हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 236 ☆ कहानी – खोया हुआ कस्बा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय एवं हृदयस्पर्शी कहानी – खोया हुआ कस्बा। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 236 ☆

☆ कहानी – खोया हुआ कस्बा

रामप्रकाश ऊँचे सरकारी ओहदे से रिटायर हो गये। यानी अर्श से गिर कर खुरदरे फर्श पर आ गये। दिन भर उठते सलाम, ख़ुशामद में चमकते दाँत, झूठी मिजाज़पुर्सी, सब ग़ायब हो गये। ड्राइवर द्वारा उनके लिए अदब से कार का दरवाज़ा खोलने का सुख भी ख़त्म हुआ। जो उन्हें देखकर कुर्सी से उठकर खड़े हो जाते थे अब उन्हें देखकर नज़रें घुमाने लगे। मुख़्तसर यह कि रिटायरमेंट के बाद बहुत से रिश्ते बदल गये। रामप्रकाश जी को अब समझ में आया कि उन्होंने रिश्तो की पूँजी की उपेक्षा करके गलती की। लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी। अब नये रिश्ते बनाना संभव नहीं था।

रिटायरमेंट के बाद सरकारी कार विदा हो जाने वाली थी और कार से उतर कर स्कूटर पर आने की त्रासद स्थिति को वे बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे, इसलिए उन्होंने रिटायरमेंट से तीन महीने पहले एक कार खरीद ली। हमारे देश में असंगठित क्षेत्र में श्रम बहुत सस्ता है इसलिए पाँच हज़ार रुपये में एक ड्राइवर भी रख लिया। इस तरह इज़्ज़त के कुछ हिस्से को महफूज़ कर लिया गया।

राम प्रकाश जी ने नौकरी के दौरान कहीं मकान नहीं बनाया क्योंकि कई बार हुए ट्रांसफर के कारण अंग्रेज़ी मुहावरे के अनुसार उनके पैरों के नीचे घास नहीं उग पायी। उनके कस्बे में उनका पुश्तैनी मकान था जो अब भी उन्हें शरण देने के लायक था। रिटायरमेंट से पहले उनके बच्चे अपनी पढ़ाई पूरी कर अपने ठिकाने बनाने के लिए उड़ गये थे और उन्होंने बच्चों के साथ ज़िन्दगी ‘शेयर’ करने के बजाय अपने कस्बे में फैल कर रहने का चुनाव किया था।

नौकरी में रहते हुए उनका अपने कस्बे में आना कम ही हो पाता था। जब तक उनके माता-पिता वहाँ रहे तब तक चार छः महीने में चक्कर लग जाता था। पिताजी की मृत्यु के बाद माँ उन्हीं के साथ रहने लगीं थीं, इसलिए साल में मुश्किल से एक चक्कर लग पाता था। घर की देखभाल के लिए एक सेवक रख छोड़ा था।

जब पिताजी जीवित थे तब रामप्रकाश कस्बे में आते ज़रूर थे, लेकिन उनका आना वैसा ही होता था जिसे ‘फ्लाइंग विज़िट’ कहते हैं। ज़्यादातर वक्त वे घर में ही महदूद रहते थे। घर से बाहर निकल कर कस्बे की सड़कों पर घूमने में उन्हें संकोच लगता था। उनके ओहदे की ऊँचाई कस्बे की गलियों में पैदल घूमने में आड़े आती थी। वे उम्मीद करते थे कि उनके परिचित उनसे मिलने के लिए उनके घर आयें। इसीलिए कस्बे से ताल्लुक बना रहने के बाद भी कस्बा उनके हाथ से फिसलता जा रहा था। अब कार से झाँकने पर दिखने वाले ज़्यादातर चेहरे अजनबी होते थे। कस्बे की सूरत इतनी बदल गयी थी कि उसमें पुराने निशान ढूँढ़ पाना खासा मुश्किल हो गया था।

