डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख आत्मनियंत्रण–सबसे कारग़र । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 172☆

☆ आत्मनियंत्रण–सबसे कारग़र 

‘जो अपने वश में नहीं, वह किसी का भी गुलाम बन सकता है’ मनु का यह कथन आत्मावलोकन करने का संदेश देता है, क्योंकि जब तक हम अपने अंतर्मन में नहीं झाँकेगे; अपनी बुराइयों व ग़लतियों से अवगत नहीं हो पाएंगे। उस स्थिति में सुधार की गुंजाइश कहाँ रह जाएगी? यदि हम सदैव दूसरों के नियंत्रण में रहेंगे, तो हमारी इच्छाओं, आकांक्षाओं व तमन्नाओं की कोई अहमियत नहीं रहेगी और हम गुलामी में भी प्रसन्नता का अनुभव करेंगे। वास्तव में स्वतंत्रता में जीवंतता होती है, पराश्रिता नहीं रहती और जो व्यक्ति स्व-नियंत्रण अर्थात् आत्मानंद में लीन रहता है, वही सर्वोत्तम व सर्वश्रेष्ठ होता है। इसलिए पक्षी पिंजरे में कभी भी आनंदित नहीं रहता; सदैव परेशान रहता है, क्योंकि आवश्यकता है–अहमियत व अस्तित्व के स्वीकार्यता भाव की। सो! जो व्यक्ति अपनी परवाह नहीं करता; ग़लत का विरोध नहीं करता तथा हर विषम परिस्थिति में भी संतोष व आनंद में रहता है; वह जीवन में कभी भी उन्नति नहीं कर सकता।

‘बहुत कमियां निकालते हैं हम दूसरों में अक्सर/ आओ! एक मुलाक़ात ज़रा आईने से भी कर लें।’ जी हाँ! आईना कभी झूठ नहीं बोलता; सत्य से साक्षात्कार कराता है। इसलिए मानव को आईने से रूबरू होने की सलाह दी जाती है। वैसे दूसरों में कमियां निकालना तो बहुत आसान है, परंतु ख़ुद को सहेजना-सँवारना अत्यंत कठिन है। संसार में सबसे कठिन कार्य है अपनी कमियों को स्वीकारना। इसलिए कहा जाता है ‘ढूंढो तो सुकून ख़ुद में है/ दूसरों से तो बस उलझनें मिलती हैं।’ इसलिए मानव को ख़ुद से मुलाक़ात करने व ख़ुद को तलाशने की सीख दी जाती है। यह ध्यान अर्थात् आत्म-मुग्धता की स्थिति होती है, जिसमें दूसरों से संबंध- सरोकारों का स्थान नहीं रहता। यह हृदय की मुक्तावस्था कहलाती है, जहां इंसान आत्मकेंद्रित रहता है। वह इस तथ्य से अवगत नहीं रहता कि उसके आसपास हो क्या रहा है? यह आत्मसंतोष की स्थिति होती है, जहां स्व-पर व राग-द्वेष का स्थान नहीं रहता।

ढूंढो तो सुक़ून ख़ुद में है/ दूसरों में तो बस उलझनें मिलेंगी। मुझे स्मरण हो रही हैं स्वरचित पंक्तियां ‘उलझनें बहुत हैं, सुलझा लीजिए/ बेवजह ना दूसरों से ग़िला कीजिए।’ शायद इसीलिए कहा जाता है कि बुराई को प्रारंभ में जड़ से मिटा देना चाहिए, वरना ये कुकुरमुत्तों की भांति अपने पाँव पसार लेती हैं। सो! उलझनों को शांति से सुलझाना कारग़र है, अन्यथा वे दरारें दीवारों का आकार ग्रहण कर लेती हैं। शायद इसीलिए यह सीख दी जाती है कि मतभेद रखें, मनभेद नहीं और मन-आँगन में दीवारें मत पनपने दें।

मानव को अपेक्षा व उपेक्षा के व्यूह से बाहर निकलना चाहिए, क्योंकि दोनों स्थितियाँ मानव के लिए घातक हैं। यदि हम किसी से उम्मीद करते हैं और वह पूरी नहीं होती, तो हमें दु:ख होता है। इसके विपरीत यदि कोई हमारी उपेक्षा करता है और हमारे प्रति लापरवाही का भाव जताता है, तो वह स्थिति भी हमारे लिए असहनीय हो जाती है। सामान्य रूप में मानव को उम्मीद का दामन थामे रखना चाहिए, क्योंकि वह हमें मंज़िल तक पहुंचाने में सहायक सिद्ध होती है। परंतु मानव को उम्मीद दूसरों से नहीं; ख़ुद से रखनी चाहिए, क्योंकि उसमें निराशा की गुंजाइश नहीं होती। विपत्ति के समय मानव को इधर-उधर नहीं झाँकना चाहिए, बल्कि अपना सहारा स्वयं बनना चाहिए– यही सफलता की कुंजी है तथा अपनी मंज़िल तक पहुंचने का बेहतर विकल्प।

