।

राग, द्वेष, लोभ, मोह, मद, मत्सर, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन सब से हटकर अपने अस्तित्व पर ध्यान केंद्रित करो। तुम अनुभव करोगे अपना अनादि रूप, अनुभूति होगी अंतर्निहित ईश्वरीय अंश की, अपने भीतर के चेतन तत्व की। तब शव होने की आशंका समाप्त होने लगेगी, बचेगी केवल संभावना, जो प्रति पल कहेगी ‘शिवोऽहम्।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 कृपया आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना जारी रखें। होली के बाद नयी साधना आरम्भ होगी 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #119 ☆ दरिद्रता ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 120 ☆

☆ ‌दरिद्रता ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

किसी कवि ने कहा—

नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं।

दरिद्रता शब्द के अनेक पर्याय वाची शब्द हैं जिनमें – दीन, अर्थहीन, अभाव ग्रस्त, गरीब, कंगाल, निर्धन आदि। जो दारिद्र्य के पर्याय माने जाते है।

प्राय: दरिद्रता का अर्थ निर्धनता से लगाया जाता है। जिस व्यक्ति की आर्थिक स्थिति तथा घर अन्न-धन से खाली होता है, विपन्नता की स्थिति में जीवन यापन करने वाले परिवार को ही दरिद्रता की श्रेणी में रखा जाता है। ऐसे लोगों को प्राय: समाज के लोग हेय दृष्टि से देखते है। यदि हमें अन्न तथा धन के महत्व को समझना है तो हमें पौराणिक कथाओं के तथ्य को शबरी, सुदामा, महर्षि कणाद्, कबीर, रविदास, लालबहादुर शास्त्री के तथा द्रौपदी के अक्षयपात्र कथा और उनके जीवन दर्शन को समझना, श्रवण करना तथा उनके जीवन शैली का अध्ययन करना होगा। दरिद्रता के अभिशाप से अभिशप्त प्राणी का कोई मान सम्मान नहीं, वह जीवन का प्रत्येक दिन त्राषद परिस्थितियों में बिताने के लिए बाध्य होता है। ऐसे परिवार में दुख, हताशा, निराशा डेरा डाल देते है। उससे खुशियों के पल रूठ जाते हैं। दुख और भूख की पीड़ा से बिलबिलाता परिवार दया तथा करूणा का पात्र नजर आता है।

कहा भी गया है कि-

बुभुक्षितः किं न करोति पापं।

अर्थात् दरिद्रता की कोख से जन्मी भूख की पीड़ा से पीड़ित मानव कौन से जघन्यतम कृत्य करने के लिए विवश नहीं होता।

लेकिन वही परिवार जब श्रद्धा, आत्मविश्वास और भरोसे के भावों को धारण कर लेता है और भक्ति तथा समर्पण पर उतर आता है तो भगवान को भी मजबूर कर देता है झुकने के लिए और भगवत पद धारण कर लेता है। कम से कम सुदामा और कृष्ण तथा शबरी का प्रसंग त़ो यही कहता है।—-

“देख सुदामा की दीन दशा करुणा करके करुणानिधि रोये

पानी परात को हाथ छुओ नहीं नैनन के जल से पग धोये !”

जो भगवान भक्ति की पराकाष्ठा की परीक्षा लेने हेतु वामन के रूप में राजा बलि की पीठ नाप लेते हैं वहीं भगवान दीन हीन सुदामा के पैर आंसुओं से धोते हैं। शबरी के जूठे बेर खाते नजर आते हैं।

भले ही इस कथा के तथ्य अतिशयोक्ति पूर्ण के जान पड़ते हों, लेकिन भक्त के पांव पर गिरे ईश्वर के मात्र एक बूंद प्रेमाश्रु भक्त और भगवान के संबंधों की व्याख्या के लिए पर्याप्त है यहाँ तुलना मात्रा से नहीं भाव की प्रगाढता से की जानी चाहिए। पौराणिक मान्यता के अनुसार लक्ष्मी और दरिद्रता दोनों सगी बहन है दरिद्रता के मूल में अकर्मण्यता प्रमाद तथा आलस्य समाहित है, जबकि संपन्नता के मूल में कठोर परिश्रम, लगन, कर्मनिष्ठा समाहित है। कर्मनिष्ठ अपने श्रम की बदौलत अपने भाग्य की पटकथा लिखता है। दरिद्रता इंसान को आत्मसंतोषी बना देती है। जबकि धन की भूख इंसान में लोभ जगाती है। एक तरफ दरिद्रता में संतोष का गुण है,  वहीं लक्ष्मी में अहंकार तथा लोभ रूपी अवगुण भी है, जो इंसान को लालची और बेइमान बना देती है इस लिए कुछ मायनों में दरिद्रता व्यक्ति के आत्मसम्मान को मार देती है, उसमें स्वाभिमान के भाव को जगाती भी है ,इसी लिए सुदामा ने भीख मांगकर खाना स्वीकार किया लेकिन भगवान से उन्हें कुछ भी मांगना स्वीकार्य नहीं था।

और तो और कबीर साहब धनवान और निर्धन की अध्यात्मिक परिभाषा लिखते हुए कहते हैं कि

कबीरा सब जग निर्धना, धनवन्ता नही कोई ।

धनवन्ता सोई जानिए, राम नाम धन होई ॥,

इसीलिए रहीम दास जी ने लिखा

दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय।

जो रहीम दिनहिं लखै, दीनबंधु सम होय।

अर्थात् दरिद्र की सेवा मानव को दीन बंधु ,दीनदयाल, दीनानाथ जैसी उपाधियों से विभूषित कर देती है। इतना ही नहीं दीन दुखियों की सेवा में निरंतर रत रहने वाला मानव आत्मिक शांति के साथ सदैव सुखी रहता है।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 11 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 11 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

जुग सहस्र जोजन पर भानू।

लील्यो ताहि मधुर फल जानू।।

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं।

जलधि लांघि गये अचरज नाहीं।।

दुर्गम काज जगत के जेते।

सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते।।

अर्थ:–

हे हनुमान जी आपने बाल्यावस्था में ही हजारों योजन दूर स्थित सूर्य को मीठा फल जानकर खा लिया था।

आपने भगवान राम की अंगूठी अपने मुख में रखकर विशाल समुद्र को लाँघ गए थे तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं।

संसार में जितने भी दुर्गम कार्य हैं वे आपकी कृपा से सरल हो जाते हैं।

भावार्थ:-

इन चौपाइयों में हनुमान जी की शक्ति के बारे में बताया गया है। सबसे पहले यह बताया गया है कि जन्म के कुछ दिन बाद ही हनुमान जी ने 1000 युग-योजन की दूरी पर स्थित  सूर्य देव को अच्छा फल समझकर खा लिया था।

हनुमान जी को समस्त शक्तियां प्राप्त हैं। उनके ह्रदय में प्रभु विराजमान है। समस्त शक्तियां उनके पास है इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि प्रभु की मुद्रिका को मुंह में रखकर उन्होंने समुद्र को पार कर लिया था।

दुनिया में जितने भी दुर्गम कार्य हैं वे  दूसरों के लिए कठिन हैं राम कृपा से तथा हनुमान जी की कृपा से आसान हो जाते हैं।

संदेश:-

श्री हनुमान जी जैसी दृढ़ता सभी के अंदर होनी चाहिए। अगर आपके अंदर इतनी दृढ़ता होगी तब ही सूर्य को निगलने अर्थात कठिन से कठिन कार्य को करने की क्षमता आपके अंदर आ पाएगी।

मन में अगर किसी कार्य को करने का भाव हो तो वह कितना ही मुश्किल हो पूरा हो ही जाता है।

इन चौपाइयों के बार-बार पाठ करने से होने वाला लाभ :-

जुग सहस्र जोजन पर भानू। लील्यो ताहि मधुर फल जानू।।

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं। जलधि लांघि गये अचरज नाहीं।।

दुर्गम काज जगत के जेते। सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते।।

हनुमान चालीसा की इन चौपाईयों से सूर्यकृपा विद्या, ज्ञान और प्रतिष्ठा मिलती है। दूसरी और तीसरी चौपाई के बार-बार वाचन से महान से महान संकट से मुक्ति मिलती है और सभी समस्याओं का अंत होता है।

विवेचना:-

पहली दो चौपाइयों में हनुमान जी के बलशाली और कार्य कुशल होने के बारे में बताया गया है। तीसरी चौपाई में यह कहा गया है कि इस जगत में जितने भी कठिन से कठिन कार्य हैं वे सभी भी आपके लिए अत्यंत आसान हैं। इस प्रकार उदाहरण दे कर के हनुमान जी को सभी कार्यों के करने योग्य बताया गया है।

संकट मोचन हनुमान अष्टक में कहा भी गया है:-

कौन सो संकट मोर गरीब को जो तुमसे नहीं जात है टारो।

(संकटमोचन हनुमान अष्टक)

इसका भी अर्थ यही है की है हनुमान जी आप समस्त कार्यों को करने में समर्थ है। ईश्वर की जिस पर कृपा होती है सभी कार्यों को करने में समर्थ रहता है। भगवान श्री राम की कृपा हमारे बजरंगबली पर थी। इसलिए हमारे बजरंगबली सभी कार्यों को करने में समर्थ है।

मूकं करोति वाचालं पङ्गुं लङ्घयते गिरिं।

यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम् ॥

कुछ इसी तरह का श्रीरामचरितमानस के बालकांड में भी लिखा हुआ है:-

मूक होइ बाचाल पंगु चढइ गिरिबर गहन।

जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन।।2।।

(रामचरितमानस /बालकांड/सोरठा क्रमांक 2)