अपने कस्बे में आने पर वे पुराने साथियों को फोन करके मिलने का आग्रह करते थे और उनके बचपन के तीन चार साथी उनसे मिलने आ जाया करते थे। ज़ाहिर है ये वही साथी होते थे जो किसी न किसी वजह से कस्बे की सीमाएँ नहीं लाँघ पाये थे और वहीं महदूद होकर रह गये थे। दरअसल ये ऐसे साथी थे जिनका पढ़ाई-लिखाई में लद्धड़पन उनके पाँव की बेड़ियाँ बन गया था। इनमें त्रिलोकी अपवाद था जिसके ज़हीन होने के बावजूद उसके पिता ने गर्दन पकड़कर उसे कपड़े की दूकान पर बैठा दिया था। परिवार की इस  ज़्यादती के बावजूद वह शिकायत नहीं करता था, लेकिन मायूसी और संजीदगी उसके चेहरे पर साफ पढ़ी जा सकती थी।

एक साथी गोपाल था जिसके परिवार की दवा की दूकान थी। रामप्रकाश गोपाल से घबराते थे क्योंकि उसकी ख़तरनाक आदत बात करते-करते सामने वाले के कंधे या जाँघ  पर धौल जमाने की थी। ऐसे मौके पर यदि आसपास उनका ड्राइवर या चपरासी होता तो रामप्रकाश असहज हो जाते। उनकी उपस्थिति से बेफिक्र गोपाल घरहिलाऊ ठहाके लगाता और रामप्रकाश बार-बार पहलू बदलते रहते। अन्य साथी प्रमोद और प्रभुनाथ थे। गोपाल को छोड़कर सभी रामप्रकाश के व्यक्तित्व के सामने दबे दबे रहते क्योंकि उनकी असाधारण सफलता के सामने सभी अपने को पिछड़ा हुआ महसूस करते थे। उन्हें इस बात का गर्व ज़रूर था कि वे इतने सफल और महत्वपूर्ण आदमी के दोस्त थे।

रिटायरमेंट के बाद से रामप्रकाश ने सोच लिया था कि अब कस्बे के पुराने संबंधों को पुख्ता बनाना है क्योंकि अब ये ही लोग उनकी बाकी ज़िन्दगी के हमसफर रहने वाले थे। लेकिन अब मुश्किल यह थी कि अपने घर से बाहर निकलने पर वे पाते थे कि कस्बा उनकी पकड़ से बाहर हो गया है और उससे पहचान बनाने का कोई सिलसिला उन्हें नज़र नहीं आता था। कस्बे की पुरानी खाली ज़मीनें  ग़ायब हो गयी थीं और सब तरफ बेतरतीब मकान और दूकानें उग आये थे। पुराने मकान ढूँढ़ पाना ख़ासा मुश्किल हो रहा था। जो पुराने लोग अब मिलते थे उनके चेहरे इतने बदल गये थे कि उनमें पुराना चेहरा ढूँढ़ निकालने के लिए ख़ासी मशक्कत करनी पड़ती थी। लोग पहले की तुलना में बहुत व्यस्त और कारोबारी दिखने लगे थे।

रामप्रकाश अपने घर के आँगन में लेटते तो आकाश का जगमगाता वितान देखकर उनकी आँखें चौंधया जातीं। यह इतना विशाल आकाश अब तक कहाँ था? शहरों में तो मुद्दत से इतना बड़ा आकाश नहीं देखा, या फिर उन्हें ही उस तरफ सर उठाकर देखने की फुरसत नहीं मिली। बड़े शहरों के लोगों को आकाश और ज़्यादा ज़मीन की ज़रूरत महसूस नहीं होती।

कस्बे में आकर रामप्रकाश ने फुरसत से सुबह घूमना भी शुरू कर दिया था। घने पेड़ों से घिरे, भीड़-भाड़ से मुक्त खुले रास्ते थे। चाहे जैसे चलो, कोई टोकने वाला नहीं। तकलीफ यही होती थी कि यहाँ रास्ते में सलाम करने वाला कोई नहीं मिलता था। रामप्रकाश ही पुराने परिचित लोगों को अपनी कैफियत बताकर संबंधों पर जमी धूल साफ करने की कोशिश करते थे। उन्हें साफ लग रहा था कि लोगों से आत्मीयता बनाने में समय लगेगा।

रामप्रकाश ने निश्चय कर लिया था कि अब घर में रोज़ पुराने दोस्तों की महफिल जमाएँगे। कस्बे में आते ही उन्होंने पुराने दोस्तों से संपर्क करना भी शुरू कर दिया था। दिक्कत यही थी कि टेलीफोन पर जवाब नहीं मिल रहा था। एक त्रिलोकी से ही बात हुई थी और वे बात होने के दूसरे दिन मिलने भी आ गये थे। रामप्रकाश को गोपाल की शिद्दत से याद आ रही थी। अब उसके धौल-धप्पे से बचने की ज़रूरत नहीं थी। त्रिलोकी से मिलते ही उन्होंने गोपाल के बारे में पूछा।