‘ज़िंदगी कहाँ रुलाती है, रुलाते तो वे लोग हैं, जिन्हें हम अपनी ज़िंदगी समझ लेते हैं’ से तात्पर्य है कि मानव को मोह-माया के बंधनों से सदैव मुक्त रहना चाहिए। जितना हम दूसरों के क़रीब होंगे, उनसे अलग होना उतना ही दुष्कर व कष्टकारी होगा। इसलिए ही कहा जाता है कि हमें सबसे अधिक अपने ही कष्ट देते व रुलाते हैं। मेरे गीत की यह पंक्तियाँ भी इसी भाव को दर्शाती हैं। ‘यह दुनिया है दो दिन का मेला/ हर इंसान यहाँ है अकेला/ तन्हाई संग जीना सीख ले/ तू दिव्य खुशी पा जाएगा।’ इस संसार में इंसान अकेला आया है और उसे अकेले ही जाना है और ‘यह किराए का मकान है/ कौन कब तक यहाँ ठहर पाएगा।’

ज़िंदगी समझ में आ गई तो अकेले में मेला/ समझ नहीं आई तो मेले में भी अकेला अर्थात् यही है ध्यानावस्था में रहने का सलीका। ऐसा व्यक्ति हर पल प्रभु सिमरन में मग्न रहता है, क्योंकि अंतकाल में यही साथ जाता है। ग़लती को वह इंसान सुधार लेता है, जो उसे स्वीकार लेता है। परंतु मानव का अहं सदैव उसके आड़े आता है, जो उसका सबसे बड़ा शत्रु है। अपेक्षाएं जहां खत्म होती हैं: सुक़ून वहाँ से शुरू होता है। इसलिए रिश्ते चंदन की तरह होने चाहिए/ टुकड़े चाहे हज़ार हो जाएं/ सुगंध ना जाए, क्योंकि जो भावनाओं को समझ कर भी आपको तकलीफ़ देता है; कभी आपका अपना हो ही नहीं सकता। वैसे तो आजकल यही है दस्तूर- ए-दुनिया। अपने ही अपने बनकर अपनों से विश्वासघात करते हैं, क्योंकि रिश्तों में अपनत्व भाव तो रहा ही नहीं। वे तो पलभर में ऐसे टूट जाते हैं, जैसे भुना हुआ पापड़। सो! अजनबीपन का एहसास सदा बना रहता है। इसलिए पीठ हमेशा मज़बूत रखनी चाहिए, क्योंकि शाबाशी व धोखा दोनों पीछे से मिलते हैं। बात जब रिश्तों की हो, तो सिर झुका कर जीओ। परंतु जब उसूलों की हो, तो सिर उठाकर जीओ, क्योंकि अभिमान की ताकत फ़रिश्तों को भी शैतान बना देती है। लेकिन नम्रता भी कम शक्तिशाली नहीं है, साधारण इंसान को फरिश्ता बना देती है।

दो चीज़ें देखने में छोटी नज़र आती हैं–एक दूर से, दूसरा गुरूर से। समय और समझ दोनों एक साथ किस्मत वालों को मिलते हैं, क्योंकि अक्सर समय पर समझ नहीं आती और समझ आने पर उम्र निकल जाती है। सो! मानव को समय का सदुपयोग करना चाहिए, क्योंकि गया वक्त कभी लौटकर नहीं आता। काश! लोग समझ पाते रिश्ते एक-दूसरे का ख्याल रखने के लिए होते हैं, इस्तेमाल करने के लिए नहीं। सो! श्रेष्ठ वही कहलाता है, जिसमें दृढ़ता हो, पर ज़िद्द नहीं; दया हो, पर कमज़ोरी नहीं; ज्ञान हो, अहंकार नहीं। इसके साथ ही मानव को इच्छाएं, सपने, उम्मीदें व नाखून समय-समय पर काटने की सलाह दी गई है, क्योंकि यह सब मानव को पथ-विचलित ही नहीं करते, बल्कि उस मुक़ाम पर पहुंचा देते हैं, जहाँ से लौटना संभव नहीं होता। परंतु यह सब आत्म-नियंत्रण द्वारा संभव है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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