हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – * फूलों के कद्रदाँ * – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

फूलों के कद्रदाँ 

(कई लोगों को अड़ोस-पड़ोस, बाग-बगीचे सोसायटी गार्डेन से फूल चुराने  की एक आम बीमारी है। डॉ  कुन्दन सिंह परिहार  जी की पैनी कलम से ऐसी किसी भी सामाजिक बीमारी से ग्रस्त लोगों का बचना असंभव है। प्रस्तुत है फूल चुराने की बीमारी से ग्रस्त उन तमाम लोगों के सम्मान में  समर्पित एक व्यंग्य)
कहावत है कि मूर्ख घर बनाते हैं और अक्लमन्द उनमें रहते हैं। उसी तरह यह भी कहा जा सकता है कि मूर्ख फूल उगाते हैं और होशियार उनका उपभोग करते हैं।
यकीन न हो तो कभी सबेरे पाँच बजे उठकर दरवाज़े या खिड़की से झाँकने का कष्ट करें।अलस्सुबह जब अँधेरा पूरी तरह छँटा नहीं होता और फूलों के मालिक घर के भीतर ग़ाफ़िल सोये हुए होते हैं तभी हाथों में छोटे छोटे झोले और लकड़ियां लिये फूलों के असली कद्रदानों की टोलियां निकलती हैं।किसी भी घर में फूल देखते ही ये अपने काम में लग जाते हैं। फूल चारदीवारी के पास हुए तो फिर कहना क्या, अन्यथा जैसे भी हों,उन्हें तोड़कर झोले के हवाले किया जाता है।कई बार खींचतान में पूरी डाल ही टूट जाती है। फूलों का मालिक जब सोया था तब घर में बहार थी, सबेरे जब उठता है तो ख़िज़ाँ या वीराना मिलता है। ‘कल चमन था आज इक सहरा हुआ, देखते ही देखते ये क्या हुआ!’
फूलों की चोरी में कोई निचले दर्जे के लोग या छोकरे ही नहीं होते।इनमें ऐसे लोग भी होते हैं जिन्हें भद्र पुरुष या भद्र महिला कहा जाता है।इन्हें आप रंगे-हाथों पकड़ भी लें तब भी चोरी का इलज़ाम लगाना मुश्किल होता है।
एक सज्जन दूध का डिब्बा लेकर सपत्नीक निकलते हैं। दूध लेकर लौटते वक्त फूलों के दर्शन होते ही पति पत्नी दोनों एक एक पौधे पर चिपक जाते हैं। फायदा यह होता है कि दस मिनट का काम पाँच मिनट में मुकम्मल हो जाता है। स्त्री के साथ होने से मकान-मालिक के द्वारा कोई बड़ी बदतमीज़ी करने का भय कम रहता है।
एक महिला हैं जो स्लीवलेस ब्लाउज़ और मंहगी साड़ी पहन कर सुबह की सैर को निकलती हैं। ‘गंगा की गंगा, सिराजपुर की हाट’ की शैली में सैर के साथ फूलों का संग्रह होता चलता है।
एक और सज्जन हैं जो हाथ में लकड़ी लेकर निकलते हैं जिसके छोर पर कोई कील जैसी चीज़ है। वे चारदीवारी के पार से पौधे की गर्दन कील में फँसाकर अपनी तरफ खींच लेते हैं और फिर इत्मीनान से फूल तोड़ लेते हैं। कील की मदद से दूरियां नज़दीकियों में तब्दील हो जाती हैं।
एक साइकिल वाले हैं जो फूल देखते ही अपनी साइकिल धीरे से स्टैंड पर लगाते हैं और बड़ी खामोशी से झटपट फूल तोड़कर ऐसे आगे बढ़ जाते हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो। अमूमन साइकिल वाले से झगड़ा करने या उसे गालियाँ देने में फूल-मालिक को ज़्यादा दिक्कत नहीं होती।ये सज्जन भी कई बार फूल-मालिकों की गालियाँ खा चुके हैं, लेकिन वे ‘स्थितप्रज्ञ’ के भाव से आगे बढ़ जाते हैं। पीछे से कितनी भी गालियां आयें, वे पीछे मुड़ कर नहीं देखते, न ही उनके पुष्प-संग्रह के कार्यक्रम में कोई तब्दीली होती है।
कुछ महिलाएं घर की बेटियों को लेकर फूलों के विध्वंस को निकलती हैं। माताएँ एक तरफ खड़ी हो जाती हैं और बेटियाँ फूलों पर टूट पड़ती हैं। देश की भावी माताओं को ट्रेनिंग दी जा रही है।आगे यही माताएँ अपनी संतानों को फूल चुराने की ट्रेनिंग देंगीं। परंपरा आगे बढ़ेगी। पुण्य कमाने के काम में कैसा पाप?
किशोरों की टोलियाँ अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर पुष्प-संहार के लिए निकलती हैं। शायद इनके जनक-जननी घर में आराम से सो रहे होंगे।जब पुत्र अपने विजय-अभियान से लौटेंगे तब माता-पिता नहा धो कर पूजा-पाठ में लगेंगे। देश की अगली पीढ़ी का ज़रूरी प्रशिक्षण हो रहा है।आगे रिश्वतखोरी और कमीशन-खोरी करने में दिक्कत नहीं होगी।अभी से मन की हिचक निकल जाये तो अच्छा है। शायद इसी को अंग्रेजी में ‘पर्सनैलिटी डेवलपमेंट’ कहते हैं। ये लड़के उन्हें बरजने वाले गृहस्वामियों को दूर से कमर हिलाकर मुँह चिढ़ाते हैं। बात बढ़े तो पत्थर भी फेंक सकते हैं।
एक दिन सबेरे सबेरे हल्ला-गुल्ला सुना तो आँख मलते बाहर निकला।देखा, सामने के मकान वाले नवीन भाई स्लीवलेस ब्लाउज़ वाली मैडम से उलझ रहे थे।
मैडम गुस्से से कह रही थीं,’थोड़े से फूल तोड़ लिये तो कौन सी आफत आ गयी। फूल कोई खाने की चीज़ है क्या?’
नवीन भाई ने उसी वज़न का उत्तर दिया,’आपको पूछ कर फूल तोड़ना चाहिए था। इस तरह चोरी करना आपको शोभा नहीं देता।’
मैडम चीखीं,’व्हाट डू यू मीन?मैं चोर हूँ? जानते हैं मेरे हज़बैंड मिस्टर सोलंकी आई ए एस अफसर हैं।’
नवीन भाई हार्डवेयर के व्यापारी हैं।आई ए एस का नाम सुनते ही वे ‘हार्डवेयर’से बिलकुल ‘साफ्टवेयर’ बन गये। हकलाते हुए बोले,’मैडम,मेरा मतलब है आप कहतीं तो मैं खुद आपको फूल दे देता।’
मैडम बोलीं,’वो ठीक है, लेकिन आप किस तरह से बात करते हैं! आप में ‘मैनर्स’ नहीं हैं।’
वे अपना झोला नवीन भाई की तरफ बढ़ाकर बोलीं,’आप अपने फूल रख लीजिए।आई डोंट नीड देम।’
नवीन भाई की घिघ्घी बँधने लगी, बोले,’नईं नईं मैडम।आप फूल रखिए। मैंने तो यों ही कहा था।आप रोज फूल ले सकती हैं।गुस्सा थूक दीजिए।’
मैडम अपना झोला लेकर चलने लगीं तो पीछे से नवीन भाई बोले,’अपने हज़बैंड से,मेरा मतलब है ‘सर’ से, मेरा नमस्ते कहिऐगा।’
फूल चुराने वालों में से कइयों को देखकर ऐसा लगता है कि वे महीनों नहाते नहीं होंगे। फिर सवाल यह उठता है कि वे किस लिए फूल चुराते हैं?लगता यही है कि ये सज्जन दूसरों को पुण्य कमाने में मदद करते होंगे। इस बहाने आधा पुण्य उन्हें भी मिल जाता होगा।
पूछने पर कुछ पुष्प-चोरों से मासूम सा जवाब मिलता है कि देवता पर चोरी के फूल चढ़ाने से ज़्यादा पुण्य मिलता है। उस हिसाब से अगर देवता पर चढ़ाने के लिए दूकानों से नारियल और प्रसाद चुराये जाएं तो पुण्य की मात्रा दुगुनी हो जाएगी।
© कुन्दन सिंह परिहार

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – * नई थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी – रिलेटिंग मॉडर्न इंडिया विथ प्राचीन भारत * – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

नई थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी – रिलेटिंग मॉडर्न इंडिया विथ प्राचीन भारत

(प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का नवीन , सटीक एवं सार्थक व्यंग्य ।  इसके संदर्भ में मैं कुछ लिखूँ/कहूँ इससे बेहतर है आप स्वयं पढ़ें और अपनी राय कमेन्ट बॉक्स में  दें तो बेहतर होगा।)

समानान्तर नोबेल पुरस्कार समिति ने रसायन शास्त्र, भौतिकी और चिकित्सा विज्ञान श्रेणी में अलग अलग पुरस्कार देने की बजाए वर्ष 2019 का विज्ञान समग्र पुरस्कार प्रोफेसर रामप्रबोध शास्त्री को देने का निर्णय किया है. चयन समिति के वक्तव्य के कुछ अंश इस प्रकार हैं.