त्रिलोकी ने उनके मुँह की तरफ देख कर जवाब दिया, ‘उसे मरे तो साल भर हो गया। तगड़ा हार्ट अटैक आया था। आधे घंटे में सब खतम हो गया।’

रामप्रकाश ने सुना तो हतप्रभ रह गये। उनका सारा शीराज़ा बिखर गया। कस्बे में सुकून से ज़िन्दगी काटने के समीकरण गड़बड़ हो गये। हसरत जागी कि काश, पहले गोपाल का हाल-चाल लिया होता!

बुझे मन से प्रमोद और प्रभुनाथ के बारे में पूछा। त्रिलोकी ने बताया, ‘प्रमोद भोपाल चला गया। बड़े बेटे ने वहाँ बिज़नेस जमा लिया है। वह बाप का खयाल रखता है। छोटा बेटा यहाँ है।

‘प्रभुनाथ तीन चार महीने पहले स्कूटर से गिर गया था। सिर में चोट लगी थी। तब से दिमागी हालत ठीक नहीं है। बात करते करते बहक जाता है। इसीलिए घर से बाहर कम निकलता है। इलाज चल रहा है।’

रामप्रकाश का सारा प्लान चौपट हो रहा था। अब यहाँ नये सिरे से संबंध बनाना कैसे संभव होगा? स्थिति जटिल हो गयी थी। उनकी पुरानी दुनिया ने उनसे हाथ छुड़ा लिया था और यह नयी दुनिया इसलिए अपरिचित हो गयी थी कि उन्होंने कभी इसकी परवाह नहीं की थी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – हो गया ठीक? ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – हो गया ठीक?)

☆ लघुकथा – हो गया ठीक? ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

चोट के कारण दादा की उँगली दर्द कर रही थी। उन्हें बेचैन देख ढाई साल के पोते ने पूछा, “दर्द हो रहा है?”

“हाँ।”

पोते ने धीरे से उस उँगली को प्यार से चूमा और पूछा, “हो गया ठीक?”

“हाँ।” दादा ने यह कहकर पोते को चूम लिया। दर्द पता नहीं कहाँ दुबक गया था?

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – बस छूट गई ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  बस छूट गई)

☆ लघुकथा – बस छूट गई ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

दादी पोती को अपना सपना सुना रही थी, “मैं शीशे के इस पार खड़ी थी। शीशे के उस पार यमलोक था। वहाँ तुम्हारे दादा थे, तुम्हारे पापा थे, गाँव के बहुत सारे लोग भी दिखाई दे रहे थे। तभी एक बस आई। शीशे के पार से तुम्हारे दादा बस की तरफ़ इशारा करते हुए चिल्लाए – ‘बस पर चढ़कर आ जाओ।’ मैं बस की तरफ़ दौड़ी कि बस चल पड़ी। मैं बस के पीछे भागी, पर…”

“बस छूट गई, है न!” पोती ने वाक्य पूरा किया।

“हाँ।”

“बहुत अच्छा हुआ।” पोती ताली बजाती हुई ज़ोर से हँसी और तुरंत ही संजीदा हो आई, “हम तीनों बहनों को तुम्हारी बहुत ज़रूरत है दादी! अब कभी बस आए तो छोड़ देना, चाहे दादा कितना ही बुलाएँ।”

दादी ने पोती को अपने सीने से लगाया और कहा, “पक्का छोड़ दूँगी।”

©  हरभगवान चावला

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – होड़ – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  होड़ – ।)

~ मॉरिशस से ~

☆  कथा कहानी ☆ – होड़ – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

सूर्य से उसकी बहुत बड़ी होड़ थी। वह सुबह पहले जागता था इसके बाद सूर्योदय होता था। अपनी इस होड़ में वह तिल भर विचलित होता नहीं था। उसकी वृद्धावस्था में बात दूसरी हुई। सूर्य से होड़ का उसका ताप मद्धम हुआ। उसके लिए अब जैसे लिखा हो गया, “सूर्य का वह मुझ पर तरस ही था वह मुझे अवसर देता था तुम पहले जाग कर आगे चलो, मैं बाद में जाग कर पीछे – पीछे आता हूँ।”
***

