हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ संजय उवाच # 200 – सदाशिव ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे। श्रावण मास में सप्ताह के बीच में उवाच के अंतर्गत पुनर्पाठ में आज प्रस्तुत है आलेख – सदाशिव।)

पुनर्पाठ – 

☆  संजय उवाच # 200 ☆ सदाशिव ?

एक बुजुर्ग परिचित का फोन आया। बड़े दुखी थे। उनके दोनों शादीशुदा बेटे अलग रहना चाहते थे। बुजुर्ग ने जीवनभर की पूँजी लगाकर रिटायरमेंट से कुछ पहले तीन बेडरूम का फ्लैट लिया था ताकि परिवार एक जगह रह सके और वे एवं उनकी पत्नी भी बुढ़ापे में सानंद जी सकें। अब हताश थे, कहने लगे, क्या करें, परिवार में सबकी प्रवृत्ति अलग-अलग है। एक दूसरे के शत्रु हो रहे हैं। शत्रु साथ कैसे रह सकते हैं?

बुजुर्ग की बातें सुनते हुए मेरी आँखों में शिव परिवार का चित्र घूम गया। महादेव परम योगी हैं, औघड़ हैं पर उमापति होते ही त्रिशूलधारी जगत नियंता हो जाते हैं। उनके त्रिशूल में जन्म, जीवन और मरण वास करने लगते हैं। उमा, काली के रूप में संहारिणी हैं पर शिवप्रिया होते ही अजगतजननी हो जातीहैं। नीलकंठ अक्षय चेतनतत्व हैं, गौरा अखंड ऊर्जातत्व हैं। परिवार का भाव, विलोम को पूरक में बदलने का रसायन है।

शिव परिवार के अन्य सदस्य भी इसी रसायन की घुट्टी पिये हुए हैं। कार्तिकेय बल और वीरता के प्रतिनिधि हैं। वे देवताओं के सेनापति हैं। श्रीगणेश बुद्धि के देवता हैं। बौद्धिकता के आधार पर प्रथमपूज्य हैं। सामान्यत: विरुद्ध गुण माने जानेवाले बल और बुद्धि, शिव परिवार में सहोदर हैं। अन्य भाई बहनों में देवी अशोक सुन्दरी, मनसा देवी, देवी ज्योति, भगवान अयप्पा सम्मिलित हैं पर विशेषकर उत्तर भारत में अधिकांशत: शिव, पार्वती, श्रीगणेश और कार्तिकेय ही चित्रित होते हैं।

अब परिवार में सम्मिलित प्राणियों पर भी विचार कर लेते हैं। महाकाल के गले में लिपटा है सर्प। गणेश जी का वाहन है, मूषक। सर्प का आहार है मूषक। सर्प को आहार बनाता है मयूर जो कार्तिकेय जी का वाहन है। महादेव की सवारी है नंदी। नंदी का शत्रु है गौरा जी का वाहन, शेर। संदेश स्पष्ट है कि दृष्टि में एकात्मता और हृदय में समरसता का भाव हो तो एक-दूसरे का भक्ष्ण करने वाले पशु भी एकसाथ रह सकते हैं।

एकात्मता, भारतीय दर्शन विशेषकर संयुक्त परिवार प्रथा के प्रत्येक रजकण में दृष्टिगोचर होती रही है। पिछली पीढ़ी में एक कमरे में आठ-दस लोगों का परिवार साझा आनंद से रहता था। दाम्पत्य, जच्चा-बच्चा सबका निर्वहन इसी कमरे में। स्पेस नहीं था पर सबके लिए स्पेस था। जहाँ करवट लेने की सुविधा नहीं थी, वहाँ किसी अतिथि के आने पर आनंद मनाने की परंपरा थी, पर ज्यों ही समय ने करवट बदली, परिजन, स्पेस के नाम पर फिजिकल स्पेस मांगने लगे। मतभेद की लचीली बेल की जगह मनभेद के कठोर कैक्टस ने ले ली। रिश्ते सूखने लगे, परिवारों में दरार पड़ने लगी।

सूखी धरती की दरारों में भीतर प्रवेश कर उन्हें भर देती हैं श्रावण की फुहारें। न केवल दरारें भर जाती हैं अपितु अनेक बार वहीं से प्राणवायु का कोश लेकर एक नन्हा पौधा भी अंकुरित होता है।…श्रावण मास चल रहा है, दरारों को भरने और शिव परिवार को सुमिरन करने का समय चल रहा है। यह शिव भाव को जगाने का अनुष्ठान-काल है।

भगवान शंकर द्वारा हलाहल प्राशन के उपरांत उन्हें जगाये रखने के लिए रात भर देवताओं द्वारा गीत-संगीत का आयोजन किया गया था। आधुनिक चिकित्साविज्ञान भी विष को फैलने से रोकने के लिए ‘जागते रहो’ का सूत्र देता है। ‘शिव’ भाव हो तो अमृत नहीं विष पचाकर भी कालजयी हुआ जा सकता है। इस संदर्भ में इन पंक्तियों के लेखक की यह कविता देखिए,

कालजयी होने की लिप्सा में,

बूँद भर अमृत के लिए

वे लड़ते-मरते रहे,

उधर हलाहल पीकर

महादेव, त्रिकाल भए !

शिव भाव जगाइए, सदाशिव बनिए। नयी दृष्टि और नयी सृष्टि जागरूकों की प्रतीक्षा में है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 221 ☆ आलेख – नाद शंख का… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेखनाद शंख का

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 221 ☆  

? आलेख – नाद शंख का?

हिंदू धर्म और संस्कृति विज्ञान संमत है. हमारी संस्कृति में पूजा, जन्म, विवाह, युद्ध, आदि अवसरों पर शंख नाद किये जाने की परम्परा आज भी बनी हुई है. भारतवर्ष के पूर्व से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण हर घर मंदिर में पूजा स्थल पर शंख मिल जाता है. भारतीय डायस्पोरा के विश्व व्यापक होने एवं अक्षरधाम, इस्कान तथा अन्य वैश्विक समूहों के माध्यम से शंख विश्व व्यापी हो गया है.