प्रो. शास्त्री ने कौरवों के जन्म की मटका टेक्नोलॉजी को आईवीएफ टेक्नॉलोजी या टेस्ट ट्यूब बेबीज से रिलेट किया है. उन्होंने बताया कि उस काल में मटका-निर्माण की कला अपने चरम पर थी. कुम्भकार मल्टी-परपज मटके बनाया करते थे. गृहिणियों का जब तक मन किया मटका पानी भरने के काम लिया. जब संतान पाने का मन किया, उसी में फर्टिलाइज्ड ओवम निषेचित कर दिए. मटका टेक्नोलॉजी परखनलियों के मुकाबिल सस्ती पड़ती थी. सौ से कम कौड़ियों में काम हो जाता था और बेबीज के पैदा होने की सक्सेज रेट भी हंड्रेड परसेंट थी. सौ के सौ बालक पूर्ण स्वस्थ. नो इशू एट द टाईम ऑफ़ डिलीवरी कि पीलिया हो गया, कि इनक्यूबेटर में रखो. वैसे आवश्यकता पड़ने पर उसी मटके को उल्टा रख कर इनक्यूबेटर का काम भी लिया जा सकता था. इस तरह उन्होंने मॉडर्न टेक्नॉलोजी को प्राचीन टेक्नॉलोजी से रिलेट तो किया ही, प्राचीन टेक्नॉलोजी को बेहतर निरुपित किया. प्रो. शास्त्री का दावा है कि उन्होने जो रिलेटिविटी कायम करने का काम किया है उससे दुनिया भर के वैज्ञानिक तो चकित हैं ही अल्बर्ट आईंस्टीन की आत्मा भी चकित और मुदित है.

प्रो. शास्त्री ने महाभारत काल में संजय की दिव्य-दृष्टि को लाईव टेलीकास्ट से भी रिलेट किया है. पूर्णिया, बिहार से प्रकाशित साईंस जर्नल ‘प्राचीन विज्ञानवा के करतब’ में प्रो. शास्त्री ने बताया कि टीवी का अविष्कार प्राचीन विज्ञान का ही एक करतब है. संजय की दिव्यदृष्टि और कुछ नहीं बस एक डीटीएच चैनल था जो युध्द का सीधा प्रसारण किया करता था. आज भी नियमित रूप से योगा करने से ऐसी दिव्य दृष्टि प्राप्त की जा सकती है. एक बार दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई तो आप केबल की मंथली फीस और नेटफ्लिक्स का खर्च बचा सकते हैं. उन्होंने अपने अनुसन्धान कार्य से यह भी सिद्ध किया है कि इन्टरनेट तब भी था. नारद मुनि केवल मुनि नहीं थे, वे गूगल टाईप एक सर्च इंजिन थे जिन्हें दुनिया-जहान की जानकारी थी.

प्रो. शास्त्री की अन्य उपलब्धियों में पक्षियों की प्रजनन प्रक्रिया के अध्ययन के उनके निष्कर्ष भी हैं. वे बताते हैं कि मोर संसर्ग नहीं किया करते. मोर रोता है तो उसके आंसू पीने से मोरनी गाभिन हो जाती है. वे अब इस परियोजना पर कार्य कर रहे हैं कि यही प्रक्रिया होमो-सेपियंस, विशेष रूप से मानव प्रजाति में कैसे लागू की जा सकती है. उनके अनुसन्धान के सफल होते ही सामाजिक संरचना में क्रांतिकारी परिवर्तन आने की संभावना है.

प्रो. शास्त्री ने बायोलॉजिकल एन्थ्रोपोलॉजीकल स्टडीज को लेकर जो शोध-पत्र सबमिट किया है उसमें उन्होंने इस अवधारणा को भी ख़ारिज किया है कि हमारे पूर्वज बन्दर, चिम्पांजी या गोरिल्ला थे. इसके लिए वे सल्कनपुर के जंगलों में कई बार एक्सपेडिशन पर भी गए और बहुत ढूँढने की कोशिश की, कोई तो ऐसा आदमी मिले जिसने बन्दर को आदमी में बदलते देखा हो. अफ़सोस उन्हें कोई ऐसा नहीं मिला. स्वयं का वंशवृक्ष बहुत पीछे जाने पर भी सरयूपारीय ब्राह्मण ही मिला. अंततः उन्होंने इस अवधारणा को सिरे से ख़ारिज कर दिया है कि हमारे पूर्वज बन्दर थे.

प्रो. शास्त्री ने खगोल विज्ञान के क्षेत्र में भी महत्पूर्ण कार्य किया है. जहाँ अन्य वैज्ञानिक कुछेक सालों का आगे का सूर्य और चन्द्र ग्रहण अनुमानतः बता पाते हैं, प्रो. शास्त्री का डिजाइन किया हुआ लाला रामनारायण रामस्वरूप, जबलपुरवाले का पंचांग देखकर कोई भी पंडित हजारों वर्ष आगे के ग्रहण का समय बता सकता है.

प्रो. शास्त्री ने पर्यावरण के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय कार्य किया है. हवा में घटती ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ाने के लिए b3t1=O2 का नया फ़ॉर्मूला ईज़ाद किया है. वे सिद्ध करके बताते हैंकि तीन या उससे अधिक बतखें(b3) पानी के एक तालाब(t1) में तैरने से सिक्स पीपीम अतिरिक्त ऑक्सीजन (O2) का निर्माण होता है. सबसे कम बतखें दिल्ली में हैं इसीलिए वहां वायु प्रदूषण सर्वाधिक है.

प्रो. शास्त्री अपनी अवधारणाओं, निष्कर्षों को साईंस जर्नलों तक सीमित नहीं रखते बल्कि उसे दीक्षांत समारोहों, विज्ञान परिषदों, विज्ञान मेलों, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों, विश्व विद्यालयों, के अलावा राजनैतिक मंचों पर भी संबोधित करते हुए तार्किक ढंग से रखते हैं. इस प्रकार वे विज्ञान के प्रसार के क्षेत्र में कार्ल सेगान और स्टीफन हॉकिंस को भी पीछे छोड़ते हैं. आनेवाले समय में जिम्मेदार मंचों पर हमें उनसे और प्रो.रा.प्र.शा. स्कूल ऑफ़ साईंसेस के विद्यार्थियों से ऐसे और भी आकलन पढ़ने, सुनने को मिलेंगे.

अंत में, प्रो. शास्त्री ने रिलेटिंग मॉडर्नसाईन्स विथ प्राचीन भारत विज्ञान की जो नई थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी दी हैं,सरकारें अब उनका संज्ञान ले रही हैं. सरकार और शोध संस्थाएँ अनुसन्धान के क्षेत्र में हो रहे डुप्लीकेशन पर गंभीरता से विचार कर रही हैं. व्हाय टू रिइनवेंट अ व्हील. जो अनुसंधान हजारों वर्ष पूर्व हो चुके हैं उनकी वर्तमान परियोजनाओं को बंद करके संसाधनों की  बचत की जा सकती है. आर्यावर्त में हज़ारों वर्ष पूर्व हो चुके अनुसन्धान गर्व के विषय हैं. जब गर्व से ही काम चला सकता हो तो इतनी प्रयोगशालाएँ चलाना ही क्यों ? समान्तर नोबेल पुरस्कार चयन समितिइस विचार से शत-प्रतिशत सहमति रखती है. इसीलिए विज्ञान के क्षेत्र में दिये गए प्रो. रामप्रबोध शास्त्री के अवदान का सम्मान करते हुए उन्हें वर्ष 2019 के विज्ञान समग्र का पुरस्कार दिए जाने की सर्वसम्मति से अनुशंसा करती है.

 

© श्री शांतिलाल जैन 
मोबाइल : 9425019837

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – * बापू बड़े काम की चीज * – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