© श्री रामदेव धुरंधर

04 – 04 – 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #164 – हाइबन – कोबरा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक हाइबन – कोबरा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 164 ☆

☆ हाइबन – कोबरा  ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

हाइबन- कोबरा

रमन की नींद खुली तो देखा सावित्री के पैर में सांप दबा हुआ था।  वह उठा। चौका। चिल्लाया,” सावित्री! सांप,” जिसे सुनकर सावित्री उठ कर बैठ गई। इसी उछल कूद में रमन के मुंह से निकला,” पैर में सांप ।”

सावित्री डरी। पलटी । तब तक सांप पैर में दब गया था। इस कारण चोट खाए सांप ने झट से फन उठाया। फुफकारा ।उसका फन सीधा सावित्री के पैर पर गिरा।

रमन के सामने मौत थी । उसने झट से हाथ बढ़ाया। उसका फन पकड़ लिया। दूसरे हाथ से झट दोनों जबड़े को दबाया। इससे सांप का फन की पकड़ ढीली पड़ गई।

” अरे ! यह तो नाग है,” कहते हुए सावित्री दूर खड़ी थी। यह देख कर रमन की जान में जान आई ।

सांप ने कंबल पर फन मारा था।

 

पैर में सांप~

बंद आंखें के खड़ा

नवयुवक।

 –0000–

 © ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

29-01-2023

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 97 – इंटरव्यू : 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  “इंटरव्यू  : 2

☆ कथा-कहानी # 97 –  इंटरव्यू : 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

डॉक्टर, साहब जी की बीमारी समझ गये और अवसाद याने depression का पहले सामान्य इलाज ही किया. पर नतीजा शून्य था क्योंकि अवसाद की जड़ें गहरी थीं. थकहारकर एक्सपेरीमेंट के नाम पर सलाह दी कि “सर आप अपने घर के एक शानदार कमरे को ऑफिस बना लीजिए और वो सब रखिये जो आपके आलीशान चैंबर में रहा होगा. AC, heavy curtains, revolving chair, teakwood large table, two or three phones, intercoms, etc. etc.जब ये सब करना पड़ा तो किया गया और फिर सब कुछ उसी तरह सज गया सिर्फ कॉलबेल या इंटरकॉम को अटैंड करने वाले को छोड़कर.

अंततः ऐसे मौके पर भूले हुए क्लासफेलो जो असहमत के पिताजी थे, याद आये. अतः उनको सादर आमंत्रित किया गया. मालुम था कि असहमत को इस काम के लिये दोस्ती के नाम पर यूज़ किया जा सकता है. असहमत के पिता जी भी इंकार नहीं कर पाये, क्योंकि इस कहावत पर उनका विश्वास था कि कुछ भी हो, निवृत्त हाथी भी सवा लाख का होता है तो इनकी सेवा करके शायद असहमत को कुछ मेवा मिल जाए. और आखिर घर में बैठकर भी वो समाजसुधार के अलावा तो कुछ कर नहीं रहा है. जब असहमत को पिता जी ने अपने पितृत्व की धौंस और उसकी बेरोजगारी की मज़बूरी को तौलकर रिटायर्ड साहब के पास जाने का आदेश दिया तो वो मना नहीं कर पाया.

आपदा को अवसर में बदलने की असहमत की सोच ने उसे अपने साथ हुये सारे दुर्व्यवहारों की ,जिनमें साहब के कुत्ते घुमाने का आदेश भी था, का हिसाब चुकता करने का सही अवसर प्राप्त होना मान लिया.

जारी रहेगा :::

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 17 – नशा ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – नशा।)

☆ लघुकथा – नशा ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

श्याम मोहन हड़बड़ी में ऑफिस जा रहा था उसे देर हो रही थी तभी रास्ते में उसे एक बुजुर्ग महिला टकरा गई और वह गिर पड़े उसकी सारी सब्जियां भी बिखर गई।

अरे अम्मा इस बुढ़ापे में सुबह सुबह मुझसे ही टकराना था क्या आपको?

