श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 120 ☆

☆ ‌दरिद्रता ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

किसी कवि ने कहा—

नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं।

दरिद्रता शब्द के अनेक पर्याय वाची शब्द हैं जिनमें – दीन, अर्थहीन, अभाव ग्रस्त, गरीब, कंगाल, निर्धन आदि। जो दारिद्र्य के पर्याय माने जाते है।

प्राय: दरिद्रता का अर्थ निर्धनता से लगाया जाता है। जिस व्यक्ति की आर्थिक स्थिति तथा घर अन्न-धन से खाली होता है, विपन्नता की स्थिति में जीवन यापन करने वाले परिवार को ही दरिद्रता की श्रेणी में रखा जाता है। ऐसे लोगों को प्राय: समाज के लोग हेय दृष्टि से देखते है। यदि हमें अन्न तथा धन के महत्व को समझना है तो हमें पौराणिक कथाओं के तथ्य को शबरी, सुदामा, महर्षि कणाद्, कबीर, रविदास, लालबहादुर शास्त्री के तथा द्रौपदी के अक्षयपात्र कथा और उनके जीवन दर्शन को समझना, श्रवण करना तथा उनके जीवन शैली का अध्ययन करना होगा। दरिद्रता के अभिशाप से अभिशप्त प्राणी का कोई मान सम्मान नहीं, वह जीवन का प्रत्येक दिन त्राषद परिस्थितियों में बिताने के लिए बाध्य होता है। ऐसे परिवार में दुख, हताशा, निराशा डेरा डाल देते है। उससे खुशियों के पल रूठ जाते हैं। दुख और भूख की पीड़ा से बिलबिलाता परिवार दया तथा करूणा का पात्र नजर आता है।

कहा भी गया है कि-

बुभुक्षितः किं न करोति पापं।

अर्थात् दरिद्रता की कोख से जन्मी भूख की पीड़ा से पीड़ित मानव कौन से जघन्यतम कृत्य करने के लिए विवश नहीं होता।

लेकिन वही परिवार जब श्रद्धा, आत्मविश्वास और भरोसे के भावों को धारण कर लेता है और भक्ति तथा समर्पण पर उतर आता है तो भगवान को भी मजबूर कर देता है झुकने के लिए और भगवत पद धारण कर लेता है। कम से कम सुदामा और कृष्ण तथा शबरी का प्रसंग त़ो यही कहता है।—-

“देख सुदामा की दीन दशा करुणा करके करुणानिधि रोये

पानी परात को हाथ छुओ नहीं नैनन के जल से पग धोये !”

जो भगवान भक्ति की पराकाष्ठा की परीक्षा लेने हेतु वामन के रूप में राजा बलि की पीठ नाप लेते हैं वहीं भगवान दीन हीन सुदामा के पैर आंसुओं से धोते हैं। शबरी के जूठे बेर खाते नजर आते हैं।

भले ही इस कथा के तथ्य अतिशयोक्ति पूर्ण के जान पड़ते हों, लेकिन भक्त के पांव पर गिरे ईश्वर के मात्र एक बूंद प्रेमाश्रु भक्त और भगवान के संबंधों की व्याख्या के लिए पर्याप्त है यहाँ तुलना मात्रा से नहीं भाव की प्रगाढता से की जानी चाहिए। पौराणिक मान्यता के अनुसार लक्ष्मी और दरिद्रता दोनों सगी बहन है दरिद्रता के मूल में अकर्मण्यता प्रमाद तथा आलस्य समाहित है, जबकि संपन्नता के मूल में कठोर परिश्रम, लगन, कर्मनिष्ठा समाहित है। कर्मनिष्ठ अपने श्रम की बदौलत अपने भाग्य की पटकथा लिखता है। दरिद्रता इंसान को आत्मसंतोषी बना देती है। जबकि धन की भूख इंसान में लोभ जगाती है। एक तरफ दरिद्रता में संतोष का गुण है,  वहीं लक्ष्मी में अहंकार तथा लोभ रूपी अवगुण भी है, जो इंसान को लालची और बेइमान बना देती है इस लिए कुछ मायनों में दरिद्रता व्यक्ति के आत्मसम्मान को मार देती है, उसमें स्वाभिमान के भाव को जगाती भी है ,इसी लिए सुदामा ने भीख मांगकर खाना स्वीकार किया लेकिन भगवान से उन्हें कुछ भी मांगना स्वीकार्य नहीं था।

और तो और कबीर साहब धनवान और निर्धन की अध्यात्मिक परिभाषा लिखते हुए कहते हैं कि

कबीरा सब जग निर्धना, धनवन्ता नही कोई ।

धनवन्ता सोई जानिए, राम नाम धन होई ॥,

इसीलिए रहीम दास जी ने लिखा

दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय।

जो रहीम दिनहिं लखै, दीनबंधु सम होय।

अर्थात् दरिद्र की सेवा मानव को दीन बंधु ,दीनदयाल, दीनानाथ जैसी उपाधियों से विभूषित कर देती है। इतना ही नहीं दीन दुखियों की सेवा में निरंतर रत रहने वाला मानव आत्मिक शांति के साथ सदैव सुखी रहता है।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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