गणतंत्रता दिवस विशेष 
श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

बापू बड़े काम की चीज

(गणतन्त्र दिवस पर सब बापू के भोंपू बजाने की तैयारी में हैं। प्रख्यात व्यंग्यकार श्री विवेक  रंजन  श्रीवास्तव जी   इसे कैसे देखते हैं बांचिये)
शहर के मुख्य चौराहे पर बापू का बुत है, उसके ठीक सामने, मूगंफली, उबले चने, अंडे वालों के ठेले लगते हैं और इन ठेलों के सामने सड़क के दूसरे किनारे पर, लोहे की सलाखों में बंद एक दुकान है, दुकान में रंग-बिरंगी शीशीयां सजी हैं. लाइट का डेकोरम है,अर्धनग्न तस्वीरों के पोस्टर लगे है, दुकान के ऊपर आधा लाल आधा हरा एक साइन बोर्ड लगा है-  “विदेशी शराब की सरकारी दुकान”।  इस बोर्ड को आजादी के बाद से हर बरस, नया ठेका मिलते ही, नया ठेकेदार नये रंग-पेंट में लिखवाकर, तरीके से लगवा देता है।  आम नागरिकों को विदेशी शराब की सरकारी दूकान से निखालिस मेड इन इंडिया, देसी माल  भारी टैक्स वगैरह के साथ सरे आम देर रात तक पूरी तरह नगद लेनदेन से बेचा जाता है.  यह दुकान सरकारी राजस्व कोष की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है।  प्रतिवर्ष जन कल्याण के बजट के लिये जो मदद सरकार जुटाती है, उसका बड़ा भाग शहर-शहर  फैली ऐसी ही दुकानों से एकत्रित होता है।  सरकार में एक अदद आबकारी विभाग इन विदेशी शराब की देसी दुकानों के लिये चलाया जा रहा लोकप्रिय विभाग है।  विभाग के मंत्री जी हैं, जिला अधिकारी हैं, सचिव है और इंस्पेक्टर वगैरह भी है। शराब के ठेकेदार है। शराब के अभिजात्य माननीय उपभोक्ता आदि हैं। गांधी जी का बुत गवाह है, देर रात तक, सप्ताह में सातों दिन, दुकान में रौनक बनी रहती है। सारा व्यवसाय नगद गांधी जी की फोटू वाले नोटो से ही होता है।  शासन को अन्य कार्यक्रम ऋण बांटकर, सब्सडी देकर चलाने पड़ते है। सर्वहारा वर्ग के मूंगफली, अंडे और चने के ठेले भी इस दुकान के सहारे ही चलते है।  “मंदिर-मस्जिद बैर कराते, मेल कराती मधुशाला” हरिवंशराय बच्चन जी की मधुशाला के प्याले का मधुरस यही है। इस मधुरस पर क्या टैक्स होगा, यह राजनैतिक पार्टियों का चंदा तय करने का प्रमुख सूत्र है। गांधी जी ने जाने क्यों इतने लाभदायक व्यवसाय को कभी समझा नहीं, और शराबबंदी,  जैसी हरकतें करते रहे। आज उनके अनुयायियी कितनी विद्वता से हर गांव, हर चौराहे पर, विदेशी शराब का देसी धंधा कर रहे हैं।  गांधी जी का बुत अनजान राहगीर को पता बताने के काम भी आता है , गुगल मैप और हर हाथ में एंड्राइड  फोन आ जाने से यह प्रवृत्ति कुछ कम हुई है, पर अब गांधी जी गूगल का डूडल बन रहे हैं।
राष्ट्रपिता को कोई कभी भी न भूले इसलिये हर लेन देन की हरी नीली, गुलाबी मुद्रा पर उनके चित्र छपवा दिये गये  हैं. ये और बात है कि प्रायः ये हरी नीली गुलाबी मुद्रा बड़े लोगो के पास पहुंचते पहुंचते जाने कैसे बिना रंग बदले काली हो जाती है. हर भला बुरा काम रुपयो के बगैर संभव नही, तो रुपयो में प्रिंटेड बापू देश के विकास में इस जेब से उस जेब का निरंतर अनथक सफर कर रहे हैं।  वो तो भला हो मोदी जी का जिसने बापू की इस भागम भाग को किंचित विश्राम दिया, रातो रात बापू के करोड़ो को बंडलो के बंडल बंद कर दिया. फिर डिजिटल ट्रांस्फर की ऐसी जुगत निकाली कि अब कौन बनेगा करोड़पति में हर रात अमिताभ बच्चन पल भर में करोड़ो डिजिटली ट्रांस्फर करते दिखते हैं, बिना गांधी जी को दौड़ाये गांधी जी इस खाते से उस खाते में दौड़ रहे हैं।
बापू की रंगीन फोटू हर  मंत्री और बड़े अधिकारी की कुर्सी के पीछे दीवार पर लटकी हुई है, जाने क्यो मुझे यह बेबस फोटो ऐसी लगती है जैसे सलीब पर लटके ईसा मसीह हों, और वे कह रहे हो, हे राम ! इन्हें माफ करना ये नही जानते कि ये क्या कर रहे हैं।
बापू की समाधि केवल एक है।  वह भी दिल्ली में यमुना तीरे. यह राजनेताओ के अनशन करने, शपथ लेने, रूठने मनाने, विदेशी मेहमानो को घुमाने और जलती अखण्ड ज्योति के दर्शनों के काम आती है।  लाल किले की प्राचीर से भाषण देने जाने से पहले हर महान नेता अपनी आत्मा की रिचार्जिंग के लिये पूरे काफिले के साथ यहां आता है। अंजुरी भर गुलाब के फूलो की पंखुड़ियां चढ़ाता है और बदले में बापू उसे बड़ी घोषणा करने की ताकत दे देते हैं।
बापू से जुड़े सारे स्थल नये भारत के नये पर्यटन स्थल बना दिये गये हैं। सेवाग्राम, वर्धा,वगैरह स्थलो पर देसी विदेशी मेहमानो की सरकारी असरकारी मेहमान नवाजी होती है।  इस पर्यटन का प्रभाव यह होता है कि कभी कोई बुलेट ट्रेन दे जाता है, तो कभी परमाणु ईधन की कोई डील हो पाये ऐसा माहौल बन जाता है।
इन दिनो बापू  को हाईजैक करने के जोरदार अभियान हो रहे हैं. कांग्रेस बेबस रह गई और मोदी जी ने गांधी जी से उनकी सफाई की जिम्मेदारी ही छीन ली. वह भी उनके जन्म दिन पर, उन्होने सारे देशवासियो पर यह जिम्मेदारी ट्रांस्फर कर दी है।  अब देश में मार्डन साफ सफाई दिखने लगी है।  हरे नीले पीले कचरे के डिब्बे जगह जगह रखे दिखते हैं।  वैक्यूम क्लीनर से हवाई अड्डो और रेल्वे स्टेशनो पर वर्दी पहने कर्मचारी साफ सफाई करते दिखते हैं।  थियेटर,  माल वगैरह में पेशाब घर में तीखी बद्बू की जगह डी-ओडरेंट की खुश्बू आती है।  कचरा खरीदा जा रहा है और उससे महंगी बिजली बनाई जा रही है।  ये और बात है कि गांधी जी के बुत पर जमी धूल नियमित रूप से हटाने और उन पर बैठे कबूतरो को उड़ाने के टेंडर अब तक किसी नगर पालिका ने नही किये हैं।
बापू का एक और शाश्वत उपयोग है, जिस पर केवल बुद्धिजीवीयो का एकाधिकार है। गांधी भाषण माला, पुरस्कार व सम्मान,  गांधी जयंती, पुण्यतिथी या अन्य देश प्रेम के मौको पर गांधी पर, उनके सिद्धांतो पर किताब छापी जा सकती है, जो बिके न बिके पढ़ी जाये या नही पर उसे सरकारी खरीद कर पुस्तकालयो में भेजा जाना सुनिश्चित होता है। गांधी जी, बच्चो के निबंध लिखने के काम भी आते हैं और जो बच्चा उनके सत्य के प्रयोगो व अहिंसा के सिद्धांतो के साथ ही तीन बंदरो की कहानी सही सही समझ समझा लेता है उसे भरपूर नम्बर देने में मास्साब को कोई कठिनाई नही होती।  फिल्म जगत भी जब तब गांधी जी को बाक्स आफिस पर इनकैश कर लेता है, कभी “मुन्ना भाई” बनाकर तो कभी “गांधी” बनाकर।  जब जब देश के विकास के शिलान्यास, उद्घाटन होते हैं लाउडस्पीकर चिल्लाता  है “साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल, दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना भाल।”
सच है ! गांधी से पहले, गांधी के बाद, पर हमेशा गांधी के साथ देश प्रगति पथ पर अग्रसर है। गुजरे हुये बापू भी देश के विकास में पूरे सवा लाख के हैं !

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – *एक शेरनी सौ लंगूर* – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

जय प्रकाश पाण्डेय

एक शेरनी सौ लंगूर

(प्रस्तुत है श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी  का यह सटीक  व्यंग्य)