रामचंद्र जी की कृपा से गूँगा बहुत सुंदर बोलने वाला हो जाता है और लँगड़ा-लूला दुर्गम पहाड़ पर चढ़ जाता है। कलियुग के सब पापों को जला डालने वाले दयालु भगवान मुझ पर द्रवित हों (दया करें)॥2॥

अब हम इस विवेचना की पहली चौपाई या यूं कहें तो हनुमान चालीसा के अट्ठारहवीं  चौपाई पर आते हैं।

जुग सहस्र जोजन पर भानू | लील्यो ताहि मधुर फल जानू ||

यहां पर सबसे पहले गोस्वामी तुलसीदास जी ने सूर्य लोक से पृथ्वी की दूरी के बारे में  बताया है। उनका कहना है कि सूर्य से पृथ्वी एक युग सहस्त्र योजन दूरी पर है। सूर्य से पृथ्वी की दूरी विश्व में सबसे पहले बाराहमिहीर नामक भारतीय वैज्ञानिक ने बताया था। यह खोज उनके द्वारा 505 ईसवी में की गई थी। उन्होंने अपनी किताब सूर्य सिद्धांत में यह दूरी बताई है। वर्तमान में यह मूल पुस्तक उपलब्ध नहीं है परंतु उसको अन्य विद्वानों ने 800 ईसवी तक लिखा है।

बाराहमिहीर ईसा की पाँचवीं-छठी शताब्दी के भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ थे। बाराहमिहीर ने ही अपने पंचसिद्धान्तिका में सबसे पहले बताया कि अयनांश का मान 50.32 सेकेण्ड के बराबर है। यह चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे। उज्जैन में उनके द्वारा विकसित गणितीय विज्ञान का गुरुकुल सात सौ वर्षों तक अद्वितीय रहा।

हनुमान चालीसा में दिए गए सूर्य की दूरी का अर्थ  निम्नवत है।

सूर्य सिद्धांत के अनुसार एक योजन’ का मतलब 8 मील से होता है (1 मील में 1.6 किमी होते हैं)। अब अगर 1 योजन को युग और सहस्त्र से गुणा कर दिया जाए तो 8 x 1.6 x 12000 x 1000=15,36,00000 (15 करोड़ 36 लाख किमी),

bbc.com के अनुसार सूर्य की औसत दूरी 15 करोड़ किलोमीटर है।

इस घटना का उल्लेख संकटमोचन हनुमान अष्टक में भी मिलता है। संकटमोचन हनुमान अष्टक का पाठ बजरंगबली के भक्तों में अत्यंत लोकप्रिय है। इसमें लिखा है :-

बाल समय रबि भक्षि लियो तब तीनहूँ लोक भयो अँधियारो |

ताहि सों त्रास भयो जग को यह संकट काहु सों जात न टारो ||

देवन आनि करी बिनती तब छाँड़ि दियो रबि कष्ट निवारो |

को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो || 1 ||

हनुमान जी द्वारा सूर्य को निगल जाने की घटना को हनुमत पुराण के पृष्ठ क्रमांक 23 और 24 पर दिया गया है। इस ग्रंथ में लिखा है कि माता अंजना अपने प्रिय पुत्र हनुमान जी का लालन-पालन बड़े ही मनोयोग पूर्वक करती थी। एक बार की बात है कि वानर राज केसरी और माता अंजना दोनों ही राजमहल में नहीं थे। बालक हनुमान पालने में झूल रहे थे। इसी बीच उनको भूख लगी और उनकी दृष्टि प्राची के क्षितिज पर गई। अरुणोदय हो रहा था। उन्होंने सूर्यदेव को लाल रंग का फल समझा। बालक हनुमान, शंकर भगवान के 11 वें रुद्र के अवतार थे। रुद्रावतार होने के कारण उनमें अकूत बल था। वे पवन देव के पुत्र थे अतः उनको पवनदेव ने पहले ही उड़ने की शक्ति प्रदान कर दी थी। हनुमान जी ने छलांग लगाई और अत्यंत वेग से आकाश में उड़ने लगे। पवन पुत्र रुद्रावतार हनुमान जी सूर्य को निगलने के लिए चले जा रहे थे। पवन देव ने जब यह दृश्य देखा तो हनुमान जी की रक्षा हेतु पीछे-पीछे चल दिए। हवा के झोंकों से पवन देव हनुमान जी को शीतलता प्रदान कर रहे थे। दूसरी तरफ जब सूर्य भगवान ने देखा की पवनपुत्र उनकी तरफ आ रहे हैं तो उन्होंने भी अपने को शीतल कर लिया। हनुमान जी सूर्य देव के पास पहुंचे और वहां पर सूर्य देव के साथ क्रीड़ा करने लगे।

उस दिन ग्रहण का दिन था। राहु सूर्य देव को अपना ग्रास बनाने के लिए पहुंचा। उसने पाया कि भुवन भास्कर के रथ पर भुवन भास्कर के साथ एक बालक बैठा हुआ है। राहु बालक की चिंता ना कर सूर्य भगवान को ग्रास करने के लिए आगे बढ़ा ही था कि हनुमान जी ने उसे पकड़ लिया। बालक हनुमान की मुट्ठी में राहु दबने लगा। वह किसी तरह से अपने प्राण बचाकर भागा। उन्होंने इस बात की शिकायत इंद्रदेव जी की से की। इंद्रदेव ने नाराज होकर हनुमान जी के ऊपर बज्र का प्रहार किया जो हनुमान जी की बाईं ढोड़ी पर लगा। जिससे उनकी हनु टूट गयी। इस चोट के कारण हनुमान जी मूर्छित हो गए। हनुमान जी को मूर्छित देख वायुदेव अत्यंत कुपित हो गए। वे अपने पुत्र को अंक में लेकर पर्वत की गुफा में प्रविष्ट हो गए।

वायु देव के बंद होने से सभी जीव धारियों के प्राण संकट में पड़ गए। सभी देवता गंधर्व नाग आदि जीवन रक्षा के लिए ब्रह्मा जी के पास पहुंचे। ब्रह्मा जी सब को लेकर वायुदेव जिस गुफा में थे उस गुफा पर पहुंचे। ब्रह्मा जी ने प्यार के साथ हनुमान जी को स्पर्श किया और हनुमान जी की मुर्छा टूट गई। अपने पुत्र को जीवित देख कर के पवन देव पहले की तरह से  प्राणवायु को बहाने लगे।

इस समय सभी देवता उपस्थित थे। सभी ने अपनी अपनी तरफ से हनुमान जी को वर दिया। जैसे कि ब्रह्मा जी ने कहा कि उनके ऊपर ब्रह्मास्त्र का असर नहीं होगा। इंद्र देव ने कहा कि हनुमान जी के ऊपर उनके वज्र का असर नहीं होगा आदि, आदि।

इस प्रकार ब्रह्मा जी के नेतृत्व में सभी देवताओं ने मिलकर हनुमान जी को बहुत सारे आशीर्वाद एवं वरदान दिए।

वाल्मीकि रामायण में भी इस घटना का वर्णन है। किष्किंधा कांड के 66वें सर्ग समुद्र पार करने के लिए जामवंत जी हनुमान जी को उत्साहित करते हैं। यह उत्साह बढ़ाने के दौरान वे हनुमान जी द्वारा सूर्य को सूर्य लोक में जाने की बात को बताते हैं।

तावदापपत स्तूर्णमन्तरिक्षं महाकपे।

क्षिप्तमिन्द्रेण ते वज्रं कोपाविष्टेन धीमता।।

(वा रा /कि का/66/.23 )

तदा शैलाग्रशिखरे वामो हनुरभज्यत।

ततो हि नामधेयं ते हनुमानिति कीर्त्यते।।

(वा रा /कि का/66/.23 )

अर्थ:- एक दिन प्रातः काल के समय सूर्य भगवान को उदय हुआ देख तुमने उन्हें कोई फल समझा।  उस फल को लेने की इच्छा से तुम कूदकर आकाश में पहुंचे और 300 योजन ऊपर चले गए। वहां सूर्य की किरणों के ताप से भी तुम नहीं घबराए। हे ! महाकपि उस समय तुम को आकाश में जाते देख इंद्र ने क्रोधवश तुम्हारे ऊपर बज्र मारा। तब तुम पर्वत के शिखर पर आकर गिरे। तुम्हारी बायीं और की ठोड़ी टूट गई।

इसके बाद का वर्णन वाल्मीकि रामायण में भी वैसा ही है जैसा कि हनुमत पुराण में है। इस वर्णन को हम आपको बता चुके हैं।

अर्थात वाल्मीकि रामायण से यह प्रतीत होता है हनुमान जी पृथ्वी से 300 योजन ऊपर तक पहुंच गए थे। वहां पर इंद्र ने उनके ऊपर बज्र प्रहार किया। ऐसा प्रतीत होता है इंद्रदेव की प्रवृत्ति अमेरिका जैसी ही थी जिस तरह से अमेरिका किसी दूसरे देश को आगे नहीं बढ़ने देता है वैसे ही इंद्र देव बालक हनुमान को सूर्य तक नहीं पहुंचने देना चाहते थे। परंतु इस समय पवन देव ने अपनी शक्ति  दिखाई। जिसके कारण  भगवान ब्रह्मा ने बीच-बचाव कर शांति की प्रक्रिया को स्थापित किया।