दरअसल शंख मूल रूप से एक समुद्री जीव का कवच ढांचा होता है. पौराणिक रूप से शंख की उत्पत्ति समुद्र से मानी जाती है. चूंकि समुद्र मंथन से ही लक्ष्मी जी का प्रादुर्भाव कल्पित है अतः शंख को को लक्ष्मी जी का भाई भी कहा जाता है. बंगाल की देवी पूजा में शंखनाद का विशेष महत्व होता है, वहां महिलायें भी सहज ही दीर्घ शंखनाद करती मिल जाती हैं.

शंख बजाने का स्पष्ट लाभ शारीरिक स्वास्थ्य पर दिखता है. मुंह की मसल्स का सर्वोत्तम व्यायाम हो जाता है जो किसी भी फेशियल से बेहतर है. शंख बजाने से गैस की समस्या (Gastric Problem) दूर होती है. इससे शरीर के श्वसन अंगों की एक्सरसाइज होती है जिससे हृदय रोग की संभावनायें नगण्य हो जाती हैं. शंख की ध्वनि की फ्रीक्वेंसी ऐसी कही गई है जिससे कई कीड़े मकोड़े वह स्थान छोड़ देते हैं जहां नियमित शंख की आवाज की जाती है. शंख के प्रक्षालित जल के पीने से मुंहासे, झाइयां, काले धब्‍बे दूर होने लगते हैं, हड्डियां मजबूत होती हैं और दांत भी स्वस्थ रहते हैं. संभवतः ऐसा इसलिये होता है क्योंकि इस तरह हमारे शरीर में कैल्शियम का वह प्रकार पहुंचता है जो इस तरह के रोगों के उपचार में प्रयुक्त होता है.

पौराणिक काल से शंख को शौर्य का द्योतक भी माना जाता था. प्रत्येक योद्धा के पास अपना शंख होता था. जैसे योद्धाओ के घोड़ो के नाम सुप्रसिद्ध हैं उसी तरह महाभारत के योद्धाओ के शंखों के नाम भगवत गीता में वर्णित हैं और विश्वप्रसिद्ध हैं. श्रीमद्भगवतगीता के पहले अध्याय में अनेक महारथियों के शंखों का वर्णन है. “पांचजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः। पौण्ड्रं दध्मौ महाशंखं भीमकर्मा वृकोदर।। अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिर। नकुल सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ।। “

भगवान श्रीकृष्ण का प्रसिद्ध शंख पाञ्चजन्य था. जब श्रीकृष्ण और बलराम ने महर्षि सांदीपनि के आश्रम में उज्जैयनी में शिक्षा समाप्त की, तब महर्षि सांदीपनि ने गुरुदक्षिणा के रूप में भगवान कृष्ण से अपने मृत पुत्र को मांगा था. तब गुरु इच्छा की पूर्ति के लिये श्रीकृष्ण ने समुद्र में जाकर शंखासुर नामक असुर का वध किया था. शंखासुर की मृत्यु उपरांत उसका कवच शंख अर्थात खोल शेष रह गया जिसे श्रीकृष्ण ने पाञ्चजन्य नाम दिया था.

गंगापुत्र भीष्म का प्रसिद्ध शंख था जो उन्हें उनकी माता गंगा से प्राप्त हुआ था. गंगनाभ का अर्थ होता है ‘गंगा की ध्वनि’. जब भीष्म इस शंख को बजाते थे, तब उसकी भयानक ध्वनि शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न कर देती थी. महाभारत युद्ध का आरंभ पांडवों की ओर से श्रीकृष्ण ने पाञ्चजन्य और कौरवों की ओर से भीष्म ने गंगनाभ को बजा कर ही किया था.

“अनंतविजय” युधिष्ठिर का शंख था जिसकी ध्वनि अनंत तक जाती थी. इस शंख को साक्षी मान कर चारों पांडवों ने दिग्विजय किया और युधिष्ठिर के साम्राज्य को अनंत तक फैलाया. इस शंख को धर्मराज ने युधिष्ठिर को प्रदान किया था.

“हिरण्यगर्भ” सूर्यपुत्र कर्ण का शंख था. ये शंख उन्हें उनके पिता सूर्यदेव से प्राप्त हुआ था. हिरण्यगर्भ का अर्थ सृष्टि का आरंभ होता है और इसका एक संदर्भ ज्येष्ठ के रूप में भी है. कर्ण भी कुंती के ज्येष्ठ पुत्र थे.

“विदारक” दुर्योधन का शंख था. विदारक का अर्थ होता है विदीर्ण करने वाला या अत्यंत दुःख पहुंचाने वाला. इस शंख को दुर्योधन ने गांधार की सीमा से प्राप्त किया था.

भीम का प्रसिद्ध शंख “पौंड्र” था. इसका आकार बहुत विशाल था और इसे बजाना तो दूर, भीमसेन के अतिरिक्त कोई अन्य इसे उठा भी नहीं सकता था. इसकी ध्वनि इतनी भीषण थी कि उसके कम्पन्न से मनुष्यों की तो क्या बात है, अश्व और यहां तक कि गजों का भी मल-मूत्र निकल जाया करता था. ये शंख भीम को नागलोक से प्राप्त हुआ था.

अर्जुन का प्रसिद्ध शंख “देवदत्त ” था जो पाञ्चजन्य के समान ही शक्तिशाली था. इस शंख को स्वयं वरुणदेव ने अर्जुन को वरदान स्वरूप दिया था. जब कुरुक्षेत्र के मैदान में पाञ्चजन्य और देवदत्त एक साथ बजते थे तो दुश्मन पलायन करने लगते थे.

“सुघोष” माद्रीपुत्र नकुल का शंख था. अपने नाम के अनुरूप ही ये शंख किसी भी नकारात्मक शक्ति का नाश कर देता था.

“मणिपुष्पक” सहदेव का शंख था. ये शंख मणि, मणिकों से ज्यादा दुर्लभ था. वर्णन है कि नकुल और सहदेव को उनके शंख अश्विनीकुमारों से प्राप्त हुए थे.

“यञघोष” द्रौपदी के भाई धृष्टद्युम्न का शंख था जो उसी के साथ अग्नि से उत्पन्न हुआ था और तेज में अग्नि के समान ही था. इसी शंख के उद्घोष के साथ वे पांडव सेना की व्यूह रचना और सञ्चालन करते थे.