एक साल पहले सरकारी फंड से बने स्कूल की दीवार इस बरसात में भरभरा के गिर गई  तो दुर्गा पंडित जी  पड़ोस के खपरैल मकान की परछी में टाट पट्टी बिछा कर क्लास लगाने लगे। गांव के स्कूल की दीवारों पर ‘स्कूल चलें हम’ की इबारत लिखी देखकर कई बच्चे बिचक जाते फिर दुर्गा पंडित जी छड़ी लेकर उनको हकालते। बीच-बीच में गाली भी बकते जाते, बात बात में गाली बकना उनकी आदत ही है।
स्कूल में पहले प्रार्थना होती, फिर भजन होते हैं। जो बच्चा भजन नहीं गाता पंडित जी उसके पिछवाड़े में छड़ी चलाते । दुर्गा पंडित जी भजनों के बहुत शौकीन हैं। जब से उन्होंने अखबार में भजन गाने वाले डुकर की छोटी परी जस लीन की खबर पढ़ी है तब से उनको…….  “ऐसी लागी लगन’  वो भी हो गई मगन………” वाला भजन बार बार याद आता है। मेज में छड़ी पटकने के साथ पीरियड चालू हो जाता है, काले श्याम पट पर चाक से दिन और दिनांक लिख दी जाती है ।
छड़ी उठी छकौड़ी की तरफ…. “हां, तो छकौड़ी अपने प्रधानमंत्री का नाम बताओ?”
छकौड़ी – “भजन करेंगे… भजन करेंगे…. उनका नाम कल किसी से पता करेंगे…..”
छड़ी बढ़ी छकौड़ी के घुटने पर पड़ी।
दुर्गा पंडित जी बड़बड़ाने लगे – “बुरा हाल है शिक्षा का… मोबाइल ने बर्बाद कर दिया, सरकार शिक्षा पर ज्यादा प्रयोग करती रहती है स्कूल चलें हम लिखवाती है और  नकली डिग्री के बल पर लोग शिक्षा के मंत्री बन जाते हैं।आजकल की औलाद बहुत उज्जड्ड है कुछ पूछो कुछ बताती है। भजन गायक हारमोनियम बजा बजा के  “भजन बिना, चैन न आये राम “
गाते गाते नयी उमर की बाला के प्यार में पड़ जाते हैं बच्चे सुनते हैं तो हंसते हैं। बच्चों का मन भटकने लगता है। मन भटकने से वे प्रधानमंत्री का नाम तक नहीं बता पाते हैं।बच्चे भोले होते हैं धारा 377 में कैसा – क्या होता है बार बार पूछते हैं। मास्टर जी नहीं बता पाते तो बाहर जाकर हंसी उड़ाते हैं। मोबाइल युग के बच्चे बड़े समझदार हो गए हैं, दुर्गा पंडित जी भजन गाते हुए पड़ोसन के घर घुसते हैं तो बच्चे तांका झांकी करते हैं। हंसते हैं….. मजाक उड़ाते हैं, फिर मेडम के पास धारा 497 का मतलब पूछने जाते हैं। मेडम चाव से अखबार पढ़ कर एडल्टरी के बारे में पूरी बात बताती हैं।  एक  बार-बार फेल होने वाला हृष्ट पुष्ट बच्चा मेडम को प्यार से देखता है। मेडम शादीशुदा हैं पर पति से चिढ़ती हैं पति महिलाओं की भजन मंडली में हारमोनियम बजाते हैं।
लंच टाइम के बाद फिर छड़ी उठी और सरला की चोटी में फँस गयी। सरला तुम जलोटा का संधि विग्रह करके श्याम पट में लिखो। सरला होशियार है उठ कर शयामपट में लिख देती है… ”  जलो +टाटा”
दुर्गा पंडित जी बताते हैं कि भजन में बड़ी शक्ति होती है और भजन में बड़ा वजन होता है भजन से तनाव दूर होता है और भजन करते करते मन जस लीन में लीन हो जाता है।
चुनाव के पहले बड़े बड़े अविश्वसनीय ऐतिहासिक पार्टी सुधारक फैसले आ रहे हैं कई बड़े नेता इन फैसलों से खुश हैं और नेता जी की बड़ी जीत बताते हैं। अभी अभी खबर आयी है कि “वो आ गई है” फिर से गली मोहल्ले की चौपाल में लोग बड़बड़ायेंगे…
“एक शेरनी सौ लगूंर”
शेरनी के फैसलों से हर गली मुहल्ले में नयी नयी भजन मंडलियां बनेगीं और बच्चे नयी नवेली संस्कृति से परिचित होंगे। नये नये रोमांचक रहस्यमय वीडियो वाईरल होंगे। लोग मजे लेंगे दवाईयों की दुकान में खास तरह की दवाईयों और तेल की मांग बढ़ जाएगी। स्कूलों के टायलेट में सीसीटीवी लगाने का धंधा बढ़ जाएगा। चुनाव और तीज त्योहारों में हारमोनियम बजाने वाले की डिमांड बढ़ जाएगी। दुख है कि तब तक दुर्गा पंडित जी रिटायर हो जाएंगे और खटिया में डले डले टी वी में भजनों के कार्यक्रम भी देखेंगे और देखेंगे यू पी के रिजल्ट……. ।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – * ए.टी.एम. में प्रेम * – श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

ए.टी.एम. में प्रेम

(e-abhivyakti में सुप्रसिद्ध लेखक/व्यंग्यकार श्री रमेश सैनी जी का स्वागत है।) 

जब ए.टी.एम. नहीं थे तब सबको एक तारीख का इंतजार रहता था, भले यह इंतजार  से 2 तारीख से चालू हो जाता था। यह इंतजार सुनहरे सपनों की तरह था जो महीना भर साथ रहता था। मर्दों को एक तारीख का बहाना मिल जाता ‘‘घबड़ाओ नहीं एक तारीख को तुम्हारी सब इच्छाएं पूरी कर दूंगा। इस इंतजार में शेष समय शांति से बीत जाता। बच्चे भी खुश  और उनकी मां भी खुश । एक तारीख से हफ़्ते भर पहले पत्नी के उलझे बाल संवरने लगते। चेहरे पर रंग-रोगन की चमक आ जाती।  शाम को पत्नी सज-संवरकर तीखी मुस्कान से स्वागत करती। यह सिलसिला हफ़्ता भर चलता। इन दिनों सूखे में भी हरियाली रहती और पति भी चाहता था कि एक तारीख को सारी मांग पूरी कर दे। यह नाटक सिर्फ आखिरी दिनों में ही करना पड़ता और आखिरी दिनों में गीले आटे से सने हाथ, उलझी जुल्फों के साथ ओरिजनल साफ-सुथरी षकल दिखती। एक तारीख तो खास होती, उस दिन सोला टका नगद तनख्वाह मिलती, न कोई झंझट न कोई लफड़ा। ये भारतीय परिवार के अच्छे दिन थे। यह भी अधिक दिन नहीं चल पाया।

एक दिन सरकारी फरमान आ गया, आप लोगों का वेतन आपके खाते में डाल दिया जायेगा। जिस दिन से पत्नियों ने बैंक वाला फरमान सुना तबसे वे जरूरत  के समय ही समर्पित और शेष दिन अपनी मर्जी की जि़्न्दगी जीतीं। बैंक के भी मजे थे, नया-नया खाता था। पासबुक शानदार कवर चढ़ाकर रखते थे। बच्चे पासबुक को बड़ी ललक भरी नज़रों से देखते थे। उनकी इच्छा होती कि उसे स्पर्श कर लें, पर तुरन्त डांट पड़ जाती – यह गंदी हो जायेगी, यह बहुत कीमती चीज़ है। पत्नी को तो पासबुक दिखाते ही नहीं। अगर वह कहती – अपनी पासबुक दिखाओ। तब हम उसे टरका देते – तुम्हारे हाथ गंदे हैं, खराब हो जायेगी या अभी समय नहीं है, बाद में देख लेना। कुछ इसी तरह के बहाने बना देते और उसे पासबुक से दूर रखते। पढ़ी-लिखी पत्नियों के खतरे अधिक हैं और फायदे कम, वे पैसे के मामले में समझदार अधिक होती हैं, पासबुक में जमा राशि  पर उनकी नज़र  रहती है, अतः सावधान रहना पड़ता है।

बैंक से पैसे निकालने के हमने अनेक तरीके ईजाद  किये। जिस दिन पैसा निकालने बैंक जाते, उस दिन हमारी खास सेवा- सुश्रुशा होती। खाली चाय नहीं, साथ में तगड़ा नाश्ता भी होता। हमको सजा-संवरा देख मोहल्ले वाले टोक देते – ‘‘गुप्ता जी बैंक जा रहे हो!’’ जाने के पहले हम चैकबुक निकालते, बच्चों को दिखाते, देखो इसे चेक कहते हैं। इस कागज के टुकड़े पर बैंक वाला हमें पैसे दे देगा। चेक को बुक से सावधानी से अलग करते, दो-चार बार उलटते-पलटते, फिर पत्नी से पूछते – ‘‘कितना लाना है।’’ वह जितना बताती उससे अधिक पैसा निकालते, शेष अपनी जेब में और बाकी से थमा देते। चेक में रकम भरते, अंकों में लिखते और दस्तखत करने के पूर्व दो चार बार बारीकी से चैक करते – यदि स्कूल और काॅलेज की परीक्षाओं में कापी जमा करने के पहले इतनी बारीकी से चैक करते तो शायद अपनी इस स्थिति का मलाल न रहता – तब दस्तख़त करते, फिर अपने ही दस्तख़त पर मंत्र-मुग्ध होते – ‘‘क्या शानदार हैं, क्या पाॅवर है हमारे दस्तख़तों में।’’ बैंक जाते, दो-चार लोगों से मेल मुलाकात करते – ‘‘देखो हमारा भी बैंक में खाता है, या हम भी बैंक वाले हैं। उसका रुआब ही अलग होता। पहले बैंक में खाता होना एक स्टेटस था। पर आज बैंक से लोन लेना स्टेटस होता है। लोग शान से बताते हैं – ‘हमने फलाने बैंक से इतना लोन लिया है। हमारी इतनी लिमिट हो गयी है। खाते में बिना पैसे के इस लिमिट तक पैसा निकाल सकते हैं। क्या उधार लेना सम्मान की बात हो गयी है? कि लोन लो और वापिस मत करो। लोन लो, भूल जाओ। टेंशन मत लो। फिर तो बैंक का टेंशन हो जाता है, आपका टेंशन, बैंक का टेंशन । आप टेंशन-मुक्त।