नहीं बेटा क्या करूं इस बुढ़ापे में मंडी से सब्जियां लेकर जाती हूँ और खाना बनाती हूँ पास में जो बिजली विभाग का ऑफिस है उसमें 10 साहब लोगों को  दोपहर में  टिफिन भेजती हूँ बेचारे लोग बहुत अच्छे हैं ऑफिस के एक चपरासी को भेज देते हैं उन बच्चों के कारण मेरे घर का खर्च चलता है।

चलिए! माता जी आप मेरी गाड़ी में बैठ जाइए मैं आपको आपके घर छोड़ देता हूँ।

शारदा उसकी गाड़ी में बैठ जाती है और अपने घर का पता बताती है उसका पोता घर के बाहर बैठकर उसे गाली दे रहा था अरे शारदा सुबह-सुबह कहां चली गई थी?

गले की चेन छीन कर भाग गया।

यह सब देख कर श्याम मोहन की आंखें भर आई।

अम्मा मेरा दोस्त डॉक्टर है आप किसी तरह उसे अपने पोते को दिखा दे।

इसके मां-बाप के चले जाने के बाद में इसे प्यार से पाल रही थी उसी का यह नतीजा है जो मैं अब भोग रही हूं यह लड़का घर से बाहर निकल कर गाली गलौज करता है और अपनी इज्जत के कारण मैं चुप रह जाती हूं।

नहीं अम्मा अब चुप मत रहो चलो?

अपने आंसुओं को आंचल से पूछती है और उसके अंदर जाने कहां से एक आत्मविश्वास आता है,

“तुम ठीक कह रहे हो।”

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 186 – तपिश – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा तपिश”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 186 ☆

☆ लघुकथा 🌻 तपिश 🌻

एक सुंदर सी कालोनी। आज होली का दिन बहुत ही सुंदर सा वातावरण चारों तरफ होली के गाने और बच्चों की टोली।

साफ-सुथरे धूलें प्रेस के चमकते कपड़े पहन अनिल नहा धोकर तैयार हुआ। स्वभाव से गंभीर ओहदे के ताने- बाने में जकड़ा अपने आप को हमेशा अकेला महसूस करता था।

अनिल इस संसार को सिर्फ माया बाजार समझता था। यूँ तो कहने को भरा पूरा परिवार, सदस्यों की कमी नहीं थी। परन्तु फिर भी उसका परिवार अकेला। अंर्तमुखी व्यवहार जो सदा, उसे सबसे अलग किये देता था। दुख- सुख हो वह सिर्फ एक फॉर्मेलिटी पूरी करता दिखता।

अनजाने ही वह कब सभी चीजों से विरक्त हो गया, पता ही नहीं चला। नीरस सी जिंदगी हो चली थी। घर में दोनों बिटिया और धर्मपत्नी हमेशा से ही पापा को अकेले या कोई आ गया तो एक अजनबी की तरह व्यवहार करते देखा करते थे। बिटिया भी उसी माहौल को स्वीकार कर चुकी थी। क्योंकि मम्मी ने साफ-साफ कह दिया था… “जब ससुराल चली जाओगी तब सब शौक पूरा कर लेना। अभी आपके पापा के पास उनकी मर्जी के साथ रहना सीखो।”

” मैंने सारी जिंदगी निकाली है। मैं नहीं चाहती घर में किसी प्रकार का क्लेश बढ़े।” बच्चों में खुशी का तो कोई ठौर नहीं था परंतु मायूसी ने घर कर लिया था।

पढ़ने में दोनों तेज और समझदार थी। भाग्य से समझौता कर चुकी थी।

” क्या? हम इस वर्ष भी होली में बाहर नहीं निकालेंगे दीदी? “….. छोटी वाली ने सवाल किया।

कमरे में बुदबुदाहट की आवाज सुनकर अनिल खिड़की के पास खड़े हो गए। बड़ी बहन समझा रही थी…… “देख छोटी चल आईने के सामने हम दोनों एक दूसरे को गुलाल लगा लेते है दिखेंगे चार और फोटो गैलरी से फोटो बनाकर हैप्पी होली शेयर कर लेंगे।”

“मुझे नहीं करना…. हमेशा ऐसा ही होता है।” यह कहकर वह पलंग पर सिर ढांप कर सोने का नाटक करने लगी।