आज भी किसी महति कार्य के शुभारम्भ को शंखनाद लिखा जाता है. उदाहरण के लिये चुनाव प्रचार का शंखनाद, अर्थात शंखनाद हमारी संस्कृति में रचा बसा हुआ है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 104 ⇒ नाम की महिमा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नाम की महिमा”।)  

? अभी अभी # 104 ⇒ नाम की महिमा? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

संज्ञा हो या सर्वनाम, हमारा नाम के बिना काम नहीं चलता। नाम में ही ईश्वर का वास है, नाम में ही भगवान भी हैं और नारायण भी, फिर भी हमें हमारे मनमंदिर के राम के दर्शन नहीं होते।

बचपन से ही मैं राम के करीब भी रहा हूं, और ईश्वर के करीब भी! नारायण तो मेरा पक्का दोस्त था, कल के भगवान को हम आज भगवान भाई कहकर पुकारते हैं, बड़े अच्छे मिलनसार व्यक्ति हैं। ।

अपने इष्ट और आराध्य को हम जिस भी नाम से स्मरण करते हैं, पुकारते हैं और भजते हैं, वे सभी तो सूक्ष्म रूप में हमारे आसपास मौजूद हैं, लेकिन इस नश्वर जीव पर माया का ऐसा पर्दा पड़ा है, कि वह सिर्फ नाम में ही नहीं, रूप और स्वरूप में भी उलझा है। मंदिर में विराजमान मर्यादा पुरुषोत्तम राम अलग है और मेरा मित्र राम अलग। दोनों की आपस में कोई तुलना नहीं हो सकती।

ईश्वर, परमेश्वर, भगवान अथवा अपने इष्ट को हम जानते, पहचानते और मानते हैं, उनकी जप, पूजा, आराधना, प्रार्थना और सेवा सुश्रुषा करने में जो भक्ति भाव और परमानंद की अनुभूति होती है, वह किसी परिचित गिरीश और जगदीश से मिलने अथवा स्मरण मात्र से संभव नहीं। कहां राजा भोज …. ?

आदर्श अलग होता है और वास्तविकता और हकीकत उससे बहुत अलग होती है। गरीबों, दीन हीन की सेवा ही ईश्वर की सेवा है, माता पिता के चरणों में स्वर्ग है और गौ माता की तो बस पूछिए ही मत। फिर भी मंदिर मंदिर है और गुरुद्वारा गुरुद्वारा। अयोध्या के राम ही वास्तविक राम हैं और मथुरा द्वारका के कृष्ण ही तो कृष्ण कन्हैया हैं।

क्या सिर्फ नाम लेने, स्मरण करने अथवा अपने इष्ट को भजने से ही जीव का कल्याण हो सकता है। कहने को तो कहा भी गया है, कलियुग नाम आधारा! और शायद इसीलिए किसी अपने मित्र नारायण को पुकारते पुकारते आपको भी साक्षात नारायण के दर्शन हो जाएं। ।

हमारे आसपास कितने स्त्री पुरुष के ऐसे नाम मंडरा रहे हैं, जिनके नाम मात्र से ही किसी देवी देवता का स्मरण हो आता है। सीता, सावित्री,

सरस्वती, मंगला, गायत्री और लक्ष्मी जैसे नाम पहले रखे ही जाते थे, आज भी रखे जाते हैं, बस उनकी दशा मत पूछिए, क्योंकि आज सरस्वती काम पर नहीं आने वाली, बेचारी बीमार है।

यह इंसान बहुत चतुर और चालाक है। वह एक तीर से दो शिकार करना चाहता है, रमेश, दिनेश, सुरेश, महेश, अविनाश, अरविंद और कई शैलेष उसके परिचित स्नेही, मित्र, रिश्तेदार और करीबी हैं, आम के आम और गुठलियों के दाम, यानी उनके नाम के बहाने अपने इष्ट का भी नाम लेने में आ जाएगा और पहचान के लिए उनके नाम के आगे वर्मा, सक्सेना, अवस्थी और श्रीवास्तव सुशोभित हो जाएगा। ।

नाम से ही हमारी पहचान है, प्रसिद्धि है। एक राम नाम ही तो हमारे सभी बिगाड़े काम बनाता है।

कहीं खाटू श्याम तो कहीं सांवरिया सेठ, किसी के महाकाल तो किसी के ओंकार। पुणे में अगर दगड़ू सेठ के गणपति की महिमा है तो पूरे महाराष्ट्र में अष्ट विनायक विराजमान हैं। एक और मेरा परम मित्र गणेश मुझे नैनीताल बुला रहा है, तो दूसरी ओर अभिन्न हृदय नारायण जी का प्रयाग राज का आग्रहपूर्ण आमंत्रण लंबित है।

नाम में ही रस और रूप है। महाराष्ट्र के संत गोंदवलेकर महाराज ने नाम के माहात्म्य पर एक पुस्तक लिखी है, प्रवचन पारिजात, जिसमें नाम की महिमा पर उनके ३६५ प्रवचन संकलित हैं। १ जनवरी से ३१ जनवरी तक। रोज एक पृष्ठ पढ़िए, नाम में खो जाइए। राम तेरे कितने नाम। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 103 ⇒ इमोजी-लॉजी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “इमोजी-लॉजी।)  

? अभी अभी # 103 ⇒ इमोजी-लॉजी? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

बचपन में बायोलॉजी-जूओलॉजी, और सोशियोलॉजी से काम पड़ा, तो समझ में आया कि ये सब विज्ञान हैं। फोटोग्राफी, और वीडियोग्राफी अगर शौकिया और पेशेवर विधा है तो स्टेनोग्राफी एक इल्मी विधा !