खैर दिन गुजरने लगे। चैक से पैसे निकलते रहे। फिर एक दिन एक दिन एक दुर्घटना घटी एक दिन बैंक से पैसे निकालने गये कि बाबू ने फार्म पकड़ा दिया और कहा – ‘‘बस नीचे सुन्दर हस्ताक्षर कर दो, शेष  फाॅर्म हम भर देंगे। अब अगले महीने से हमारे पास पैसे लेने मत आना। आपके पास एक कार्ड आएगा, जिससे बाहर लगी मशीन से ज़रूरत  के मुताबिक पैसा निकाला जा सकता है। हमने कहा – ‘‘मशीन से कैसे पैसा निकालेंगे।’’ तब उसने कहा – ‘‘आप कार्ड लेते आना, हम तरीका समझा देंगे।‘‘ एक दिन कार्ड आ गया, जिसे लेकर हम बैंक पहुंचे और बाबू से कहा, अब बताओ इससे कैसे निकलेगा पैसा? उसने पैसा निकालने का तरीका समझाया, जो आसान था। एक मित्र ने बताया, इसे मात्र कार्ड भर न समझो, यह लक्ष्मी है, लक्ष्मी! इसे संभाल कर रखो। तब से हम उसे पूजते, एहतियात बरतते और पत्नी-बच्चों से बचाकर लाॅकर में रखते।

इस तरह जिंदगी अच्छी खासी चल रही थी कि एक दिन नोटबंदी की घोषणा हो गयी। मशीन ने नोट उगलना बंद कर दिया। अब स्थिति यह हो गयी कि बैंक और मशीनों में ‘नोट देने रुकावट के लिए खेद’ का बोर्ड लगा दिया गया। बैंक के सामने लंबी लाइन लग गईं। अब अख़बारों में समाचार और विज्ञापन छपेंगे कि फलानी जगह का फलाना एटीएम बंद है, अतः आप कष्ट  न करें। इससे एटीएम का नये ढंग से उपयोग होने लगा।

अब अपना पैसा भी लाईन में लगकर लो। बैंक वाला तो, ‘अंधा बांटे रेवड़ी, चीन्ह-चीन्ह कर देय।’ अपना पैसा लो और अपमान ब्याज में, मन चाहा पैसा भी नहीं ले सकते हैं। जितना मशीन कहेगी, उतना ही मिलेगा, वह भी जेन्टलमेन की भांति कतार में लगकर। अब मशीन भी धोखा दे देती, उसका पूरा आदेश का  पालन करो, फिर अंत में कह देती है, पैसा नहीं है, कष्ट के लिए खेद है। कभी-कभी तो यह स्थिति आई कि गार्ड बाहर से ही टरका देता। हम एक दिन पड़ौस के एटीएम पहुंचे, बाहर गार्ड साहब ने दूर से ही रोका, ‘बाबूजी मशीन में रुपया नहीं है।‘ हमने कहा, ‘कोई बात नहीं, अपना बेलेंस पता कर लेंगे।’

– उससे क्या फायदा?

– अपना जमा पैसा मालूम हो जायेगा।

– कोई फायदा नहीं मशीन बंद है।

अंदर से कुछ खटपट की आवाज़ आ रही थी। हमारा संवाद सुन एक युवा जोड़ा लगभग चिपका हुआ बाहर निकला। दोनों हाथों में हाथ डाले मुस्कराते हुए आगे बढ़ गये।

मैंने पूछा – यह क्या है?

गार्ड ने कहा – प्रेम…!

– प्रेम, मशीन में प्रेम, पर मशीन तो बंद है।

– सर, मशीन बंद है पर उसका ए.सी. चालू है। बहुत सुकून मिलता है उन्हें।

– और तुम क्या कर रहे हो?

– सर मशीन बंद है, तो हम भी पुण्य कमा रहे हैं।

© रमेश सैनी 

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – *सूरज को मोमबत्ती सेल्स एशोसियेशन बरेली का फर्स्ट जुगनू अवार्ड * – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

सूरज को मोमबत्ती सेल्स एशोसियेशन बरेली का फर्स्ट जुगनू अवार्ड 

(प्रस्तुत है श्री विवेक  रंजन  श्रीवास्तव जी  का  एक  कस्बे   से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रदान किए जाने वाले अवार्ड/ सम्मान /पुरस्कार  आदि  पर  एक सटीक एवं सार्थक व्यंग्य।)

मुझे मेरे व्यंग्य की सचाई, निरंतरता, भाषा और कटाक्ष की क्षमता के लिये कोई भी बड़ी, छोटी साहित्यिक संस्था कभी भी शाल , श्रीफल ,स्मृति चिन्ह व सम्मान पत्र और हो सके तो कुछ नगदी से सम्मानित कर सकती है. इससे उस संस्था और पुरस्कार का ही गौरव बढ़ेगा. मैं तो जैसा लिख रहा हूं, छप रहा हूं, लिखता छपता ही रहूंगा. सच को सच कहना गर्व का विषय ही होता है. ग्राम पीपरीकंला, पोस्ट आफिस झुंझनी की विश्व साहित्य विकास परिषद ने पोस्टकार्ड लिखकर मुझे सूचित किया है कि वे मात्र १००० रुपये सदस्यता शुल्क जमा करने पर मुझे व्यंग्य सम्राट के खिताब  से अलंकृत करना चाहते हैं, जिसके लिये मेरा चयन संस्था की विद्वत समिति कर चुकी है.

हमारा परिवार लेखकीय परिवार है. हमारा नाम, पता, ईमेल और फोन नम्बर तक हमारी रचनाओ के साथ सार्वजनिक है. मतलब उतनी  जानकारी जितनी के लिये आधार कार्ड या फेसबुक की गोपनीयता नीति पर अदालतो में जिरह हुये हम यूं ही सार्वजनिक किये बैठे हैं. इसके चलते मेरी पत्नी को भी इंटरनेशनल बायोग्राफिक इंस्टीट्यूट, मिशिगन से “वूमन आफ द ईयर” अवार्ड के आफर महज १०० डालर में, लेदर कवर हार्ड बाउंड बुक में फोटो सहित परिचय प्रकाशन के साथ घर बैठे आ चुके हैं, किताब की एक प्रति के साथ में मेटल इम्बोस्ड मेडल भी पंजीकृत डाक से मिलना था. पर चूंकि मैं तो अपनी पत्नी को पहले ही “वुमन आफ सेंचुरी” के सम्मान से सम्मानित कर चुका था अतः उसने विनम्रता पूर्वक यह अंतर्राष्ट्रीय सम्मान ठुकरा दिया. भले ही हम इस तरह के पुरस्कारो के लिये स्वयं को सर्वथा अयोग्य पाते रहे हैं, पर मेरे शहर के अनेक स्वनाम धन्य रचनाकारो के ऐसे पुरस्कारो से सम्मानित होने के फोटो सहित बाक्स न्यूज अखबार के सिटी पेज पर पढ़कर उन्हें बधाई देने के अवसर हमें जब तब मिलते रहते हैं. ये अवार्ड उनके बायोडाटा को और लम्बा कर देते हैं, साथ ही अगले अवार्ड के लिये पृष्ठभूमि भी बना देते हैं.

मुझे ज्ञात हुआ है कि सूरज को उसकी निरंतरता, ओजस्विता, ताप, प्रकाश और इन दिनो नान कंवेशनल इनर्जी में सोलर लाइट्स के क्षेत्र में प्रयुक्त होने पर मोमबत्ती सेल्स एशोसियेशन बरेली का फर्स्ट जुगनू अवार्ड घोषित किया गया है.

जिस तरह इन दिनो  अमेरिका में राष्ट्रपति ट्रंप साहब पर व्यंग्य हो रहे हैं, हमारे व्यंग्यकारो ने भी उन पर व्यंग्य उपन्यास लिखने की पहल की है,  मैं सोच रहा हूं मित्रो से चर्चा करूंगा कि व्यंग्यकार एसोशियेशन की ओर से सम्माननीय राष्ट्रपति ट्रंप साहब के नाम पहला अंतर्राष्ट्रीय लालू व्यंग्य पर्सनेलिटी अवार्ड घोषित करवा ही दूं  . इससे देश के वैश्विक सांस्कृतिक संबंध सुढ़ृड़ करने में व्यंग्य की  भूमिका का भी निर्वहन हो सकेगा. यदि यह पुरस्कार देने के लिये अमेरिका के स्थानीय एड्रेस की जरूरत होगी तो मेरे पुत्र के न्यूयार्क  दफ्तर का पता दिया जा सकता है.  मित्रो के कई बच्चे इन दिनो अमेरिका में हैं, उनका प्रतिनिधि मण्डल व्हाईट हाउस पहुंचकर ससम्मान राष्ट्रपति जी को इस व्यंग्य सम्मान से अवार्डित कर सकेगा. मैं तो यहां से बैठे बैठे ही अपने पहले ट्वीट से ही उन्हें बधाई दे दूंगा. ये और बात है कि हमारे इस अवार्ड की वहां का विपक्ष और अखबार कितनी चर्चा करेंगे यह हम नही जानते.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – शहर में टहलने का आनन्द – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

शहर में टहलने का आनन्द

(प्रस्तुत है  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी का  एक बेहतरीन व्यंग्य। )

उस दिन डॉक्टर को दिखाने गया तो उन्होंने बड़ी देर तक ठोक-बजा कर देखा,फिर बोले, ‘आपने अपने इस लाड़ले शरीर को बैठे बैठे खूब खिलाया पिलाया है। अब कुछ टहलना-घूमना, हाथ-पाँव चलाना शुरू कर दीजिए, वरना किसी दिन बिना नोटिस दिये यमराज आपका जीव समेटने के लिए आ जाएंगे।’