अब हम चर्चा करेंगे वर्तमान समय के बुद्धिमान लोग इस घटना के बारे में क्या कहते हैं और उसका उत्तर क्या है।

वर्तमान समय के अति बुद्धिमान प्राणी कहते हैं पृथ्वी से सूर्य 109 गुना बड़ा है। पृथ्वी पर रहने वाला कोई प्राणी पृथ्वी से बड़ा नहीं हो सकता है अतः यह कैसे संभव है कि पृथ्वी पर रहने वाला कोई प्राणी सूर्य को अपने मुंह में कैद कर ले। इसका उत्तर हनुमत पुराण में अत्यंत स्पष्ट रूप से है। हनुमत पुराण पढ़ने से यह प्रतीत होता है हनुमान जी ने बाल अवस्था में ही पवन और सूर्य देव की सहायता से सूर्य लोक पर कब्जा कर लिया था।  भगवान सूर्य के साथ जो उस समय सूर्य लोक के स्वामी थे मित्रवत व्यवहार बना लिया था। यह बात राहु और इंद्र को बुरी लगी। इंद्र के पास अति भयानक अस्त्र था जिसे वज्र कहते हैं। उससे उन्होंने हनुमान जी पर आक्रमण किया। इस आक्रमण को हनुमान जी बर्दाश्त नहीं कर सके। हनुमान जी के पिता पवन देव ने फिर अपने बल का इस्तेमाल कर पूरे ब्रह्मांड को विवश कर दिया कि वह हनुमान जी के सामने नतमस्तक हो। ब्रह्मांड के सभी बड़े देवता आये और उन्होंने अपनी अपनी तरफ से वरदान दिया।  जैसे भगवान ब्रह्मा और इंद्र देव ने  अपने  हथियार ब्रह्मास्त्र और वज्र का उन पर असर ना होने का वरदान दिया। यह भी कहा जा सकता है कि भगवान ब्रह्मा और इंद्र देव ने हनुमान जी के ऊपर कभी भी ब्रह्मास्त्र और वज्र को का इस्तेमाल न करने का आश्वासन दिया।

रामचरितमानस काव्य है काव्य में कवि अपनी भाषा-शैली के अनुसार विभिन्न अलंकार आदि का प्रयोग करते हैं रामचरितमानस में भी इन सब का प्रयोग किया गया है। बाल्मीकि रामायण उस समय का ग्रंथ है जिस समय रामचंद्र जी अयोध्या में पैदा हुए तथा राज किया। इस प्रकार हम बाल्मीकि रामायण को शत प्रतिशत सही मान सकते हैं।

श्री हनुमान चालीसा  की अगली चौपाई है :-

“प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं |

जलधि लाँघि गये अचरज नाहीं ||”

इस चौपाई में तुलसीदास जी कहते हैं कि हनुमान जी ने प्रभु द्वारा दी गई मुद्रिका को अपने मुख में रख लिया और समुद्र को पार कर गए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

अब प्रश्न उठता है कि महावीर हनुमान जी ने लंका जाते समय मुद्रिका को अपने मुंह में क्यों रखा। मुद्रिका उनके पास पहले जिस स्थान पर थी उसी स्थान पर क्यों नहीं रहने दिया। आइए हम इस प्रश्न के उत्तर को खोजने का प्रयास करते हैं।

 हनुमत पुराण के पेज क्रमांक 73 पर लिखा हुआ है कि सीता जी की खोज के लिए निकलते समय श्री राम जी ने हनुमान जी से कहा “वीरवर तुम्हारा उद्योग, धैर्य एवं पराक्रम और सुग्रीव का संदेश इन सब बातों से लगता है कि निश्चय ही तुमसे मेरे कार्य की सिद्धि होगी। तुम मेरी यह अंगूठी ले जाओ। इस पर मेरे नामाक्षर खुदे हुए हैं। इसे अपने परिचय के लिए तुम एकांत में सीता को देना। कपिश्रेष्ठ इस कार्य में तुम ही समर्थ हो। मैं तुम्हारा बुध्दिबल अच्छी तरह से जानता हूं। अच्छा जाओ तुम्हारा कल्याण हो।

इसके उपरांत पवन कुमार ने प्रभु की मुद्रिका अत्यंत आदर पूर्वक अपने पास रख ली। और उनके चरण कमलों में अपना मस्तक रख दिया। इसका अर्थ स्पष्ट है कि महावीर हनुमान जी के पास उस अंगूठी को रखने के लिए मुंह के अलावा कोई और स्थान भी हो सकता है। हो सकता है कि उन्होंने अपने वस्त्र में उस अंगूठी को बांध लिया हो।

रामचरितमानस में भी यह प्रसंग किष्किंधा कांड में मिलता है। किष्किंधा कांड के 22वें दोहे के बाद एक से सात चौपाई तक इस बात का वर्णन है।

पाछें पवन तनय सिरु नावा।

जानि काज प्रभु निकट बोलावा॥

परसा सीस सरोरुह पानी।

करमुद्रिका दीन्हि जन जानी॥5॥

बहु प्रकार सीतहि समुझाएहु।

कहि बल बिरह बेगि तुम्ह आएहु॥

हनुमत जन्म सुफल करि माना।

चलेउ हृदयँ धरि कृपानिधाना॥6॥

भावार्थ:- सबके पीछे पवनसुत श्री हनुमान्‌जी ने सिर नवाया। कार्य का विचार करके प्रभु ने उन्हें अपने पास बुलाया। उन्होंने अपने करकमल से उनके सिर का स्पर्श किया तथा अपना सेवक जानकर उन्हें अपने हाथ की अँगूठी उतारकर दी और कहा कि बहुत प्रकार से सीता को समझाना और मेरा बल तथा विरह (प्रेम) कहकर तुम शीघ्र लौट आना। हनुमान्‌जी ने अपना जन्म सफल समझा और कृपानिधान प्रभु को हृदय में धारण करके वे चल दिए ॥6॥

बाल्मीकि बाल्मीकि रामायण में भी इस घटना को ज्यों का त्यों लिखा गया है। यह घटना वाल्मीकि रामायण किष्किंधा कांड के 44वें  सर्ग के श्लोक क्रमांक 12 13 14 एवं 15 में  वर्णित है:-

ददौ तस्य ततः प्रीतस्स्वनामाङ्कोपशोभितम्।

अङ्गुलीयमभिज्ञानं राजपुत्र्याः परन्तपः।।

अनेन त्वां हरिश्रेष्ठ चिह्नेन जनकात्मजा।

मत्सकाशादनुप्राप्तमनुद्विग्नाऽनुपश्यति।।

व्यवसायश्च ते वीर सत्त्वयुक्तश्च विक्रमः।

सुग्रीवस्य च सन्देशस्सिद्धिं कथयतीव मे।।

स तद्गृह्य हरिश्रेष्ठः स्थाप्य मूर्ध्नि कृताञ्जलिः।

वन्दित्वा चरणौ चैव प्रस्थितः प्लवगोत्तमः।।

(वा रा/ कि का/44./12,13,14,15)

यहां भी वर्णन बिल्कुल रामचरितमानस जैसा ही है। पन्द्रहवें श्लोक में लिखा है की वानर श्रेष्ठ हनुमान जी ने उस अंगूठी को माथे पर चढ़ाया। श्री रामचंद्र जी के चरणों को हाथ जोड़कर प्रणाम करके महावीर हनुमान जी चल दिए।

तीनों ग्रंथों में कहीं पर यह नहीं लिखा है की हनुमानजी ने श्री रामचंद्र जी से अंगूठी लेने के उपरांत उसको कहां पर रखा। यह स्पष्ट है कि उन्होंने अंगूठी को अपने पास रखा अर्थात अपने वस्त्रों में उसको सुरक्षित किया।

हनुमान जी जब समुद्र को पार करने लगे तो सभी ग्रंथों में यह लिखा है कि उन्होंने वायु मार्ग से समुद्र को पार किया हनुमान जी के पास इस बात की शक्ति थी कि वह हवाई मार्ग से गमन कर सकते थे। जब वे बाल काल में धरती से सूर्य तक की दूरी उड़ कर जा सकते थे तो समुद्र के किनारे से लंका तक जाने की दूरी तो अत्यंत कम ही थी। इतनी लंबी उड़ान उस समय धरती पर लंकापति रावण पक्षीराज जटायु और संपाती ही कर सकते थे। वायु मार्ग से उड़ते समय इस बात का डर था की वायु के घर्षण के कारण अंगूठी वस्त्रों से निकल सकती है। अंगूठी को बचाने के लिए उन्होंने सबसे सुरक्षित स्थान अपने मुख में अंगूठी को रख लिया। हनुमान जी ने अपने वस्त्रों से उस अंगूठी को निकालकर मुंह में सिर्फ सुरक्षा के कारणों से रखा था।

हनुमानजी को योग की अष्ट सिद्धियां प्राप्त थी। इन आठ सिद्धियों के नाम है:- अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्रकाम्य, इशीता, वशीकरण। उपरोक्त शक्ति में से लघिमा ऐसी शक्ति है जिसके माध्यम से उड़ा जा सकता है। हनुमानजी महिमा और लघिमा शक्ति के बल पर समुद्र पार कर गए थे।

विमान को संचालित करने के लिए गुरुत्वाकर्षण विरोधी (anti-gravitational) शक्ति की आवश्यकता होती है और ‘लघिमा’ की (anti-gravitational) शक्ति प्रणाली अनुरूप होती है। लघिमा (laghima) को संस्कृत में लघिमा सिद्धि कहते हैं और इंग्लिश में इसे लेविटेशन (levitation) कहा जाता है। लघिमा योग के अनुसार आठ सिद्धियों में से एक सिद्धि है।