शॉर्ट हैंड में मेरा हाथ हमेशा तंग रहा क्योंकि संकेतों की भाषा समझना आज भी मेरे बूते में नहीं। लिपि के बारे में आज भी मेरा ज्ञान क, ख, ग और a, b, c के आगे नहीं जाता। जब उर्दू लिपि को देखता हूँ तो सर चकरा जाता है। स्कूल में भी मेरी ग्राफ की कॉपी हमेशा खाली ही रहती थी। आजकल महँगाई का ग्राफ कुछ कुछ समझ में आने लगा है, लेकिन ECG का ग्राफ और इमोजी के संकेत आज भी मेरी समझ से बाहर है।।

कहते हैं, समझदार को इशारा काफी होता है। लेकिन कोई इतना बुद्धू हो कि इशारा ही न समझे, तो कैसे हो प्यार ? कॉलेज में एक कन्या ने इशारा किया, मैं तो न समझ पाया, मेरे साथ वाला दोस्त समझ गया। दोनों करीब हो गए, प्यार हो गया, शादी हो गई। आज दोनों मुझको इशारे से चिढ़ाते हैं।

आजकल समझदार के लिए इशारे और संकेतों का ज़माना है। ड्राइविंग लाइसेंस के लिए भी यातायात के कुछ संकेत होते हैं, स्कूल के लिए यूनिफॉर्म में एक बच्चा दिखा दिया जाता है, तो साइलेंस जोन के लिए एक हॉर्न को क्रॉस कर दिया जाता है। इसी तरह दायें/बाएँ मुड़ना, पार्किंग और एकांगी मार्ग के भी संकेतक होते हैं। और भी हैं, सब जानते होंगे, पालन भी करते ही होंगे।।

लिपि और सांकेतिक भाषा का भी एक विज्ञान है। मूक बधिर केवल हाथ के इशारों और हाव-भाव से अगर संवाद स्थापित कर लेते हैं, तो दृष्टि-बाधित के लिए

ब्रेल लिपि का उपयोग किया जाता है। हमारी भाषा में भी पूर्ण विराम, अर्ध-विराम, विस्मयादिबोधक और प्रश्नवाचक चिन्ह होते हैं, जो भाषा को एक अर्थ प्रदान करते हैं।

इमोजी मेरे लिए एक सुविधा नहीं दुविधा है ! शब्दों के अर्थ जानने के लिए तो शब्दकोश उपलब्ध हैं, अब ये इमोजी की भाषा कौन समझाए। गलत इमोजी गया,

और अपनी इमेज खराब। जिसको जो कहना हो, शुद्ध हिंदी में लिख दो। जिसको करना है वह lol करता रहे। फिल्में देखकर तो omg समझ में आया, सोच सकते हैं मामला कितना नाज़ुक है।।

कभी इमोजी में ढेर सारे फूल आ जाते हैं, तो कभी लाल पीले चेहरे ! एक थैंक यू देता अँगूठा बड़ा प्यारा लगता है। कितने

गुस्सा होते इमोजियों को मैंने अनदेखा किया होगा, कितनों की भावना को मैं पढ़ नहीं पाया हूँगा, इन सभी इमोजियों से क्षमा-याचना। जो भेज रहे हैं, वे भी मनमौजी ही हैं। सब कुछ समझ ही लेते हैं।

इमोजी की बढ़ती लोकप्रियता देखकर कहीं इसे सांकेतिक-भाषा-विज्ञान का अंश न मान लिया जाए ! हो सकता है भविष्य में इमोजी-लॉजी में डिप्लोमा और डिग्रियाँ भी प्रदान की जाने लगे। जो कभी होते थे फैल होते थे, एम ए सोशियोलॉजी में, अब शान से इमोजी-लॉजी में एम ए कर पाएँगे।।

सोचता हूँ किसी इमोजी एक्सपर्ट

से इस बार कुछ समय के लिए इमोजी-की ट्यूशन ले ही लूँ।

कब तक इन इमोजियों से मुँह छुपाता फिरूँगा।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 75 – पानीपत… भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “पानीपत…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 75 – पानीपत… भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

हमारे मुख्य प्रबंधक जी विक्रमादित्य के सिंहासन सदृश्य मुख्य प्रबंधक कक्ष में स्थापित सिंहासन पर बत्तीस पुतलों की शंकास्पद नजरों को उपेक्षित कर विराजमान हो गये. उनका ताजा ताजा प्रमोशन उन्हें टेम्प्रेरी अतिरिक्त आत्मविश्वास भी दे रहा था और आत्मप्रवंचना भी. उनकी यह सोच कि तुम, याने पुतले, बत्तीस हैं तो क्या हम तो “आठ अठैंया चौंसठ” वाले राजा हैं. इस आठ अठैंया चौंसठ का फारमूला उन कैडरलैस जवानों के लिये हैं जिनका हर आठ साल में प्रमोशन सुनिश्चित रहता है. आठ साल का अंतराल, ये क्रास होने नहीं देते और इनका लक्ष्य और सफर हमेशा सहायक से सहायक महाप्रबंधक की मंजिल तक पहुंचने का होता है. तो इनके पास अभी बहुत समय था आखिरी मंजिल तक पहुंचने का. जो पास में नहीं था या नहीं थी वह थी मुखरता. सिंहासन की प्राथमिक चुनिंदा शर्तों में से एक मुखर होना भी आवश्यक होता है. अगर आप अपनी खुशी, अपना दुख, अपना गुस्सा, अपनी निराशा, अपनी अपेक्षायें प्रभावी तरीके से अभिव्यक्त नहीं कर पाते तो जाहिर है कि टीम के साथ कम्युनिकेशन कैसे होगा. फिर टीम मेंबर मुखर होंगे और अपनी अपेक्षायें, अपनी फरमाइशें, अपनी तकलीफें, टीम लीडर के ऊपर थोपेंगे. जब आप खामोश होते हैं तो ये खामोशी आपसे आपके कंधों की उपयोगिता, आपकी आंखों की अभिव्यक्ति भी छीन लेती है. हर टीमलीडर के कंधो की उपयोगिता, टीम को भावुकता के क्षणों में, निराशा के लम्हों में महसूस होती है.