मेरा फिलहाल दुनिया छोड़ने का मन नहीं था। अभी धंधा उठान पर चल रहा था।घर धन-धान्य से भर रहा था।पत्नी-संतानें प्रसन्न थीं।ऐसे में दुनिया छोड़ना घाटे का सौदा होगा।दुनिया तभी छोड़ना चाहिए जब धंधा मंदी की तरफ चलने लगे और पत्नी-संतानें सदैव मुँह फुलाये रहें।

डॉक्टर की बात से घबराकर मैंने सबेरे टहलने के लिए अपनी कमर कस ली।दूसरे दिन सबेरे उठकर दीर्घकाल बाद सूर्य भगवान के दर्शन किये, फिर यह देखने लगा कि मुहल्ले का कौन सरफिरा सबेरे सबेरे घूमने निकलता है ताकि एक से भले दो हो जाएं।जल्दी ही मुझे सामने बैरागी जी दिख गये। बैरागी जी की खूबी यह है कि वे चलते-फिरते अपने आप से ही बात करते रहते हैं।बात की रौ में उनका सिर, चेहरा और हाथ जुंबिश करते रहते हैं।मैंने सोचा इनके साथ घूमने जाऊंगा  तो ये कुछ देर के लिए अपने आप से बात करने से बच जाएंगे।बैरागी जी भी मेरे प्रस्ताव पर खासे खुश हुए।

लेकिन दो दिन में ही मुझे पता चल गया कि बैरागी जी की बेचैनी का राज़ क्या था।दरअसल वे सारे वक्त शेयरों के गुणा-भाग में लगे रहते थे।मुझे वे दो दिन तक बिना साँस लिए समझाते रहे कि कौन सा शेयर उठ रहा है, कौन सा गिर रहा है और किन शेयरों में पैसा लगाने से चाँदी ही चाँदी हो सकती है।उन्होंने यह भी बताया कि बीच में जब शेयरों के दाम ज़्यादा गिर गये थे तब सदमे के मारे उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ा था।

शेयरों की मुसलसल मार से दो दिन में ही मेरा दिमाग सुन्न हो गया और तीसरे दिन मैंने बैरागी जी को मरे-मरे स्वर में बता दिया कि तबियत ढीली होने के कारण मैं टहलने की स्थिति में नहीं हूँ।बैरागी जी तीन दिन तक बड़ी उम्मीद से मेरे दरवाज़े पर दस्तक देते रहे ताकि शेयरों के बारे में मेरा कुछ और ज्ञानवर्धन कर सकें।फिर मायूस होकर उन्होंने आना बन्द कर दिया और शायद अपने आप से गुफ्तगू करना फिर शुरू कर दिया।

बैरागी जी के न आने का इत्मीनान करने के बाद मैं अकेला ही टहलने निकल पड़ा।ज़ाहिर है मैंने उन सड़कों का चुनाव किया जिन पर बैरागी जी से टकराने का अन्देशा नहीं था।

मैं लंबे कदम रखता, झपटता चल रहा था कि तभी मेरे बगल से तीन चार नौजवान टी शर्ट और हाफ-पैंट पहने ‘जागिंग’ करते हुए निकले।मुझे अच्छा लगा।मन में आया कि मैं भी थोड़ी दौड़ लगा लूँ, कि तभी जाने कहाँ से प्रकट होकर कुत्तों का एक पूरा कुनबा उन नौजवानों के पीछे पड़ गया।उन्होंने नौजवानों को पछियाना तभी बन्द किया जब उन्होंने दौड़ना बन्द कर दिया।मेरी समझ में आ गया कि शहर की सड़कों पर दौड़ना अक्लमंदी की बात नहीं है।

मेरे आगे एक सज्जन एक लंबे-चौड़े कुत्ते की ज़ंजीर थामे घिसटते हुए से चल रहे थे।अचानक कुत्ता बीच सड़क पर रुककर बड़ी शंका का निवारण करने लगा और उसके स्वामी मुँह उठाकर इत्मीनान से बादलों की खूबसूरती निहारने लगे।मुझे उनकी इस ग़ैरज़िम्मेदारी पर ख़ासा ग़ुस्सा आया।मन हुआ उन्हें दो चार बातें सुनाकर नागरिक के रूप में उनकी ज़िम्मेदारी का अहसास कराऊँ,लेकिन कुत्ते की कद-काठी और उसकी ख़ूँख़्वार शक्ल देखने के बाद मैंने अपना इरादा मुल्तवी कर दिया।

आगे बढ़ा तो कई घरों की चारदीवारी के किनारे लगे फूलदार वृक्षों से फूल तोड़ते कई लोग दिखे।इनमें पुरुष स्त्री, बाल वृद्ध सभी थे।मकान-मालिक भीतर सो रहे थे और ये संभ्रांत लोग अवसर का लाभ उठाकर निःसंकोच फूलों पर हाथ साफ कर रहे थे।ऐसे ही एक पुष्पप्रेमी ने मुझे बताया था कि चोरी के फूलों से पूजा करने पर पूजा ज़्यादा फलदायक होती है।

थोड़ा आगे बढ़ने पर सड़क के किनारे किनारे शहर का सुपरिचित नाला चलने लगा।यह नाला शहर की जीवन-रेखा है।यह शहर के वजूद में उसी तरह पैवस्त है जैसे आदमी के शरीर में रक्तवाहिनी नलिकाएं होती हैं।शहर में जहाँ भी जाइए, इसकी बहार दिखायी देती है।शहर की गन्दगी का वाहक यह नाला कई घरों के ऐन दरवाज़े से बहता है।इन घरों में लगातार इसकी सुगंध बसी रहती है और सदैव इसके जल का दर्शन-लाभ होता रहता है।

आगे सड़क एक पुल पर चढ़ जाती है, जिस पर घूमने वालों की गहमागहमी रहती है।घूमने के अलावा यहां और उद्देश्यों से भी लोग आते हैं।एक सज्जन नियमित रूप से पुल के फुटपाथ पर शीर्षासन करते हैं जिससे घूमनेवालों का बिना टिकट मनोरंजन होता है। कुछ लोग पी.टी.करने की शैली में फुटपाथ पर उछलते कूदते दिखते हैं।यहाँ बूढ़ों के कई गोल नियमित रूप से जमते हैं और देर तक जमे रहते हैं।मुझे यह भ्रम था कि ये बूढ़े परलोक और पाप-पुण्य की बातें करते होंगे, लेकिन यह मेरा मुग़ालता ही निकला।जब उनकी बातों पर कान दिया तो पता चला कि उन्हें परलोक के अलावा अनेक ग़म हैं।एक गोल में पेंशन पर मिलने वाले कम मंहगाई भत्ते का रोना रोया जा रहा था तो दूसरे में मियादी जमाओं पर घट गये ब्याज का स्यापा हो रहा था।एक और गोल एक ऐसी लड़की की चर्चा में मगन था जो पड़ोस के लड़के के साथ पलायन कर गयी थी।

इन दृश्यों से बचने के लिए मैंने दूसरे दिन पास के पार्क में घूमने की सोची, लेकिन वहां प्रवेश करने पर मेरा साक्षात्कार आदमियों के बजाय आराम फरमा रहे सुअरों और कुत्तों से हुआ, जिन्होंने मुझे नाराज़ नज़रों से देखा।वहाँ पालिथिन की इस्तेमाल की हुई थैलियाँ और बासा,सड़ता हुआ खाना सब तरफ बिखरा था और कुत्ते और सुअर दावत का मज़ा ले रहे थे।पता चला कि नगर का विकास प्राधिकरण उस पार्क को शादी-ब्याह के लिए किराये पर उठा देता था और फिर कई दिन तक यही दृश्य उपस्थित होता था।वहाँ की सफाई की ज़िम्मेदारी कुत्तों, सुअरों और कचरा बीनने वालों पर छोड़ दी गयी थी।

अगली सुबह फिर मैं पूरे उत्साह में ऐसी सड़क के अन्वेषण के लिए निकल पड़ा जहाँ कुत्ते आदमी को न पछयाते हों,सुअरों के दर्शन न होते हों और कुत्ता-स्वामी अपने ख़ूँख्वार कुत्तों को सड़क के बीच में फ़ारिग़ न कराते हों।

© डॉ कुन्दन सिंह परिहार

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – कोहरे की लफड़ेबाजी – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

जय प्रकाश पाण्डेय

कोहरे की लफड़ेबाजी 

(प्रस्तुत है श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी  का यह विचारणीय व्यंग्य)