दैनिक भास्कर के डिजिटल एडिशन में आज से 8 वर्ष पुराना एक लेख है। जिसमें बताया गया है कि वाराणसी के चौका घाट पर मूछों वाले हनुमान जी का मंदिर है। इस मंदिर के बनने की कहानी भी हनुमान जी के शक्ति को बयान करती है। 18वीं शताब्दी में वाराणसी का डी एम हेनरी नाम का अंग्रेज था। वाराणसी के वरुणा नदी के किनारे रामलीला होती थी। हेनरी वहां पहुंचा। उसने रामलीला को बंद कराने का प्रयास किया। जिसका कि वहां के निवासियों ने विरोध किया। हेनरी ने चैलेंज किया कि आप लोग कहते हैं कि हनुमान जी ने समुद्र को छलांग लगाकर पार कर लिया था। अगर आपका हनुमान इस नदी को छलांग लगाकर पार कर ले तो मैं मान लूंगा यह रामलीला का उत्सव सही है। लोगों ने इस तरह का टेस्ट ना लेने की बात की परंतु वह टेस्ट लेने पर अड़ा रहा। हनुमान बने पात्र को आखिर कूदना पड़ा। कूदने के लिए जब उन्होंने श्री रामचंद्र जी बने पात्र से आज्ञा मांगी तो उन्होंने  कहा ठीक है। तुम कूद करके नदी पार कर लो। परंतु पीछे मुड़कर मत देखना। हनुमान बने पात्र ने नदी कूदने का प्रयास किया। परंतु जब दूसरी तरफ पहुंच गया तो उसने पीछे मुड़कर देख लिया और वही पत्थर की तरह से जम गया। आज उस स्थान पर मूछों वाले हनुमान जी का मंदिर बना हुआ है।

महाबली हनुमान जी धरती से सूर्य लोक तक जाने के लिए समर्थ है। अतः यह सोचना कि समुद्र के किनारे से लंका तक समुद्र को पार करके नहीं जा सकते हैं मूर्खता की पराकाष्ठा होगी। अतः उनका समुद्र को पार करके जाना कोई आश्चर्य का विषय नहीं है।

हनुमान चालीसा की अगली चौपाई है :-

“दुर्गम काज जगत के जेते |

सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते “

इसका शाब्दिक अर्थ दो तरह से कहा जा सकता है। पहला अर्थ है जगत के बाकी लोगों के लिए जो कार्य दुर्गम होते हैं आपके लिए अत्यंत आसान होते हैं। इसका दूसरा अर्थ भी है संसार के दुर्गम कार्य भी आपकी कृपा से आसान हो जाते हैं। मुझे दूसरा अर्थ ज्यादा सही लग रहा है। अगर हनुमान जी की आप पर कृपा है तो आप मुश्किल से मुश्किल कार्य भी आसानी से कर सकते हैं। जैसे कि अभी ऊपर रामलीला के प्रसंग में मैंने बताया कि रामलीला के एक साधारण से पात्र पर जब हनुमान जी की कृपा हो गई तो उसने वरुणा नदी को पार कर लिया। आपकी कृपा जिस व्यक्ति पर है वह किसी भी कार्य को बगैर किसी परेशानी के आराम से कर सकता है। चौपाई के माध्यम से तुलसीदास जी कह रहे हैं कि कोई भी कार्य को करने के लिए आपको प्रयास तो करना पड़ेगा। चाहे वह काम आसान हो और चाहे कठिन। परंतु केवल प्रयास करने से कार्य नहीं हो जाएगा। काम होने के लिए ईश्वर की कृपा आवश्यक है। अगर हनुमान जी की कृपा आप पर है तो कार्य को होने से कोई भी रोक नहीं सकता है। अगर आप इस घमंड में हैं कि आप बहुत शक्तिशाली हैं आपका रसूख समाज में बहुत ज्यादा है और आप किसी भी कार्य को करने में समर्थ हैं तो यह आपकी भूल है। हो सकता है आप कार्य करने को आगे बढ़े और जहां आपको कार्य करना है उस जगह तक जाने का संसाधन ही आपको ना मिल पाए। ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जिसमें विद्यार्थी को सब कुछ आ रहा होता है परंतु भ्रम वश वह पास होने लायक प्रश्न भी हल नहीं कर पाता है। 

एक लड़का था। मान लेते हैं कि लड़के का नाम विजय था। देश के प्रमुख 10 इंजीनियरिंग कॉलेजों में से एक से उसने बी ई की परीक्षा दी और अपने गांव चला गया। गांव पर ही उसको अपने एक साथी का पत्र मिला जिसमें उसने बताया था कि 16 तारीख तक एक अच्छे संस्थान में ग्रैजुएट ट्रेनी के लिए वैकेंसी आई है। यह पत्र उसको 13 तारीख को प्राप्त हुआ था। विजय ने यह मानते हुए की अब अगर लिखित परीक्षा का फार्म आ भी जाए तो कोई फायदा नहीं है। लिखित परीक्षा के फार्म हेतु उसने  आवेदन दे दिया। लिखित परीक्षा का आवेदन फार्म 20 तारीख के आसपास आ गया। उसके साथ यह भी लिखा था कि इस फॉर्म को आप 30 तारीख तक भर सकते हैं। विजय ने तत्काल फार्म भरा और भेजा। लिखित परीक्षा और इंटरव्यू के उपरांत प्रथम नंबर पर आया और हनुमान जी की कृपा से ही अंत में विजय को उस संस्थान के उच्चतम पद पर पहुंचने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मैं यह भी कहना चाहता हूं कि यह कहानी बिल्कुल सच्ची है संभवतः आप लोगों के आसपास भी ऐसी कई घटनाएं घटित हुई होंगी।

अगर आपके पेट में खाना पच जाता है उससे शरीर में खून बनता है मांस बनता है और मांसपेशियां बनती है। आपके दिन भर का कार्य उस खाने पचने की वजह से हो जाता है। अगर यह खाना न पचे तो आप बीमार हो जाएंगे और किसी कार्य के काबिल नहीं रहेंगे। इसी प्रकार अगर आप की सफलताएं पच जाएं अर्थात आपको सफलताओं का अहंकार ना हो तो आप जिंदगी में आगे बढ़ते चले जाएंगे। अगर आप यह माने यह सब प्रभु की कृपा से हुआ है तो आपके अंदर अहंकार नहीं आएगा। अगर आपको अपनी सफलता नहीं पचेगी तो आपके अंदर अहंकार आ जाएगा।  किसी न किसी दिन यह अहंकार आपको जमीन पर ला देगा। उसी के लिए पुराने जमाने के लोग कहते थे कि सफलता मिले तो भगवान को नमस्कार करो, अहंकार न बढे उसके लिए वह परहेज है। लोग कहते हैं कि तुम्हे सफलता मिली है वह वृद्धो के आशीर्वाद से मिली है, अत: वृद्धों को प्रणाम करो।

कुछ लोग कह सकते हैं कि वृद्धो के आशीर्वाद से सफलता मिली वह सत्य नहीं है, गलत बात है। आशीर्वाद से क्या होता है? जो सफलता मिलती है वह परिश्रम से मिलती है। लडका एम.बी.बी.एस. की परीक्षा में प्रथम श्रेणी मे उत्तीर्ण हुआ। इतना होने पर भी उसके पिताजी कहते हैं कि वृद्धों के आशीर्वाद से तुम प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ, उन्हे नमस्कार कर। परंतु ऐसे लोग यह नहीं जानते हैं कि आपके अंदर सफलता का अहंकार ना आ जाए इसलिए बड़ों को प्रणाम करने के लिए कहा जा रहा है।

जीवन में यदि हमें अपने लक्ष्य तक पहुँचना है, सफलताएं प्राप्त करना है तो उसमें पुरुषार्थ के साथ भगवान पर अटूट विश्वास का होना भी आवश्यक है। भगवान की सहायता के बिना हमारा कल्याण नहीं होगा, इसलिए जीवन उन्नत करने के लिए हम प्रयत्न अवश्य करेंगे, फिर भी भगवान की सहायता की जरुरत है। उनकी सहायता से ही हम आगे बढ सकेंगे। अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकेंगे।

अगर हम हनुमान जी के शरणागत हो जाएं और प्रयास करें तो हमारी सभी इच्छाओं की पूर्ति हो सकती है। अंत में

मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं।

वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये॥

हे मनोहर, वायुवेग से चलने वाले, इन्द्रियों को वश में करने वाले, बुद्धिमानो में सर्वश्रेष्ठ। हे वायु पुत्र, हे वानर सेनापति, श्री रामदूत हम सभी आपके शरणागत है॥

जय हनुमान।

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #172 ☆ आत्मनियंत्रण–सबसे कारग़र ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख आत्मनियंत्रण–सबसे कारग़र । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 172☆