पापा ने दरवाजा खटखटाया।

दोनों बाहर आए। मम्मी दौड़कर सहमी सी खड़ी ताक रही थी। पापा एक कुर्सी पर बैठ गए और बोले…..” छोटी तेरे पास जो गुलाल है। जरा मेरे बालों में, गालों में, माथे में, कपड़ों पर फैला दे, मैं बाहर होली खेलने जा रहा हूँ । कोई यह ना कहे कि मेरे में रंग नहीं लगा है।”

“क्योंकि हमेशा बाहर निकलता था तो मेरे व्यक्तिगत व्यवहार के कारण कोई भी मुझे गुलाल या रंग नहीं लगाते।”

” मैं रंग गुलाल से लिपा – पूता रहूंगा। तो सभी पड़ोसी भी पास आकर रंग लगाएंगे और बोलेंगे वाह कमाल हो गया।”

दोनों आँखे निकाल पापा को देख रही थी। मम्मी की आँखे तो गंगा जमुना बहा रही थी।

दीदी ने भरी गुलाल की पुड़िया तुरंत निकाल पापा को सर से पांव तक लगा दिया। पापा भी अपने पॉकेट से रंगीन गुलाल उड़ाते हुए बच्चों को गले लगा लिए।

बाहर दलान में निकलते पड़ोसी देखते ही रह गए। सभी पास आ गए। आज जी भरकर अनिल ने रंग गुलाल खेला। मस्ती में झूमने लगे।

उनकी गुलाबी संतुष्टी यह बता रही थी कि बरसों की तपिश, आज होली के रंग में धुलती नजर आ रही थीं। और गुलाबी रंग चढ़ता ही जा रहा था।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “भूख के आगोश में ” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं  (वार्षिक)  का  सम्पादन  एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी  एक विचारणीय, संवेदनशील एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा –भूख के आगोश में “.)

💐 जीवेत शरद: शतम् 💐

💐आज 31 मार्च को डॉ कुँवर प्रेमिल जी का 77वां जन्मदिवस है 💐

आप सौ साल जिएं। आपका प्रत्येक दिन मंगलमय हो। सुख-समृद्धि से परिपूर्ण हो।  आपके जीवन में सुख-समृद्धि का आगमन हो। आप यशस्वी बनें। आप समृद्ध बने। आप सदैव स्वस्थ रहें। ई – अभिव्यक्ति परिवार की ओर से आपको आपके जन्मदिन पर शुद्ध अंतकरण से शुभकामनाएं। 🙏

☆ लघुकथा – भूख के आगोश में ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

(विश्व हिंदी साहित्य मॉरीशस की विश्व साहित्य पत्रिका 2023 में प्रकाशित इस लघुकथाके प्रकाशन के साथ ही आपकी 500 लघुकथाएं पूर्ण हुईं। अभिनंदन)

भूखी बेटी को स्तनपान कराती माँ स्वयं भूखी थी। बच्ची बुरी तरह रो रही थी और माँ के स्तन में दूध की अंतिम बूंद खोज रही थी।

माँ अपनी बेटी के भूख से आकुल-व्याकुल चेहरे पर तृप्ति देखने के लिए अपने दूध की अंतिम बूंदें भी कुर्बान कर देना चाहती थी।

‘गा–गूं-गा’ बच्ची, माँ से दूध की कुछेक बूंदों की मनुहार कर रही थी। उसके चेहरे का वात्सल्य क्रमशः गायब होता जा रहा था।

‘खजाना खाली है पुत्तर’ कहकर न जाने कब की भूखी माँ बेहोश हो गई। भूख के आगोश में माँ-बेटी दोनों ही बेहोश पाई गईं।

बेटी के मुंह में अपनी जीवनदायिनी का स्तन लगा हुआ था और माँ की आँखों से विवशता के आँसू बाहर निकल पड़ने को आतुर दिखाई दे रहे थे।

❤️

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 138 ☆ लघुकथा – सेंध दिल में ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा सेंध दिल में। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 138 ☆

☆ लघुकथा – सेंध दिल में ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

फ्लैट का दरवाजा खोलकर अंदर आते ही उसकी नजर सोफे पर रखी लाल रंग की साड़ी पर पड़ी। उसने पास जाकर देखा ‘अरे! यह कितनी सुंदर साड़ी है। लाल रंग पर सुनहरा बार्डर कितना खिल रहा है, चमक भी कितनी है साड़ी में। सुनहरे बार्डरवाली लाल साड़ी तो मुझे भी चाहिए। कब से दिल में है पर पैसे ना होने से हर बार मन मसोसकर रह जाती हूँ। ’ – उसने मन ही मन सोचा।