गांव की सर्द कोहरे वाली सुबह में बाबू फूंक फूंक कर चाय पी रहा था और उधर गांव भर में हल्ला मच गया कि कोहरे के चक्कर में गंगू की बहू बदल गई। शादी के बाद बिदा हुई और चार रात बाद अब जाके शर्माते हुए गंगू ने ये बात अपने बाबू को बतायी। बाबू सुनके दंग रह गए बाबू को याद आया कोहरे के चक्कर में सब गाड़ियां बीस – बाईस घंटे लेट चल रहीं थीं कई रद्द हो गई थीं स्टेशन पर धकापेल भीड़ और आठ – दस बरातों के बराती…….
भड़भड़ा के गाड़ी आ गई थी तो जनरल बोगी में रेलमपेल भीड़ के रेले में घूंघट काढ़े तीन चार बहूएं भीड़ में फंस गई और गाड़ी चल दी, दौड़ कर गंगू बहू को पकड़ कर शौचालय के पास बैठा दिया और खुद बाबू के पास बैठ गया। चार स्टेशन के बाद गंगू की बारात उतर गई। क्या करे कोई यात्रियों और बारातियों की बेहिसाब भीड़…………
बाबू के काटो तो खून नहीं……. अपने आप को समझाया  । खैर, अब क्या किया जा सकता है भगवान तो जोड़ी बनाकर भेजता है। अग्नि को साक्षी मानकर फेरे हुए थे….. 14 वचन हुए थे, पर बदमाश कोहरा तुमने ये क्या कर दिया…. अब क्या हो सकता है चार रात भी गुजर गईं…. हार कर बाबू घूंघट और कोहरे की कलाबाजी को कोसता रहा। गांव वालों ने कहा बेचारा गंगू भोला भाला है शादी के पहले गंगू को लड़की दिखाई नहीं गई नाऊ और पंडित ने देखी रही अच्छा घर देखके जल्दबाजी में शादी हो गई, गंगू की गलती नहीं है गंगू की हंसी नहीं उड़ाई जानी चाहिए। गंगू निर्दोष है।
थोड़ा सा कुहरा छटा तो सबने सलाह दी कि शहर के थाने में सारी बातें बता देनी उचित रहेगी सो बाबू गंगू को लेकर शहर तरफ चल दिए। थाने पहुंच कर सब हालचाल बताए तो पुलिस वाले ने गंगू को बहू चोरी के जुर्म में बंद कर दिया। बाबू ने ईमानदारी से बहुत सफाई दी कि कोहरे के कारण और सब ट्रेनों के लेट होने से ऐसा धोखा अनजाने में हुआ। उस समय कोहरा और ठंड इतनी अधिक थी कि हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था। पुलिस वाला एक न माना कई धाराएं लगा दीं। बाबू बड़बड़ाया ईमानदारी का जमाना नहीं रह गया जे कोहरे ने अच्छी दिक्कत दे दी और नया लफड़ेबाजी में फंस गए ऊपर से कई लाख के सोना चांदी पहने असली बहू भी न जाने कहाँ चली गई।
कोहरे के कुहासे में एक सिपाही बाबू को एक किनारे ले जाकर जेब के सब पैसे छुड़ा लिये। बाबू को फिर से पूछताछ के लिए इस बार थानेदार ने अपने चेम्बर में बुलाया।
इस तरफ अंगीठी में आग तापते कई सिपाही बतखाव लगाए थे कोहरा और ठंड के साथ सरकार को गलिया रहे थे। कोहरे की मार से सैकड़ों ट्रेनों के लेट होने की चर्चा चल रही थी रेल वाले सुपर फास्ट का पैसा लेकर रेलगाड़ी पैदल जैसी चला रहे हैं हजारों बेरोजगार लड़के-लड़कियां इन्टरव्यू देने से चूक रहे थे शादी विवाह के मुहूर्त निकल रहे थे कोहरे से हजारों एक्सीडेंट से बहुत लोग मर रहे थे और थाने में ज्यादा केस आने से काम बढ़ रहा था…. बाबू चुपचाप खड़ा सुन रहा था और गंगू अंगीठी की आग देखकर रजाई की याद कर रहा था।   बाबू से नहीं रहा गया तो दहाड़ मार के रोने लगा…… एक सिपाही ने उठकर बाबू को दो डण्डे लगाए और चिल्ला कर बोला – कोहरे की मार से सूरज तक नहीं बच पा रहा है और तुम कोहरा का बहाना करके अपराध से बचना चाहते हो। अपराधी और निर्दोष का अभी सवाल नहीं है……. फंसता वही है जो मौके पर हाथ आ जाए और सीधी सी बात है कि ठंड में बड़े साहब को खुश करना जरूरी है। हमें तुम्हारी परेशानी से मतलब नहीं है हमें तो साहब की खुशी से मतलब है। बाबू कुकरते हुए चुपचाप बैठ गया।
शाम हो चुकी थी कोहरा और गहरा गया था, थानेदार मूंछों में ताव देकर खुश हो रहा था थानेदार ने सिपाही को आदेश दिया – भले रात को कितना कुहरा फैल जाए पर बहू को बयान देने के लिए बंगले में उपस्थित कराया जाय………..
कोहरा सिर्फ कोहरा नहीं होता, कोहरा जब किल्लत बन जाता है तो बहुत कुछ हो जाता है। बाबू कोहरे को लगातार कोसे जा रहा है और बड़बड़ाते हुए कह रहा है ये साला कोहरा तो हमारे लिए थानेदार बन गया। और थानेदार कोहरे और ठंड में रजाई के सपने देख रहा था बहू को बंगले में कोहरा और ठंड के साथ बुलवाने का बहाना कर रहा है। गरीबी का भगवान भी साथ नहीं देता ऊपर वाला दुखियों की नहीं सुनता………..

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – अब हम सब रिजर्व – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

अब हम सब रिजर्व

(प्रस्तुत है श्री विवेक  रंजन  श्रीवास्तव जी  का  एक सामयिक , सटीक एवं सार्थक व्यंग्य।)

रिजर्वेशन से अपना पहला परिचय तब हुआ था जब हम बहुत छोटे थे और ट्रेन की टिकिट पुट्ठे की, सच्ची की टिकिट की तरह की छोटी सी टिकिट ही होती थी.  मेरे जैसे सहेजू बच्चे सफर के बाद उसका संग्रह किया करते थे. यात्रा की तारीख उस टिकिट पर पंच करके बिना स्याही के केवल इंप्रेशन से अंकित की जाती थी.  पहले टिकिट विंडो से खरीदी गई  फिर काले कोट वाले टी सी साहब को वह दिखाकर पापा ने बर्थ रिजर्व करवाई थी. और हम लोग बड़े ठाठ से आरक्षित डब्बे में अपनी आरक्षित सीट पर सफर के लिये बैठे थे. वैसे जब मेरी बड़ी भांजी छोटी  सी थी तो, उसे हर बच्चे की तरह नानी मामा के पास बहुत अच्छा लगता था, जब भी वह कोई शैतानी करती तो मेरी माँ  उसे डराने के लिये मुझसे कहती कि इसका रिजर्वेशन करवाओ, वापसी का स्वगत अर्थ समझ कर वह नन्ही परी सी बच्ची तुरंत हमारा कहना मान जाती थी.
अब इसका यह  अर्थ कतई न लगाया जावे कि कहना मनवाने के लिये रिजर्वेशन का प्रयोग देश के प्रबुद्ध मतदाताओ के साथ भी किया जा सकता है. गाड़ी में पैट्रोल रिजर्व में आ जाता है तो लाल बत्ती का इंडीकेटर ब्लिंक होने लगता है, या बहुत अधिक रिजर्व व्यक्तित्व के लोग आत्मकेंद्रित होते हैं, इस दृष्टि से भले ही रिजर्व का भावार्थ सकारात्मक न हो पर  रिजर्व सीट पर बैठने के ठाठ ही अलग हैं. मूवी जाने से पहले आनलाइन सीट रिजर्व करके कार्नर सीट पर पत्नी के साथ बैठ कर भुट्टे की लाई को पाप कार्न के रूप में मंहगें दामो पर खरीद कर खाने से फिल्म का आनंद बढ़ जाता है. जिसके प्रभाव से अगले दिन फिल्म के विषय में मित्रो के साथ बात करते हुये एक गंभीर क्रिटिक नजरिया अपने आप पैदा हो जाता है. डिनर के लिये रेस्ट्रां जाने से पहले यदि टेबिल बुक कर ली जाती है तो ए सी डायनिंग हाल में पहुंचने पर जिस अदा से सफेद वर्दी में सजा हुआ, कलगी वाला वेटर आपको इज्जत से बैठाता है, सर्विस चार्ज अपने आप वसूल हो जाता है. सीट रिजर्व होने की ही महिमा होती है कि हवाई जहाज में सुंदर परिचारिकायें मुस्करा कर दरवाजा छेंककर आपका ऐसा स्वागत करती हैं, जो शादी के बाद जूता चुराई के समय हसीन साली मण्डली द्वारा मनुहार भरे स्वागत की याद दिला देता है.
अपार्टमेंट के पार्किंग लाउंज में यदि आपके फ्लैट का नम्बर आपकी कार के लिये लिखा हो या आफिस की पार्किंग में डेजिगनेशन से पार्किंग स्पेस आरक्षित हो तो कभी भी आओ कार पार्क करने का ठाठ ही निराला होता है. कहने का अर्थ है कि रिजर्वेशन  मनोबल बढ़ाता  है, बड़प्पन का अहसास करवाता है, भीड़ से अलग कुछ विशिष्ट बनाता है.अतः जो लोग समानता के नाम पर रिजर्वेशन के खिलाफ हैं, मैं उनके खिलाफ खड़े लोगो का पुरजोर समर्थन करता हूं.  रिजर्वेशन के मजे हर भारतवासी तक पहुंचे यह चुनी हुई सरकार की नैतिक जिम्मेवारी होनी ही चाहिये.
मेरे जैसे जितने टैक्स पेयर अपनी मेहनत से कमाये गये रुपयो के बल पर अपने लिये इस तरह के रिजर्वेशन के ये ठाठ खरीद सकते हैं , वे तो स्वतः धन्य हैं. उन्हें फिर से धन्यवाद. जो बेचारे जन्मना पिछड़ी जाति में, या संविधान की अनुसूची में दर्ज जातियो में पैदा हो गये हैं, उन्हें भी
धन्यवाद कि उन्हें रिजर्वेशन के ठाठ दिलवाने के लिये कम से कम आज की सरकार को कुछ नही करना पड़ रहा. पर मैं हृदय से आभारी हूं पक्ष विपक्ष के नेताओ का जिनके समर्थन से राज्य सभा, लोकसभा, चुनाव सभा हर जगह दस प्रतिशत ही सही पर हर पिछड़े हुये भारतवासी को जिसे और किसी जुगाड़ से रिजर्वेशन का स्वाद नही मिल पा रहा था, उन्हें भी यह सर्वाधिक आर्कषक फल चखने को मिलने की जुगत बन सकी है. अब जो विघ्न संतोषी यह तर्क कर रहे हैं कि भाई दस ही क्यो ?  ग्यारह , बारह या बीस क्यो नही ? उनसे मेरा प्रतिसवाल है कि दशमलव पद्धति है, दस के दम से शुरुवात हुई है, भविष्य में  चुनावो के लिये मांगें करने तोड़ फोड़ करने के स्कोप भी तो बाकी रहने
चाहिये.
इसलिये बिना सवाल किये खुश होने का समय है, आज हम सब आरक्षित हैं. रिजर्वेशन के मजे लूटिये हर भारत वासी के माथे पर गर्व के वे भाव आ जाने चाहिये जो रिजर्व सीट पर बैठते हुये आते हैं , जब वेटर आपके लिये कुर्सी खींचकर आपको उस पर पदासीन करता है.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – मेरे घर विश्व हिन्दी सम्मेलन  – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