☆ आत्मनियंत्रण–सबसे कारग़र 

‘जो अपने वश में नहीं, वह किसी का भी गुलाम बन सकता है’ मनु का यह कथन आत्मावलोकन करने का संदेश देता है, क्योंकि जब तक हम अपने अंतर्मन में नहीं झाँकेगे; अपनी बुराइयों व ग़लतियों से अवगत नहीं हो पाएंगे। उस स्थिति में सुधार की गुंजाइश कहाँ रह जाएगी? यदि हम सदैव दूसरों के नियंत्रण में रहेंगे, तो हमारी इच्छाओं, आकांक्षाओं व तमन्नाओं की कोई अहमियत नहीं रहेगी और हम गुलामी में भी प्रसन्नता का अनुभव करेंगे। वास्तव में स्वतंत्रता में जीवंतता होती है, पराश्रिता नहीं रहती और जो व्यक्ति स्व-नियंत्रण अर्थात् आत्मानंद में लीन रहता है, वही सर्वोत्तम व सर्वश्रेष्ठ होता है। इसलिए पक्षी पिंजरे में कभी भी आनंदित नहीं रहता; सदैव परेशान रहता है, क्योंकि आवश्यकता है–अहमियत व अस्तित्व के स्वीकार्यता भाव की। सो! जो व्यक्ति अपनी परवाह नहीं करता; ग़लत का विरोध नहीं करता तथा हर विषम परिस्थिति में भी संतोष व आनंद में रहता है; वह जीवन में कभी भी उन्नति नहीं कर सकता।

‘बहुत कमियां निकालते हैं हम दूसरों में अक्सर/ आओ! एक मुलाक़ात ज़रा आईने से भी कर लें।’ जी हाँ! आईना कभी झूठ नहीं बोलता; सत्य से साक्षात्कार कराता है। इसलिए मानव को आईने से रूबरू होने की सलाह दी जाती है। वैसे दूसरों में कमियां निकालना तो बहुत आसान है, परंतु ख़ुद को सहेजना-सँवारना अत्यंत कठिन है। संसार में सबसे कठिन कार्य है अपनी कमियों को स्वीकारना। इसलिए कहा जाता है ‘ढूंढो तो सुकून ख़ुद में है/ दूसरों से तो बस उलझनें मिलती हैं।’ इसलिए मानव को ख़ुद से मुलाक़ात करने व ख़ुद को तलाशने की सीख दी जाती है। यह ध्यान अर्थात् आत्म-मुग्धता की स्थिति होती है, जिसमें दूसरों से संबंध- सरोकारों का स्थान नहीं रहता। यह हृदय की मुक्तावस्था कहलाती है, जहां इंसान आत्मकेंद्रित रहता है। वह इस तथ्य से अवगत नहीं रहता कि उसके आसपास हो क्या रहा है? यह आत्मसंतोष की स्थिति होती है, जहां स्व-पर व राग-द्वेष का स्थान नहीं रहता।

ढूंढो तो सुक़ून ख़ुद में है/ दूसरों में तो बस उलझनें मिलेंगी। मुझे स्मरण हो रही हैं स्वरचित पंक्तियां ‘उलझनें बहुत हैं, सुलझा लीजिए/ बेवजह ना दूसरों से ग़िला कीजिए।’ शायद इसीलिए कहा जाता है कि बुराई को प्रारंभ में जड़ से मिटा देना चाहिए, वरना ये कुकुरमुत्तों की भांति अपने पाँव पसार लेती हैं। सो! उलझनों को शांति से सुलझाना कारग़र है, अन्यथा वे दरारें दीवारों का आकार ग्रहण कर लेती हैं। शायद इसीलिए यह सीख दी जाती है कि मतभेद रखें, मनभेद नहीं और मन-आँगन में दीवारें मत पनपने दें।

मानव को अपेक्षा व उपेक्षा के व्यूह से बाहर निकलना चाहिए, क्योंकि दोनों स्थितियाँ मानव के लिए घातक हैं। यदि हम किसी से उम्मीद करते हैं और वह पूरी नहीं होती, तो हमें दु:ख होता है। इसके विपरीत यदि कोई हमारी उपेक्षा करता है और हमारे प्रति लापरवाही का भाव जताता है, तो वह स्थिति भी हमारे लिए असहनीय हो जाती है। सामान्य रूप में मानव को उम्मीद का दामन थामे रखना चाहिए, क्योंकि वह हमें मंज़िल तक पहुंचाने में सहायक सिद्ध होती है। परंतु मानव को उम्मीद दूसरों से नहीं; ख़ुद से रखनी चाहिए, क्योंकि उसमें निराशा की गुंजाइश नहीं होती। विपत्ति के समय मानव को इधर-उधर नहीं झाँकना चाहिए, बल्कि अपना सहारा स्वयं बनना चाहिए– यही सफलता की कुंजी है तथा अपनी मंज़िल तक पहुंचने का बेहतर विकल्प।

‘ज़िंदगी कहाँ रुलाती है, रुलाते तो वे लोग हैं, जिन्हें हम अपनी ज़िंदगी समझ लेते हैं’ से तात्पर्य है कि मानव को मोह-माया के बंधनों से सदैव मुक्त रहना चाहिए। जितना हम दूसरों के क़रीब होंगे, उनसे अलग होना उतना ही दुष्कर व कष्टकारी होगा। इसलिए ही कहा जाता है कि हमें सबसे अधिक अपने ही कष्ट देते व रुलाते हैं। मेरे गीत की यह पंक्तियाँ भी इसी भाव को दर्शाती हैं। ‘यह दुनिया है दो दिन का मेला/ हर इंसान यहाँ है अकेला/ तन्हाई संग जीना सीख ले/ तू दिव्य खुशी पा जाएगा।’ इस संसार में इंसान अकेला आया है और उसे अकेले ही जाना है और ‘यह किराए का मकान है/ कौन कब तक यहाँ ठहर पाएगा।’

ज़िंदगी समझ में आ गई तो अकेले में मेला/ समझ नहीं आई तो मेले में भी अकेला अर्थात् यही है ध्यानावस्था में रहने का सलीका। ऐसा व्यक्ति हर पल प्रभु सिमरन में मग्न रहता है, क्योंकि अंतकाल में यही साथ जाता है। ग़लती को वह इंसान सुधार लेता है, जो उसे स्वीकार लेता है। परंतु मानव का अहं सदैव उसके आड़े आता है, जो उसका सबसे बड़ा शत्रु है। अपेक्षाएं जहां खत्म होती हैं: सुक़ून वहाँ से शुरू होता है। इसलिए रिश्ते चंदन की तरह होने चाहिए/ टुकड़े चाहे हज़ार हो जाएं/ सुगंध ना जाए, क्योंकि जो भावनाओं को समझ कर भी आपको तकलीफ़ देता है; कभी आपका अपना हो ही नहीं सकता। वैसे तो आजकल यही है दस्तूर- ए-दुनिया। अपने ही अपने बनकर अपनों से विश्वासघात करते हैं, क्योंकि रिश्तों में अपनत्व भाव तो रहा ही नहीं। वे तो पलभर में ऐसे टूट जाते हैं, जैसे भुना हुआ पापड़। सो! अजनबीपन का एहसास सदा बना रहता है। इसलिए पीठ हमेशा मज़बूत रखनी चाहिए, क्योंकि शाबाशी व धोखा दोनों पीछे से मिलते हैं। बात जब रिश्तों की हो, तो सिर झुका कर जीओ। परंतु जब उसूलों की हो, तो सिर उठाकर जीओ, क्योंकि अभिमान की ताकत फ़रिश्तों को भी शैतान बना देती है। लेकिन नम्रता भी कम शक्तिशाली नहीं है, साधारण इंसान को फरिश्ता बना देती है।

दो चीज़ें देखने में छोटी नज़र आती हैं–एक दूर से, दूसरा गुरूर से। समय और समझ दोनों एक साथ किस्मत वालों को मिलते हैं, क्योंकि अक्सर समय पर समझ नहीं आती और समझ आने पर उम्र निकल जाती है। सो! मानव को समय का सदुपयोग करना चाहिए, क्योंकि गया वक्त कभी लौटकर नहीं आता। काश! लोग समझ पाते रिश्ते एक-दूसरे का ख्याल रखने के लिए होते हैं, इस्तेमाल करने के लिए नहीं। सो! श्रेष्ठ वही कहलाता है, जिसमें दृढ़ता हो, पर ज़िद्द नहीं; दया हो, पर कमज़ोरी नहीं; ज्ञान हो, अहंकार नहीं। इसके साथ ही मानव को इच्छाएं, सपने, उम्मीदें व नाखून समय-समय पर काटने की सलाह दी गई है, क्योंकि यह सब मानव को पथ-विचलित ही नहीं करते, बल्कि उस मुक़ाम पर पहुंचा देते हैं, जहाँ से लौटना संभव नहीं होता। परंतु यह सब आत्म-नियंत्रण द्वारा संभव है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग – 23 – चुनाव प्रचार ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 23 – चुनाव प्रचार ☆ श्री राकेश कुमार ☆

साठ के दशक में बैलों की जोड़ी और दीपक निशान युक्त बैज, सेफ्टी पिन के साथ कमीज़ में टांकते हुए हमारे देश के चुनाव प्रचार की यादें आज भी स्मृति में हैं।

आजकल तो सोशल मीडिया का समय है, इसलिए ट्विटर, फेस बुक, व्हाट्स ऐप जैसे प्रचार साधन जोरों पर हैं। समाचार पत्र, पेम्प्लेट, बैनर, होर्डिंग, भवनों की दीवारें पोस्टर और पेंटर की कूची से रंग भरना अभी भी जारी हैं।

यहां विदेश में दो फुट चौड़ा और दो फुट लंबा एक्रेलिक शीट पर लिख कर सड़क के किनारे पर खड़ा कर देते हैं। यातायात या जन जीवन पर कोई रुकावट तक नहीं होती है। हमारे देश में तो नामांकन भरने, चुनाव परिणाम सब के अलग-अलग लंबे जलूस के रूप में जाते हैं।