अभिनेता संजीव कुमार और अभिनेत्री जया भादुड़ी बहुत सशक्त अभिनेता थे जो अपनी भावप्रवण आंखों से फिल्म “परिचय” के चुनिंदा दृश्य और एक पूरी फिल्म “कोशिश” सजीव कर सके. उनकी बोलती आंखों ने संवाद के बिना ही संवेदनशीलता और कम्युनिकेशन की उस ऊंचाई को स्पर्श किया जिसे दोहराना नामुमकिन सा ही लगता है. पर सामान्यत: ये गुण हर किसी में नहीं होता और वैसे भी बात सिर्फ तीन घंटे की फिल्म की नहीं होता. ये पूरी जीवन शैली, पूरे व्यक्तित्व की होती है. तो बात जब राजा या लीडर के पद पर काम करने की हो तो मुखरता की उपेक्षा नहीं की जा सकती. हमारे ग्रुप में भी बहुत सारे मान्यवर सदस्य हैं जिन्होंने प्रबंधन और संघ के महत्वपूर्ण उत्तरदायित्वों को वहन किया है. वे इस मुखरता को बहुत अच्छे से जानते होंगे. ये मुखरता, कुरुक्षेत्र के अर्जुन के महत्त्वपूर्ण अस्त्रों में से एक के समान वांछित होती है. इसे चालू भाषा में कहना हो तो ऐसे भी कहा जा सकता है कि “आप कुछ बोलो तो सही “: ‘यस सर यस सर’ कहने वाले तो आपके चारों तरफ मौके की तलाश में उम्मीद लगा कर बैठे हैं या सही शब्दों में खड़े हैं. अगर मुख्य प्रबंधक जी आप नहीं बोल पाते तो फिर ये लोग किसी दूसरे को ढूंढेंगे जो कुछ बोले तो ये “यस सर यस सर” कह पायें. इसके अलावा भी हम लोगों में यह लोकोक्ति बहुत प्रसिद्ध है कि “बच्चा अगर रोयेगा नहीं तो मां तो दूध भी नहीं पिलायेगी. बैंक की भाषा में अगर कहा जाये तो शाखा के प्रबंधक या मुख्य प्रबंधक जब तक रोयेंगे नहीं, सॉरी जब तक कुछ मांगेगे नहीं तो नियंत्रक सर, कहाँ कुछ देने वाले.

ये मुखरता का अभाव बहुत गैप बना रहा था. स्टाफ चाहता था कि उसके और कस्टमर के बीच में बॉस की मुखरता एक पुल बने, कस्टमर की अपेक्षाएं थीं कि सर हमारी परेशानियों का निदान करें, परेशान करने वाले स्टाफ को नसीहत दें, मन लगाकर सामान्य से भी अधिक काम करने वाले कारसेवक उनसे तारीफ के दो शब्द सुनना चाहते थे, परेशान करने वाले चाहते थे कि कम से कम डांटें तो, ताकि हम अपनी कलाकारी का मजा ले सकें और यूनियन के नेता भी यही चाहते थे कि ये कुछ बोलें तो तब तो हम भी इनको बतायें कि हम क्या चीज हैं. पर दिक्कत यही थी कि ये कुछ बोलते ही नहीं थे. जुबान को मुंह में और हाथो को पेंट की दोनों जेबों याने पाकेटों में बंद करके ये तो बुद्ध के समान निर्विकार बने रहते हैं. आंखे भी फरियाद सुनने की एक्टिंग से महरूम नजर आती थीं. जब तक दूसरे बोलते रहते, ये या तो अपने सिंहासन पर गहरी सोच में बैठे रहते और फिर सिर झुकाकर अपने काम में लग जाते. फरियादी कनफ्यूज हो जाता कि उसकी बात सुनी गई या नहीं और उसी मन:स्थिति में बाहर आता जैसे हम लोग मंदिरों में भगवान से कुछ मांगने, प्रार्थना करने के बाद आ जाते हैं. ये बिल्कुल भी निश्चित नहीं होता कि भगवान ने हमारी प्रार्थना सुनी भी है या नहीं और प्रभु से जो मांगा है वो मिलेगा या नहीं. बाद में बैंक के कस्टमर्स भी इनको समझ गये और जब कोई छोटा प्रबंधक ये बोलता कि “अगर आप हमारे समाधान से संतुष्ट नहीं हैं तो जाइये चीफ मैनेजर से मिल लीजिए. तो वाकिफ और अभ्यस्त कस्टमर्स साफ मना कर देते कि सर! हम तो नहीं जायेंगे, जो भी हमारा भला बुरा होगा, होगा या नहीं होगा, सब आप ही करेंगे. अंततः वही जूनियर प्रबंधक गण खुश होकर या दयालु होकर कस्टमर्स की समस्याओं का निदान कर देते. इसे वरदान समझकर और ऊपर वाले (प्रथम तल वाले को नहीं बल्कि ईश्वर को) सादर प्रणाम करते हुये शाखा के निकास द्वार की ओर बढ़ जाते.

नोट :पानीपत का युद्ध जारी रहेगा टेस्ट मैच की गति से. जो प्रशंसा के दो शब्द अभिव्यक्त करने भी हमारे इन्हीं मुख्य प्रबंधक महोदय जैसे कृपण बने हुये हैं या बुद्ध जैसे निर्विकार होने का ढोंग कर रहे हैं उनसे यही कहा जा सकता है कि ये दैनिक भास्कर अखबार नहीं है जो अनजान व्यक्ति सुबह सबेरे दरवाजे पर डाल जाता है. संभावनाओं की पराकाष्ठा उसे ऐ. पी. जे. अब्दुल कलाम भी बना सकती है. हालांकि ये तय है कि मेरे साथ ये नहीं होगा. प्रार्थना मैंने भी की थी पर पता नहीं चला कि भगवान ने सुनी थी या नहीं. नहिंच ही सुनी होगी.

यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 102 ⇒ बाल लीला और बचपन… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बाल लीला और बचपन।)  

? अभी अभी # 102 ⇒ बाल लीला और बचपन? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

आप छोटे से बड़े हो सकते हैं, बालक से युवा हो सकते हैं, युवावस्था के पश्चात् वृद्ध भी हो सकते हैं, लेकिन वापस बालक नहीं बन सकते। विकास की यही मजबूरी है, विकास अब बड़ा हो गया है, बच्चा नहीं रह गया। बेचारा अबोध बालक विकास अपनी समस्त बाल लीलाएं, बाल क्रीड़ाएं भूल चुका है। विकास पहले वयस्क हुआ, और आज विकास बाबू बूढ़े हो गए हैं।

कहते हैं, बूढे और बच्चे एक जैसे होते हैं। लेकिन हमने तो सिर्फ बाल लीला का ही आनंद लिया है, क्या वृद्धावस्था क्रीड़ा और बाल लीला की उम्र है। एक अबोध बालक का कोई अतीत नहीं होता, उसकी स्लेट कोरी की कोरी है, वह नित्य, मुक्त है, उसका भविष्य अभी परमात्मा लिख रहा है, वह स्वयं आज आनंद मूर्ति है, साक्षात बाल कृष्ण है, अयोध्या में जन्मे कौशल्या के राम हैं। ।

ईश्वर की भी लीला देखिए, ज़रा जर्जर जरा, यानी किसी के बुढ़ापे की ओर देखिए, जहां सफेद बाल है, चेहरे पर झुर्रियां हैं, बीमारियों का अंदेशा है, अब विकास की कोई संभावना नहीं। इस अवस्था में लोग ईश्वर से क्या मांगते हैं, ययाति ने तो वापस जवानी ही मांगी थी। बेचारा भोला शायर निदा फ़ाज़ली वापस अपना बचपन मांगता है, खेल खिलौने और नानी की कहानी मांगता है।

कोई लौटे दे मेरे बीते हुए दिन ! बीते हुए दिन, वो मेरे प्यारे प्यारे दिन। लेकिन, जो चला गया, उसे भूल जा। कल, आज और कल की साइकिल के पैडल उल्टे मारने से, साइकिल पीछे नहीं चली जाती। ।

हम भी मनुष्य जीवन की तुलना केवल फलों के राजा आम से कर सकते हैं। आम की भी दो ही अवस्थाएं होती हैं, कच्ची कैरी अथवा अमिया और पका हुआ हापुस आम।

आम के आम, और गुठली के दाम, है ना हमारी भी सदाबहार अमराई। दूधों नहाओ और पूतों फलो वाला आशीर्वाद।

हम भी बूढ़े नहीं, हापुस, खुशबू वाले आम हैं, हमारी भी बड़ी कीमत है, आम की बहार जैसी ही तो है हमारी भी जिंदगी की बहार। आंधी तूफान, महामारी और कोराेना बहार को खिजां में बदल देती है। यही आम दस्तूर है। ।

विकास बाबू, अब आप क्या करोगे, अतीत में जाने से तो रहे, जवान भी होने से रहे, तो क्यों न जीवन कुछ चटपटा, रसीला और मसालेदार हो जाए। कभी आमरस, तो कभी आम का अचार और आम का ही पापड़। और हां, देखिए आप तो अब बच्चे भी नहीं बन सकते तो क्या करें।

बड़ा व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी का दोहराया हुआ विचार है, क्यूं न किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए। अजी आप क्या किसी को हंसाओगे, एक बच्चा ही तो कल का लाफिंग बुद्धा है।

वही आज का परमानंद है।

बस किसी अबोध बालक की बाल लोलाओं में अपने आपको पूरी तरह डुबो दीजिए, वह आपसे कुछ नहीं मांगेगा, लेकिन उसके पास साक्षात परमानंद सहोदर है। बच्चा हमारा आपका नहीं होता, सगा सौतेला नहीं होता, बाल रूप में स्वयं साक्षात परम परमेश्वर होता है। बच्चे में है भगवान। ।

अरे अष्ट छाप के कवि सूरदास तो प्रज्ञा चक्षु थे, फिर भी उनका बालकृष्ण की लीलाओं का वर्णन हमें चमत्कृत और भाव विभोर कर देता है। वे कृष्ण के प्रति बाल सखा भाव ला सकते हैं, तो क्या हम किसी साधारण शिशु के प्रति कृष्ण का भाव नहीं ला सकते। सभी बाल गोपाल ही तो बाल गोपाल हैं, कृष्ण गोपाल हैं ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 43 – देश-परदेश – हमें क्या ? ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 43 ☆ देश-परदेश – हमें क्या ? ☆ श्री राकेश कुमार ☆

उपरोक्त चित्र में जल सप्लाई के लिए एक पत्थर (बाधा/ व्यवधान) को दूर किए बिना थोड़ा अतिरिक्त पाइप लगा कर कार्य किया गया हैं। आप कह सकते हैं, कि पत्थर हटाने का कार्य तो पाइप लाइन बिछाने वाले का था ही नहीं वो क्यों हटाता। सरकारी कार्य है, ऐसा ही होता है, जी नहीं हम सब निजी जीवन में भी ये ही सब कर रहे हैं। लकीर के फकीर बन जाते हैं, हम लोग जब भी कहीं समाज या सार्वजनिक व्यवधान होता है, हम उसे दूर करने के स्थान पर येन-केन अपना कार्य कर लेते हैं, दूसरे भले ही परेशान या मुश्किल में पड़ जाएं।

हमारे समाज में और धर्म में भी तो “सर्वजन हिताय : सर्वजन सुखाय” का उल्लेख ऋग्वेद में किया गया है।

अधिकतर राह में कोई छोटी बाधा को दूर करने के बजाय हम लंबे मार्ग से जाकर अपना कार्य कर लेते हैं। छोटी छोटी कमियों को दूर करने में सक्षम होते हुए भी हम सार्वजनिक कार्य में हाथ नहीं लगाते हैं। लेकिन जब निजी समस्या हो तो दिन भर शारीरिक श्रम से कार्य को अंजाम देने में सकुचाते नहीं हैं। क्या हुआ हमारी संस्कृति और सामाजिक मूल्यों का? इतना पतन हो चुका है, हमारी मान्यताओं का शायद शिक्षा और विशेष रूप से नैतिक मूल्य गिर कर पाताल में जा चुके है।

सामाजिक परिवर्तन, संयुक्त परिवार नीति का समापन, धर्म से दूरी और विशेष कर पश्चिम का अनुसरण हम सब को अपने प्राचीन रीति रिवाज से दूर कर चुका है।

 

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 101 ⇒ सीमा पार का खेल… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सीमा पार का खेल।)  

? अभी अभी # 101 ⇒ सीमा पार का खेल? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