मेरे घर विश्व हिन्दी सम्मेलन 

(विश्व हिन्दी दिवस 2018 पर विशेष)

(श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी का e-abhivyakti में स्वागत है। प्रस्तुत है श्री विवेक जी का विश्व हिन्दी सम्मेलन जैसे आयोजनों  पर एक सार्थक व्यंग्य।)

इन दिनो मेरा घर ग्लोबल विलेज की इकाई है. बड़े बेटी दामाद दुबई से आये हुये हैं , छोटी बेटी लंदन से और बेटा न्यूयार्क से. मेरे पिताजी अपने आजादी से पहले और बाद के अनुभवो के तथा अपनी लिखी २७ किताबो के साथ हैं . मेरी सुगढ़ पत्नी जिसने हिन्दी माध्यम की सरस्वती शाला के पक्ष में  मेरे तमाम तर्को को दरकिनार कर बच्चो की शिक्षा कांवेंट स्कूलों से करवाई  है, बच्चो की सफलता पर गर्वित रहती है. पत्नी का उसके पिता और मेरे श्वसुर जी के महाकाव्य की स्मृतियो को नमन करते हुये अपने हिन्दी अतीत और अंग्रेजी के बूते दुनियां में सफल अपने बच्चो के वर्तमान पर घमण्ड अस्वाभाविक नही है.  मैं अपने बब्बा जी के स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सेदारी की गौरव गाथायें लिये उसके सम्मुख हर भारतीय पति की तरह नतमस्तक रहता हूँ. हमारे लिये गर्व का विषय यह है कि तमाम अंग्रेजी दां होने के बाद भी मेरी बेटियो की हिन्दी में साहित्यिक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं  और उल्लेखनीय है कि भले ही मुझे अपनी  दस बारह पुस्तकें प्रकाशित करवाने हेतु  भागमभाग, और कुछ के लिये  प्रकाशन व्यय तक देना पड़ा रहा हो पर बेटियो की पुस्तके बाकायदा रायल्टी के अनुबंध पत्र के साथ प्रकाशक ने स्वयं ही छापी हैं. ये और बात है कि अब तक कभी रायल्टी के चैक के हमें दर्शन लाभ नही हो पाये हैं. तो इस भावभूमि के संग जब हम सब मारीशस में विश्व हिन्दी सम्मेलन के पूर्व घर पर इकट्ठे हुये तो स्वाभाविक था कि  हिन्दी साहित्य प्रेमी हमारे परिवार का विश्व हिन्दी सम्मेलन घर पर ही मारीशस के सम्मेलन के उद्घाटन से पहले ही शुरु हो गया.

मेरे घर पर आयोजित इस विश्व हिन्दी सम्मेलन का पहला ही  महत्वपूर्ण सत्र खाने की मेज पर इस गरमागरम बहस पर परिचर्चा का रहा कि चार पीढ़ीयो से साहित्य सेवा करने वाले हमारे परिवार में से किसी को भी मारीशस का बुलावा क्यो नही मिला? पत्नी ने सत्र की अध्यक्षता करते हुये स्पष्ट कनक्लूजन प्रस्तुत किया कि मुझमें जुगाड़ की प्रवृत्ति न होने के चलते ही ऐसा होता है. मैने अपना सतर्क तर्क दिया कि बुलावा आता भी तो हम जाते ही नही हम लोगो को तो यहाँ मिलना था और फिर विगत दसवें सम्मेलन में मैने व पिताजी दोनो ने ही भोपाल में प्रतिनिधित्व किया तो था! तो छूटते ही पत्नी को मेरी बातो में अंगूर खट्टे होने का आभास हो चुका था उसने बमबारी की,  भोपाल के उस प्रतिनिधित्व से क्या मिला? बात में वजन था, मैं भी आत्म मंथन करने पर विवश हो गया कि सचमुच भोपाल में मेरी भागीदारी या मारीशस में न होने से न तो मुझे कोई अंतर पड़ा और न ही हिन्दी को. फिर मुझे भोपाल सम्मेलन की अपनी उपलब्धि याद आई वह सेल्फी जो मैने दसवें भोपाल विश्व हिन्दी सम्मेलन के गेट पर ली थी और जो कई दिनो तक मेरे फेसबुक पेज की प्रोफाईल पिक्चर बनी रही थी.

घर के वैश्विक हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर पत्नी ने  प्रदर्शनी का सफल आयोजन किया था.  दामाद जी के सम्मुख उसने उसके पिताजी के महान कालजयी पुरस्कृत महाकाव्य देवयानी की सुरक्षित प्रति दिखला, मेरे बेटे ने उसके ग्रेट ग्रैंड पा यानी मेरे बब्बा जी की हस्तलिखित डायरी, आजादी के तराने वाली पाकेट बुक साइज की पीले पड़ रहे अखबारी पन्नो पर मुद्रित पतली पतली पुस्तिकायें जिन पर मूल्य आधा पैसा अंकित है ,  ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में उन्हें पालीथिन के भीतर संरक्षित स्वरूप में दिखाया. उन्हें देखकर पिताजी की स्मृतियां ताजा हो आईं और हम बड़ी देर तक हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत की बातें करते रहे. यह सत्र भाषाई सौहाद्र तथा  विशेष प्रदर्शन का सत्र रहा.

अगले कुछ सत्र मौज मस्ती और डिनर के रहे. सारे डेलीगेट्स सामूहिक रूप से आयोजन स्थल अर्थात घर के  आस पास भ्रमण पर निकल गये. कुछ शापिंग वगैरह भी हुई. डिनर के लिये शहर के बड़े होटलो में हम टेबिल बुक करके सुस्वादु भोजन का एनजाय करते रहे. मारीशस वाले सम्मेलन की तुलना में खाने के मीनू में तो शायद ही कमी रही हो पर हाँ पीने वाले मीनू में जरूर हम कमजोर रह गये होंगे. वैसे हम वहाँ  जाते भी तो भी हमारा हाल यथावत ही होता . हम लोगो ने हिन्दी के लिये बड़ी चिंता व्यक्त की. पिताजी ने उनके भगवत गीता के हिन्दी काव्य अनुवाद में हिन्दी अर्थ के साथ ही अंग्रेजी अर्थ भी जोड़कर पुनर्प्रकाशन का प्रस्ताव रखा जिससे अंग्रेजी माध्यम वाले बच्चे भी गीता समझ सकें. प्रस्ताव सर्व सम्मति से पास हो गया. मैंने विशेष रूप से अपने बेटे से आग्रह किया कि वह भी परिवार की रचनात्मक परिपाटी को आगे बढ़ाने के लिये हिन्दी में न सही अंग्रेजी में ही साहित्यिक न सही उसकी रुचि के वैज्ञानिक विृयो पर ही कोई किताब लिखे. जिस पर मुझे उसकी ओर से  विचार करने का आश्वासन मिला . बच्चो ने मुझे व अपने बब्बा जी को कविता की जगह गद्य लिखने की सलाह दी. बच्चो के अनुसार कविता सेलेबल नही होती. इस तरह गहन वैचारिक विमर्शो से ओतप्रोत घर का विश्व हिन्दी सम्मेलन परिपूर्ण हुआ. हम सब न केवल हिन्दी को अपने दिलो में संजोये अपने अपने कार्यो के लिये अपनी अपनी जगह वापस हो लिये वरन हिन्दी के मातृभाषी  सास्कृतिक मूल्यों ने पुनः हम सब को दुनियां भर में बिखरे होने के बाद भी भावनात्मक रूप से कुछ और करीब कर दिया.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

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