मालकिन के फ्लैट की चाभी उसी के पास रहती है पर वह घर की किसी चीज को कभी हाथ नहीं लगाती। ‘अपनी इज्जत अपने हाथ’ लेकिन आज साड़ी पर नजर पड़ी तो मानों अटक ही गई। काम करते-करते भी उसकी आँखें उसी ओर चली जा रही थीं। ‘आज क्या हो गया उसे?’ उसने अपने मन को चेताया ‘अरे! कमान कस!’। काम निपटाती जा रही थी लेकिन मन बेलगाम घोड़े की तरह उस साड़ी की ओर ही खिंचा चला जा रहा था।

‘साड़ी को एक बार हाथ से छूकर देखने का बहुत मन हो रहा है। ‘

‘ठीक नहीं है ना! मालकिन की किसी चीज को हाथ लगाना। ‘

‘पर कौन-सा पहन के देख रही हूँ साड़ी को, बस हाथ से छूकर देखना ही तो है’ – उसका मन तर्क–वितर्क करने लगा।

उसने धीरे से पैकेट खोलकर साड़ी निकाल ली- ‘अरे! कितनी मुलायम है, रेशम हो जैसे, सिल्क की होगी जरूर, बहुत महँगी भी होगी। मेमसाहब ऐसी ही साड़ी तो पहनती हैं’। साड़ी हाथ में लेकर वह आईने के सामने खड़ी हो गई। मन फिर मचला- ‘एक बार कंधे पर डालकर देखूँ क्या, कैसी लगती है मुझ पर? हाँ तह नहीं खोलूंगी, बस ऐसे ही डाल लूंगी। ‘ बड़े करीने से अपने कंधे पर साड़ी डालते ही वह चौंक गई –‘ओए! कितनी सुंदर दिख रही है मैं इस सिलक की लाल साड़ी में, गजब खिल रहा है रंग मुझ पर। ‘ खुशी से पागल- सी हो गई किसी को दिखाने के लिए, कैसे बताए कि वह इतनी सुंदर भी दिखती है। ‘बाप रे! सिलक की साड़ी की कैसी चमक है, मेरे चेहरे की रंग-रौनक ही बदल गई। इतनी अच्छी तो कभी दिखी ही नहीं, अपनी शादी में भी नहीं। ‘ हाथ मचलने लगे फोन उठाने को, ‘पति को एक वीडियो कॉल कर लूँ? नहीं-नहीं, वह नाराज होगा उसने पहले ही कहा था कि ‘साहब के घर कोई लोचा नहीं माँगता’, फिर क्या करे? अच्छा एक फोटो तो खींच ही लेती हूँ, पर क्या फायदा किसी को दिखा तो नहीं सकती?सबको पता है मेरी हैसियत।

 ‘किसी को नहीं दिखा सकती तो क्या, खुद तो देखकर खुश हो सकती हूँ?’ मालकिन की बड़ी ड्रेसिंग टेबिल के सामने जाकर वह खड़ी हो गई। आत्ममुग्ध हो खुशी में गुनगुनाने लगी। उसने आईने में स्वयं को भरपूर नजरों से देखा जैसे अपने उस रूप को आँखों में कैद कर लेना चाहती हो। वह जैसे अपनी ही आँखों में उतरती चली गई। पर तभी न जाने उसे क्या हुआ अचानक विचलित हो खुद पर बरस पड़ी -‘अरे! क्या कर रही है?मत् मारी गई है क्या? संभाल अपने मन को।

‘मैं तो बस साड़ी को छूकर देखना चाह रही थी- – कभी देखी नहीं ना, ऐसी साड़ी- वह मायूसी से बोली। ‘

‘माँ की बात याद है ना! एक छोटी-सी गलती इज्जत मिट्टी में मिला देती है। ‘

वह झटके से आईने के सामने से हट गई। बचपन में माँ ने दिल की जगह पत्थर का टुकड़ा लगा दिया था यह कहकर कि ‘लड़की जात और ऊपर से गरीब, गम खाना सीख। ‘

आज पत्थर दिल में सेंध लग गई थी?

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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