प्यार कोई खेल नहीं ! लेकिन जब खेल खेल में प्यार हो जाए, तो फिर उसे उम्र की सीमाओं और सरहदों में नहीं बांधा जा सकता। शर्मिला इतनी भी शर्मीली नहीं थी कि नवाब पटौदी की कप्तानी कुबूल ना कर ले। अगर उम्र की सीमा होती तो क्या दिलीप सायरा की जोड़ी बन पाती। हमारे शरद भाई ने भी इरफाना आपा को कुबूल किया कि नहीं।

प्यार की कोई हद नहीं होती, कोई सरहद नहीं होती। फिल्म के रुपहले पर्दे पर अपने जलवे बिखेरने वाली अभिनेत्री रीना रॉय सीमा पार क्रिकेट खिलाड़ी मोहसिन खान को दिल दे बैठी, जब कि वह जानती थी, शीशा हो या दिल हो, आखिर टूट जाता है। कभी जमाना दुश्मन हो जाता है, तो कभी सनम बेवफ़ा। आज दोनों जुदा जुदा हैं, खफा खफा।।

टेनिस खिलाड़ी सानिया मिर्ज़ा ने शायद ही कभी मिर्जा ग़ालिब को पढ़ा हो, लेकिन उर्दू का, ढाई आखर इश्क का, उसने जरूर पढ़ लिया होगा और शायद इसीलिए उसके टेनिस के रैकेट को पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाड़ी शोएब मलिक के बल्ले से प्यार हो गया। बस दोनों की बल्ले बल्ले हो गई। दुश्मन है जमाना ठेंगे से।

ऊंची ऊंची दुनिया की दीवारें और सभी बाधाएं, प्यार में अक्सर तोड़ दी जाती हैं, लेकिन हद तो तब होती है, जब प्यार में पागल कोई २७ साल की लड़की चार चार बच्चों के साथ बिना कागजात और पासपोर्ट वीजा के, दुश्मन देश से हमारे देश में प्रवेश कर जाती है। ।

यह प्रेम कहानी नोएडा के सचिन और कराची की सीमा हैदर की है, जो लॉक डाउन में PUBG खेलते खेलते आपस में ऐसे लॉक हुए, कि समाज के सभी बंधन बेकार साबित हुए, दोनों देशों का कानून देखता ही रह गया, और ये दोनों सदा के लिए एक दूसरे के हो गए।

मीडिया ने उसकी छवि एक फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाली, और अन्य कई भाषाओं की जानकार, एक सुशील और संस्कारी हिंदू महिला की बना दी है।

घोषित रूप से दोनों हिंदू हैं, सीमा हैदर तलाकशुदा है, मियां बीवी राजी तो क्या करे काजी तो ठीक, लेकिन हमारी देश की सरकार अब क्या करे। दिल में घुसपैठ कोई जुर्म नहीं, अपराध नहीं लेकिन देश कायदे कानून से चलता है, महज भावना से नहीं। इस तरह के घुसपैठियों को दुश्मन का जासूस कहा जाता है और उनकी जगह सिर्फ जेल की सलाखें होती हैं। बोल तेरे साथ क्या सुलूक किया जाए।।

यहां संकट और धर्मसंकट दोनों ने हाथ मिला लिया है। सीमा पार सीमा हैदर और इस पार सचिन का प्यार एक तरफ, और दोनों देशों का इस बारे में रवैया और नजरिया एक तरफ। इसे हिम्मत नहीं, दुस्साहस कहते हैं। मूल रूप से, सबसे पहले वह एक अपराधी है।

फिलहाल तो सीमा सचिन की कहानी रंग ला रही है। देखना है, रंग में भंग होता है, या फिर पूरे कुएं में ही भांग पड़ी है। हम तो फुर्सत में हैं ही, अच्छी खासी राष्ट्रीय बहस चल रही है, इन दोनों को लेकर आजकल।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 199 – तुम कब लौटोगे मनुज..? ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 199 तुम कब लौटोगे मनुज..? ?

किसी विवाह के सिलसिले में एक बैंक्वेट हॉल में जाना था। हॉल के सामने के भाग की ओर रेस्टोरेंट है। दोनों के लिए स्वतंत्र दरवाज़ा है पर  कैब ने मुझे रेस्टोरेंट के सामने उतारा। मैं रेस्टोरेंट से होता हुआ बैंक्वेट की ओर बढ़ चला। सुंदर सजा हुआ रेस्टोरेंट है। देखता हूँ कि कृत्रिम तालाब बना हुआ है। तालाब में स्वच्छ पानी है और बड़ी-बड़ी, लंबी और चपटी मछलियाँ तैर रही हैं। मछलियाँ गहरे नारंगी और काले रंग की हैं। ग़ौर से देखने पर समझ में आता है कि इस उथले कृत्रिम तालाब में मुश्किल से  एक से सवा फीट तक ही पानी है। मछलियाँ थोड़ा-सा ऊपर उठ जाएँ तो सतह से ऊपर आ जाएँगी और ज़रा सा नीचे उतर जाएँ तो तल से लग जाएँगी। लगा जैसे  वे तैरने के बजाय पेट के बल रेंग रही हों।

सोचा कि बीज के रूप में नन्ही-नन्ही मछलियाँ कभी इस तालाब में उतारी गई होंगी। तब से वे जीवन के लिए संघर्ष कर रही हैं। जीने का उनका हौसला है, बढ़ने का उनका संकल्प है। ये मछलियाँ निरंतर जी रही हैं, निरंतर आगे बढ़ रही हैं। उनकी दुनिया इस नाम मात्र के कृत्रिम सरोवर तक सीमित है पर इस सीमा में ही असीम भाव से जीवन और सृजन चल रहे हैं।

फल के भीतर पलने वाले कीट का जीवन फल तक ही सीमित रहता है। फल कटा तो कीट के जीवन के भी परखच्चे उड़ जाते हैं। तथापि सारी विसंगतियों के बीच सृजन अविराम है, निरंतर है।

कोई छोटा-बड़ा जलचर, कुआँ, तालाब, ताल, तलैया, पोखर, बावड़ी, नदी, समुद्र इनमें से जहाँ भी है, वहीं जी रहा होता है। जल यदि सूखने लगे तब भी अंतिम बूंद तक संघर्ष करता है, सृजन जारी रखता है।

नभचर पक्षी तीव्र धूप, मूसलाधार बारिश, तूफान, सब सहते हैं पर जुटे रहते हैं जीवन में, सृजन में।