प्रत्याशी स्वयं भी घर-घर जाकर और सभा के माध्यम से अपना परिचय देने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। समय, धन, बाहुबल का सहारा चुनाव की जीत में बैसाखी का कार्य करते हैं। इन सब से लोगों को भी अनेक परेशानियां होना स्वाभाविक है।

विश्व में सबसे बड़े लोकतंत्र का खिताब होने पर भी हमारे चुनाव प्रचार / व्यवस्था में ढेरों कमियां हैं। सुधार अत्यंत मंद गति से हो रहे हैं, शायद अंग्रेजी कहावत “Slow and steady wins the race.” के सिद्धांत को मानते हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 10 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 10 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा।

राम मिलाय राज पद दीन्हा।।

तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना।

लंकेस्वर भए सब जग जाना।।

अर्थ:–

आपने सुग्रीव जी को श्रीराम से मिलाकर उपकार किया, जिसके कारण वे राजा बने। आपकी सलाह को मानकर विभीषण लंकेश्वर हुए। यह बात सारा संसार जानता है।

भावार्थ:-

सुग्रीव जी के भाई बाली ने उनको अपने राज्य से बाहर कर दिया था। बाली ने उनकी पत्नी तारा को भी उनसे छीन लिया था। इस प्रकार बाली ने सुग्रीव का सर्वस्व हरण कर लिया था। हनुमान जी ने सुग्रीव और श्री राम जी का मिलन कराया। बाद में श्री रामचंद्र जी द्वारा बाली का वध हुआ और सुग्रीव को उनका राज्य वापस मिला।

श्री हनुमान जी के द्वारा लंका में विभीषण को दी गई सलाह को उन्होंने  मान लिया।  रावण द्वारा लंका से भगाया जाने के बाद विभीषण श्री रामचंद्र जी के शरणागत हो गए।  श्री रामचंद्र जी ने उनको लंका का राजा बना दिया।

संदेश:-

किसी के साथ अन्याय होता दिखे तो चुप बैठने की जगह श्री हनुमान जी की तरह उसकी सहायता करना ही मानवता है।

हमको सदैव अच्छे एवं नीतिज्ञ  व्यक्ति का साथ देना चाहिए। अगर कोई अन्यायी या दुराचारी सत्ता पर बैठा हो तो चुप बैठने की जगह श्री हनुमान जी की तरह उसको हटाने का कार्य करना ही वीर व्यक्ति का लक्षण है।

इन चौपाइयों के बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ :-

तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा।  राम मिलाय राज पद दीन्हा।।

तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना। लंकेस्वर भए सब जग जाना।।

हनुमान चालीसा की ये चौपाइयां राजकीय मान सम्मान दिलाती है। हनुमत कृपा पर विश्वास आपको चतुर्दिक सफलता दिलाएगा।

विवेचना:-

पहली चौपाई में महात्मा तुलसीदास बताते हैं कि हनुमान जी ने सुग्रीव जी को श्री रामचंद्र जी से मिलाकर सुग्रीव जी पर उपकार किया। श्री राम चन्द्र जी द्वारा उन्हें किष्किंधा का राजा बना दिया गया। यदि श्री रामचंद्र जी और सुग्रीव की मुलाकात नहीं होती और दोनों की आपस में मित्रता की संधि नहीं होती तो सुग्रीव कभी भी बाली को परास्त कर किष्किंधा के राजा नहीं हो पाते।

संकटमोचन हनुमान अष्टक में भी इस बात का वर्णन है:-

बालि की त्रास कपीस बसै गिरि जात महाप्रभु पंथ निहारो |

चौंकि महा मुनि साप दियो तब चाहिय कौन बिचार बिचारो ||

कै द्विज रूप लिवाय महाप्रभु सो तुम दास के सोक निवारो

|| को० – 2 ||

अर्थात बाली के डर से सुग्रीव ऋष्यमूक पर्वत पर रहते थे। एक दिन सुग्रीव ने जब श्री राम जी और श्री लक्ष्मण जी को आते देखा तो उन्हें बाली का भेजा हुआ योद्धा समझ कर भयभीत हो गए। तब श्री हनुमान जी ने ही ब्राह्मण का वेश बनाकर प्रभु श्रीराम का भेद जाना और सुग्रीव से उनकी मित्रता कराई। यह पूरा प्रसंग रामचरित मानस तथा अन्य सभी रामायणों में भी मिलता है। यह प्रसंग निम्नानुसार है:-

सुग्रीव बाली से डरकर ऋष्यमूक पर्वत पर अपने मंत्रियों और मित्रों के साथ निवास कर रहे थे। बाली को इस बात का श्राप था कि अगर वह ऋष्यमूक पर्वत पर जाएगा तो उसकी मृत्यु हो जाएगी। इस डर के कारण बाली इस पर्वत पर नहीं आता था। परंतु इस बात की पूरी संभावना थी कि वह अपने दूतों को सुग्रीव को मारने के लिए भेज सकता था। सुग्रीव ने  एक दिन दो वनवासी योद्धा युवकों को तीर धनुष के साथ ऋष्यमूक पर्वत पर आते हुए देखा।

आगे चले बहुरि रघुराया। रिष्यमूक पर्बत निअराया॥

तहँ रह सचिव सहित सुग्रीवा। आवत देखि अतुल बल सींवा॥1॥

(रामचरितमानस/ किष्किंधा कांड)

सुग्रीव के यह लगा कि ये दोनों योद्धा बाली के द्वारा भेजे गए दूत हैं। सुग्रीव जी यह देखकर अत्यंत भयभीत हो गए। उनके साथ रह रहे लोगों में हनुमान जी सबसे बुद्धिमान एवं बलशाली थे। अतः उन्होंने श्री हनुमान जी से कहा तुम ब्राह्मण भेष में जाकर यह पता करो कि यह लोग कौन है?

अति सभीत कह सुनु हनुमाना। पुरुष जुगल बल रूप निधाना॥

धरि बटु रूप देखु तैं जाई। कहेसु जानि जियँ सयन बुझाई॥2॥

(रामचरितमानस/ किष्किंधा कांड)

सुग्रीव इतना डरा हुआ था कि उसने कहा कि अगर यह लोग बाली के द्वारा भेजे गए हैं तो वह तुरंत ही वह इस स्थान को छोड़ देगा। यह सुनने के उपरांत हनुमान जी तत्काल  ब्राह्मण वेश में युवकों से मिलने के लिए चल दिए। हनुमान जी ने उन दोनो युवकों से उनके बारे में पूछा।

यहां यह बताना आवश्यक है कि इसके पहले हनुमान जी श्री रामचंद्र जी के बाल्यकाल में उनको एक बार देख चुके थे। परंतु बाल अवस्था और युवा काल में शरीर में बड़ा अंतर आ जाता है। अतः उनको वे तत्काल पहचान नहीं सके।

पठए बालि होहिं मन मैला। भागौं तुरत तजौं यह सैला॥

बिप्र रूप धरि कपि तहँ गयऊ। माथ नाइ पूछत अस भयऊ॥3।।

को तुम्ह स्यामल गौर सरीरा। छत्री रूप फिरहु बन बीरा ॥

कठिन भूमि कोमल पद गामी। कवन हेतु बिचरहु बन स्वामी॥4।।

(रामचरितमानस/ किष्किंधा कांड)

हनुमान जी द्वारा पूछे जाने पर श्री रामचंद्र ने अपना परिचय दिया और परिचय प्राप्त करने के बाद हनुमान जी ने उनको तत्काल पहचान लिया तथा उनके चरणों पर गिर गये।

प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना। सो सुख उमा जाइ नहिं बरना॥

पुलकित तन मुख आव न बचना। देखत रुचिर बेष कै रचना॥3॥

हनुमान जी को इस बात की ग्लानि हुई कि वे भगवान को पहचान नहीं पाए और तत्काल उन्होंने भगवान से पूछा कि मैं तो एक साधारण वानर हूं आप भगवान होकर मुझे क्यों नहीं पहचान पाए।

पुनि धीरजु धरि अस्तुति कीन्ही। हरष हृदयँ निज नाथहि चीन्ही॥

मोर न्याउ मैं पूछा साईं। तुम्ह पूछहु कस नर की नाईं॥

तव माया बस फिरउँ भुलाना। ताते मैं नहिं प्रभु पहिचाना॥

(रामचरितमानस/ किष्किंधा कांड)

इस प्रकार हनुमान जी ने श्री रामचंद्र जी और श्री लक्ष्मण जी को अपना पुराना परिचय याद दिला कर सुग्रीव के लिए एक रास्ता बनाया। सुग्रीव को एक सशक्त साथी की आवश्यकता थी जो बाली को हराकर सुग्रीव को राजपद दिला सकने में समर्थ हो। हनुमान जी को मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की शक्ति के बारे में पता था। अतः उन्होंने श्री रामचंद्र जी और श्री लक्ष्मण जी को सुग्रीव के पास चलने के लिए प्रेरित किया।

देखि पवनसुत पति अनुकूला। हृदयँ हरष बीती सब सूला॥

नाथ सैल पर कपिपति रहई। सो सुग्रीव दास तव अहई॥1॥

(रामचरितमानस/ किष्किंधा कांड)

अर्थ:- श्रीरामचंद्र जी को अनुकूल (प्रसन्न) देखकर पवन कुमार हनुमान्‌ जी के हृदय में हर्ष छा गया और उनके सब दुःख जाते रहे। (उन्होंने कहा-) हे नाथ! इस पर्वत पर वानरराज सुग्रीव रहते हैं, वे आपका दास है॥1॥