इन सब की तुलना में मनुष्य सबसे बुद्धिमान है, उसका विस्तार बहुत अधिक है। मनुष्य यूँ तो थलचर है पर अपने बनाए साधनों से जल और नभ दोनों में विचरण कर सकता है। उसने थल, जल, थल, नभ सब पर एक तरह से आधिपत्य कर लिया है पर सृजन की तुलना में विध्वंस अधिक किया है।

समुद्र के गर्भ में न्यूक्लियर हथियार लिए पनडुब्बियाँ घूम रही है। अंतरिक्ष, विनाशकारी शस्त्रास्त्रों से भरा पड़ा है। तोप और मिसाइलों के मुँह एक दूसरे के विरुद्ध खोलकर मनुष्य तैयार है युद्ध के लिए। मनुष्य जानता है कि युद्ध में अकल्पनीय हानि होती है तब भी युद्ध जारी हैं।

एक और अपनी क्षमता से निरंतर निर्माण में जुटे ये सारे जीव हैं जिन्हें हम बुद्धिहीन मानते हैं। दूसरी और हम मनुष्य हैं जो बुद्धि का वरदान लिए हैं पर विध्वंस बो रहे हैं।

एक और अखंड सृजन, दूसरी ओर अखंड विखंडन। असमय बरसात, बदलता मौसमचक्र, ग्लोबल वॉर्मिंग इसी विध्वंसक वृत्ति का परिणाम हैं। आश्चर्य है कि विध्वंसक वृत्ति के परिणाम निरंतर भोगने के बाद भी मनुष्य रुकने या लौटने के लिए तैयार नहीं है।

इस चिंतन के लगभग समानांतर चलती अपनी एक कविता स्मरण हो आई है,

अंजुरि में भरकर बूँदें / उछाल दी अंबर की ओर,

बूँदें जानती थीं / अस्तित्व का छोर,

लौट पड़ी नदी की ओर..,

मुट्ठी में धरकर दाने/ उछाल दिए आकाश की ओर,

दाने जानते थे/ उगने का ठौर

लौट पड़े धरती की ओर..,

पद, धन, प्रशंसा, बाहुबल के/ पंख लगाकर

उड़ा दिया मनुष्य को/ ऊँचाई की ओर..,

……….,………..,

तुम कब लौटोगे मनुज..?

स्मरण रहे, विखंडन से सृजन की ओर लौटने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।.. तुम कब लौटोगे मनुज?

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

 

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 100 ⇒ मानदेय… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मानदेय।)  

? अभी अभी # 100 ⇒ मानदेय? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

बुद्धि और परिश्रम का जीवन में एक अपना अलग ही स्थान है, लेकिन मान सम्मान एक ऐसी महत्वपूर्ण उपलब्धि है, जिसका मूल्य नहीं आंका जा सकता। जब तक पद है, तब तक प्रतिष्ठा है। बिना बौद्धिक कुशलता के किसी पद की प्राप्ति नहीं होती जिसमें परीक्षा, प्रतियोगिता और पुरुषार्थ भी शामिल होते हैं।

जीवन की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि पैसा और भौतिक सुख नहीं, काबिलियत है। यह काबिलियत उम्र, पद और प्रतिष्ठा की मोहताज नहीं होती। किसी पद पर ना रहते हुए भी जो ख्याति, प्रतिष्ठा और मान हासिल किया जाता है, वही किसी व्यक्ति की वास्तविक उपलब्धि होती है। ।

जब ऐसे किसी व्यक्ति की किसी विशिष्ट कार्य के लिए सेवाएं ली जाती हैं, तो उसे मानदेय का प्रावधान होता है, जो उसकी वास्तविक योग्यता से बहुत कम होता है। लेकिन मान की कभी कीमत नहीं आंकी जाती। शॉल, श्रीफल और पत्रं पुष्पं के साथ जो भी भेंट किया जाता है, वह सहर्ष स्वीकार्य होता है।

जो लोग जीवन में सफल होकर उच्च पदों पर आसीन हो जाते हैं, उनकी बौद्धिक कुशलता और प्रशासनिक क्षमता सेवा निवृत्त होने के बाद भी कायम रहती है। समाज उनकी क्षमता, अनुभव और कार्य कुशलता का लाभ उठाना चाहता है। एक अकिंचन की भांति उनसे निवेदन किया जाता है, और वे उदारतापूर्वक इस आग्रह को स्वीकार कर अपने जीवन भर के अनुभव के निचोड़ को यहां लगाने के लिए, एक तुच्छ से मानदेय पर, तत्पर हो जाते हैं। ।

आज कई सामाजिक और शैक्षणिक संस्थाएं इन माननीयों के कुशल प्रबंधन और देखरेख में फल फूल रही हैं। कहीं कहीं तो इनका अमूल्य स्वैच्छिक सहयोग और आशीर्वाद बिना किसी मानदेय के ही उपलब्ध हो जाता है। जीवन का सच्चा सुख समाज को कुछ देने में है, समाज से लेने में नहीं।

जो साहित्य, संगीत और कला के सच्चे उपासक हैं, उनका तो पूरा जीवन ही निष्काम कर्म और कला की साधना में गुजर जाता है। समाज इन्हें यथोचित मान दे, सम्मान दे, बस यही इनका वास्तविक मानदेय है। ।

कल की पारमार्थिक संस्थाएं आज एनजीओ कहलाने लग गई हैं। कहीं पूरा परिवार ही एनजीओ है तो कहीं एनजीओ पर किसी परिवार ने ही कब्जा कर लिया है। सेवा में मेवा और परमार्थ में भी स्वार्थ ढूंढा जाने लगा है।

राजनीति का वायरस पूरे समाज में फैल चुका है।

धर्म और राजनीति एक दूसरे के पूरक बन गए हैं।

इन सबके बावजूद कुछ लोगों में अभी निष्ठा नैतिकता और समाज के प्रति निःस्वार्थ सेवा की भावना कायम है। वे ही हमारी हरी भरी बगिया के ऐसे बागवान हैं, जो कभी चमन को उजड़ने नहीं देंगे। आप उन्हें मान दें, अथवा ना दें, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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