 तेहि सन नाथ मयत्री कीजे। दीन जानि तेहि अभय करीजे॥

सो सीता कर खोज कराइहि। जहँ तहँ मरकट कोटि पठाइहि॥2॥

(रामचरितमानस/ किष्किंधा कांड)

अर्थ:- हे नाथ! उससे मित्रता कीजिए और उसे दीन जानकर निर्भय कर दीजिए। वह सीताजी की खोज करवाएगा और जहाँ-तहाँ करोड़ों वानरों को भेजेगा॥2॥

इसके उपरांत श्री रामचंद्र जी और श्री लक्ष्मण जी को लेकर हनुमान जी सुग्रीव के पास पहुंचे और दोनों के बीच में मित्रता कराई।

तब हनुमंत उभय दिसि की सब कथा सुनाइ। पावक साखी देइ करि जोरी प्रीति दृढ़ाइ॥4॥

(रामचरितमानस/ किष्किंधा कांड)

अर्थ:- तब हनुमान्‌जी ने दोनों ओर की सब कथा सुनाकर अग्नि को साक्षी देकर परस्पर दृढ़ करके प्रीति जोड़ दी (अर्थात्‌ अग्नि को साक्षी देकर प्रतिज्ञापूर्वक उनकी मैत्री करवा दी)॥4॥

इसी प्रकार का विवरण बाल्मीकि रामायण में भी है।

काष्ठयोस्स्वेन रूपेण जनयामास पावकम्। दीप्यमानं ततो वह्निं ह्निं पुष्पैरभ्यर्च्य सत्कृतम्।। 

तयोर्मध्येऽथ सुप्रीतो निदधे सुसमाहितः। ततोऽग्निं दीप्यमानं तौ चक्रतुश्च प्रदक्षिणम्।।

सुग्रीवो राघवश्चैव वयस्यत्वमुपागतौ। ततस्सुप्रीतमनसौ तावुभौ हरिराघवौ।।

(बाल्मीकि रामायण / किष्किंधा कांड/5/15,16,17)

हनुमान जी ने सुग्रीव जी और श्री रामचंद्र जी के बीच में वार्तालाप होने के बाद अग्नि देव को साक्षी रख उनका पुष्प आदि से पूजन किया। इसके उपरांत श्री रामचंद्र जी और सुग्रीव के बीच में अग्नि को रखा गया। दोनों ने अग्नि की परिक्रमा की। इस प्रकार सुग्रीव और श्री राम जी की मैत्री हो गई। दोनों एक दूसरे को मैत्री भाव से देखने लगे। इस मैत्री के उपरांत बाली को मारने की योजना बनी। फिर सुग्रीव को राज्य पद प्राप्त हुआ।

इस प्रकार अगर हनुमान जी पूरी योजना बनाकर क्रियान्वित नहीं करवाते तो सुग्रीव को किष्किंधा का राज्य नहीं प्राप्त हो सकता था। हनुमान जी ने यह सब किसी स्वार्थवश नहीं किया वरन महाराज बाली द्वारा किए जा रहे अन्याय को समाप्त करने का उपाय किया।

इसी प्रकार की दूसरी घटना श्रीलंका की है। जहां पर दुराचारी अत्याचारी निरंकुश शासक रावण राज्य करता था। रावण का दूसरा भाई विभीषण धार्मिक, सज्जन और ईश्वर को मानने वाला था। किन्तु शारीरिक शक्ति में वह रावण से कमजोर था। हनुमान जी ने उसको श्री रामचंद्र जी के पास पहुंचने की सलाह दी। श्री विभीषण ने बाद में इस सलाह का उपयोग किया और वह लंका का राजा भी बना।

हनुमान जी द्वारा विभीषण को सलाह देने की पूरी कहानी पर अगर हम ध्यान दें, तो हम पाते हैं कि सीता जी की खोज में लंका भ्रमण के दौरान विभीषण का महल हनुमान जी को एकाएक दिखा था। विभीषण के भवन के बाहर धनुष बाण के प्रतीक बने हुए थे। घर के बाहर लगी तुलसी के पौधे और धनुष बाण के इन्हीं प्रतीकों ने महावीर हनुमान जी को आकर्षित किया।

रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ।

नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराई ॥

(रामचरितमानस/सुंदरकांड/दोहा क्रमांक 5)

अर्थ:— वह महल राम के आयुध (धनुष-बाण) के चिह्नों से अंकित था, उसकी शोभा वर्णन नहीं की जा सकती। वहाँ नवीन-नवीन तुलसी के वृक्ष-समूहों को देखकर कपिराज हनुमान हर्षित हुए।

उनके मन में यह उम्मीद जगी कि यहां से उनको सहायता मिल सकती है। इसके बाद की घटना और भी आकर्षक है।

हनुमान जी ने मन ही मन में कहा और तर्क करने लगे :-

लंका निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥

मन महुँ तरक करैं कपि लागा। तेहीं समय बिभीषनु जागा॥

और हनुमान जी ने सोचा की यह लंका नगरी तो राक्षसों के कुल की निवास भूमि है। यहाँ सत्पुरुषों का क्या काम ?  इस तरह हनुमानजी मन ही मन में विचार करने लगे। इतने में विभीषण की आँख खुली।

राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा॥

एहि सन सठि करिहउँ पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी॥

विभीषण जी ने जागते ही ‘राम! राम!’ का स्मरण किया, तो हनुमानजी ने जाना की यह कोई सत्पुरुष है। इस बात से हनुमानजी को बड़ा आनंद हुआ। हनुमानजी ने विचार किया कि इनसे जरूर पहचान करनी चहिये, क्योंकि सत्पुरुषों के हाथ कभी कार्य की हानि नहीं होती। उसके उपरांत हनुमान जी ब्राह्मण के वेश में विभीषण के सामने पहुंचे। विभीषण जी ने उनको अच्छा आदमी समझ कर अपने पास बुलाया और चर्चा की। तब हनुमान जी ने पूरा वृतांत सुनाया।

तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम।

सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम।।

(रामचरितमानस/ सुंदरकांड/ दोहा)

विभीषण के ये वचन सुनकर हनुमानजी ने रामचन्द्रजी की सब कथा विभीषण से कही और अपना नाम बताया। परस्पर एक दूसरे की बातें सुनते ही दोनों के शरीर रोमांचित हो गए। श्री रामचन्द्रजी का स्मरण आ जाने से दोनों आनंदमग्न हो गए।

हनुमान जी की विभीषण से दूसरी भेंट लंकापति रावण के दरबार में हुई। परंतु वहां पर हनुमान जी और विभीषण के बीच में कोई वार्तालाप नहीं हुआ। लंकापति रावण हनुमान जी को मृत्युदंड देना चाहता था जिसको विभीषण ने पूंछ में आग लगाने में परिवर्तित करवा दिया था। इस प्रकार यहां पर विभीषण जी ने हनुमान जी की मदद की।

विभीषण जी से हनुमान जी की तीसरी भेंट श्री रामचंद्र जी के सैन्य शिविर में हुई। जहां पर शरण लेने के लिए विभीषण जी पहुंचे थे। रामचंद्र जी के द्वारा सुग्रीव जी से यह पूछने पर श्री सुग्रीव ने कहा की यह दुष्ट हमारी जानकारी लेने के लिए आया है अतः इसको बांध कर बंदी गृह में रख देना चाहिए। महावीर हनुमान जी भी वहीं बैठे थे। उन्होंने कोई राय नहीं दी। श्री रामचंद्र समझ गए कि हनुमान जी की राय सुग्रीव जी की राय के विपरीत है। तब श्री रामचंद्र जी ने कहा कि नहीं शरणागत को शरण देना चाहिए। यह सुनकर हनुमान जी अत्यंत प्रसन्न हो गए।

सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना।

सरनागत बच्छल भगवाना॥

(रामचरितमानस /सुंदरकांड)

अर्थात श्रीरामचन्द्रजी के वचन सुनकर हनुमानजी को बड़ा आनंद हुआ कि भगवान् सच्चे शरणागत वत्सल हैं (शरण में आए हुए पर पिता की भाँति प्रेम करनेवाले)॥

विभीषण जी से लंका में पहली भेंट के समय हनुमान जी ने श्री रामचंद्र जी की प्रशंसा में कुछ बातें विभीषण जी को बताई थीं। उन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए आज विभीषण जी  श्री राम जी की शरण में आए थे। विभीषण जी ने इस बात को इस प्रकार कहा :-

श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।

त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर ॥

(रामचरितमानस /सुंदरकांड/ दोहा संख्या 45)

विभीषण जी ने कहा हे प्रभु! हे भय और संकट मिटानेवाले! मै आपका सुयश सुनकर आपके शरण आया हूँ। सो हे आर्ति (दुःख) हरण हारे! हे शरणागतों को सुख देनेवाले प्रभु! मेरी रक्षा करो, रक्षा करो।  विभीषण ने इस समय श्री रामचंद्र जी की प्रशंसा में बहुत सारी बातें कहीं। अंत में श्री रामचंद्र जी ने समुद्र के जल से विभीषण जी को लंका के राजा के रूप में राजतिलक कर दिया।

जदपि सखा तव इच्छा नहीं। मोर दरसु अमोघ जग माहीं॥

अस कहि राम तिलक तेहि सारा। सुमन बृष्टि नभ भई अपारा।।

(रामचरितमानस /सुंदरकांड)

श्री रामचंद्र जी ने कहा कि हे सखा! यद्यपि आपको किसी बात की इच्छा नहीं है तथापि जगत्‌ में मेरा दर्शन अमोघ है। अर्थात् निष्फल नहीं है। ऐसा कहकर प्रभु ने विभीषण का राजतिलक कर दिया। उस समय आकाश से अपार पुष्पों की वर्षा हुई।

इस प्रकार हम पाते हैं कि सुग्रीव जी और विभीषण जी दोनों को राज्य पाने में श्री हनुमान जी सहायक हुए हैं। हनुमान जी ने सदैव ही अच्छे और सज्जन व्यक्ति का साथ दिया है। अगर किसी अन्यायी या दुराचारी ने अन्याय पूर्वक सत्ता पर कब्जा कर लिया हो तो हनुमान जी उसको सत्ता से हटा देने का कार्य करते हैं। जय हनुमान 🙏🏻

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 177 ☆ शिवोऽहम्… (2) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 177 शिवोऽहम्… (2) ?

शिवोऽहम् के संदर्भ में आज  निर्वाण षटकम् के दूसरे श्लोक पर विचार करेंगे।

न च प्राणसंज्ञो न वै पंचवायुः

न वा सप्तधातुः न वा पंचकोशः।

न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायु

चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्।।

न मैं मुख्य प्राण हूँ और न ही मैं पंचप्राणों में से कोई हूँ। न मैं सप्त धातुओं में से कोई हूँ, न ही पंचकोशों में से कोई । न मैं वाणी, हाथ, अथवा पैर हूँ, न मैं जननेंद्रिय या मलद्वार हूँ।  मैं सदा शुद्ध आनंदमय चेतन हूँ, मैं शिव हूँ , मैं शिव हूँ।

वैदिक दर्शन में प्राण को ही प्रज्ञा भी कहा गया। शाखायन आरण्यक का उद्घोष है,

यो व प्राणः सा प्रज्ञा, या वा प्रज्ञा स प्राणः

अर्थात जो प्राण है, वही प्रज्ञा है। जो प्रज्ञा है वही प्राण है।

प्राण, वायु के माध्यम से शरीर में संचरित होता है। संचरण करने वाली वायु पाँच स्थानों पर मुख्यत: स्थित होती है। इन्हें पंचवायु कहा गया है। पंचवायु में प्राण, अपान, समान, व्यान, और उदान समाविष्ट हैं।

स्थूल रूप से समझें तो प्राणवायु का स्थान नासिका का अग्रभाग माना गया है। यह सामने की ओर गति करने वाली है। प्राणवायु देह तथा प्राण की अधिष्ठात्री है। अपान का अर्थ है नीचे जाने वाली। अपान वायु गुदा भाग में होती है। मूत्र, मल, शुक्र आदि को शरीर के निचले भाग की ओर ले जाना इसका कार्य होता है। समान वायु संतुलन बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसका स्थान आमाशय बताया गया है। भोजन का समुचित पाचन इसका दायित्व है। व्यान वायु शरीर में सर्वत्र विचरण करती है। इसका स्थान हृदय माना गया है। रक्त के संचार में इसकी विशेष भूमिका होती है। उदान का अर्थ ऊपर ले जाने वाली वायु है। अपने उर्ध्वगामी स्वभाव के कारण यह कंठ, उर, और नाभि में स्थित होती है। वाकशक्ति मूलरूप से इस पर निर्भर है। 

इसी तरह त्वचा, मांस, मेद, रक्त, पेशी, अस्थि एवं मज्जा, शरीर की सप्तधातुएँ हैं। इनमें से किसी एक के अभाव में मानवशरीर की रचना  दुष्कर है। शरीर में इनका संतुलन बिगड़ने पर अनेक प्रकार के विकार जन्म लेते हैं।

अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय, आनंदमय, शरीर के पंचकोश हैं। हर कोश का नामकरण ही उसे परिभाषित करने में सक्षम है। विभिन्न कोशों द्वारा चेतन, अवचेतन एवं अचेतन की अनुभूति होती है।

जगद्गुरु उपरोक्त श्लोक के माध्यम से अस्तित्व का विस्तार प्राण, पंचवायु, सप्तधातु, पंचकोश से आगे ले जाते हैं। तीसरी पंक्ति में वर्णित वाणी, हाथ, पैर, जननेंद्रिय अथवा गुदा तक, स्थूल या सूक्ष्म तक आत्मस्वरूप को सीमित रखना भी हाथी के जितने भाग को स्पर्श किया, उतना भर मानना है।

विवेचन करें तो मनुष्य को ज्ञात सारे आयामों से आगे हैं शिव। शिव का एक अर्थ कल्याण होता है। चिदानंदरूप शिव होना मनुष्यता की पराकाष्ठा है। इस पराकाष्ठा को प्राप्त करना, हर जीवात्मा का लक्ष्य होना चाहिए।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #118 ☆ हाथ की मानव जीवन में उपयोगिता ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 118 ☆

☆ ‌हाथ की मानव जीवन में उपयोगिता ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

हिंदी भाषा में एक कहावत है, जो मानव जीवन में हाथ की महत्ता दर्शाती है ।

हाथ कंगन को आरसी क्या

पढ़ें लिखे को फारसी क्या।

सूरदास जी का यह कथन भीहाथ की महत्ता समझाता है जिसके पीछे विवशता, खीझ, तथा चुनौती का भाव स्पष्ट दिखाई देता है।

कर तो छुड़ाए जात हो, निर्बल जानि कै मोहि।

जौ हिरदय से जाहु तुम, तौ मर्द बखानौ तोहि।।

वैसे तो जीव जब योनियों में पलता है, तो उसका आकार प्रकार योनि गत जीवन व्यवहार वंशानुगत गुणों के आधार पर तय होता है और शारीरिक संरचना की बनावट अनुवांशिक गुणों के आधार पर तय होती है। जीव जगत के अनेक भेद तथा वर्गीकरण है। पौराणिक मान्यता के अनुसार चौरासी लाख योनियां है, जिसमें जलचर, थलचर, नभचर, कीट पतंगों तथा जड़ चेतन आदि है। सब की शारीरिक बनावट अलग-अलग है

रूप रंग का भी भेद है। हर योनि के जीव की आवश्यकता के अनुसार शारीरिक अंगों का विकास हुआ। इसी क्रम में मानव शरीर में हाथ का विकास हुआ, जिसे भाषा साहित्य के अनुसार हस्त, भुजा, पाणि, बाहु, कर आदि समानार्थी शब्दों से संबोधित करते हैं। चक्र हाथ में धारण करने के कारण भगवान विष्णु का नाम चक्रधर तथा चक्रपाणि पड़ा, तथा हमारे ‌षोडश संस्कारों में एक प्रमुख संस्कार पाणिग्रहण संस्कार भी है जिससे हमारे जीवन की दशा और दिशा तय होती है। आशीर्वाद की मुद्रा में उठे हुए हाथ जहां व्यक्ति के भीतर अभयदान के साथ प्रसन्नता प्रदान करता है वहीं दण्ड देने के लिए सबल के उठे हाथ आश्रित के हृदय में सुरक्षा का भरोसा दिलाते हैं।

हमारी पौराणिक मान्यता के अनुसार हाथ की बनावट तथा उसकी प्रकृति के बारे में हस्त रेखाएं बहुत कुछ कहती हैं। पौराणिक मान्यताओं अनुसार—–

कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती ।

करमूले तु गोविन्दः प्रभाते करदर्शनम ॥

अर्थात् हाथ के अगले भाग में लक्ष्मी, मध्य में विद्या की देवी सरस्वती तथा कर के मूल में सृष्टि सृजन कर्ता ब्रह्मा का निवास होता है इस लिए प्रभात वेला में उठने के पश्चात अपना हाथ देखने से इंसान मुख दोष दर्शन से बच जाता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार हाथ में ही सूर्य चंद्रमा बुध गुरु शुक्र शनि राहु केतु आदि नवग्रहों के स्थान निर्धारित है, जिसके उन्नत अथवा दबे हुए स्थान देख कर व्यक्ति जीवन के भूत भविष्य वर्तमान के घटनाक्रम की भविष्यवाणी की जाती है तथा नवग्रहों की शांति के लिए सबेरे उठ कर हमारे शास्त्रों में नवग्रह वंदना करने का विधान है, ताकि हमारा दिन मंगलमय हो।

ब्रह्मा मुरारी त्रिपुरांतकारी भानु: शशि भूमि सुतो बुधश्च।

गुरुश्च शुक्र शनि राहु केतव सर्वे ग्रहा शांति करा भवंतु॥

हाथ जहां हमारे दैनिक जीवन की नित्य क्रिया संपादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं वहीं हाथ लोकोपकार करते हुए ,सबलों से निर्बलों की रक्षा करते हुए उद्धारक की भूमिका भी निभाते हैं, अपराधी को दंडित भी करते हैं। उसमें ही हस्त रेखा का सार छुपा बैठा है।

व्यक्ति के हाथ के मणिबंध से लेकर उंगली के पोरों तथा नाखूनों की बनावट व रेखाएं देखकर इंसान के जीवन व्यवहार की भविष्यवाणी एक कुशल हस्तरेखा विशेषज्ञ कर सकता है। हाथों का महत्व मानव जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। तभी किसी विद्वान का मत है कि हाथों की शोभा दान देने से है कंगन पहनने से नहीं।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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